Thursday, November 11, 2010

सहजीवन के दो उदाहरण - प्रेमचंद से


राजकिशोर
प्रेमचंद को जितनी बार पढ़ा जाए, उतनी बार लगता है कि वे अपने समय से आगे थे। उन्होंने सिर्फ बात बनाने के लिए नहीं कहा था कि साहित्य राजनीति की मशाल है। वे इसमें यकीन भी रखते थे। यह दुख की बात है कि प्रेमचंद के प्रशंसक कुछ खास बातों के लिए ही उन्हें याद रखते हैं। यह प्रेमचंद जैसे महान लेखक के साथ अन्याय है। उनकी और भी ढेर सारी बातें विचारणीय हैं।
उदाहरण के लिए, प्रेमचंद विवाह संस्था के विरोधी थे। उनका विश्वास सहजीवन में था। स्त्री-पुरुष संबंधों के विशाल ताने-बाने का उन्होंने तरह-तरह से परीक्षण किया है। इसी परीक्षण के दौरान उन्होंने एक कहानी लिखी थी - मिस पद्मा। कहानी के अनुसार, मिस पद्मा एक सफल वकील थी। उसके पास अपार पैसा था। साहिर लुधियानवी की लाइनें है - तन्हा न कट सकेंगे जवानी के रास्ते, पेश आएगी किसी की जरूरत कभी-कभी। पद्मा को भी किसी की जरूरत पेश आई। प्रेमचंद लिखते हैं, 'यों उसके दर्जनों आशिक थे - कई वकील, कई प्रोफेसर, कई रईस। मगर सब-के-सब ऐयाश थे - बेफिक्र, केवल भौंरे की तरह रस ले कर उड़ जानेवाले। ऐसा एक भी न था, जिस पर वह विश्वास कर सकती।'
'उसके प्रेमियों में एक मि. प्रसाद था - बड़ा ही रूपवान और धुरंधर विद्वान। एक कालेज में प्रोफेसर था। वह भी मुक्त भोग के आदर्श का उपासक था और मिस पद्मा उस पर फिदा थी। चाहती थी उसे बांध कर रखे, संपूर्णत: अपना बना ले, लेकिन प्रसाद चंगुल में ही न आता था।' एक दिन वह चंगुल में आ गया। मिस पद्मा ने उससे अपने प्रेम का इजहार किया। प्रसाद ने भी अपना दिल खोल दिया। दोनों ने प्रतिज्ञा की कि वे एक-दूसरे से बंधेंगे और उनके बीच किसी तीसरे व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं होगी। मिस पद्मा वकील थी। प्रसाद प्रोफेसर था। दोनों में से किसी ने भी विवाह करने पर जोर नहीं दिया। सहजीवन ही उनका आदर्श था। प्रसाद मिस पद्मा की कोठी में आ कर रहने लगा।
मिस पद्मा के यहां किसी चीज की कमी नहीं थी। प्रसाद को खुली छूट थी। वह मौज-मस्ती के समन्दर में डूब गया। विलासिता के साथ रंगीनी भी आई। प्रसाद ने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। वह मिस पद्मा की उपेक्षा करने लगा। इधर, मिस पद्मा उसके प्रति एकनिष्ठ बनी रही। जब वह गर्भवती हो गई, तो वह प्रसाद के लिए और अवांछित हो गई। एक दिन जब प्रसाद जब आधी रात को घर लौटा, तो पद्मा ने उस पर बेवफाई का आरोप लगाया। प्रसाद घर छोड़ कर चले जाने की धमकी लगा।ल पद्मा झुक गई। प्रेमचंद लिखते हैं, प्रसाद ने पूरी विजय पाई।
इस विजय का नतीजा यह निकला कि जब मिस पद्मा प्रसव वेदना में थी, तब प्रसाद का कुछ अता-पता नहीं था। पांच दिनों के बाद प्रसव संबंधी बिल अदा करने के लिए जब पद्मा ने नौकर को बैंक भेजा, तब मालूम हुआ कि खाता खाली था। सारे रुपए निकाल कर प्रसाद विद्यालय की एक बालिका को ले कर इंग्लैंड की सैर करने चला गया था। सहजीवन का प्रयोग विफल हो गया। कहानी का अंतिम दृश्य यह है : 'एक महीना बीत गया था। पद्मा अपने बंगले के फाटक पर शिशु को गोद में लिए खड़ी थी। उसका क्रोध अब शोकमय निराशा बन चुका था। बालक पर कभी दया आती, कभी प्यार आता, कभी घृणा आती। उसने देखा, सड़क पर एक यूरोपियन लेडी अपने पति के साथ अपने बालक को बच्चों की गाड़ी में बिठा कर चली जा रही थी। उसने हसरत भरी निगाहों से खुशनसीब जोड़े को देखा और उसकी आंखें सजल हो गईं।'
इस कहानी में प्रेमचंद ने सहजीवन पर विवाह की विजय दिखाई है। लेकिन इससे सहजीवनवादियों को निराश नहीं होना चाहिए। इसके माध्यम से प्रेमचंद ने वस्तुत: यह स्पष्ट किया है कि सहजीवन किन स्थितियों में विफल होने को बाध्य है। विवाह की तरह सहजीवन भी एक नैतिक व्यवस्था है। जैसे विवाह के नियम तोड़ने पर वह सफल नहीं हो सकता, उसी तरह सहजीवन की शर्तों के टूटने पर वह भी बिखर जाता है। प्रेमचंद ने शुरू में ही इशारा कर दिया था कि यह रिश्ता क्यों गड़बड़ था। पद्मा और प्रसाद दोनों मुक्त भोग के उपासक थे। 'मुक्त भोग' से प्रेमचंद का आशय शायद फ्री सेक्स से था। सहजीवन शुरू करने के बाद पद्मा ने तो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया, पर प्रसाद जल्द ही पहले की तरह आसमान में उड़ने लगा। इसके बाद सर्वनाश को कौन रोक सकता था?
'गोदान' प्रेमचंद की सबसे प्रौढ़ रचना है। इसमें भी प्रेमचंद ने सहजीवन का एक उदाहरण पेश किया है। यह जोड़ी मालती और मेहता की है। मालती डाक्टर है। मेहता प्रोफेसर है। दोनों का एक-दूसरे के प्रति अनुराग था। मेहता मालती के घर पर रहने लगा। दोनों के बीच प्रेम का बंधन और। मजबूत हुआ। अब उपासक उपास्य में लीन होना चाहता था। लेकिन मेहता ने जब विवाह का प्रस्ताव रखा, तो मालती ने एकदम से इनकार कर दिया। उसका गंभीर जवाब था -- 'नहीं मेहता, मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूं और अंत में मैंने यह तय किया है कि मित्र बन कर रहना स्त्री-पुरुष बन कर रहने से कहीं सुखकर है। ... अपनी छोटी-सी गृहस्थी बना कर अपनी आत्माओं को छोटे-से पिंजड़े में बंद करके, अपने सुख-दु:ख को अपने ही तक रख कर, क्या हम असीम के निकट पहुंच सकते हैं? वह तो हमारे मार्ग में बाधा ही डालेगा। ... जिस दिन मन में मोह आसक्त हुआ और हम बंधन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जाएगा, नई-नई जिम्मेदारियां आ जाएंगी और हमारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगेगी। तुम्हारे जैसे विचारवान, प्रतिभावान मनुष्य की आत्मा को मैं इस कारागार में बंदी नहीं करना चाहती।'
नतीजा? 'और दोनों एकांत हो कर प्रगाढ़ आलिंगन में बंध गए। दोनों की आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी।'
प्रेमचंद ने यह नहीं बताया कि भविष्य में क्या हुआ। हम अनुमान कर सकते हैं कि दोनों के बीच प्रेम का बंधन और मजबूत हुआ होगा तथा दोनों ने एक-दूसरे से बल पाते हुए और एक-दूसरे को बल प्रदान करते हुए आदर्श जीवन बिताया होगा। सहजीवन का यह आदर्श एक रूप है।- राजकिशोर्



(अलग रंग से इटालिक्स मे लिखी पंक्तियों से मै सहमत हूँ ,पर लेख की प्रस्थापना से नही। सो, अगली पोस्ट में प्रेमचन्द को ही लेकर मेरा दृष्टिकोण व्यक्त होगा- सुजाता)

12 comments:

संजय भास्कर said...
बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. ढेर सारी शुभकामनायें. संजय कुमार हरियाणा http://sanjaybhaskar.blogspot.com
Sonal Rastogi said...
विचारोतेजक लेख
सुशीला पुरी said...
This post has been removed by the author.
कृष्ण मुरारी प्रसाद said...
विचारणीय पोस्ट...... ............... यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा... http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
डॉ .अनुराग said...
अगले लेख की इंतज़ार में ....इस उम्मीद के साथ के लिखने वाला अपने भी विचार रखे .....बिना न्यूट्रल हुए.....फिर इस विषय पर शायद कुछ सार्थक बहसे हो...जेहन के दरवाजे खिडकिया खोल कर
pragya pandey said...
राजकिशोर जी . आपने एकदम सही समय पर यह आलेख प्रस्तुत किया आज जबकि सुप्रीम कोर्ट ने भी सह जीवन के पक्ष में अपनी स्वीकृति दे दी है यह जानकार सुखद आश्चर्य और ख़ुशी हुई कि प्रेमचंद सह जीवन के पक्ष में थे तभी उन्होंने इन विषयों को अपनी कहानियों और उपन्यास में स्थान दिया .विवाह संस्था के समकक्ष सह जीवन की व्यवस्था कुछ समस्याओं को जन्म तो अवश्य देगी लेकिन साथ ही तमाम कुंठाओं को समाप्त भी करेगी !
mukti said...
मैं इस लेख की इन लाइनों से सहमत हूँ-- --विवाह की तरह सहजीवन भी एक नैतिक व्यवस्था है। जैसे विवाह के नियम तोड़ने पर वह सफल नहीं हो सकता, उसी तरह सहजीवन की शर्तों के टूटने पर वह भी बिखर जाता है। प्रेमचंद ने शुरू में ही इशारा कर दिया था कि यह रिश्ता क्यों गड़बड़ था। पद्मा और प्रसाद दोनों मुक्त भोग के उपासक थे। 'मुक्त भोग' से प्रेमचंद का आशय शायद फ्री सेक्स से था। सहजीवन शुरू करने के बाद पद्मा ने तो अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया, पर प्रसाद जल्द ही पहले की तरह आसमान में उड़ने लगा। इसके बाद सर्वनाश को कौन रोक सकता था? मैं भी यह मानती हूँ कि सहजीवन एक नैतिक व्यवस्था है. विवाह से कहीं अधिक ज़िम्मेदारी की अपेक्षा होती है इसमें क्योंकि विवाह में सामाजिक और कानूनी नियमों की अनिवार्यता होती है, सहजीवन में मात्र नैतिक नियम, जो दो प्रेम करने वाले आपसी सहमति से बनाते हैं. और इसमें दोनों का आत्मनिर्भर होना अनिवार्य शर्त है.
संजय भास्कर said...
मैं इस लेख की इन लाइनों से सहमत हूँ-- --विवाह की तरह सहजीवन भी एक नैतिक व्यवस्था है। जैसे विवाह के नियम तोड़ने पर वह सफल नहीं हो सकता, उसी तरह सहजीवन की शर्तों के टूटने पर वह भी बिखर जाता है।
matukjuli said...
विवाह करने पर समाज और कानून के द्वारा व्यक्ति को सहूलियतें मिलती हैं। सामाजिक-कानूनी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दबाव होते हैं कि अब आप अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। सहजीवन में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है । सहजीवन में रह रहे दो व्यक्ति आपसी प्रेम और सुसंगति के आधार पर ही एक-दूसरे की जिम्मेदारियाँ निभाते हैं। [निभाते क्या हैं , निभ जाती हैं। जिसे निभाना पड़े वह तो कुरूप है। ]वहाँ कोई बाहरी बाध्यता नहीं है। वैसे भी, जो जिम्मेदारियाँ किसी भी किस्म के बाहरी दबाव में निभायी जा रही हों उन जिम्मेदारियों के निभाने में क्या सौन्दर्य है ? क्या रस है ? मेरी नजर में तो वे बेकार हैं खास तौर पर जीवन-साथी के मामले में। जिस समाज में औरतों की यह हालत है कि वे मर्दों की जिम्मेदारी बन गयी हैं और बना दी गयी हैं , वहाँ इस किस्म के सौन्दर्य पर कौन ध्यान दे ? कैसे ध्यान दे ? अगर किसी भी किस्म जिम्मेदारी निभाने में गुणवत्ता की सूक्ष्म talash करने लगें तब तो न जाने कितने वैवाहिक संबंध भरभरा जायेंगे। प्रेमचंद की जिस कहानी की चर्चा की गयी, उस कहानी में अगर दोनांे विवाहित होते तो क्या होता ? कई संभावनायें होतीं। एक संभावना यह थी कि विवाहित होने पर भी ऐसी ही स्थिति होती। वैसे इसकी संभावना कम होती। दूसरी संभावना यह कि विवाहित होने पर प्रसाद गर्भवती पद~मा की सेवा करने को उपस्थित होता। इसकी संभावना अधिक दिखती है। आम जीवन में प्राय: ऐसा होता है। इसके पीछे मुख्य रूप से सामाजिक दबाव काम करते हैं क्योंकि अगर प्रसाद पूर्णत: गैर-जिम्मेदार और visudh विलासी व्यक्ति है तब उसे विवाह के बाद भी पदमा की देखभाल नहीं करनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है और वह पद~मा की देखभाल करता है तब इसका कारण सिर्फ बाहरी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दबाव ही हो सकता है। इसी जगह लोग विवाह की महानता का गुणगान करने लगते हैं। विवाह में व्यक्ति जिम्मेदार हो जाता है, इस तरह की मान्यताएँ बनी हुई हैं। किन्तु जरा गहराई में देखें। जो व्यक्ति अपने स्वभाव में गैर -जिम्मेदार है, सिर्फ विलासी है वह किसी भी संबंध में वैसा ही होगा। वह विवाह में हो या न हो। अगर विवाहित होने पर दबावों के कारण जिम्मेदारियाँ निभा भी ली जायँ तो निभाने में क्या गुणवत्ता होगी ? वह प्राणहीन होगा, रुखा-सूखा। कोई गर्माहट नहीं। सही मायने में जीवंत स्त्री ऐसे संबंध को कैसे स्वीकार कर सकती है ? मजबूरी में स्वीकार कर भी ले तो इसे गौरव कैसे दिया जा सकता है ? मर्दों पर भी यही बात लागू होती है। मैं अपने को देखती हूँ तो पाती हूँ कि अगर मेरे साथ कोई सेवा करवाने वाली स्थिति हो तो मैं गहन प्रेम से भरी देखभाल के अलावा कोई देखभाल स्वीकार नहीं कर सकती। कोई व्यक्ति किसी भी किस्म के दबाव के कारण देखभाल कर रहा हो, यह असहनीय है। सेवा अंतर्तम से आनी चाहिए। एक-एक sparsh में यह बात महसूस होनी चाहिए। उसमें जीवंतता होनी चाहिए। कौन-सा झमेला आ पड़ा या जल्दी से यह झंझट निपटे का भाव जरा भी न हो। कर्तव्य , जिम्मेदारी नहीं, प्रेम और सिर्फ प्रेम निहित हो उसमें। ऐसी गुणवत्ता वाली सेवा सेवा है। अन्यथा नहीं चाहिए सेवा। एकदम स्वीकार नहीं। दूसरे की तो स्वीकार भी हो जाय। साथी से तो बिल्कुल नहीं। चाहे कितनी भी तकलीफ उठानी पड़े। जिस संबंध में ऐसा होने की संभावना न हो वह संबंध संबंध ही नहीं है। उस संबंध से अकेले होना बेहतर है। बाहरी खतरे ठीक हैं। गर्माहटरहित संबंध नहीं। प्रेमचंद ने तो विवाह की विजय ही दिखायी है इस कहानी में । वे सहजीवन में बारे में कुछ सोच सके, इतना ही काफी है। वे विवाह संस्था के विरोधी थे, इसके विरोध में कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है । उदाहरण फिर कभी।
matukjuli said...
विवाह के नियम, सहजीवन के नियम, मुझे तो यह सब विचित्र मालूम पड़ता है। बाहर से आरोपित कोई नियम कैसे किसी संबंध को सफल बना सकता है ? संबंध की आंतरिक गहराई से स्वत: नियम आ जाते हैं। वो तो नियम जैसे भी नहीं होते। सबसे सुन्दर स्थिति तो ऐसी ही होनी चाहिए। मसलन यहाँ कहानी में सवाल उठा मुक्त भोग का। साथी से विवाह के बाद या सहजीवन में मुक्त भोग नहीं होना चाहिए, इस किस्म का कोई दबाव हो , चाहे वह नैतिक ही सही, और इसलिए कोई संबंध न बनाये तो उसमें मुझे कोई असाधारणता नहीं दिखती। सबसे सुन्दर तो वह है कि प्रेम-यात्रा में स्वत: ऐसी तृप्ति हो,urja का ऐसा रूपांतरण हो कि इच्छा ही न हो मुक्त भोग या किसी भोग की। मछली पानी में रहती है और पानी से बाहर निकालने पर वह मर जायेगी। इसलिए पानी में रहना उसकी अस्तित्वगत मजबूरी है। यह वफादारी कोई उच्च कोटि की वफादारी नहीं । अगर मछली जमीन पर भी रह सकती हो, हवा में भी रह सकती हो, पेड़ पर भी रह सकती हो यानि उसके पास सारे विकल्प हों और विकल्पों को चुनने का साहस भी तब भी वह पानी में ही रहना पसंद करे और कारण सिर्फ उसका आनंद हो , तब यह असली वफादारी है। भोग के सारे विकल्प हों, भोग की पूरी आजादी हो फिर भी अपनी तृप्ति और आनंद के कारण कोई भोग में न उतरे तब यह असली सफलता है किसी संबंध की। जिस संबंध में व्यक्ति का ऐसा विकास हो सके, जहाँ इस disha में यात्रा हो सके , वही असली संबंध है ।उसी संबंध के होने का मोल है । नहीं तो एक-दूसरे पर किसी भी किस्म का सामाजिक-कानूनी-भावनात्मक दबाव डालकर भोग से रोकने का क्या mole ? भीतर तो
matukjuli said...
vyakti wahi raha - juli
matukjuli said...
font ki gadbadi ke karan bich bich me English me dena pada. sorry JULI

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