Friday, February 28, 2020

पांच बोध कथाएं






प्रस्तुति - दिनेश कुमार सिन्हा


 Morni कृष्ण मेहता: 🌸🌸🌸

1
एक चोर भागा कबीर बाबा के घर में घुसा, बोला, मै चोर हूँ, छिपने की जगह दे दो,

कबीर जी ने कहा, गोदडियों में छिप जाओ,

चोर छिप गया सिपाही आए और बोले,

कबीर कबीर, तूने चोर को देखा ? कबीर जी ने कहा- हाँ, गोदडियों के ढेर में छिपा है,

चोर के प्राण सूख रहे थे के आज किस कबीर बाबा के चक्कर में पड गया।

सिपाही ने सोचा, मजाक कर रहा है।

ऐसा कैसे हो सकता है कि इसके सामने कोई गोदडियों के ढेर में छिप जाए,

 वे चले गए।

चोर निकल आया और बोला, बाबा जी, आज तो मरवा ही डालते आप,

 कबीर बाबा ने कहा- अरे, क्या मैं झूठ बोलता ?

क्या सत्य में इतनी ताकत नहीं, जो तुम्हें बचा सके ?

सत्य क्या मिट गया है ?

झूठ में ताकत नहीं सत्य में ताकत है।

 मुझे विश्वास था, मेरा सत्य तेरी रक्षा करेगा,

 गुरु, संत  जो कहें उसे मान लो किन्तु परंतु मत करो,,,

2


साधना क्या है...???
〰〰〰〰〰〰

पत्थर पर यदि बहुत पानी एकदम से डाल दिया जाए तो पत्थर केवल भीगेगा।

फिर पानी बह जाएगा और पत्थर सूख जाएगा।

किन्तु वह पानी यदि बूंद-बूंद पत्थर पर एक ही जगह पर गिरता रहेगा, तो पत्थर में छेद होगा और कुछ दिनों बाद पत्थर टूट भी जाएगा।

इसी प्रकार निश्चित स्थान पर नाम स्मरण की साधना की जाएगी तो उसका परिणाम अधिक होता है ।

चक्की में दो पाटे होते हैं।

उनमें यदि एक स्थिर रहकर, दूसरा घूमता रहे तोअनाज पिस जाता है और आटा बाहर आ जाता है।

यदि दोनों पाटे एक साथ घूमते रहेंगे तो अनाज नहीं पिसेगा और परिश्रम व्यर्थ होगा।

इसी प्रकार मनुष्य में भी दो पाटे हैं -

एक मन और दूसरा शरीर।

उसमें मन स्थिर पाटा है और शरीर घूमने वाला पाटा है।

अपने मन को भगवान के प्रति स्थिर किया जाए और शरीर से गृहस्थी के कार्य किए जाएं।

प्रारब्ध रूपी खूँटा शरीर रूपी पाटे में बैठकर उसे घूमाता है और घूमाता रहेगा,

लेकिन मन रूपी पाटे को सिर्फ भगवान के प्रति स्थिर रखना है।

देह को तो प्रारब्ध पर छोड़ दिया जाए औरमन को नाम-सुमिरन में विलीन कर दिया जाए -

यही नाम साधना है।
जय श्री महाकाल

3


[15/02, 05:27] Morni कृष्ण मेहता: *



 *जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।*

ज्ञान और भक्ति का जाति या लिंग से कोई भी संबंध नही है।

भक्ति और ज्ञान जात-पात, कुल-गोत्र, पुरुष या स्त्री  देख कर नही आते,

यदि जाति के आधार पर ज्ञान या भक्ति मिलती तो बाल्मीकी रामायण नही लिख पाते,

कर्माबाई की खिचड़ी खाने द्वारकाधीश दौड़े दौड़े नही आते,

मीरा बाई सा-शरीर श्रीकृष्ण के विग्रह में ना समा जाती,

लंकापति रावण बैजनाथ ज्योर्तिलिंग की स्थापना नही कर पाता,

विश्वामित्र राम-लक्ष्मण को अस्त्र-शस्त्र नही दे पाते,

रविदास की चमड़े की कठौती से गंगा नही निकलती,

शबरी के बेर राम नही खाते,

गोपियों को प्रेम भक्ति का मणिमुकुट ना कहा जाता,

जनाबाई की चक्की पीसने भगवान विट्ठल नही आते,

और दत्त महाप्रभु साधारण मानव से ले कर पशु-पक्षी से ज्ञान नहीं लेते,

गज की पुकार पर नारायण वैकुंठ से दौड़े नही आते।

ऐसे लाखो उदाहरण है जिनमे भगवान बिना जाती देखे अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण किये।
उन्हें मुक्ति दी।

ईश्वर सिर्फ सच्चा प्रेम भाव और समर्पण ही चाहते है आपसे,

जो व्यक्ति अपने गुरु, इष्ट, मातृभूमि, धर्म, परिजनों की सच्चे हृदय से सेवा करता है ईश्वर सदैव उसके साथ ही होते है।।

जात-पात को छोड़िये, सबसे ऊपर भक्ति,प्रेम और ज्ञान,
जो जाती देख संशय करे उसे ना मुक्ति मिले ना मिले भगवान।।

4


*धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य।


धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं। हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है। भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिए। बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिए। इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा। मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा। आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है। उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।*

*राधे राधे 🙏*

[16/02, 08:32] Morni कृष्ण मेहता: ❤ सूक्ष्‍म शरीर का जगत ❤🌹

( भाग--1)

प्रशन--एक मित्र ने पूछा है कि यदि मां के पेट में, पुरूष और स्‍त्री, आत्‍मा के जन्‍मनें के लिए अवसर पैदा करते है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्‍माएं अलग-अलग है और सर्वव्‍यापी आत्‍मा नहीं है? उन्होंने यह भी पूछा है कि मैंने तो बहुत बार कहा है कि एक ही है सत्‍य, एक ही परमात्‍मा है, एक ही आत्‍मा है। फिर ये दोनों बातें तो कंट्राडिक्‍टरी, विरोधी मालूम होती है।

ये दोनों बातें विरोधी नहीं है। आत्‍मा तो वस्‍तुत: एक ही है। लेकिन शरीर दो प्रकार के है। एक शरीर जिसे हम स्‍थूल शरीर कहते है, जो हमें दिखाई देता है। एक शरीर जो सूक्ष्‍म शरीर है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्‍यु होती है, तो स्‍थूल शरीर तो गिर जाता है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर है वह जो सटल बॉडी है, वह नहीं मरती है।

आत्‍मा दो शरीरों के भीतर वास कर रही है। एक सूक्ष्‍म और दूसरा स्‍थूल। मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर गिर जाता है। यह जो मिट्टी पानी से बना हुआ शरीर है यह जो हड्डी मांस मज्‍जा की देह है। यह गिर जाती है। फिर अत्‍यंत सूक्ष्‍म विचारों का, सूक्ष्‍म संवेदनाओं का, सूक्ष्‍म वयब्रेशंस का शरीर शेष रह जाता है, सूक्ष्‍म तंतुओं का।

वह तंतुओं से घिरा हुआ शरीर आत्‍मा के साथ फिर से यात्रा शुरू करता है। और नया जन्‍म फिर नए स्‍थूल शरीर में प्रवेश करता है। तब एक मां के पेट में नई आत्‍मा का प्रवेश होता है, तो उसका अर्थ है सूक्ष्‍म शरीर का प्रवेश।

मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है—सूक्ष्‍म शरीर नहीं। लेकिन परम मृत्‍यु के समय—जिसे हम मोक्ष कहते है—उस परम मृत्‍यु के समय स्‍थूल शरीर के साथ ही सूक्ष्‍म शरीर भी गिर जाता है। फिर आत्‍मा का कोई जन्‍म नहीं होता। फिर वह आत्‍मा विराट में लीन हो जाती है। वह जो विराट में लीनता हे, वह एक ही है। जैसे एक बूंद सागर में गिर जाती है।

तीन बातें समझ लेनी जरूरी है। आत्‍मा का तत्‍व एक है। उस आत्‍मा के तत्‍व के संबंध में आकर दो तरह के शरीर सक्रिय होते है। एक सूक्ष्‍म शरीर, और एक स्‍थूल शरीर। स्‍थूल शरीर से हम परिचित है, सूक्ष्‍म से योगी परिचित होता है। और योग के भी जो ऊपर उठ जाते है, वे उससे परिचित होते है जो आत्‍मा है। सामान्‍य आंखे देख पाती है इस शरीर को। योग-दृष्‍टि, ध्‍यान देख पाता है, सूक्ष्‍म शरीर को। लेकिन ध्‍यानातित, बियॉंड योग, सूक्ष्‍म के भी पार, उसके भी आगे जो शेष रह जाता है, उसका तो समाधि में अनुभव होता है। ध्‍यान से भी जब व्‍यक्‍ति ऊपर उठ जाता है। तो समाधि फलित होती है। और उस समाधि में जो अनुभव होता है, वह परमात्‍मा का अनुभव है। साधारण मनुष्‍य का अनुभव शरीर का अनुभव है, साधारण योगी का अनुभव सूक्ष्‍म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्‍मा का अनुभव है। परमात्‍मा एक है, सूक्ष्‍म शरीर अनंत है, स्‍थूल शरीर अनंत है।

वह जो सूक्ष्‍म शरीर है वह है कॉज़ल बॉडी। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वही नए स्‍थूल शरीर ग्रहण करता है। हम यहां देख रहे है कि बहुत से बल्‍ब जले हुए है। विद्युत तो एक है। विद्युत बहुत नहीं है। वह ऊर्जा, वह शक्‍ति, वह एनर्जी एक है। लेकिन दो अलग बल्लों से वह प्रकट हुई है। बल्‍ब का शरीर अलग-अलग है, उसकी आत्‍मा एक है। हमारे भीतर से जो चेतना झांक रही है, वह चेतना एक है। लेकिन उस चेतना के झांकने में दो उपकरणों का, दो वैहिकल का प्रयोग किया गया है। एक सूक्ष्‍म उपकरण है, सूक्ष्‍म देह: दूसरा उपकरण है, स्‍थूल देह।

हमारा अनुभव स्‍थूल देह तक ही रूक जाता है। यह जो स्‍थूल देह तक रूक गया अनुभव है, यहीं मनुष्‍य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है। लेकिन कुछ लोग सूक्ष्‍म शरीर पर भी रूक सकेत है। जो लोग सूक्ष्‍म शरीर पर रूक जाते है। वे ऐसा कहेंगें की आत्‍माएं अनंत है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर के भी आगे चले जाते है। वे कहेंगे की परमात्‍मा एक है। आत्‍मा एक ब्रह्मा एक है।

मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोधाभाष नहीं है। मैंने जो आत्‍मा के प्रवेश के लिए कहा, उसका अर्थ है वह आत्‍मा जिसका अभी सूक्ष्‍म शरीर गिरा नहीं है। इसलिए हम कहते है कि जो आत्‍मा परम मुक्‍ति को उपलब्‍ध हो जाती है, उसका जन्‍म मरण बंद हो जाता है। आत्‍मा का तो कोई जन्‍म मरण है ही नहीं। वह न तो कभी जन्‍मी है और न कभी मरेगी। वह जो सूक्ष्‍म शरीर है, वह भी समाप्‍त हो जाने पर कोई जन्‍म मरण नहीं रह जाता। क्‍योंकि सूक्ष्‍म शरीर ही कारण बनता है नए जन्‍मों का।

सूक्ष्‍म शरीर का अर्थ है, हमारे विचार, हमारी कामनाए, हमारी वासनाएं, हमारी इच्‍छाएं, हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, इन सबका जो संग्रही भूत जो इंटिग्रेटेड सीड है, इन सबका जो बीज है, वह हमारा सूक्ष्‍म शरीर है। वहीं हमें आगे की यात्रा करता है। लेकिन जिस मनुष्‍य के सारे विचार नष्‍ट हो गए, जिस मनुष्‍य की सारी वासनाएं क्षीण हो गई, जिस मनुष्‍य की सारी इच्‍छाएं विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्‍छा शेष न रही, उस मनुष्‍य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती, जाने का कोई कारण नहीं रह जाता। जन्‍म की कोई वजह नहीं रह जाती।

राम कृष्‍ण के जीवन में एक अद्भुत घटना है। रामकृष्‍ण को जो लोग बहुत निकट से जानते थे, उन सबको यह बात जानकर अत्यंत कठिनाई होती थी कि रामकृष्‍ण जैसा परमहंस, रामकृष्‍ण जैसा समाधिस्‍थ व्‍यक्‍ति भोजन के संबंध में बहुत लोलुप था। रामकृष्‍ण भोजन के लिए बहुत आतुर होते थे, और भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कई बार उठकर चोंके में पहुंच जाते थे। और पूछते शारद को, बहुत देर हो गई। क्‍या बन रहा है आज? ब्रह्म की चर्चा चलती और बीच में ब्रह्म-चर्चा छोड़कर पहु्ंचो जाते चोंके में। और खोजने लगते कि शारदा आज क्‍या बना रहा है? शारद ने भी उन्‍हें कई बार कहा की लोग क्‍या सोचते होंगे? क्‍या कहते होंगे?ब्रह्म की चर्चा छोड़ कर एक दम अन की चर्चा पर उतर आते हो। रामकृष्‍ण हंसते और चुप रह जाते। उनके शिष्‍यों ने भी उन्‍हें अनेक बार कहां। इससे बड़ी बदनामी होती है। लोग कहते है कि ऐसा व्‍यक्‍ति क्‍या ज्ञान को उपलब्‍ध होगा। जिसकी अभी वासना , रसना, जीभ की भी पूरी नहीं हुई है।

एक दिन शारदा ने बहुत कुछ भला-बुरा कहा, रामकृष्‍ण की पत्‍नी ने, तो रामकृष्‍ण ने कहा कि तुझे पागल, पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरूचि प्रकट करूं, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की यात्रा केवल तीन दिन शेष रह गये है। बस तीन दिन से ज्‍यादा फिर मैं जीऊूंगा नहीं। जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ गई है। शारदा कहने लगी, इसका अर्थ?रामकृष्‍ण कहने लगे, मेरी सारी वासनाएं क्षीण हो गई है। मेरी सारी इच्‍छाएं विलीन हो गई है। मेरे सारे विचार नष्‍ट हो गये है। लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूं। मैं एक वासना को जबर्दस्‍ती पकड़े हुए हूं। जैसे किसी नाव की सारी ज़ंजीरें खुल जाएं एक जंजीर से नाव अटकी रह गई है। और वह एक जंजीर और टूट जाए तो नाव आनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी। मैं चेष्‍टा करके रुका हुआ हूं।

नहीं किसी की समझ में शायद उस दिन यह बात आई, लेकिन रामकृष्‍ण की मृत्‍यु के तीन दिन पहले शारदा थाली लगाकर रामकृष्‍ण के कमरे में गई। वे बैठे हुए देख रहे थे। उन्‍होंने थाली देखकर आँख बंद कर ली। लेट गए, और पीठ कर ली शारदा की तरफ। उसे एकदम से ख्‍याल आया कि उन्‍होंने कहां था कि तीन दिन बाद मौत हो जाएगी। जिस दिन भोजन के प्रति अरूचि करूंगा। उसके हाथ से थाली छूट गई। वह छाती पीटकर रोने लगी। राम कृष्‍ण ने कहा रोओ मत, तुम जो कहती थी वह बात भी अब पूरी हो गई।

ठीक तीन दिन बाद रामकृष्‍ण की मृत्‍यु हो गई। एक छोटी सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा का आधार बनी थी। वह वासना भी चली गई जो जीवन यात्रा का सारा आधार समाप्‍त हो गया।

जिन्‍हें हम तीर्थकर कहते है, जिन्‍हें हम बुद्ध कहते है। जिन्‍हें हम ईश्‍वर के पुत्र कहते है। जिन्‍हें हम अवतार कहते है। उनकी भी एक ही वासना शेष रह गई होती है। और उस वासना को वे शेष रखना चाहते है करूणा के हित, सर्वमंगला के हित, सर्व लोक के हित। जिस दिन वह वासना भी क्षण हो जाती है, उसी दिन जीवन की यह यात्रा समाप्‍त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरू हो जाती है। उसके बाद जन्‍म नहीं है, उसके बाद मरण नहीं है। उसके बाद....उसके बाद न एक है, न अनेक है। उसके बाद तो जो शेष रह जाता है, उसे संख्‍या में गिनने का कोई उपाय नहीं है।

इसलिए जो जानते है, वे यह भी नहीं कहते कि ब्रह्म एक है। परमात्‍मा एक है। क्‍योंकि एक कहना व्‍यर्थ है जब कि दो की गिनती न बनती हो। एक कहने का कोई अर्थ नहीं है। जब कि दो और तीन न कहे जा सकते हों। एक कहना तभी तक सार्थक है जब तक कि दो, तीन चार भी सार्थक होते है। संख्‍याओं के बीच ही एक की सार्थकता है। इसलिए जो जानते है, वे यह भी नहीं कहते कि ब्रह्म एक है; वे कहते है, ब्रह्म अद्वय हे, नानडुअल है, दो नहीं है। बहुत अद्भुत बात कहते है। वे कहते है, परमात्‍मा दो नहीं है। दो नहीं है। बहुत अदभुद बात कहते है। वे कहते है कि परमात्‍मा की संख्‍या गिनने का उपाय नहीं है। एक कहकर भी हम संख्‍या में गिनने की कोशिश करते है। वह गलत है।

लेकिन उस तक पहुंचना दूर, अभी तो हम स्‍थूल पर खड़े है, उस शरीर पर जो अनंत है, अनेक है। उस शरीर के भीतर हम प्रवेश करेंगे तो एक और शरीर उपल्‍बध होगा। सूक्ष्म शरीर को भी पार करेंगे तो वह उपलब्‍ध होगा। जो नहीं है, अशरीर है, जो आत्‍मा है।

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