Monday, February 24, 2020

रामायण - अयोध्या कांड



प्रस्तुति - कृष्ण  मेहता

*🚩जय श्री सीताराम जी की 🚩*
*आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम*
🌹🙏🙏🙏🙏🙏🌹
*श्री रामचरित मानस अयोध्या काण्ड*
*श्री राम-भरतादि का संवाद*

दोहा :
*भरत बिनय सादर सुनिअ*
 *करिअ बिचारु बहोरि।*
*करब साधुमत लोकमत*
*नृपनय निगम निचोरि॥258॥*

भावार्थ:-पहले भरत की विनती आदरपूर्वक सुन लीजिए, फिर उस पर विचार कीजिए। तब साधुमत, लोकमत, राजनीति और वेदों का निचोड़ (सार) निकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) कीजिए॥258॥

चौपाई :
*गुर अनुरागु भरत पर देखी।*
*राम हृदयँ आनंदु बिसेषी॥*
*भरतहि धरम धुरंधर जानी।*
*निज सेवक तन मानस बानी॥1॥*

भावार्थ:-भरतजी पर गुरुजी का स्नेह देखकर श्री रामचन्द्रजी के हृदय में विशेष आनंद हुआ। भरतजी को धर्मधुरंधर और तन, मन, वचन से अपना सेवक जानकर-॥1॥

*बोले गुरु आयस अनुकूला।*
 *बचन मंजु मृदु मंगलमूला॥*
*नाथ सपथ पितु चरन दोहाई।*
 *भयउ न भुअन भरत सम भाई॥2॥*

भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी गुरु की आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याण के मूल वचन बोले- हे नाथ! आपकी सौगंध और पिताजी के चरणों की दुहाई है (मैं सत्य कहता हूँ कि) विश्वभर में भरत के समान कोई भाई हुआ ही नहीं॥2॥

*जे गुर पद अंबुज अनुरागी।*
*ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी॥*
*राउर जा पर अस अनुरागू।*
*को कहि सकइ भरत कर भागू॥3॥*

भावार्थ:-जो लोग गुरु के चरणकमलों के अनुरागी हैं, वे लोक में (लौकिक दृष्टि से) भी और वेद में (परमार्थिक दृष्टि से) भी बड़भागी होतें हैं! (फिर) जिस पर आप (गुरु) का ऐसा स्नेह है, उस भरत के भाग्य को कौन कह सकता है?॥3॥

*लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई।*
 *करत बदन पर भरत बड़ाई॥*
*भरतु कहहिं सोइ किएँ भलाई।*
 *अस कहि राम रहे अरगाई॥4॥*

भावार्थ:-छोटा भाई जानकर भरत के मुँह पर उसकी बड़ाई करने में मेरी बुद्धि सकुचाती है। (फिर भी मैं तो यही कहूँगा कि) भरत जो कुछ कहें, वही करने में भलाई है। ऐसा कहकर श्री रामचन्द्रजी चुप हो रहे॥4॥

दोहा :
*तब मुनि बोले भरत सन*
*सब सँकोचु तजि तात।*
*कृपासिंधु प्रिय बंधु सन*
*कहहु हृदय कै बात॥259॥*

भावार्थ:-तब मुनि भरतजी से बोले- हे तात! सब संकोच त्यागकर कृपा के समुद्र अपने प्यारे भाई से अपने हृदय की बात कहो॥259॥

चौपाई :
*सुनि मुनि बचन राम रुख पाई।*
 *गुरु साहिब अनुकूल अघाई॥*
*लखि अपनें सिर सबु छरु भारू।*
 *कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू॥1॥*

भावार्थ:-मुनि के वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी का रुख पाकर गुरु तथा स्वामी को भरपेट अपने अनुकूल जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरतजी कुछ कह नहीं सकते। वे विचार करने लगे॥1॥

*पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े।*
 *नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥*
*कहब मोर मुनिनाथ निबाहा।*
*एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥2॥*

भावार्थ:-शरीर से पुलकित होकर वे सभा में खड़े हो गए। कमल के समान नेत्रों में प्रेमाश्रुओं की बाढ़ आ गई। (वे बोले-) मेरा कहना तो मुनिनाथ ने ही निबाह दिया (जो कुछ मैं कह सकता था वह उन्होंने ही कह दिया)। इससे अधिक मैं क्या कहूँ?॥2॥

*मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ।*
 *अपराधिहु पर कोह न काऊ॥*
*मो पर कृपा सनेहु बिसेषी।*
*खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥3॥*

भावार्थ:-अपने स्वामी का स्वभाव मैं जानता हूँ। वे अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं करते। मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और स्नेह है। मैंने खेल में भी कभी उनकी रीस (अप्रसन्नता) नहीं देखी॥3॥

*सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू।*
 *कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥*
*मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही।*
 *हारेहूँ खेल जितावहिं मोही॥4॥*

भावार्थ:-बचपन में ही मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरे मन को कभी नहीं तोड़ा (मेरे मन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया)। मैंने प्रभु की कृपा की रीति को हृदय में भलीभाँति देखा है (अनुभव किया है)। मेरे हारने पर भी खेल में प्रभु मुझे जिता देते रहे हैं॥4॥
*🚩जय श्री सीताराम जी की 🚩*



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