Thursday, March 26, 2020






: परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

(354)-

6 फरवरी 1930

- हुजूर साहबजी महाराज हाल ही में मेरठ लिट्रेसी कमेटी की मीटिंग में तशरीफ़ ले गए थे। अजीज कृपा नारायण ने सुनाया कि वह हुजूर को बसवारी मोटर कहीं ले जा रहे थे । हुजूर ने फरमाया कि मोटर आहिस्ता करो । अजीज कृपानारायण ने मोस्ट मोटर आहिस्ता कर दी। थोड़ी देर में एक बच्चा एक तरफ से मोटर के आगे आ गया । अजीज मजकूर ने सुनाया कि अगर मोटर अपनी चाल पर होती , तो रुक न सकती थी और जरूर हादसा हो जाता,  लेकिन क्योंकि थोड़ी ही देर पहले मोटर हल्की कर दी गई थी , बच्चे के सामने आते ही फौरन रोक ली गई और इस तरह बच्चा बच गया।  हुजूर ने अजीज से कहा, देखो हमारा कहना मानने से फायदा हुआ या न हुआ । हमेशा हुकुम मानने में फायदा होता है ।                 

कल जिक्र इस तौर पर हुआ कि लोग बकायदा सुबह शाम भजन अभ्यास करते हैं  ।कभी-कभी ऐसा होता है कि मन न लगा , तो मन समझौती देता है कि जब मन लगता ही नहीं, तो भजन से क्या फायदा । लाओ पाठ करें , या  फलाँ काम बतौर सेवा है, उसको कर लें। और यह भजन अभ्यास छोड़कर उस काम में लग जाता है। उस को यह पता नहीं की है तो मन की घात है। चाहिए तो यह था कि तबीयत पर जोर देकर भजन करते । यह पाठ सेवा वगैरह सब मन की धोखेबाजी अभ्यास से हटाने के लिए मन सामने खड़ा कर देता है ,

फिर रफ्ता रफ्ता पाठ वगैरह भी जाता रहता है ।।      आज शाम के सत्संग में जब हुजूर तशरीफ लाए,तौ एक औरत बडे जोर से एक दूसरी औरत से जगह के बारे में लड रही थी । इसी दौरान उसने दूसरी औरत से कहा कि तुम हर रोज  सतसंग के बचन सुनती हो, तुम कुछ भी असर न हुआ। साहबजी महाराज के आने पर भी वह जोर जोर से लड़ती रहीं। आखिर  को हुजूर ने भागभरी से कहा कि जाओ, वहां जाकर दोनों का फैसला करो। कुछ देर बाद इस सिलसिले में बचन  फरमाया - आप लोग जगह के वास्ते लड़ते हैं । हर कोई आगे बैठने की कोशिश करता है । 

इस तरह जबरदस्ती करना यह शोर मचाना क्या है। अगर जगह ही लेनी है तो खुशामद से , दीनता से जगह  लो, यह अहंकारवशऔर क्रोधवश लडना क्या शोभा देता है ? अगर कहीं पर सच्चा सत्संग है ,तो उस कुर्रह हवाई में सांस लेना , बैठना ही लाभदायक है । दूर और नजदीक का ज्यादा ख्याल मत करो । जो आदमी नजदीक बैठकर गुनावन करें या सोवे,वह खाली रहता है । लेकिन जौ दूर बैठ कर चेत कर सतसंग करता है , बचन बानी सुनता है, वह दया और मेहर से निहाल होता है। यह जो  इलाहाबाद वाले साहिबान हमसे लड़ रहे हैं , यह सब के सब महाराज साहब के सत्संग में आगे बैठकर सोया करते थे । नतीजा जो लोग दूर बैठकर चेत कर सतसंग करते थे ।
वह दया मेहर से लाभान्वित हुए। और यह लोग जो ख्याल करते हैं कि आगे बैठकर  दृष्टि पड़ेगी , भला जो कोई अहंकारवश आगे बढ़ता है , उस पर क्या खाक दृष्टि पड़ेगी ।जो दीनता से सत्संग करता है , उसको वह दृष्टि जहां वह बैठा होता है ढूंढ लेती है । 🙏राधास्वामी🙏


[12/09/2018, 14:58] anami sharan: परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-(354)- 6 फरवरी 1930- हुजूर साहबजी महाराज हाल ही में मेरठ लिट्रेसी कमेटी की मीटिंग में तशरीफ़ ले गए थे। अजीज कृपा नारायण ने सुनाया कि वह हुजूर को बसवारी मोटर कहीं ले जा रहे थे । हुजूर ने फरमाया कि मोटर आहिस्ता करो । अजीज कृपानारायण ने मोस्ट मोटर आहिस्ता कर दी। थोड़ी देर में एक बच्चा एक तरफ से मोटर के आगे आ गया । अजीज मजकूर ने सुनाया कि अगर मोटर अपनी चाल पर होती , तो रुक न सकती थी और जरूर हादसा हो जाता,  लेकिन क्योंकि थोड़ी ही देर पहले मोटर हल्की कर दी गई थी , बच्चे के सामने आते ही फौरन रोक ली गई और इस तरह बच्चा बच गया।  हुजूर ने अजीज से कहा, देखो हमारा कहना मानने से फायदा हुआ या न हुआ । हमेशा हुकुम मानने में फायदा होता है ।                  कल जिक्र इस तौर पर हुआ कि लोग बकायदा सुबह शाम भजन अभ्यास करते हैं  ।कभी-कभी ऐसा होता है कि मन न लगा , तो मन समझौती देता है कि जब मन लगता ही नहीं, तो भजन से क्या फायदा । लाओ पाठ करें , या  फलाँ काम बतौर सेवा है, उसको कर लें। और यह भजन अभ्यास छोड़कर उस काम में लग जाता है। उस को यह पता नहीं की है तो मन की घात है। चाहिए तो यह था कि तबीयत पर जोर देकर भजन करते । यह पाठ सेवा वगैरह सब मन की धोखेबाजी अभ्यास से हटाने के लिए मन सामने खड़ा कर देता है , फिर रफ्ता रफ्ता पाठ वगैरह भी जाता रहता है ।।      आज शाम के सत्संग में जब हुजूर तशरीफ लाए,तौ एक औरत बडे जोर से एक दूसरी औरत से जगह के बारे में लड रही थी । इसी दौरान उसने दूसरी औरत से कहा कि तुम हर रोज  सतसंग के बचन सुनती हो, तुम कुछ भी असर न हुआ। साहबजी महाराज के आने पर भी वह जोर जोर से लड़ती रहीं। आखिर  को हुजूर ने भागभरी से कहा कि जाओ, वहां जाकर दोनों का फैसला करो। कुछ देर बाद इस सिलसिले में बचन  फरमाया - आप लोग जगह के वास्ते लड़ते हैं । हर कोई आगे बैठने की कोशिश करता है । इस तरह जबरदस्ती करना यह शोर मचाना क्या है। अगर जगह ही लेनी है तो खुशामद से , दीनता से जगह  लो, यह अहंकारवशऔर क्रोधवश लडना क्या शोभा देता है ? अगर कहीं पर सच्चा सत्संग है ,तो उस कुर्रह हवाई में सांस लेना , बैठना ही लाभदायक है । दूर और नजदीक का ज्यादा ख्याल मत करो । जो आदमी नजदीक बैठकर गुनावन करें या सोवे,वह खाली रहता है । लेकिन जौ दूर बैठ कर चेत कर सतसंग करता है , बचन बानी सुनता है, वह दया और मेहर से निहाल होता है। यह जो  इलाहाबाद वाले साहिबान हमसे लड़ रहे हैं , यह सब के सब महाराज साहब के सत्संग में आगे बैठकर सोया करते थे । नतीजा जो लोग दूर बैठकर चेत कर सतसंग करते थे । वह दया मेहर से लाभान्वित हुए। और यह लोग जो ख्याल करते हैं कि आगे बैठकर  दृष्टि पड़ेगी , भला जो कोई अहंकारवश आगे बढ़ता है , उस पर क्या खाक दृष्टि पड़ेगी ।जो दीनता से सत्संग करता है , उसको वह दृष्टि जहां वह बैठा होता है ढूंढ लेती है । 🙏राधास्वामी🙏
[12/09/2018, 14:59] anami sharan: *सतसंग के उपदेश*
भाग-1
*(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)*
बचन (39)
*वेदान्त की शिक्षा।*

       'वेदान्त' के लफ़्ज़ी मानी 'वेदों का अन्त' है। बाज़ लोग वेदों के अन्त से मुराद वेदों के उत्तर भाग यानी ज्ञान कांड से लेते हैं। वेदों के मानने वाले वैदिक साहित्य (लिटरेचर) को दो भागों में तक़सीम करते हैं। पहले यानी पूर्व भाग का नाम कर्म कांड है और दूसरे का ज्ञान कांड। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन कांडों की अलग अलग पुस्तकें बनी हों, बल्कि यह तक़सीम मोटे तौर पर इस अन्दाज़ से की हुई है कि जिन मन्त्रों व ब्राह्मणों में यज्ञों के मुतअल्लिक़ हिदायात हैं उनको कर्मकांड कहा जाता है और उपनिषदों को ज्ञानकांड कहते हैं। इस लिहाज़ से वेदान्त के मानी उपनिषदों के हुए। चुनाँचे यह लफ़्ज़ श्वेताश्वतर-उपनिषद् और नीज़ दूसरी उपनिषदों में इसी मानी में इस्तेमाल किया गया है और नीज़ वेदान्त में निपुण स्वामी शंकराचार्य ने वेदान्त के यही मानी लिये हैं। बाज़ लोग वेदों के अन्त से मुराद वेदों का नतीजा या निचोड़ भी लेते हैं। हरचन्द उपनिषदों के अन्दर भी वेदों का निचोड़ मुन्दर्ज है लेकिन चूँकि इनमें और भी बातें दर्ज हैं इसलिए इस मानी को मद्दे नज़र रखते हुये वेदान्त के मानी वेदान्त-फ़िलॉसफ़ी के हो गये। इस तफ़रीक़ को वाज़ह करने के लिये उपनिषदों को वेदान्तश्रुति और वेदान्त-फ़िलॉसफ़ी को वेदान्तदर्शन कहते हैं। वेदान्त-फ़िलॉसफ़ी की तीन बड़ी शाख़ें हैं। सबसे बड़ी शाख़ अद्वैतवादियों की है और स्वामी शंकराचार्य इसके अव्वल आचार्य बतलाये जाते हैं। कहते हैं कि फ़ीज़माना 75 फ़ीसदी वेदान्ती इस शाख़ से तअल्लुक़ रखते हैं। दूसरी शाख़ विशिष्टाद्वैतवादियों की है जिसके प्रथम आचार्य स्वामी रामानुज हुए और तीसरी शाख़ द्वैतवादियों की है जिसके बानी श्री मध्वाचार्य हुए।

       स्वामी शंकराचार्य उस ज़माने में पैदा हुए जबकि नास्तिकों व बुद्धमत के पैरवों ने ब्राह्मणों और ऋषियों की तालीम की इज़्ज़त अवाम के दिल से दूर करा दी थी, और हिन्दुस्तान में एक भी ऐसा शख़्स न था जो उपनिषदों की ज़ाहिरा परस्पर विरुद्ध तालीम को भली प्रकार पेश कर सकता। हर कोई देख सकता है कि उपनिषदों में जाबजा आत्मा, परमात्मा, रचना व मोक्ष वग़ैरह के मुतअल्लिक़ एक दूसरे के ख़िलाफ़ बयानात लिखे हैं। मसलन् कहीं पर ब्रह्म के रूप रंग रेखा का मुफ़स्सिल बयान दिया गया है और कहीं पर बतलाया गया है कि वह परमात्मा न लफ़्ज़ों से बयान किया जा सकता है और न मन से जाना जा सकता है। कहीं पर सृष्टि की उत्पत्ति बिल्तफ़सील बयान की गई है और कहीं पर यह दिखलाया है कि संसार कोई चीज़ नहीं है, महज़ भ्रम है, और कहीं पर आत्मा के देवयान और पितृयान रास्तों पर चलने व जन्मने व मरने का बयान मुन्दर्ज है और कहीं पर बयान किया गया है कि केवल एक ब्रह्म या एक आत्मा है और वही सब जगह भरपूर है। मगर स्वामी शंकराचार्य ने इन सब मुश्किलात की मौजूदगी में और उपनिषदों को श्रुति और शब्दप्रमाण तसलीम करते हुए ऐसी अजीब व ग़रीब फ़िलॉसफ़ी ईजाद की कि न सिर्फ़ उपनिषदों की मुतज़ाद बातें सिलसिलेवार मुनासिब जगह ख़ूबसूरती से चस्पाँ हो गईं बल्कि शास्त्रोक्त ख़्यालात का एक ऐसा रौ क़ायम हो गया कि जिसके ज़ोर से बुद्ध मज़हब के मज़बूत क़िले और दूसरे मज़ाहिब की चहारदीवारियाँ यकदम ढह गईं और मुल्क हिन्दुस्तान में ऋषियों की तालीम व वेद शास्त्रों की शिक्षा की अज़सरे नौ ताज़ीम क़ायम हो गई। मौजूदा ज़माने में जब कि बवजूह चन्द दरचन्द वेदान्त की असली तालीम का रिवाज कमज़ोर हो गया और नावाक़िफ़ व ख़ुदग़रज़ पादरियों ने ज़ोर व शोर के साथ शास्त्रों की तालीम की हँसी उड़ाना शुरू किया तो क़ुदरतन् हिन्दुस्तान के लोग मुश्किल में पड़ गये और बहुत से क़ाबिल अशख़ास की तवज्जुह बुज़ुर्गों की असली तालीम की जानिब मुख़ातिब हुई। उधर जर्मनी के चन्द मशहूर विद्वानों की तवज्जुह शास्त्रों की तालीम से वाक़फ़ियत हासिल करने की तरफ़ मुख़ातिब हुई। नतीजा यह हुआ कि वेदान्त की असल फ़िलॉसफ़ी मालूम होने पर शूपनहार, पॉल ड्यूसन और मैक्समूलर से आलिम फ़िलॉसफ़र स्वामी शंकराचार्य के क़दमों पर शुकराने के फूल पेश करने लगे और अब योरुप और अमरीका में आम तौर वेदान्त के ख़्यालात का प्रचार हो रहा है और दीनदार ईसाई ख़ुशी के साथ हज़रत ईसा की तालीम के मानी वेदान्त की शिक्षा की रोशनी में लगाते हैं।
 (क्रमश:)
*राधास्वामी*
[13/09/2018, 17:04] anami sharan: *सतसंग के उपदेश*
भाग-1
*(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)*
बचन (39)
*वेदान्त की शिक्षा।*
(पिछले दिन का शेष)

       स्वामी शंकराचार्य ने उपनिषदों की मुतज़ाद तालीम की गुलझटी को यह दावा क़ायम करके सुलझा दिया कि उपनिषदों में दरअसल दो विद्याओं का ज़िक्र है। एक निर्गुण विद्या, दूसरी सगुण विद्या। निगुर्ण विद्या सिर्फ़ अधिकारी पुरुषों के लिये मख़सूस है और सगुण विद्या साधारण मनुष्यों के लिये मक़सूद है क्योंकि वे निर्गुण विद्या की बारीकियों को ग्रहण करने के नाक़ाबिल हैं।

       स्वामी शंकराचार्य का यह मत था कि केवल ब्रह्म ही सत्य है और संसार मिथ्या है क्योंकि अगर ब्रह्म और संसार दोनों को सत्य माना जावे और संसार को ब्रह्म से कोई अलहदा चीज़ तसलीम किया जावे (अगर अलहदा चीज़ तसलीम न करेंगे तो संसार संसार ही नहीं रहता) तो ब्रह्म की अपारता में दोष आ जाता है, और अगर कोई यह कहे कि ख़ुद ब्रह्म ही ने संसार रूप धारण कर लिया है तो फिर रूप बदलने के दोष की वजह से ब्रह्म पूर्ण एक रस नहीं रहता, इसलिये स्वामी शंकराचार्य फ़रमाते हैं कि संसार और जीव दोनों भ्रम मात्र हैं। उनकी उत्पत्ति ब्रह्म के अन्दर अविद्या या माया का गुण मौजूद रहने से होती है। इस गुण की वजह से ब्रह्म को संसार की मौजूदगी और अपना जीवपन दोनों भासते हैं लेकिन उसके असली जौहर के अन्दर कोई तब्दीली वाक़ै नहीं होती। वह बदस्तूर एक रस बना रहता है। इसीलिये स्वामी शंकराचार्य को अद्वैतवादी व मायावादी कहा जाता है। और चूँकि उनका यह मत है कि ब्रह्म के अन्दर रचना करने की शक्ति दरअसल भ्रम पैदा करने की शक्ति है और जीव व संसार दोनों भ्रममात्र हैं, यानी उनकी असलियत कुछ नहीं है महज़ उनका वजूद भासता है, और ब्रह्म का कोई असली तअल्लुक़ संसार और जीवावस्था से नहीं है, इसलिये उनके मत को विशुद्धाद्वैत भी कहते हैं।

       स्वामी रामानुज का विचार यह है कि अगर इस संसार का ब्रह्म के साथ कोई असली तअल्लुक़ नहीं है और इसका इज़हार बिला ब्रह्म की मदद के हुआ व हो रहा है तो फिर ब्रह्म अपार न रहा। लेकिन वह अपार है, इसलिये मानना होगा कि संसार के साथ ब्रह्म का तअल्लुक़ ज़रूर है। रचना से पेश्तर संसार सूक्ष्म या बीज रूप से ब्रह्म के अन्दर रहता है और रचना होने पर विस्तार रूप हो जाता है। दूसरे लफ़्ज़ों में यह संसार ब्रह्म के रचनात्मक अंग का इज़हार है और ब्रह्म के शुद्ध रूप का इससे कोई तअल्लुक़ नहीं है। वह बदस्तूर शुद्ध एकरस बना रहता है। और भी दूसरे लफ़्ज़ों में, है तो सिर्फ़ एक ब्रह्म ही लेकिन उसके अन्दर रचनात्मक अंग मौजूद है जिसका परिणाम यह संसार है। इसी वजह से स्वामी रामानुज का मत विशिष्टाद्वैत कहलाता है।
*राधास्वामी*
[02/01, 14:02] anami sharan: *29.11.2019 को शाम के सतसंग में*
*परम पूज्य हुज़ूर द्वारा फ़रमाया गया अमृत बचन*
(पिछले दिन का शेष)
         *तो जिस वक्त़ खेत हो रहा है उस वक्त़ आप पास से निकलते हैं, आप देखते हैं तो वह मना नहीं है। पर आप खेत में कुछ काम न करें, सेवा न करें, बराबर ध्यान संत सतगुरु की ओर लगाये रहें तो वह भी नहीं उचित है। जब आप वहाँ जाते हैं तो सेवा का बहुत महत्व है, सेवा करने से परमार्थी लाभ होता है।* भक्तिमार्ग यही सिखाता है,ज्ञानमार्ग से आप में अहंकार पैदा हो जाता है और आप ज़्यादा उन्नति नहीं कर पाते। भक्तिमार्ग में जो संत सतगुरु कहें उसके मानने से, वो सेवा, परिश्रम से करने के लिये जब कहें तो परिश्रम करिये जब मौक़ा होगा तो वो आपको भी संतुष्ट कर देते हैं। *जैसे प्रसाद अपने हाथ से नहीं दिया, ख़ास चीज़ यह है कि मैं आप लोगों की आँखों से आँख मिलाता हूँ उस वक्त़, जिससे आपको जितना लाभ प्राप्त हो सकता है, वह हो जाता है, चाहे मैं प्रसाद हाथ से दूँ या नहीं। उसमें समय ज़्यादा लगता है, इसमें कम लगता है और लाभ उससे कम नहीं होता।* तो यह बातें स्मरणीय हैं और इन्हें आप ध्यान से पालन करेंगे तो आपकी स्वार्थी-परमार्थी सभी तरक़्क़ी होती रहेगी।
राधास्वामी।

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