Saturday, July 18, 2020

परम् भक्त रैदास जी


-परमभक्त रैदासजी --
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स्वकर्म करते हुए भगवद्भक्ति में पराकाष्ठा को छूने का प्रमाण परम भक्त रैदास से बड़ा कोई अन्य नहीं हो सकता।
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रैदासजी का जन्म भगवान विश्वनाथ की पवित्र नगरी काशी में हुआ था।
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इनके बारे में कुछ विद्वानों का मत है कि यह पूर्वजन्म में ब्राह्मण के घर में पैदा हुए थे। किसी कारणवश गुरु रामानंदजी ने इन्हे श्राप दिया जिसके फलस्वरूप इन्हें चमार के घर जन्म मिला।
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चूंकि पूर्वजन्म में यह भगवान के परम भक्त थे इसलिए भगवान की कृपा से इन्हें अपने पूर्वजन्म का ज्ञान रहा।
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इन्होंने जन्म से ही माता का दूध नहीं पिया। बिना गुरुमंत्र के कुछ भी ग्रहण न करने का इन्होंने संकल्प लिखा था।
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इधर भगवान को अपने भक्त के संकल्प पर दया आ गई, नवजात शिशु यदि दुग्धपान भी न करेगा तो कैसे जीवित रहेगा ? उन्होंने उसी क्षण स्वामी रामानंद जी को स्वप्न में दर्शन दिए।
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आपने जिस ब्राह्मण को कठिन श्राप दिया था वह चमार कुल मैं जन्म ले चुका है। उसने जन्म से ही गुरुमंत्र के बिना दुग्धपान न करने का सकल्प किया है।
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अब आप उसके पास जाकर उसे गुरुमंत्र दें। भगवान ने उन्हें आदेश दिया रामानंद जी रश्चण चर्मकार के घर पहुंचे और नवजात शिशु को देखा।
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उन्होंने शिशु का नाम ‘रैदास’ रखा और उसके कान में गुरुमंत्र दिया। रैदास का संकल्प पूरा हुआ।
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जब रैदास कुछ बड़े हुए तो वह साधु सेवा में लग गए। जो कुछ भी घर में मिलता वह दीन-दुखियों को दे देते। कुछ समय बाद इनका विवाह कर दिया गया परतु इन्हें तो भगवद्भजन में अधिक आनंद आता था।
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जब पिता ने इनका आचरण देखा तो इन्हें परिवार से अलग कर दिया। यद्यपि इनके पिता के पास बहुत धन था परंतु पिता ने क्रोधवश इन्हें कुछ भी नहीं दिया।
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रैदास पत्नी सहित घर के पीछे एक कमरे में रहने लगे। जीवन निर्वाह के लिए इन्होंने अपना पुश्तैनी कार्य प्रारम्भ कर दिया। वे जूतियां बनाने लगे।
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जब भी किसी साधु या फकीर को देखते कि उसके पैरों में जूते नहीं हैं वे उसे बिना कुछ लिए जूते पहना देते।
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इन्होंने एक छप्पर डाल रखा था, उसी में भगवान की मूर्ति स्थापित कर ली और उसकी पूजा-अर्चना करते रहते।
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भगवान इनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और इनकी दरिद्रता दूर करने के विचार से साधु वेश में इनके घर आए।
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रैदासजी ने उन्हें दण्डवत करके भली प्रकार उनकी सेवा की। साधु इनकी सेवा और भक्ति भाव से प्रसन्न हुए और अपने कमंडल से पत्थर निकाल कर इन्हें दिया।
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भक्त, यह पारस पत्थर है। इसे जिस वस्तु से भी स्पर्श करा दोगे वह वस्तु स्वर्ण बन जाएगी। इसे बड़े यत्न से रखना और इसका प्रयोग बड़ी सावधानी से करना। साधु ने कहा।
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महाराज मुझे स्वर्ण-धनादि से क्या लेना है। मेरे पास तो केवल रामनाम का धन ही पर्याप्त है। रैदास ने सहज स्वर में कहा।
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साधु रूपी भगवान चले गए। कुछ दिनों बाद रैदास को अपनी पिटारी में पाँच स्वर्ण मुहरें मिलीं। अब वह भगवत्भजन से भी भयभीत होने लगे।
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तब एक दिन प्रभु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर स्नेह-स्वर में समझाया। भक्त मैं जानता हूं कि तुम्हारे अंदर लोभ विकार नहीं है परंतु हम जो देते हैं उसे ग्रहण किया करो।
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भगवान की आज्ञा पाकर रैदास ने भगवान से प्राप्त धन स्वीकार तो किया परंतु वह स्वहित में इसका उपयोग नहीं करते थे। इन्होंने उस धन से एक सुंदर विशाल धर्मशाला बनवाई और भगवद्भक्तों को ला-लाकर उसमें बसाया।
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धर्मशाला के अंदर ही इन्होंने एक अति सुंदर मंदिर का निर्माण किया और इसे अति सुंदर सजाया।
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जब वहां के ब्राह्मणों ने एक चर्मकार की ऐसी शान और प्रसिद्धि देखी तो उन्हें ईर्ष्या हो उठी। एक साधारण चमार और कर्म ब्राह्मणों जैसा तत्काल ब्राह्मण मिलकर राजा के पास पहुंचे।
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महाराज, आपके राज्य में घोर पाप हो रहा है और आप निश्चिंत बैठे हैं। यह अशुभ संकेत हैं। ब्राह्मणों ने कहा।
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ऐसा क्या हुआ ब्राह्मणो ? राजा घबरा गया..!
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हमारे धर्मशास्त्रों में कहीं भी किसी शूद्र के द्वारा भगवान की पूजा का कोई लेख नहीं मिलता। परंतु आपके राज्य में रैदास चमार मंदिर में भगवान की पूजा कर रहा है।
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उसने निर्भय होकर मंदिर का निर्माण कर लिया है। हे राजन ! वह शूद्र समाज को दूषित कर रहा है अत: उसे दंड दिया जाए।
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राजा ने ब्राह्मणों के प्रभाव में आकर रैदास को बुला भेजा। रैदास आए तो सभी ब्राह्मण भी वहीं थे।
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तुम शूद्र होकर भगवान की पूजा क्यों करते हो ? राजा ने कहा।
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महाराज, जातिभेद तो सांसारिक वर्गीकरण है। भगवान की दृष्टि में जाति रंग और गोभेद नहीं है। रैदास ने सहज उत्तर दिया।
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यह गलत है। ब्राह्यण चीखकर बोले: ईश्वर कभी शूद्र की पूजा नहीं मानता। इससे उन्हें केवल कष्ट होता है।
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श्रेष्ठ ब्राह्मणो मैं इस बात को नहीं मानता। रैदासजी ने कहा: आप सब निरर्थक आधारहीन बात कह रहे हैं। इस बात

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