Thursday, July 30, 2020

विदा की वेदना

नमस्कार. "विदा "शब्द ही वेदना से जुड़ा है. लड़की की विदा या स्वजन की विदा से अधिक विदारक होती है केसरिया बाने में एक वीर शिरोमणि की विदा. यहाँ एकतो वे  हैं जिनको विदा दी जानी है , दूसरे जिनको ये दारुण दाइत्व निभाना हैं यानी जिनको वीरों को विदा देना है और तीसरा महाभारत के संजय की तरह वह व्यक्ति है जिसे आपको उस विदा के क्षणों की शब्द चित्रावली प्रेषित करनी है. जिन्हें विदा दी जारही है उनकी आँखों में अँगारे हैं. जो विदा दे रहे हैं उनकी ऑंखें  उत्तप्त सागर का जलताप अपनी कोरों में संस्कारों के खजाने की भांति छुपाये हैं और तीसरा अपने गालों को गरम गरम जल के संताप से भीगने से बचाने में असमर्थ हैं. चौथे का हाल तो आप बतायेंगे. 

इसी सर्ग की पंक्तियाँ हैं ---
"बहनों के हाथोँ में रण कँगन राखी थी 
मांओं के आँचल, आशीषों की साखी थी. 
गोदी के लालों में कौतूहल बोला था 
ऐसी गंभीर विदा, शेष फण डोला था. "

लेकिन इस विदा के पूर्व की रात्रि का दृश्य ---
"सोये थे सुख दुःख के भावों के छौने भी 
तोड़ रहे नखतों को साधन के बौने भी. 
सोयीं थीं तलवारें, रण दूल्हे सोये थे 
बहुवर भी सोयी थी, चूल्हे भी सोये थे. "
प्रातः काल का दृश्य ---
"नदिया के पानी में सोना उतराया था 
नूतन इतिहास लिये नया दिवस आया था. 
लेकिन हर रश्मि पर गज़नी की छाया थी 
रंजित अभिसारों में डरी हुई काया थी. 
बेसर के मोती का पानी घबराया था 
मन में नव कम्प लिये नया प्रात आया था. 
घोघा गढ़ तोरणा पर सेना की हलचल थी 
अन्तः पुर प्राँगण में मावस सी प्रतिपल थी. "
कल्पना कीजिये उस पल की जब बाप्पा ने राजगुरु नन्दीदत्त को बुला कर उनको अंतःपुर सौंप ते हुए ये कहा होगा ---
"अबसे तुम्हारा धर्म, अब तक जो नहीं रहा. "
साथ जो हमारे चले वीर गति पायेंगे 
चढ़ कर तलवारों पर शम्भू -धाम जायेंगे. "
बाप्पा जो आदेश राजगुरु को दे रहे हैँ इन पँक्तियों को टाइप करते हुए मेरे हाँथों और नेत्रों के बीच कम्पन और अश्रु का द्वंद्व बाधक रहा हैं. एक अमृतसर की अध्यापिका थीं कोई कौर, बात सन 70-71की होगी, मैं कानपुर रहता था, उन्होंने एक पत्र में लिखा था '(अपने ही हाथोँ से ---)आपकी इन पंक्तिओं ने बहुत रुलाया. शायद इस प्रकार की उपमा मैंने कहीं नहीं पढ़ीं. '
"मेरी जब काया यह टूक टूक होलेगी !
अंतःपुर प्राँगण में जौहर वह्नि डोले गी. 
देदेना आगी तुम वीर ललनाओं को 
अपने ही हाथों से अपनी रचनाओं को. 
नन्दीदत्त !भार बड़ा कांधे तुम्हारे हैं "

मेरा भी दाह कर्महाथों तुम्हारे हैं. 
इतना ही नहीं बंधु, तुमको तो जीना हैं 
'सामंत 'के आने तक गरल घूँट पीना हैं. 
सामंत घोघा बप्पा का अंतिम शेष अंश था उसे भी गज़नी की सेना को राह भटकाने का दायित्व सौंपा गया था. उसे भी प्राणोत्सर्ग का आदेश दिया था बाप्पा ने. 
आज विदा को यहीं रोकते हैँ. कल इस बेला का अनूठा विसर्जन पढ़ेंगे आप. तब तक के लिये विदा लेता हूँ. साथ बने रहिये गा. 
आपका 
जीवन शुक्ल.

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