Saturday, March 21, 2020

धार्मिक प्रसंग और लोक कथाएं





प्रस्तुति कृष्ण मेहता


*लालची आलसी की दुनिया*
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एक गाँव में तोराली नाम की लड़की रहती थी। गोरा रंग, माथे पर लाल बिंदिया व हाथों में चाँदी की चूडियाँ खनकाती तोराली सबको प्रिय थी। बिहुतली रंगमंच पर उसका नृत्य देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते।

एक दिन उसके पिता के पास अनंत आया। वह उसी गाँव में रहता था। उसने तोराली के पिता से कहा, 'मैं आपकी लड़की से विवाह करना चाहता हूँ।'

अनंत के पास धन-दौलत की कमी न थी। तोराली के पिता ने तुरंत हामी भर दी।

सुबाग धान (मंगल धान) कूटा जाने लगा। तोराली, अनंत की पत्नी बन गई। कुछ समय तो सुखपूर्वक बीता किंतु धीरे-धीरे अनंत को व्यवसाय में घाटा होने लगा। देखते ही देखते अनंत के घर में गरीबी छा गई।

तोराली को भी रोजी-रोटी की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ता था। इस बीच उसने पाँच बेटों को जन्म दिया। एक दिन पेड़ के नीचे दबने से अनंत की आँखें जाती रहीं। तोराली को पाँचों बेटों से बहुत उम्मीद थी। वह दिन-रात मेहनत-मजदूरी करती। गाँववालों के धान कूटती ताकि सबका पेट भर सके।

तोराली भगवान से प्रार्थना करती कि उसके बेटे योग्य बनें किंतु पाँचों बेटे बहुत अधिक आलसी थे।

उन्हें केवल अपना पेट भरना आता था। माता-पिता के कष्टों से उनका कोई लेना-देना नहीं था।

तोराली ने मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे एक मेहनती व समझदार पुत्र पैदा हो। परंतु उसने बालक की जगह एक साँप को जन्म दिया। जन्म लेते ही साँप जंगल में चला गया। तोराली अपनी फूटी किस्मत पर रोती रही।
तोराली के पाँचों बेटे उसे ताना देते-
'तुम माँ हो या नागिन, एक साँप को जन्म दिया।'

अनंत के समझाने पर भी लड़कों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया। कोई-कोई दिन ऐसा भी आता जब घर में खाने को कुछ न होता। पाँचों बेटे तो माँग-मूँगकर खा आते। फुकन और तोराली अपने छठे साँप बेटे को याद करके रोते।

एक रात तोराली को सपने में वही साँप दिखाई दिया। उसने कहा, 'माँ, मेरी पूँछ सोने की है। मैं रोज घर आऊँगा। तुम मेरी पूँछ से एक इंच हिस्सा काट लिया करना। सोने को बेचकर घर का खर्च आराम से चलेगा।'

तोराली ने मुँह पर हाथ रखकर कहा, 'ना बेटा, अगर मैं तुम्हारी पूँछ काटूँगी तो तुम्हें पीड़ा होगी।'

“नहीं माँ, मुझे कोई दर्द नहीं होगा।' साँप ने आश्वासन दिया और लौट गया।

वही सपना तोराली को सात रातों तक आता रहा। आठवें दिन सचमुच साँप आ पहुँचा। तोराली ने कमरा भीतर से बंद कर लिया। डरते-डरते उसने चाकू से पूँछ पर वार किया। सचमुच उसके हाथ में सोने का टुकड़ा आ गया। साँप की पूँछ पर कोई घाव भी नहीं हुआ। माँ से दूध भरा कटोरा पीकर साँप लौट गया।

तोराली ने वह सोना बेचा और घर का जरूरी सामान ले आई। शाम को खाने में पीठा व लड्डू देखकर लड़के चौंके। तोराली ने झूठ बोल दिया कि उनके नाना ने पैसा दिया था।

इसी तरह साँप आता रहा और तोराली घर चलाती रही। उसका झूठ ज्यादा दिन चल नहीं सका। बेटों ने जोर डाला तो तोराली को पैसों का राज बताना ही पड़ा। बड़ा लड़का दुत्कारते हुए बोला, 'मूर्ख माँ, यदि हमारे साँप-भाई की पूरी पूँछ सोने की है तो ज्यादा सोना क्‍यों नहीं काटती?'

छोटा बोला, 'हाँ, इस तरह तो हम कभी अमीर नहीं होंगे। रोज थोड़े-थोड़े सोने से तो घरखर्च ही पूरा पड़ता है।'

तोराली और फुकन चुपचाप बेटों की बातें सुनते रहे। बेटों ने माँ पर दबाव डाला कि वह कम-से-कम तीन इंच सोना अवश्य काटे ताकि बचा हुआ सोना उनके काम आ सके।

तोराली के मना करने पर उन्होंने उसकी जमकर पिटाई की। बेचारा अंधा अनंत चिल्लाता ही रहा। रोते-रोते तोराली ने मान लिया कि वह अगली बार ज्यादा सोना काटेगी। अगले दिन साँप बेटे ने दरवाजे पर हमेशा की तरह आवाज लगाई-

दरवाजा खोलो, मैं हूँ आया
तुम्हारे लिए सोना हूँ लाया
क्या तुमने खाना, भरपेट खाया?

सदा की तरह तोराली ने भीतर से ही उत्तर दिया-

मेरा बेटा जग से न्यारा
माँ के दुख, समझने वाला
क्या हुआ गर इसका है रंग काला

साँप भीतर आया, तोराली ने उसे एक कटोरा दूध पिलाया, बेटों की मार से उसका अंग-अंग दुख रहा था। उसने नजर दौड़ाई, पाँचों बेटे दरारों से भीतर झाँक-झाँककर उसे जल्दी करने को कह रहे थे।

तोराली ने चाकू लिया और पूँछ का तीन इंच लंबा टुकड़ा काट दिया। अचानक चाकू लगते ही पूँछ से खून की धार बह निकली। साँप बेटा तड़पने लगा और कुछ ही देर में दम तोड़ दिया। तोराली, बेटे की मौत का गम मनाती रही और बेटों को अपने लालच का फल मिल गया।

हाँ, वह तीन इंच टुकड़ा भी तीन घंटे बाद केंचुल बन गया।



: 💰💵  *धन साथ देगा*
       *"पुण्य है जब तक"*🙏🏻

 👩‍👩‍👧‍👦👩‍👩‍👧‍👧  *परिवार साथ देगा*
         *"स्वार्थ है जब तक"*

     👤   *शरीर साथ देगा*
         *"आयु है जब तक"*

          *लेकिन धर्म साथ देगा*📚📖
         *"भवों-भवों तक"*🌹🙏🏼
✍🌹

           *भरोसा सब पर कीजिए,*
         *लेकिन सावधानी के साथ.!*
     *क्योंकि, कभी-कभी खुद के दांत*
          *भी जीभ को काट लेते है.!!*
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      *🔱🔱*
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*"प्रियाजी की महावर सेवा🙏🏻🌹



          एक दिन प्रियतम श्रीकृष्ण ने श्री ललिताजी से विनम्र होकर कहा, "मेरी एक विनती है कि मैं आज प्रिया जी के चरणों में महावर लगाने की सेवा करना चाहता हूँ। मुझे श्री चरणो मैं महावर लगाने का अवसर दिया जाए।"
          प्रियतम की बात सुनकर ललिता जी बोली, "क्या आप महावर लगा पाऐंगे ?" तो प्रियतम ने कहा, "मुझे अवसर तो देकर देखो, मैं रंगदेवी से भी सुन्दर उत्तम रीति से महावर लगा दूँगा।"
          श्री ललिताजी ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया रंग देवी से कहा कि "आज श्री चरणो में महावर लगाने की सेवा प्रियतम करेंगे।"
          प्रियाजी के स्नान के बाद सुदेवी जी ने कलात्मक ढंग से प्रियाजी की वेणी गूँथ दी। विशाखा जी ने प्रियाजी के कपोलों पर सुन्दर पत्रावली की रचना कर दी। अब प्रिया जी के चरणों में महावर लगाना था। रंगदेवी जी को ललिता जी ने कहा, "आज महावर की सेवा प्रियतम करेगे।"
          प्रियतम पास में ही महावर का पात्र लेकर खड़े थे और विनती करने लगे "आज महावर की सेवा मैं करूँ ऐसी अभिलाषा है।" प्रिया जू ने कहा, "लगा पाएंगे, उस दिन वेणी तो गूँथ नहीं पाये थे आज महावर लगा पाएंगे ?" प्रियतम ने अनुरोध किया, "अवसर तो दे के देखें।"
          प्रिया जू ने नयनों के संकेत से स्वीकृति दे दी और मन ही मन सोचने लगीं की प्रेम भाव में लगा नहीं पाएंगे। स्वीकृति मिलते ही प्रियतम ने प्रियाजी चरण जैसे ही हाथ में लिए, श्री चरणो की अनुपम सुन्दरता कोमलता देखकर श्यामसुन्दर के हृदय में भावनाओं की लहरें आने लगीं।
          प्रियतम सोचने लगे, कितने सुकोमल हैं श्रीचरण, प्यारी जी कैसे भूमि पर चलती होंगी ? कंकड़ की बात तो दूर, भय इस बात का है कि धूल के मृदुल कण भी संभवतः श्री चरणों में चुभ जाते होंगे।
          तब श्याम सुन्दर ने वृंदावन की धूलि कण से प्रार्थना‌ की कि जब प्रिया जी बिहार को निकलें तो अति सुकोमल मखमली धूलि बिछा दिया करो और कठिन कठोर कण को छुपा लिया करो।
          प्रियतम भाव विभोर सोचने लगे कि श्री चरण कितने सुन्दर, सुधर, अरुणाभ, कितने गौर, कितने सुकोमल हैं, मुझे श्री चरणों को स्पर्श का अवसर मिला।
          प्रियतम ने बहुत चाहा पर महावर नहीं लगा पाये, चाहकर भी असफल रहे। ऐसी असफलता पर विश्व की सारी सफलता न्योछावर, अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक शिरोमणि जिनके बस में सब कुछ है। हर कार्य करने में अति निपुण हैं उनकी ऐसी असफलताओं पर बलिहारी जायें।
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                          "जय जय श्री

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*(सूर्य कुण्ड)*



           अर्धरात्रि के नीरव, निस्तब्ध वातावरण में राधा कुंड के तीर पर यह नवीन युवक क्या कर रहा है ? एक भारी गिरिराज शिला वह अपनी गले में बाँध रहा है। आरक्तिम नेत्रों से अश्रु का अजस्र प्रवाह भाव और मुद्रा से स्पष्ट दिख रहा है। वह गिरिराज शिला के साथ राधा कुंड के गहरे जल में कूदकर प्राण विसर्जन करने जा रहा है।
           ऐसा कौन सा दु:ख उसके हृदय में आ बैठा है। जो उसे प्राण विसर्जन करने के लिए विवश कर रहा है ? क्या वह किसी नीच कुल का बालक है, जो समाज से अवहेलित, उत्पीड़ित होने के कारण अपने जीवन से दु:खी हो गया है, क्या उसके निष्ठुर दयाहीन माता पिता ने उसे घर से निकाल दिया है ? क्या उसकी नवविवाहिता परम रूपवती स्त्री ने उसे अकस्मात छोड़ दिया है ? क्या लुटेरों ने उनकी धन-संपत्ति लूटकर उसे भिखारी बना दिया है ? नहीं वह बंगदेश के कुलीन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ माता-पिता का लाड़ला पुत्र है, जो विवाह की रात्रि में ही माता-पिता पत्नी संसार और सभीलोभनीय विषय-संपत्ति को तृणवत् त्याग कर वृंदावन चला आया है। जिन वस्तुओं के अभाव में लोग जीवन निरर्थक समझ कर आत्महत्या की सोचते हैं उन्हीं को निरर्थक जानकर छोड़ आया है।
         बाल्यावस्था में उसने वृंदावन के एक श्याम वर्ण के और मोर मुकुटधारी बालक के विषय में सुना था। वह जैसा रूपवान है, वैसा ही गुणवान है, और शक्तिमान है। रूप, गुण और शक्ति में उसके समान कोई दूसरा नहीं है। वह बड़ा लीलामय कौतुकी और विनोदी है। उसका संग जैसा सुखमय है, वैसा और कुछ भी नहीं है। उसे पाकर फिर और कुछ भी पाने की आकांक्षा शेष नहीं रह जाती। तभी से उसके प्रति अनुराग हो गया। वह सब समय उसके बारे में सोचता, उसके ध्यान में खोया-खोया सा रहता। किसी सांसारिक काम में उसका मन नहीं लगता। 
        माता-पिता को उसे इस प्रकार संसार से विरक्त देखकर चिंता हुई। उन्होंने उसकी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर दिया। विवाह के दिन ही रात्रि में नववधू से प्रथम मिलन की बेला में, वह घर से भागकर वृंदावन चला आया। वृंदावन में लोकालय से दूर वनों में रहकर बंसी वाले की याद में दिन व्यतीत करने लगा। कभी गांव से मधुकरी मांग कर लाता, कभी यमुना  जल पीकर ही रह जाता।
         उसने सुना था बिना गुरु- दीक्षा के भगवान प्राप्त नहीं होती। एक दिन वह  केशीघाट पर  यमुना जी के  किनारे  एक वृक्ष के नीचे गुरू की चिंता में बैठा था। उसी समय  वहाँ स्नान करने के लिए आये एक महात्मा  उसे देखकर कहा-बेटा जा यमुना में स्नान करके आ मैं तुझे दीक्षा मंत्र दूँगा।
        चिंतामणी स्वरूप दिव्य वृंदावन धाम की कृपा देख उसकी प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा। महात्मा से दशाक्षर मंत्र प्राप्त करके वह आविष्ट हो गया, और भूमि पर गिर पड़ा प्रकृतिस्थ होने पर महात्मा अंतर्ध्यान हो गए। वह उनका नाम पता और ठिकाना भी न जान सका। भ्रमण करते-करते मानसी गंगा के निकट सिद्ध कृष्णदास बाबा के पास जा पहुँचा। उसने शरणापन्न होकर बोला मैं मूर्ख भजन के संबंध में कुछ भी नहीं जानता। मुझे भजन की रीति का उपदेश करने की कृपा करें।
       सिद्ध बाबा ने उसके तेज और भक्ति से प्रभावित होकर परिचय पूछा। उसने गृह त्याग से दीक्षा तक सारी घटनाओं का वर्णन किया। तब सिद्ध बाबा ने कहा हमारा भजन रागमार्ग का सम्बन्धनुगा हैं। भजन संबंध गुरु परिवार से ही निर्णय होता है।, तुम्हें अपने गुरु-परिवार का पता नहीं है। इसलिए रागानुगा भजन में तुम्हारा अधिकार नहीं है। दूसरी दीक्षा तुम्हें दी नहीं जा सकती, क्योंकि तुम इसी संप्रदाय में मंत्रार्थ दीक्षा ले रखी है।
        सिद्ध बाबा की बात सुनकर वह वज्राहत की भाँति दारुण रोदन करने लगा। बाबा ने उससे कहा-तुम काम्यवन के सिद्ध जय श्री कृष्ण दास बाबा के पास जाओ वे सर्ववेता हैं। तुम्हारे गुरुदेव का परिचय और संबंध के विषय में बता सकेंगे।
         उसने काम्यवन जा कर सिद्ध बाबा की शरण ली। सिद्ध बाबा बोले तुम एकांत में बैठ कर हरिनाम करो राधा रानी जो करेगी सो होगा। चिंतामणि स्वरूप गुरुदेव ने जैसी तुम्हारी दीक्षा की इच्छा पूर्ण की है। वैसे ही रागानुगा भजन की इच्छा पूर्ण करेंगे।
        सिद्ध जयकृष्णदास बाबा का उपदेश नवयुवक के लिए विस्फोटक सिद्ध हुआ। उसके अनुराग की अग्नि धूं-धूं करके जलने लगी। जीवन निराशामय निरुद्देश्य और निरर्थक प्रतीत होने लगा। ऐसे जीवन को लेकर वह क्या करता ? गिरिराज शिलारूपी गिरधारी को गले में बाँधकर राधा कुंड में कूद पड़ा। राधाकुण्ड के अतल-तल में संज्ञा हीन अवस्था में ना जाने कब तक पड़ा रहा। संज्ञा आने पर उसने देखा कि उसके गले की रस्सी खोल दी है। और हाथ में एकताल पत्र देकर उसी कुंड के तट पर लिटा दिया है। तालपत्र में कुछ लिखा है।
       इसे राधारानी की कृपा जानकर वह दिन निकलते ही दौड़ गया सिद्ध बाबा के पास। उसने सारा वृत्तांत कह सुनाया और तालपत्र दिखाया कृष्णदास बाबा ने तालपत्र दीक्षित जयकृष्ण दास बाबा के पास जाने को कहा। तब काम्यवन में सिद्ध जयकृष्ण दास  बाबा के पास गया। और सारा वृत्तांत सुनाया, यह सुनकर बाबा बोले तुम्हारे ऊपर राधारानी की यथेष्ट कृपा है। पर जो तुम्हें मिला है। वह अभी भी अव्यक्त है। रागानुगा सेवा के लिए स्पष्ट निर्देश की आवश्यकता है। तुम फिर राधाकुंड में जाकर प्रियाजी को पुकारो अवश्य कृपा कृपा करेंगी।
        वह राधाकुण्ड जा कर आर्तभाव से राधारानी को पुकारने लगा। भक्त के आर्तनाद, कान में पहुँचते ही राधा रानी ने प्रकट होकर उपदेश किया। सूर्यकुंड में जाकर भजन करो वही तुम्हें अभीष्ट रागानुगा  सेवा की प्राप्ति होगी। जो मंत्र तुमको मिला है, उसमें किसी को दीक्षित ना करना। आजीवन उसे गोपनीय रखना।
       तब से वह सूर्यकुंड में रहकर भजन करने लगा। लोग उसे मधुसूदन दास बाबा कह कर पुकारने लगे।
      मधुसूदन दास बाबा शेष रात्रि में कुंड के तीर पर बैठकर उच्च स्वर से विशंभर गौरचंद्र ! वृषभानु नंदिनी ! राधे ! नाम का कीर्तन किया करते। प्रातःकाल जब लोगों का बाहर चलना फिरना आरंभ हो जाता कुटी के भीतर जाकर भजन करने लगते। उसकी सिद्धावस्था की बहुत सी कहानियाँ हैं।
      कुछ दिन बाद बाबा की पैर में क्षतरोग हो गया। उनका चलना फिरना दुश्वार हो गया। तब उन्होंने किसी निर्जन स्थान में जाकर देह त्याग करने का संकल्प लिया। बड़े कष्ट से के रात्रि के समय किसी सघन-वन में जा पड़े। बिना अन्न जल ग्रहण किऐ राधारानी को पुकारते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगे। दो दिन बीत गए एक बूँद जल भी पेट में नहीं गया। राधा रानी का नाम लेकर दिन-रात रोते-रोते मृतप्रायः हो गए। तीसरे दिन करुणामयी से रहा न गया। किशोरी ब्रिज बालिका के रूप में रोटी और जल लेकर प्रातः बाबा के पास आकर बोली- अरे ! तू हियां काय कू आय पड़ो है ?  मैं ढूंढते-ढूंढते हैरान है गयी। तू कल रोटी लेवे नाय आयो, परसोंऊं नाय आयो। मैया ने तेरे ताई रोटी भेजी है। खाय लें।
       बालिका को बाबा बहुत दिन से जानते थे। वह जिस घर की थी, उसे भी जानते थे। उन्होंने कहा लाली तू यहां क्यों आई ? तूने कैसे जाना कि मैं यहाँ हूँ ? बालिका बोली- "मोय सब खबर पड़ जाए। अब तू खा ले"। बाबा बोले- "मैं नहीं खाऊँगा, लेजा"।
    "खायगो च्यूं नई में मइयाने कह्यो है सामने जिमायके आईयो। शरीर में सुख दुख तो लग्योई  रहे है। प्राण तजे तें कहा भजन पूरो होय है ? खायले।" बालिका की मधुर वचनों की अवहेलना बाबा ना कर सके। तीन दिन के भूखे प्यासे थे, बालिका का लाया प्रसाद सब खा गये। खाकर बोले - "फिर कभी मत आइयो।"
     किशोरी उसकी तरफ देखते हुए मंद-मंद मुस्कुराते हुए चली गई बाबा अनुभव किया कि  उसके शरीर की ज्वाला यंत्रणा चली गई। पैर की पट्टी खोल कर देखा तो क्षतका कोई निशान नहीं। उन्हें कुछ संदेह हुआ। उठकर धीरे-धीरे उस बालिका के घर गए। ब्रजमाई से पूछा तेरी लाली कहाँ है ? माई बोलीं- "लाली तो ससुराल में है। तीन माह भय गये।"
    बाबाने सारा रहस्य समझ गए। घटना के प्रकाश होने की भय से कुछ ना कहें। और उनकी मुद्रा विलक्षण प्रकार की हो गई। उनके दोनों नेत्रों  से गंगा जमुना बहने लगी। हा राधे !  करुणामयी ! कहकर वे दीर्घ निःश्वास फेंकने लगे।

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                          "जय जय श्री जय जय

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 *"सन्त कृष्णदासजी"*🙏🏻🌹


              यह बात संसार में प्रसिद्ध है कि कृष्णदासजी ने लोगों को प्रेमरस अनुभूति कराई और ठाकुर श्रीनाथ जी ने आपको सच्चा भक्त कहके अपनाया। "आपने 'प्रेमतत्व निरुपण' नामक ग्रन्थ लिखा जिसे श्रीनाथ जी ने स्वयं मान्यता प्रदान की।" उस समय लाड़ले श्रीनाथजी ब्रज में ही गिरिराज शिखर पर विराज रहे थे, वहीं उनकी अष्टायाम सेवा होती थी।
             एक बार कृष्णदास जी किसी कार्य से दिल्ली बाजार में गए वहाँ आपने गर्मा-गर्म जलेबियाँ बिकती देखीं, मन में इच्छा हुई कि इन स्वादिष्ट जलेबियों को अपने श्रीनाथजी को पवाने लिए ले जायें, किन्तु वहाँ दिल्ली से गोवर्धन (ब्रज) तक जलेबी ले जाते-जाते इतना अधिक समय हो जाता की वो जलेबियाँ भोग लगाने लायक न रहतीं, और फिर श्रीनाथ जी की सेवा में बाहर की किसी भी वस्तु का भोग निषेध था। कृष्णदास जी को बड़ा क्षोभ हुआ, वहीं उन जलेबियों को देखते हुए नेत्र सजल हो गए, आपने वहीं उन जलेबियों का मानसी भोग ठाकुर जी को लगा दिया। जब श्रीनाथ जी के मंदिर में जब भोग उसारा गया तो अन्य सामग्रियों के साथ जलेबियों का थाल भी पुजारियों ने देखा, सभी आश्चर्यचकित रह गए, ठाकुर जी ने कृष्णदास जी की मानसी सेवा को भी प्रत्यक्ष में स्वीकार कर लिया।
            जब कृष्णदास जी पुनः लौटकर ब्रज आये और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने उन्हें श्रीजी के भोग में जलेबियों के थाल वाली बात कह सुनाई तो कृष्णदास जी को मन ही मन बहुत प्रसन्नता हुई। किन्तु उन्होंने आचार्यो के समक्ष इन जलेबियों के रहस्य को गुप्त रखना ही उचित समझा व ह्रदय से श्रीनाथजी को धन्यवाद दिया। एक दूसरी घटना इस प्रकार कही जाती है कि-
            एक दिन किसी वेश्या का नृत्य व गायन सुनकर आप उसपर रीझ गए और प्रेम के आवेश में भरकर आपने उस वेश्या से कहा - 'चंदमा के समान मुखवाले मेरे सरकार लालजू को अपना मधुर गाना सुनाने व नृत्य से रिझाने को आप मेरे साथ चलिये। इस कार्य के लिए मैं आपको बहुत सा धन दूँगा। वेश्या ने सोचा ये अवश्य ही कोई रस का मर्मज्ञ है और धन के लोभ में उनके साथ चल दी। आप भी लोक लज्जा को तिलांजलि देकर उस वेश्या को अपने साथ ही रथ में बैठाकर ब्रज में ले आये। जिस किसी ने भी आपको वेश्या के साथ देखा सब देखकर चकित रह गए। आज न जाने कृष्णदास जी को क्या हो गया और कोई तो गोस्वामी विट्ठलनाथजी को ही कोसने लगा कि ऐसे अनाअधिकारी को सेवा का अधिकार देकर विट्ठलनाथ जी ने घोर अनर्थ किया है। इधर कृष्णदास जी ने वेश्या को ब्रज में लाकर उसे यमुना जी के शुद्ध जल से स्नान कराया। श्री ठाकुरजी के ही सुन्दर आभूषण व् वस्त्र उसे पहनने को दिए और सुन्दर इत्र लगाकर उसे श्रीनाथ जी के मंदिर में ले आये।
           श्रीनाथ जी के मनमोहक दर्शन कर वेश्या तो अपनी सुधबुध ही खो बैठी और अलापचारि करके नाचने लगी। उसे इस प्रकार प्रेम में विहल देखकर आपने पूछा- मेरे लाला को तूने देखा ? वेश्या ने उत्तर दिया- "देखा ही नही, मैंने तो उनपर अपना सर्वस्व न्योछावर भी कर दिया।" वेश्या ने सुधबुध खोकर दिल से नाचा, गाया, भगवत प्रेम में सराबोर होकर ताने सुनाईं, मुस्कराई और ठाकुर जी के नैनों की छवि में मानों लिपट कर रह गयी। इस प्रकार भगवान को अपने शुद्ध प्रेम और कला से रिझाकर वह तदाकार हो गयी। उस समय श्रीमंदिर में सैकड़ो लोगों ने यह अद्भुत दृश्य देखा, किस तरह प्रभु श्रीनाथ जी के चरणों से लिपटकर उस वेश्या की जीवनसत्ता नष्ट हो गयी और प्रेम की चरमावस्था में पहुँचकर उस वेश्या का शरीर छूट गया। भगवान ने अपनी इस भक्ता को अंगीकार किया, और शरीर समेत वेश्या श्री चरणों में विलीन हो गयी।
          अहा ! कितनी अद्भुत गति है शायद ही किसी बहुत बड़े भक्त या मंदिर में सेवायत किसी जीव की भी ये गति संभव न हो। "एक तो अंत में ब्रजरज का स्पर्श और फिर गोवर्धन में प्रभु श्रीनाथ जी का श्रीमंदिर और उसमे भी साक्षात् श्रीनाथजी प्रभु के श्रीचरणों में उन्हें ही रिझाते हुए प्राण त्यागने का सुअवसर"। कहाँ वो नित्य पाप में आसक्त रहने वाली वेश्या किन्तु आज एक सच्चे वैष्णव भक्त की कृपा से अनजाने में ही देवदुर्लभ परम गति को प्राप्त किया। "वास्तव में श्रीनाथ जी ने तो उस वेश्या को उसी समय अंगीकार कर लिया था जिस क्षण कृष्णदास जी उस वेश्या को श्रीनाथजी को रिझाने के लिए मना रहे थे।"

                               
  परिचय

          यह वही कृष्णदास जी हैं जिनका उल्लेख गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के चरित्र में होता है। कृष्णदास जी अपने गुरु श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा चलाई गयी भजन की प्रणाली के समुद्र थे। भक्त में जितने भी गुण होना चाहिए उन सबकी खान थे। आपकी कविता अनुपम तथा दोषों रहित होती थीं। आपकी कवित्व वाणी का विद्वानों में आदर था, क्योंकि उनमे सिर्फ गोपाल की लीलाओं का वर्णन होता था। आप ब्रजरज की आराधना करते थे, और सर्वतोभावेन उसे शरीर में लगाते थे। भगवान ने आप पर प्रसन्न होकर अपने नाम का अधिकारी आपको बनाया था, अर्थात कृष्णदास नाम रखा था। आपका जन्म गुजरात के एक गाँव के शुद्र के घर में हुआ था किन्तु आचार्य के कृपापात्र व श्रीजी की अनन्य कृपा होने के कारण मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। आपका लिखा युगलमान चरित्र नामक छोटा सा ग्रन्थ मिलता है। आपने राधा-कृष्ण प्रेम को लेकर बड़े ही सुन्दर पद लिखे। जिस पद को गाकर कृष्णदास जी ने शरीर छोड़ा वह पद इस प्रकार है :-

मो मन गिरिधर छवि पर अटक्यो।
ललित  त्रिभंग चाल पे चलि कै चिबुक चारि गढ़ि अटक्यो।
सजन श्याम घन बरन खोन हे ,फिर चित अनत ना भटक्यो।
कृष्णदास  किये प्राण न्यौछावर ,यह तन जग सर पटक्यो।
मो   मन   गिरिधर   छवि  पर  अटक्यो।।मो मन गिरिधर।।

          मंदिर के अधिकार तथा सुव्यवस्था के कारण वल्लभ संप्रदाय के इतिहास में कृष्णदास जी का महत्त्व और ख्याति इतनी बढ़ गयी कि आज तक श्रीनाथ जी के स्थान पर "कृष्णदास अधिकारी" की मोहर लगती है। श्रीनाथ जी का नवीन मंदिर प्रवेश १५६६ ई. की अक्षय तृतीय को हुआ था। कृष्णदास जी इस घटना के कुछ ही दिन पूर्व वल्लभाचार्य जी की शरण में आये थे। कहते है इस समय उनकी अवस्था मात्र १३ वर्ष थी। इस हिसाब से इनका जन्मकाल १५५२ वि. के आस पास आता है संवत १६३१ तक इनके जीवित रहने का अनुमान लगाया जाता है।
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                          "जय जय श्री राधे"

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*"दो-दो कृष्ण"*🙏🏻🌹

            एकबार निकुंज में श्रीमती राधारानी श्यामसुन्दर से मिलने आईं। राधारानी श्यामसुन्दर से बोलीं- "हे श्याम सुंदर !आप मेरा तो नित्य श्रृंगार करते ही हो। मेरी यह इच्छा है कि आप मेरी आठों सखियों का भी श्रृंगार कीजिये अपने हाथों से। उन्हें भी आपनी सेवा का सुख प्रदान करें।" श्यामसुंदर बोले- "हे प्रियाजी !मैं एक ऐसी लीला कौतूहल करता हूँ जिससे सभी साखियों के श्रृंगार करने का अवसर मुझे प्राप्त होगा।"
           सबसे पहले राधारानी को श्यामसुंदर ने अपना रूप दे दिया, इतना सुंदर श्रृंगार किया उन्होंने राधारानी का कि हूबहू वो कृष्ण लगने लगीं। काली लटें बिल्कुल कृष्ण जैसे माथे पर लटक रहीं थीं। राधारानी के सुवर्ण गौर रंग को चतुराई से कस्तूरी, गैरिक धातु आदि के मिश्रण से अपने जैसा श्याम वर्ण बना दिया। कोई नही पहचान सकता था कि कौन वास्तविक कृष्ण है और कौन कृष्ण-वेश में राधारानी हैं। अब श्यामसुन्दर ने अपना मोर पंख भी राधारानी की पाग में लगा दिया। कृष्ण-वेश में राधारानी वास्तविक कृष्ण लगने लगीं। मोरपंख के साथ उनका श्रृंगार सम्पूर्ण था। श्यामसुंदर ने कृष्ण-वेश राधारानी को कुंज के बाहर बिठा दिया और खुद कुंज में चले गए। इतने में सभी सखियाँ आ गई।
            कुंज में सखियाँ जब आईं तो उन्होंने सबसे पहले कुंज के बाहर कृष्ण-वेश में राधारानी देखा। उन्होंने उन्हें कृष्ण ही समझा और कहने लगीं- "अरे ! आज तो कृष्ण ने कितना सुंदर श्रृंगार किया है। परन्तु सखी राधा कहाँ हैं ? अवश्य वो भीतर कुंज में होंगी।" ऐसा कहकर सभी सखियाँ कुंज में प्रवेश कीं, वहाँ वास्तविक कृष्ण बैठे थे पर सभी सखियों ने ये समझा कि ये राधारानी हैं जिन्होंने कृष्ण जैसा रूप लिया है। सब आश्चर्य चकित हो गईं। ललिता जी भी लीलाधर की लीला से मोहित हो गईं। उन्हें भी विश्वास हो गया ये राधारानी ही हैं, जिन्होंने श्यामसुंदर जैसा रूप धारण किया है।
          ललिता जी ने वास्तविक-कृष्ण को राधारानी समझ पूछा- "हे सखी राधे ! आज आपने कौतूहल में श्यामसुंदर का श्रृंगार कैसे कर लिया ? उन्होंने इस श्रृंगार के लिए तुम्हे कैसे मना लिया ?" वास्तविक-कृष्ण राधारानी की आवाज बनाकर बोले- "हे ललिते ! आज जब मैं निकुंज में आ रही थी तो मेरी प्रसन्नता के लिए श्यामसुंदर ने मुझे अपना स्वरूप दे दिया।" ललिता जी चकित हो देखकर बोलीं- "उन्होंने इतना सुंदर श्रृंगार कैसे किया ? मैं भी तुम्हे पहचान नहीं पा रही हूँ।" तब वास्तविक-कृष्ण राधारानी आवाज में बोले- "ललिते ! तुम दूसरे निकुंज में आओ। वहाँ मैं तुम्हे श्रृंगार करके बताऊँगी की उन्होंने मेरा श्रृंगार कैसे किया।" इस तरह ललिता जी वास्तविक-कृष्ण के साथ, (उन्हें राधारानी समझकर), निकुंज में गईं।
         वहाँ श्यामसुंदर ने उनका अपूर्व श्रृंगार किया। ललिता जी यही समझती रहीं कि यह राधारानी हैं। अब जब दोनों कुंज से बाहर आए तो ललिता जी का श्रृंगार देख सभी सखियों के मन हुआ कि राधारानी हमारा भी श्रृंगार कर दें। सब वास्तविक-कृष्ण को राधारानी समझ रही थीं क्योंकि वे राधारानी की आवाज में बात कर रहे थे। अब जब सबका श्रृंगार हो गया तो सब निकुंज से बाहर आकर कृष्ण-वेश राधारानी से मिलीं। सखियों को इतना सुंदर श्रृंगार कर आया देख राधारानी खुद को छुपा नहीं पाईं, वो बहुत प्रसन्न हो गईं।
          श्यामसुंदर ने भी हँसकर भेद खोल दिया कि- "सखियों ! मैं ही कृष्ण हूँ। तुम सबका श्रृंगार मैंने ही किया है। राधारानी की इच्छा थी कि आज मैं अपने हाथों से तुम सबका श्रृंगार करूँ। ऐसे तो तुम संकोच करतीं। इसीलिये हमने ये कौतुक रचा।" सखियों ने भी हँसकर कहा- "आज तो छलिया ने हमें छल लिया।"
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                          "जय जय श्री राधे"
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: (((( हरि का भोग ))))

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श्रीयशोदाजी के मायके से एक ब्राह्मण गोकुल आये।

नंदरायजी के घर बालक का जन्म हुआ है, यह सुनकर आशीर्वाद देने आये थे।

मायके से आये ब्राह्मण को देखकर यशोदाजी को बड़ा अानंद हुआ। पंडितजी के चरण धोकर, आदर सहित उनको घर में बिठाया और उनके भोजन के लिये योग्य स्थान गोबर से लिपवा दिया।

पंडितजी से बोली, देव आपकी जो इच्छा हो भोजन बना लें। यह सुनकर विप्र का मन अत्यन्त हर्षित हुआ।

विप्र ने कहा बहुत अवस्था बीत जाने पर विधाता अनुकूल हुए, यशोदाजी ! तुम धन्य हो जो ऐसा सुन्दर बालक का जन्म तुम्हारे घर हुआ।

यशोदाजी गाय दुहवाकर दूध ले आईं, ब्राह्मण ने बड़ी प्रसन्नता से घी मिश्री मिलाकर खीर बनायी। खीर परोसकर वो भगवान हरी को भोग लगाने के लिये ध्यान करने लगे।

जैसे ही आँखे खोली तो विप्र देव ने देखा कन्हाई खीर का भोग लगा रहे हैं।

वे बोले यशोदाजी ! आकर अपने पुत्र की करतूत तो देखो, इसने सारा भोजन जूठा कर दिया।

ब्रजरानी दोनो हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी, विप्रदेव बालक को क्षमा करें और कृपया फिर से भोजन बना लें।

व्रजरानी दुबारा दूध घी मिश्री तथा चावल ले आयीं और कन्हाई को घर के भीतर ले गयीं ताकि वो कोई गलती न करें।

विप्र अब पुन: खीर बनाकर अपने अराध्य को अर्पित कर ध्यान करने लगे, कन्हाई फिर वहाँ आकर खीर का भोग लगाने लगे।

विप्रदेव परेशान हो गये। मैया मोहन को गुस्से से कहती हैं - कान्हा लड़कपन क्यों करते हो ? तुमने ब्राह्मण को बार-बार खिजाया ( तंग किया ) है।

इस तरह बिप्रदेव जब-जब भोग लगाते हैं, कन्हाई आकर तभी जूठा कर देते हैं।

अब माता परेशान होकर कहने लगी 'कन्हाई मैंने बड़ी उमंग से ब्राह्मणदेव को न्योता दिया था और तू उन्हें चिढ़ाता है ?

जब वो अपने ठाकुरजी को भोग लगाते हैं, तब तू यों ही भागकर चला जाता है और भोग जूठा कर देता है'।

यह सुनकर कन्हाई बोले- मैया तू मुझे क्यों दोष देती है, विप्रदेव स्वयं ही विधि विधान से मेरा ध्यान कर हाथ जोड़कर मुझे भोग लगाने के लिये बुलाते हैं, हरी आओ, भोग स्वीकार करो। मैं कैसे न जाऊँ।

ब्राह्मण की समझ में बात आ गयी। अब वे व्याकुल होकर कहने लगे, प्रभो ! अज्ञानवश मैंने जो अपराध किया है, मुझे क्षमा करें।

यह गोकुल धन्य है, श्रीनन्दजी और यशोदाजी धन्य हैं, जिनके यहाँ साक्षात् श्रीहरि ने अवतार लिया है। मेरे समस्त पुन्यों एवं उत्तम कर्मों का फल आज मुझे मिल गया, जो दीनबन्धु प्रभु ने मुझे साक्षात दर्शन दिया।

सूरदासजी कहते हैं कि विप्रदेव बार बार हे अन्तर्यामी ! हे दयासागर ! मुझ पर कृपा कीजिये, भव से पार कीजिये, और यशोदाजी के आँगन मे लोटने लगे।



  ((((((( जय जय श्री राधे ))))

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🤲 *ईश्वर तू ही अन्नदाता है* 🤲

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किसी राज्य में एक प्रतापी राज्य हुआ करता था। वो राजा रोज सुबह उठकर पूजा पाठ करता और गरीबों को दान देता। अपने इस उदार व्यवहार और दया की भावना की वजह से राजा पूरी जनता में बहुत लोक प्रिय हो गया था।

रोज सुबह दरबार खुलते ही राजा के यहाँ गरीब और भिखारियों की लंबी लाइन लग जाती थी। राजा हर इंसान को संतुष्ट करके भेजते थे। किशन और गोपाल नाम के दो गरीब भिखारी रोज राजा के यहाँ दान लेने आते।
किशन और गोपाल
राजा जब किशन को दान देता तो किशन राजा की बहुत वाहवाही करता और राजा को दुआएं देता। वहीँ जब राजा गोपाल को दान देता तो वह हर बार एक ही बात बोलता – “हे ईश्वर तू बड़ा दयालु है, तूने मुझे इतना सबकुछ दिया”। राजा को उसकी बात थोड़ी बुरी लगती। राजा सोचता कि दान मैं देता हूँ और ये गुणगान उस ईश्वर का करता है।

एक दिन राजकुमारी का जन्मदिन था। उस दिन राजा ने दिल खोल कर दान दिया। जब किशन और गोपाल का नंबर आया तो राजा ने पहले किशन को दान दिया और किशन राजा के गुणगान करने लगा लेकिन राजा ने जैसे ही गोपाल को दान दिया वो हाथ ऊपर उठा के बोला – “हे ईश्वर तू ही अन्नदाता है, आज तूने मुझे इतना दिया इसके लिए प्रभु तुझे धन्यवाद देता हूँ”

राजा को यह सुनकर बड़ा गुस्सा आया उसने कहा कि गोपाल, मैं रोज तुम्हें दान देता हूँ फिर तुम मेरे बजाय ईश्वर का गुणगान क्यों करते हो ? गोपाल बोला – राजन देने वाला तो ऊपर बैठा है, वही सबका अन्नदाता है, आपका भी और मेरा भी, यह कहकर गोपाल वहाँ से चला गया। अब राजा ने गोपाल को सबक सिखाने की सोची।

अगले दिन जब किशन और गोपाल का नंबर आया तो राजा ने किशन को दान दिया और कहा – किशन मुझे गोपाल से कुछ बात करनी है, इसलिए तुम जाओ और गोपाल को यहीं छोड़ जाओ, और हाँ आज तुम अपने पुराने रास्ते से मत जाना आज तुमको राजमहल के किनारे से जाना है जहाँ से सिर्फ मैं गुजरता हूँ।

किशन ख़ुशी ख़ुशी दान लेकर चला गया। राजमहल के किनारे का रास्ता बड़ा ही शानदार और खुशबु भरा था। संयोग से राजा ने उस रास्ते में एक चांदी के सिक्कों से भरा घड़ा रखवा दिया था। लेकिन किशन आज अपनी मस्ती में मस्त था वो सोच रहा था कि राजा की मुझपर बड़ी कृपा हुई है जो मुझको अपने राजमहल के रास्ते से गुजारा। यहाँ से तो मैं अगर आँख बंद करके भी चलूं तो भी कोई परेशानी नहीं होगी।
यही सोचकर किशन आँखें बंद करके रास्ते से गुजर गया लेकिन उसकी नजर चांदी के सिक्कों से भरे घड़े पर नहीं पड़ी। थोड़ी देर बाद राजा ने गोपाल से कहा कि अब तुम जाओ क्योंकि किशन अब जा चुका होगा लेकिन तुमको भी उसी रास्ते से जाना है जिससे किशन गया है।

गोपाल धीमे क़दमों से ईश्वर का धन्यवाद करते हुए आगे बढ़ चला। अभी थोड़ी दूर ही गया होगा कि उसकी नजर चांदी के सिक्कों से भरे घड़े पर पड़ी। गोपाल घड़ा पाकर बड़ा खुश हुआ उसने कहा – “ईश्वर तेरी मुझ पर बड़ी अनुकंपा है तूने मुझे इतना धन दिया” और वो घड़ा लेकर घर चला गया।

अगले दिन फिर से जब गोपाल और किशन का नंबर आया तो राजा को लगा कि किशन घड़ा ले जा चुका होगा इसलिए उसने किशन से पूछा – क्यों किशन ? कल का रास्ता कैसा रहा ? राह में कुछ मिला या नहीं ?

किशन ने कहा – महाराज रास्ता इतना सुन्दर था कि मैं तो आँखें बंद करके घर चला गया लेकिन कुछ मिला तो नहीं। फिर राजा ने गोपाल से पूछा तो उसने बताया कि राजा कल मुझे चांदी के सिक्कों से भरा एक घड़ा मिला, ईश्वर ने मुझपे बड़ी कृपा की।

राजा किशन से बड़ा गुस्सा हुआ उसने कहा कि आज मैं तुझे धन नहीं दूंगा बल्कि एक तरबूज दूंगा, किशन बेचारा परेशान तो था लेकिन कहता भी तो क्या ? चुपचाप तरबूज लेकर चल पड़ा। उधर राजा ने गोपाल को रोजाना की तरह कुछ धन दान में दिया।

किशन ने सोचा कि इस तरबूज का मैं क्या करूँगा और यही सोचकर वो अपना तरबूज एक फल वाले को बेच गया। अब जब गोपाल रास्ते से गुजारा उसने सोचा कि घर कुछ खाने को तो है नहीं क्यों ना बच्चों के लिए एक तरबूज ले लिया जाये। तो गोपाल फल बेचने वाले से वही तरबूज खरीद लाया जिसे किशन बेच गया था।

अब जैसे ही घर आकर गोपाल ने उस तरबूज को काटा तो देखा उसके अंदर सोने के सिक्के भरे हुए थे। गोपाल ये देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ और ईश्वर का धन्यवाद देते हुए बोला – “हे ईश्वर आज तूने मेरी गरीबी दूर कर दी, तू बड़ा दयालु है सबका अन्नदाता है”

अगले दिन जब राजा दान दे रहा था तो उसने देखा कि केवल अकेला किशन ही आया है गोपाल नहीं आया। उसने किशन से पूछा तो किशन ने बताया कि कल भगवान की कृपा से गोपाल को एक तरबूज मिला जिसके अंदर सोने के सिक्के भरे हुए थे वह गोपाल तो अब संपन्न इंसान हो चुका है।

किशन की बात सुनकर राजा ने भी अपने हाथ आसमान की ओर उठाये और बोला – *“हे ईश्वर वाकई तू ही अन्नदाता है, मैं तो मात्र एक जरिया हूँ, तू ही सबका पालनहार है”राजा को अब सारी बात समझ आ चुकी थी।

प्रस्तुति - कृष्ण मेहता

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