Friday, February 28, 2020

संत मुनियों का ज्ञान का कोई आर पार नहीं




 प्रस्तुति - दिनेश कुमार सिन्हा


कृष्ण मेहता: (मोरनी)

"जो    स म य    प र    हो,   व ही    शु भ  है।
 देरी जरा भी नहीं है ।
    प्रभु के द्वार पर देरी कहॉं ।
     लेकिन, प्रतीक्षा आवश्यक है——तुम्हारे ही
हित में प्रतीक्षा आवश्यक है ।
     आनंद भी अनायास झेला नहीं जा सकता है ।
     और,   शक्ति   का  अनायास  अवतरण  भी
सम्हाला  नहीं  जा सकता  है।
     इ स लि ए,   स म य     चा हि ए  ।
     प्रत्येक घटना के लिए समय चाहिए ।
     बीज    टूटने    में   समय  लगता  है ।
     अंकुर   फूटने   में   समय  लगता  है ।
     वृक्ष    बनने     में   समय  लगता  है ।
     और, फलों के आने में समय लगता है ।
     फिर, फलों के पकने में भी समय लगता है।
     और,  जो समय पर हो,  वही शुभ है।"
सब जगह निगाह डालें तो एक चीज खास दिखाई देती है वह है असहिष्णुता।सहन करने की शक्ति का पूर्ण अभाव।लोग झेलेंगे तो भी अस्वीकार भाव से चोट की तरह झेलेंगे।
सवाल है वे जो चाहते हैं सुख,आनंद,शक्ति-क्या वे उसे सहिष्णु होकर झेल सकते हैं?
एक बात तो तय है कि यह बाहर से तो मिलने वाला नहीं है।मिलेगा जब भी तो भीतर से मिलेगा।
गीतासंदेश है-जिसने अपने को जीता वह अपना मित्र,जिसने न जीता वह अपना शत्रु।कभी शरीर कष्ट देता है,कभी मन,कभी विचार, कभी वृत्तियां।इनसे हमारा एकीकरण है।इसलिए इस एकीकृत रुप में ही स्वयं को जीतने की समस्या उत्पन्न होती है।
हजारों उपाय हैं समाधान के।संसार इतनी समस्या नहीं देता जितने समाधान ईश्वर से प्राप्त होते हैं।उनमें से कोई एक उपाय अपना लें।
उपाय वस्तुतः अपने आपको समर्थ बनाना है,योग्य बनाना है।बिना योग्यता समाधान कैसा?
और पायेंगे जैसे जैसे योग्यता बढी भीतर शक्ति का संचार भी होने लगता है।अभी दो दिन पहले एक समारोह में देखा कुछ बडे लोग उन्हें एक साथ कई लोग घेरे चल रहे थे।उन तक पहुंचना मुश्किल था।मेरी दृष्टि उन पर गयी तो वे सब असहज,उत्तेजित मिले।उनका चित्त,हृदय छोडकर मनबुद्धि में पहुंच गया था,सिर में बैठ गया था।
चित्त की सही जगह हृदय है वहीं वह शांत,स्थिर तथा विश्राम की अवस्था को प्राप्त हो सकता है।
ऐसा अगर कोई 'बडा आदमी' होगा तो दस लोगों से घिरा न रहेगा अपितु सहज भाव से सबसे घुलमिलकर मिलेगा।उसकी शक्ति व्यापक हो जायेगी।अलग रहने में इतनी शक्ति नहीं है जितनी सबके बीच में रहने में है पर उसे पचाने की शक्ति चाहिए।उस समय शक्ति का प्रमाण बहुत बढ जाता है।सबके बीच में सहिष्णुता से टिके रहना मुश्किल है।
बाहर से शक्ति पद-प्रतिष्ठा से आती है और व्यक्ति को असहज करती है।ऐसा व्यक्ति सबके बीच सहजता से रह सके तो बडी बात है पर इसकी संभावना कम है।
हां,कोई साधक हो।अपनी शांति, अकेलेपन और एकांत में साधना करता हो तो धीमे धीमे उसमें शक्ति प्रकट होने लगती है।उस शक्ति को पचाने के लिये भी समय चाहिए, सहनशीलता चाहिए।अनायास झेला नहीं जा सकता।जब पूर्ण स्वस्थता आ जाती है तब वह हजारों लोगों के बीच भी उनके साथ रह सकता है घुलमिलकर।उसे कोई संदेश देने के लिए किसी ऊंचे स्थान पर चढना पडे तो अलग बात है पर हृदय से वह सबके साथ है।वह तथ्य को जानता है।जैसे एक विशाल वृक्ष घास को देखेगा, उस समय उसमें विवेक हुआ तो वह गर्व न करेगा क्योंकि उसे पता है कि उसीकी ही नहीं, सभीकी जडें जमीन में फैली हुई हैं।धरती सबका आश्रय स्थल है।वह जडों को अपने में न जमने दे तो बडा से बडा पेड भी पलों में धराशायी हो सकता है।
आत्मचिंतन में यह अनुसंधान इस दृष्टि से बडा महत्वपूर्ण है कि "मैं कहां से हूं"?
सभी लोग मैं के स्रोत का पता लगायेंगे तो सबको सभी के मैं की जडें आत्मा में मिलेंगी जो सबका स्रोत है।
'अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।'
यह स्थिति बडी सुखद है।चित्त, हृदय में-अपने मूल में समाहित होकर विश्राम दशा को उपलब्ध हो जाता है।
चित्त की स्थिति बडी महत्वपूर्ण है।चित्त कहां है-मन में या हृदय में इससे बडा फर्क पडता है।
हृदय अकेला स्रोत है पर मन के बहुत संगी साथी हैं-मस्तिष्क, आंख,कान,जीभ,नाक।पूरा संसार इकट्ठा हो जाता है।ऐसे में फिर अहंबुद्धि होती है।इसके रहते शांति से कौन बैठ सकता है?शांति तो तभी है जब हृदय को,मूल स्रोत को जाने उससे जुडे।
हृदय का महत्व बताने के लिए एक ध्यानविधि है यह कि हमारा दैहिक अस्तित्व केवल गर्दन तक ही सीमित है।गर्दन के ऊपर का हिस्सा जिसमें चेहरा,दिमाग,आंख,कान,नाक,जीभ आदि हैं वे हैं ही नहीं।संबंध समाप्त।अब शरीर में घूमती चेतना ऊपर की ओर जायेगी तो गर्दन पर आकर रुक जायेगी क्योंकि गर्दन के ऊपर का भाग अस्तित्वहीन है।है ही नही।
उस समय हम यही ध्यान कर रहे हैं तब चेतना अपने आप लौटकर हृदय में ठहर जायेगी जो उसका केंद्र है।जब तक ऊपरी हिस्सा मान्य है तब तक चेतना वहीं बनी रहती है परिधि पर,केंद्र से दूर।वह वापस केंद्र में लौटे तो लौटे कैसे?इसके लिए यह विधि है।
जब चेतना, हृदय में लौट आती है।चित्त,आत्मा में स्थिर होता है तब आत्मा की शक्ति उत्पन्न होने लगती है।इस प्रक्रिया में समय बहुत लगता है मगर परिणाम सुनिश्चित है।
आत्मा की शक्ति ही आत्मविश्वास बन जाती है।
विश्वास के बहुत फायदे हैं।केवल विश्वास पर ही कोई आदमी काम करे तो वह बहुत सारे लाभों से लाभान्वित हो सकता है।
यहाँ उन लोगों की बात नही है जो हमेशा संदेहों से घिरे रहते हैं।यही नहीं वे संदेहों का समर्थन भी करते हैं,उनका पक्ष लेते हैं।ये सब विनाशकारी है।
संशयात्मा विनश्यति।
यहाँ उसकी बात है जो विश्वास पर काम करता है बजाय संदेह को अपना समर्थन देने के।बुद्धिमानी से काम ले तो इसके परिणाम आ सकते हैं फिर भी बुद्धि तो बुद्धि है और बुद्धि तथा आत्मा के विश्वास में फर्क है।आत्मा का विश्वास अस्तित्वगत है,बुद्धि का विश्वास बुद्धिगत।यदि कोई अपने संपूर्ण अस्तित्वबोध के साथ कर्मक्षेत्र में उतर जाय तो उसकी ऊर्जा को कौन चुनौती दे सकता है?इसी आशय से तो गीता कथन है-कर्मण्येवाधिकारस्ते......
फल का निषेध तो इसलिए है ताकि अहंबुद्धि बीच में आकर आत्मविश्वास से वंचित न करे।वह अलग खडी कर्ता की तरह होती है जबकि आत्मविश्वास तो स्वयं कार्य पर जुट जाता है।अलग खडा रहे तो आत्मविश्वास कैसा?
यह विश्वास भी अपने आप नहीं आता,अपने आपको दांव पर लगाना पडता है।
अहंबुद्धि अपने को दांव पर नहीं लगा सकती।वहां कोई खंडित कर्ताभाव होता है जिसे सुख चाहिए, दुख नहीं चाहिए; सम्मान चाहिए, असम्मान नहीं चाहिए।
लेकिन जो अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा देता है वह किस द्वंद्व की परवाह करता है?वह निर्द्वंद हो जाता है।यही कर्मयोग का स्वरूप है।
अहंबुद्धि को भी ऐसी ऊर्जा चाहिए जो निर्द्वंद मनुष्य को प्राप्त होती है।यह असंभव है क्योंकि अहंबुद्धि द्वंद्व में रहती है।उससे द्वंद्व छूटता नहीं।द्वंद्व में रहकर निर्द्वंद्व की शक्ति पाना उसके लिए संभव नही।
फिर तो उसे ही निर्द्वंद्व होना पडे।और निर्द्वंद्व होते ही अहंबुद्धि चली जाती है।प्रज्ञाशक्ति प्रकट हो जाती है जिसका केंद्र हृदय है।
"To be as the Self in the heart is supreme wisdom"
हृदय स्थित पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति उसकी तरह है जिसकी चेतना गर्दन तक आकर रुक जाती है,ऊपर की ओर बढती नहीं क्योंकि ऊपर चेहरा,दिमाग,आंख,कान,
जीभ,नाक आदि खंडित करनेवाले हिस्से हैं ही नहीं।
चेतना हृदयकेंद्र से शेष देह में व्याप्त होती है तब ऊपरी चेहरा आदि हिस्सा हो भी तो वह हृदय के अधीन हो जाता है।सत्ता हृदय की होती है,मनबुद्धि, आंखकान की नहीं।जब तक इनकी सत्ता मानकर इनके अधीन रहा जाता है तब तक भटकन है।तब द्वंद्व है,संघर्ष है शक्ति पाने के लिए जिसमें चेतना बाहर की ओर बनी रहती है।बहिर्मुखी आदमी चाहे कितना ही प्रशिक्षण प्राप्त करले फिर भी उसकी शक्ति की तुलना उसकी शक्ति से नहीं की जा सकती जो अंतर्मुखी है बल्कि जो हृदयस्थ है।वह जंगल के राजा सिंह जैसा है जो अपने आपमें अपनी सारी शक्तियों को समाये हुए है बिना किसी अस्तव्यस्तता के।ऐसा नहीं कि दस लोगों ने आदर से घेर लिया तो असहज,उत्तेजित हो गये।
इस असहज,अस्तव्यस्त करनेवाले सुख के लिए आदमी शक्ति की कामना करता है।न मिले तो दीनहीन हो जाता है।यह स्थिति सोचने योग्य है पर आदमी खुद जिम्मेदार है इसके लिये, और कोई नही।

[19/02, 04:59] Morni कृष्ण मेहता:


2 संत महात्माओं का ज्ञान अतुलनीय है



ऋषियों के ज्ञान के सामने  हम आप संसारी  लोगों का ज्ञान  वैसे ही हैं,  जैसे सूर्य के सामने जुगनू (खद्योत)।

ऋषियों का ज्ञान अव्याहत है, अखण्डनीय है  , अतर्क्य है, अगाध है ।

लेकिन ईश्वर  के सामने ऋषियों की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है, कि  वे भी एकदेशीय ही होकर रह जाते हैं ।

क्योंकि  ईश्वर की सर्वज्ञता  निरतिशय होती है  । वे ऋषियों के भी गुरु हैं ।

ऋषियों की महत्ता तो दूर की बात है, जो मनीषि महात्मा होते हैं , उन महान् मनीषियों के ही तुलना में  हम और आप कहीं नहीं ठहरते ,

अब  देखिये, ऐसे ही एक महान् मनीषि हुए श्री   गंगेशोपाध्याय जी,   बंगाल के नव्य न्याय के सूत्रधार महान् पंडित ,  आपने सुना होगा नाम ।   कुछ लोग उनको  मिथिला के भी बताते हैं ,

 वे जब छोटे थे तो  काली माता की कृपा उन पर हो गयी थी , वैसे इस पर कईं किंवदन्तियॉ हैं, मैंने  जो गुरुपरम्परा से सुनी है  उसमें  कहा जाता है कि   वे पहले बिल्कुल ही  मन्दबुद्धि थे,  उनके मामा के गुरुकुल के पास के श्मशान घाट में रात के बारह बजे जाने की शर्त लगाई थी  बच्चों ने आपस में , तो गंगेश जी  चले गये , कुछ लम्बी कथा है , सार ये है कि वहीं रात  से उनको उनके कुल की देवी की कृपा हो गयी ,

बाद में जब वे गुरुकुल में आये तो रात में श्मशान चल देने की मूर्खता पर उनके गुरु (मामा) ने कहा  यह तो गो जातीय पशु है !  इससे कुछ भी कह कर क्या लाभ होगा ?

तो इस पर गंगेश जी ने उत्तर दिया -

किं गवि गोत्वम् किं गवि गोत्वम्  । यदि गवि गोत्वं मयि नहि तत्त्वम् ।।
अगवि च गोत्वं यदि भवदिष्टं  भवति भवत्यपि सम्प्रति गोत्वम् ।।

याने कि  आपने मुझ में गोत्व (गोजाति) के होने की बात कही, तो ये बताइये कि क्या गाय /बैल में  वह  गोत्व  है या नहीं ? यदि गाय में गोत्व है , तो गाय से मुझमें नहीं है , यदि मुझ में है तो वो गाय में नहीं है । और यदि आपको ऐसा मान्य  है कि   जो गाय नहीं है , उसी में गोत्व है , तो ऐसी स्थिति में तो फिर मेरे सहित आप में भी वह गोत्व है !!

कहते हैं ऐसा विलक्षण उत्तर सुनकर पहली बार उनके गुरु को आभास हुआ कि न्याय शास्त्र के इतिहास का युगपुरुष जन्म  ले चुका है ।

ये  तो थे गंगेशोपाध्याय , किन्तु  जो अक्षपाद गौतम थे , न्याय शास्त्र के प्रवक्ता आद्य ऋषि , उनकी तो बात ही और है,   उनका तो एक ही सूत्र भी गागर में सागर को समा देता है ।

न्याय शास्त्र का जो आदिम सूत्र है : प्रमाणप्रमेयसंशय......निःश्रेयसाधिगमः।

 क्या कोई  सामान्य मानव एक ही सूत्र में सारी सृष्टि के अखिल न्यायदर्शन को समाहित कर सकता है ?  अकल्पनीय ! अद्भुत सामर्थ्य !

इसलिये ऋषियों की , मनीषियों की  बातों को बिना कुतर्क के जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिये । जिनके चरणों की धूल के भी लायक हम ना हों, उनके कहे उपदेशों / स्मृतियों  के  उपर धूलिप्रक्षेप करने के स्थान पर उनके चरणों की धूल  बनने का प्रयास करना चाहिये । तभी  हमारे  जीवन  को सही दिशा मिल सकती है  ।

।। जय श्री राम ।।

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