Saturday, July 18, 2020

रवि अरोड़ा की नजर से.....



जन सेवकी का धंधा

रवि अरोड़ा

एक सांसद महोदय थे । पेशे से शिक्षक थे । उनका एक शिष्य भी विधायक बन गया । शुरू शुरू में तो सब कुछ ठीक रहा मगर बाद में दोनो के बीच विवाद हो गया । दरअसल सांसद महोदय सांसद निधि का अपना कमीशन तो वसूलते ही थे साथ ही विधायक के हिस्से का पैसा भी ठेकेदार से ख़ुद ही ले लेते थे । सांसद महोदय की बदनीयती के चलते ही उनके एक पार्टनर से भी विवाद हो गया । पार्टनर ने सांसद पर बेईमानी का आरोप लगाते हुए बक़ायदा एक प्रेस काँफ़्रेंस की और सांसद की लगभग दो सौ करोड़ रुपये की सम्पत्ति की फ़ेहरिस्त जारी कर दी । उधर, एक एमएलसी साहब ने एक स्कूल खोला । पैसे कहाँ से आये यह पता किया तो बड़ी रोचक कहानी सामने आई । दसअसल दस विधायकों ने मिल कर पूल कर लिया था और एक दूसरे के स्कूल को अपनी अपनी विधायक निधि से बीस बीस लाख दे दिये और इस तरह से सभी विधायक बैठे बिठाये दो दो करोड़ के स्कूल के मालिक बन गए । जानकर बताते हैं कि सांसद अथवा विधायक निधि में पंद्रह परसेंट कमीशन तो धर्म का होता है । ईमानदारी से भी राजनीति करें तो भी पूरे कार्यकाल में करोड़पति बन जाते हैं । इसके अतिरिक्त पैसे कमाने के अन्य अवसर तो  सुबह शाम मिलते ही हैं । पानी में काँटा डालने की भी ज़रूरत नहीं । बस मछली को देखना भर है और मछली पक कर प्लेट में हाज़िर हो जाती है ।

अब आप पूछ सकते हैं कि आज मैं नेताओं के भ्रष्टाचार पर भड़ास क्यों निकाल रहा हूँ ? दरअसल कल से ख़बरें सामने आ रही हैं कि राजस्थान में सरकार गिराने को पच्चीस पच्चीस करोड़ रुपये का ओफर विधायकों को मिल रहा है । यही वजह है कि मैं ख़ाली बैठा हिसाब लगा रहा हूँ कि एक ही झटके में इतनी कमाई और किस धंधे में हो सकती है ?  ग़ज़ब सफ़ेद कालर बिज़नस है नेतागिरी । दौलत, शोहरत, ताक़त और हर वह चीज़ जिसकी कल्पना करो वह इसमें मिलती है । और सबसे ख़ास बात यह है कि फिर भी इसे सेवा कार्य कहा जाता है । होंगे कुछ ईमानदार नेता भी , बेशक होंगे मगर वे तो अब लुप्तप्राय जीव ही हैं । ज़्यादा दिन तक नज़र नहीं आने वाले । हिसाब लगा कर आप भी देख लो । जितने ज़िंदा बड़े नेताओं के नाम आपने आज तक सुने हैं उनमें से किस किस के नाम की क़सम आप खा सकते हैं ?

हरियाणा के एक विधायक थे गया राम । सन 1967 में उन्होंने पंद्रह दिन में तीन पार्टियाँ बदलीं । तभी से राजनीति में दलबदल के लिए एक मुहावरा हो गया- आया राम गया राम । बड़ी उम्मीदों से 1985 में दल बदल विरोधी क़ानून संसद ने बनाया मगर हर बार की तरह इस क़ानून में भी नेताओं ने अपने लिए बचने का मार्ग छोड़ दिया । सभापति के नाम पर जब तक चाहो दल बदल की शिकायत पर फ़ैसला ही नहीं होने देते । नतीजा खुल कर नोटों की बरसात होती है । राज्यसभा के चुनावों में तो और भी बड़ा खेल होता है । स्वयं को दुनिया की सबसे ईमानदार पार्टी कहने वाली भाजपा और उसके फ़क़ीर नेता नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ही दल बदल का सहारा लेकर मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, गोवा, मणिपुर, कर्नाटका और सिक्किम में चुनी हुई सरकारें गिरा कर भाजपा की सरकारें बनाई गईं । पता नहीं राजस्थान से भी कब एसी ख़बर आ जाए ।

बेशक हम स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कह लें मगर भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा तमाम दल एक परिवार की सम्पत्ति हैं और वे प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तरह अपनी पार्टी चलाते हैं । मंत्री मुख्यमंत्री बनते ही यहाँ लोगबाग़ हज़ारों करोड़ की सम्पत्ति के मालिक बन जाते हैं । न जाने कितनो पर आय से अधिक सम्पत्ति और भ्रष्टाचार के मुक़दमे चले मगर सज़ा आजतक किसी नेता को नहीं हुई । जैसे ढलान की ओर पानी भागता है वैसे ही धन दौलत इन नेताओं की ओर भागती है । मगर हाय रे लोकतंत्र ये लोग फिर भी जनता के सेवक कहलाते हैं । हे भगवान तू ही बचा इन जन सेवकों से ।

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