**राधास्वामी!! 31-07-2020-
आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-
(1) दिवाला पूजें जीव अजान। भरमते फिरते चारों खान।।अभागी जीव न मानें बात। भरमते नित तम चक्कर साथ।।-( करें जहाँ आरत सेवक सूर। मेहर गुरु पाया आनँद पूर।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-2,पृ.सं.325)
(2) राधास्वामी गुरु दातार। प्रगटे संसारी।। राधास्वामी सद किरपाल। मिले मोहि देह धारी।।-(राधास्वामी लें अपनाय। जस तस दया धारी।।) (प्रेमबिलास- शब्द-25,पृ.सं.31)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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*राधास्वामी!!
31-07- 2020-
आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन
-कल से आगे -(62)
इन पंक्तियों का लेखक भली प्रकार समझता है कि ऊपर की पंक्तियों में एक मान्य व्यक्ति के संबंध में कुछ अप्रिय शब्द लेखबद्ध हो गये, किंतु उसे संतोष है कि उसने यह शब्द अकाथ्य प्रमाण के आधार पर लिखे हैं ।
कारण यह है कि यदि स्वामीजी को मुक्ति की अवस्था का सचमुच अनुभव होता तो उनके चित्त में मुक्ति की बड़ी भारी महिमा होती।
क्या जीव-अवस्था और ब्रह्म-दर्शन अवस्था में केवल शब्दों का भेद है? नहीं,नहीं, अंधकार और प्रकाश का ,झूठ और सच का सा भेद है। परंतु उक्त स्वामीजी के चित्त में मुक्ति की विशेष चिंता तथा महिमा न थी , आप जरा उनके जीवन- चरित्र के पृष्ठों पर दृष्टि डालें, आपको उपर्युक्त समस्त कथन का प्रमाण मिल जाएगा।
महाशय लक्ष्मण आर्यउपदेशक के द्वारा लिखित जीवन चरित्र के पृष्ठ 905 और 906 पर उन बातों का उल्लेख है जो स्वामीजी ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में कहीं। आपने कमलनयनजी से कहा-" शरीर का अब कुछ भरोसा नहीं , ना जाने किस वक्त छूट जाय और मैं इस काम के लिए फिर दोबारा भी जन्म लूँगा और इस वक्त जो मेरे विरुद्ध हुए हैं वो सब शांत हो जायँगे।
आर्य समाजों की तरक्की से भी बड़ी भारी मदद मिलेगी। मैं उस वक्त वेद का बकिया(शेष) भाष्य कर दूँगा"। आशिकाँ गश्तमन्द मस्त अज बूए तो। आरिफाँ मानिन्द गुम दर रुए तो।।
अर्थ-प्रेमीजन तेरी सुगन्धि ही से मस्त व मगन हो जाते है और भक्तजन तेरे दर्शन से अपनी सुध बुध खो बैठते हैं । भगवद्गीता में निर्देश है-" जिस जिस भी भाव या रुप को याद करता हुआ जीव अंतकाल में शरीर को छोड़ता है, हमेशा उसी की चाह से रंगा हुआ वह खास उसी भाव या रूप को प्राप्त होता है"। अध्याय ८ श्लोक ६) ।।
🙏🏻राधास्वामी 🙏🏻
यथार्थ प्रकाश- भाग पहला-
परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**