Sunday, December 6, 2020

दयालबाग़ सतसंग 06/12

 **राधास्वामी!! 06-12-2020 -आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-                                    

(1) हेरी तुम कैसी हो री। जग बिच भूलनहारी।।टेक।। जनम जनम का भूला मनुआँ। भोगन में यहँ आन बधाँ री।।-(राधास्वामी सतगुरु दीनदयाला। सब जीवों की आस पुरा री।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-3-पृ.सं.46)                                

 (2) भाई तूने बढका जुल्म गुजारा। मोह बस गुरु को बिसारा।।टेक।। गुरु सँग प्रीति करी जिन गहरी सहज हुए भव पारा। सुत तिरिया और सास ससुर मोह किसको पार उतारा।।-(भूल भरम तेरी छिन में खोकर बख्शें चरन सहारि। राधास्वामी सम कोइ मीत न दीखे मैं उनके बलिहारा।।) (प्रेमबिलास-शब्द-103-पृ.सं.150)                                                             

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।                          

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

-आज शाम सत्संग में पढ़ा गया वचन- कल से आगे: -                                               

(77)

हाँ, यह प्रसंग चल रहा था कि संसार में दो प्रकार के मनुष्य है। एक सच्चे कुलमालिक में आस्तिक भाव रखने वाले , दूसरे उसमें नास्तिक भाव रखने वाले , और यह कि आस्तिकभाव रखने वाले सामान्यतया नास्तिक भाव रखने वालों से श्रेष्ठ होते हैं ।

 पर राधास्वामी- मत की शिक्षा के अनुसार केवल सच्चे कुलमालिक के अस्तित्व में विश्वास रखना पर्याप्त नहीं है । बल्कि यह आवश्यक है कि आपका विश्वास ऐसा दृढ और प्रबल हो कि आपके हृदय में उस कुल मालिक से एकता प्राप्त करने की बारंबार और तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हो। इस विचार से मालिक के अस्तित्व में विश्वास रखने वालों की भी दो श्रेणिया है ।

एक ऐसे, जिनके हृदय में मालिक से एकता प्राप्त करने की बारंबार और तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हो, दूसरे वे जिनकी यह दशा न हो । पर राधास्वामी-मत सिखलाता है कि यह दशा भी पर्याप्त नहीं है। यदि मालिक से एकता के लिए उत्कंठा उठती रही और उसके पूरा करने के लिए कोई यत्न न बना तो यह अवस्था किस काम की? इसलिए प्रमार्थियों की और दो श्रेणियां हो गई ।

एक वे, जो मालिक से एकता प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा से प्रभावित होकर समुचित यत्न और खोज करते हैं, दूसरे वे, जो ऐसा नहीं करते । यत्न और खोज करने वालों की भी फिर दो श्रेणियां हैं,  एक वे ,जो उपयुक्त और पूर्ण जतन करते हैं और दूसरे वे, जो अयुक्त या अपूर्ण यत्न करते हैं।  इस श्रेणी के प्रमार्थियों की भी दो श्रेणियां हैं।

एक वे, जो उपयुक्त यत्न करके अभीष्ट स्थान पर पहुँचे गये, दूसरे वे, जो अभी प्रारंभिक या माध्यमिक स्थानों में है।  अभीष्ट स्थान पर पहुँचे हुए सबसे श्रेष्ठ पुरुष हैं। और दूसरी श्रेणी के लोग उत्तम अधिकारी हैं, किंतु पहली श्रेणी वालों से उतर कर है। और, जैसा कि भागवद्गीता के सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में कहा गया है, ' हजारों मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि या परम गति के लिए कोशिश करता है ,और परम गति के लिए कोशिश करने वालों में से कोई बिरला तत्वदर्शी होता है ," अर्थात अभीष्ट स्थान पर पहुँचने के अभिलाषियों की संख्या भी परिमित ही रहती है। 

राधास्वामी मत में ऐसे आप्त या पहुंचे हुए पुरुषों  को ही सन्त सद्गुरु माना जाता है । और पहुंचें हुए पुरुष से उतरकर दर्जा उन व्यक्तियों को दिया जाता है जो परम गति की प्राप्ति के लिए उपयुक्त यत्न कर रहे हैं। और बतलाया जाता है कि उपयुक्त यत्न यही है कि किसी पहुँचे हुए पुरुष अर्थात संत सद्गुरु की चरण शरण ग्रहण करके उनकी अध्यक्षता में वे सब अंतरी और बाहरी साधन किये जायँ जिनसे परम गति की प्राप्ति सँभव है। और ये साधन सुमिरन, ध्यान, भजन ,सेवा और सत्संग है।                                                                    

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा-

परम गुरु हुजूर साहब जी महाराज!**

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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