Friday, March 20, 2020

सत्संग के मिश्रित प्रसंग बचन





प्रस्तुति -
*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज

 -रोजाना वाक्यात- 09 अगस्त 1932-

मंगलवार मिस्टर हिकी सुपरिटेंडिंग इंजीनियर तशरीफ लाए। मौका पाकर मैंने दयालबाग नहर का जिक्र किया। उनकी राय कतई हमारे मुआफिक थी। उधर कोलकाता से भी जवाब आ गया है । सिर्फ 40 हॉर्स पावर की मोटर की जरूरत होगी ।कुल खर्चा एक लाख से कम रहेगा। और अंदाजन 500 एकड़ जमीन कृषि के अंतर्गत आ जाएगी। रोजाना नौकरी के इच्छुकों की दरखास्त आती है। क्या करें कैसे इन कष्ट पीड़ितों की सहायता करें ? अगर 500 एकड़ भूमि में कृषि होने लगे तो कम से कम हर कष्ट पीडितों को दो रोटियां तो दे सकेंगे। राधास्वामी दयाल अपनी दया करें !                            पेरिस से एक सतसंगी ने खत भेजा है जिसमें पेरिस के एक डॉक्टर की बेहद तारीफ की है। वह खत दयालबाग हेराल्ड छापने लायक हैं।  लेखक की राय है कि मुल्के हिंदुस्तान दूसरे मुल्कों से पीछे जरूर है लेकिन इस मुल्क में किसी चीज की कमी नहीं है ।फकत नुक्स यह है कि लोग ख्वाबे खरगोश में ग्रस्त है। उसकीए राय है कि दयालबाग की मार्फत मुल्के हिन्द को बेहद फायदा पहुँचेगा ।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻*



*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज

- सत्संग के उपदेश -भाग 2 -(37)-

【 सच्चे शिष्य की पहचान 】:

- प्रेमबिलास के शब्द नंबर 124 में सच्चे शिष्य के कुछ लक्षण वर्णन किए गये हैं यहां पर उनके अर्थ बयान के जाते हैं ताकि लक्षण अच्छी तरह समझे जा सकें।                            (१) सतगुरु पूरे खोज कर, हुआ चरन लौलीन। राधास्वामी कहे पुकार कर, शिष पूरा लो चीन।। राधास्वामी दयाल फरमाते हैं कि पूरे सतगुरु को तलाश करके जो शख्स अपने चरणों में लीन हो जाय वही पूरा शिष्य है । आम रिवाज है कि लोग किसी भी अच्छे साधु या ब्राह्मण के मिल जाने पर उनसे दीक्षा लेकर शिष्य बन जाते हैं और जहां तक बन पड़ता है उनकी सेवा व टहल करते हैं लेकिन अपने शरीर व औलाद व धन वगैरह में बदस्तूर लीन रहते हैं। ये लोग सच्चे शिष्य कहलाने के अधिकारी नहीं है। सच्चा और पूरा शिष्य वही है जो पूरे सतगुरु की तलाश में तत्पर हो और जब तक पूरे गुरु ना मिलें किसी को गुरु न बनायें और जब पूरे गुरु मिल जायँ तो सच्चे दिल से भरपूर उनकी भक्ति में मशरूफ हों। उसके प्रेम की हालत यह हो कि:-                             
 (२)  गुरु दर्शन मन लोचता  चैन न छिन को आय। जगत भोग फीके  लगे ता सँग मन नहीं जाय।।।                              यानी गुरु महाराज के दर्शन के लिए मन ऐसा व्याकुल रहे एक पल चैन ना लें और तवज्जो का रुख गुरु महाराज के चरणों में इस तरह कायम हो कि जगत के सभी भोग नीरस यानी फीके लगे और तबीयत के लिए कोई रुचि ना रहे।।   इसके सिवा -               (३) लोभ मोह मन से गये मनुआँ बेपरवाह।।              रतन खान घट में खुली जगत काँच नहीं भाय।। संसार के पदार्थों के लिए लोभ और मोह, जो कि पिछले व हाल के जन्म के संस्कारों की वजह से कायम हो गए थे, मन से दूर हो जाएं और मन संसार के पदार्थों के उपरत होकर बर्ताव करें। यह वैराग्य महज ख्याली बातों की वजह से न हो बल्कि जैसे किसी को जवाहिरात की खान मिल जाने पर काँच या नकली जवाहिरात की परख नहीं रहती इसी तरह गुरु महाराज के चरणों का प्रेम प्राप्त होने से उसे जगत के पदार्थों का रस फीका लगने लगे और इसलिए उसे जगत के पदार्थों की प्रवाह ना रहे। गुरु महाराज का संग करने पर स्वभाविक शिष्य को उनके उपदेश सुनने का मौका मिलता है। सच्चा शिष्य वह है जिसके दिल के अंदर गुरु महाराज के उपदेश सुनकर सुमति जाग उठे। जिसका नतीजा यह होगा कि नफा नुकसान और दुख व क्लेश की हालतों के आने पर उसे बिल्कुल तकलीफ ना होगी क्योंकि उसको शहद में समझ में आता जाएगा किस मौज  से यानी उसके किस नफे के लिए तमाम ऊंची नीची हाल है मालिक की जानिब से रवा रकखी जाती है:-


 क्रमश:-🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻

(सतसंग के उपदेश-भाग दूसरा)**



*परम गुरु हुजूर महाराज-

 प्रेम पत्र- भाग 1- कल से आगे:

- राधास्वामी नाम जिससे कि मुराद आदि धुन या धार से है वह कुल नीचे के शब्दों की धार या धुन की जान है, यानी उन शब्दों की धार के अंतर्गत वह धुन या धार मौजूद है। लेकिन जिस कदर धुर धाम से दूरी होती गई और जैसे मंडल में होकर उसका गुजर हुआ , वैसे ही नीचे के चैतन्य और माया के खोलो में गुप्त होती चली आई । इस वास्ते राधास्वामी मत के अभ्यासियों को मुनासिब और जरूर है कि राधा राधास्वामी को पथ प्रदर्शक करके अंतर मे अभ्यास करें, तो उस धुन या धार के साथ , जो रास्ते के हर एक स्थान के शब्द से प्रगट हुई है, मेल होता जावेगा और उस धार को पकड़कर सहज में सुरत चढ़ती जावेगी और आहिस्ता आहिस्ता एक दिन राधास्वामी के चरणों में पहुंचकर अपने निज मालिक का दर्शन पावेगी।।                             वर्णात्मक नाम के अभ्यास से, जो कायदे के अनुसार हो और दुरुस्ती से किया जावे , सफाई हासिल होगी और धुन्यात्मक नाम के अभ्यास से सुरत यानी रुह आकाश में यानी घाट में ऊंचे की तरफ चढ़ेगी। लेकिन आजकल धुन्यात्मक नाम का भेद और जुगत उसके अभ्यास की सिवाय राधास्वामी मत के अभ्यासियों के और किसी मत में जारी नहीं है वर्णात्मक अभ्यास अलबत्ता कर रहे हैं, लेकिन वह भी बगैर भेद और जुगत के इस सबब  से सफाई का फायदा जैसा चाहिए उनको हासिल नहीं होता। क्रमश

:🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻*






राधास्वामी


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