Tuesday, November 23, 2010

जनसंचार माध्यम और भारतीय भाषाएं








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जनसंचार माध्यम और भारतीय भाषाएं पीडीएफ़ मुद्रण ई-मेल
द्वारा लिखित - शीतला सिंह   
शनिवार, 18 जुलाई 2009 14:17
संचार माध्यम तो निश्चित रूप से भाषा, भाव और दूसरे अभिव्यक्ति के माध्यमों के बाद आये होंगे, लेकिन यह नहीं माना जा सकता है कि जब लिपियां, लेखन, मुद्रण और दूसरे माध्यम नहीं थे, तो उस समय मनुष्य विचार तथा चिंतन प्रक्रिया से विहीन था। यही कारण है कि हम उन प्राचीन ग्रंन्थों को जिन्हें श्रुति और स्मृति के रूप में याद करते हैं उनका महत्व आज भी कम करके नहीं आंका गया है। यह दीर्घकालिक प्रभाववाले बने, जो समयचक्र में परिवर्तन के बाद भी अपना महत्त्व प्रतिपादित कर रहे हैं।

 
`मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है': यह कथन प्रौढ़ोक्ति मात्र नहीं है। हां, बारंबार कहते-कहते इसका भीतरी-बाहरी विशद-व्यापक अंतर्निहित अर्थ ज़रूर घिस गया और धूमिल पड़ गया है। सचमुच ही मनुष्य सामाजिक-पारिवारिक प्राणी है। अकेले वह रह ही नहीं सकता। मनुष्य तो बड़ा सचेतन प्राणी है, बाघ-भालू, हाथी-घोड़ा, गधा-बैल, गाय-बकरी ही नहीं, मधुमक्खी, चींटा-चींटी जैसे अति लघु-किमाकार जीव भी समूह में, परिवार में ही रहते हैं। और-तो और पेड़-पौधों में भी सामूहिकता का भाव साफ-साफ दिखायी पड़ता है। फलों-फूलों, फसलों-लताओं में भी वही बात दिखती है। सब स्फुट-अस्फुट परस्पर संवाद भी करते रहते हैं। संपूर्ण चराचर जगत संवाद-संवलित है। बिना संवाद किये रह ही नहीं सकता।
उपनिषदों में रहस्यात्मक ढंग से मनुष्य की बहु-मयता की वृत्ति की ओर संकेत किया गया है -`एकाकी न रमते : `रूपो-रूपो प्रतिरूपो बभूव'। सोते-जागते क्षण मात्र के लिए भी मनुष्य संवेदना, भावना, अनुभूति, कल्पना आदि के बिना रह ही नहीं सकता।
जब तक कागज का आविष्कार नहीं हुआ, मनुष्य गुफा-भित्तियोंं, शिला-पट्टों, प्रस्तर-स्तम्भों पर मानवीय सभ्यता-संस्कृति, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान-प्रज्ञान की उत्कृष्ट बातें अंकित करता रहा। पेड़ के पत्ते, पेड़ की छालों पर लिखते-लिखते उसे कागज बनाना जिस दिन आ गया, ज्ञान-संचार की राहें और अधिक खुल गयीं। फिर भी हाथ से लिखना अधिक श्रम-साध्य बना रहा। मुद्रण-कला के आविष्कार ने मानवीय अभिव्यक्ति को विस्तार भी दिया, व्यापक-जन-सुलभता भी दी।
पहले लिपि, फिर कागज, फिर मुद्रणयंत्र, फिर टेलीग्राफ, तार-बेतार, फिर टेलीफोन, फिर मोबाइल, इंटरनेट, कंप्यूटर वगैरह। कहां-से-कहां पहुंच गये हम। किताबें, अख़बार, पत्र-पत्रिकाएं, बुकलेट, ज्ञान-विज्ञान का विस्फोट! रेडियो, टी.वी., तमामो-तमाम चैनल, फिल्में सूचना-समाचार के सवाक्, सदेह, सचेष्ट संवाद पास के, दूर के, दुनिया-जहान के, जल-थल, धरती-आकाश, ग्रह-उपग्रह क्या-कुछ नहीं हो गया है सहज गोचर, सहज दृश्य, सहज श्रव्य, सहज संचार्य।
भारत को बड़ा पिछड़ा देश माना जाता था। था भी। अब भी ग़रीबी, अशिक्षा और अस्वास्थ्य की दृष्टि से उसकी गणना काफी नीचे ही होती है। मगर ८५ के बाद और ९० के दशक में आयी संचार-क्रांति ने तो चमत्कार ही कर दिया है। संचार-क्रांति में हम अमरीका-रूस-चीन से टक्कर ले रहे हैं। कुछ मामलों में हमने सबको पिछाड़ दिया है।
लोक-भाषाओं, बोलियों-उपबोलियों के ऊपर आंचलिक, प्रादेशिक, राष्ट्रीय, राजकीय, वाणिज्यिक, व्यावसायिक आदि नाना-भाषा-रूप हैं। भाषा विज्ञानियों ने बड़ी गहरायी और व्यापकता के साथ सारी दुनिया की भाषाओं का ध्वनि, शब्द, अर्थ, रूप, आकार, लिपि आदि के आधार पर बड़ा विस्तीर्ण रूपण-स्वरूपण और वर्गीकरण किया है। भारोपीय भाषा-कुल विश्व का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाषा-समूह है। भारत उसी का अंगभूत है। पुन: भारत में भारतीय आर्य भाषाएं और द्रविड़-कुलिक मुख्य भाषा-समूह है। बंगला, उड़िया, असमिया, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि प्रमुख प्रादेशिक आर्य भाषाओं के साथ हिंदी बहु-व्यापक भारतीय आर्य-भाषा है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, द्रविड़-कुल की मुख्य भाषाएं हैं। बंगला, तमिल, मलयालम और हिंदी का साहित्य बहुत समृद्ध है। हिंदी सर्वोपरि अब भारत की प्रधान राष्ट्रभाषा और राजभाषा है। निस्संदेह अंगरेज़ी अभी सबके ऊपर है।
जहां तक संचार माध्यमों का संबंध है, वह निरंतर विकसित होता रहा है और इसमें ध्वनि को अधिक तीका गति से भेजना संभव हुआ। वैसे तो भाषाओं के अनुपात में लिपियों की संख्या कम है, जैसे रोमन लिपि में अंगरेज़ी सहित योरोपीय और अमरीकी भाषाएं लिखी जाती है उसी प्रकार हिंदी की अपनी कोई लिपि नहीं है। देवनागरी लिपि का प्रयोग कई भाषाएं करती हैं और हिंदी और उर्दू में लिप्यांतर भले ही हो, लेकिन दोनों का व्याकरण एक ही है। किंतु इसे भाषा के विकास में बाधक नहीं माना जा सकता।
ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ ही जनसंचार माध्यमों पर भी इसका काफी प्रभाव पड़ा है। यदि समाचार पत्रों को जन संचार माध्यम माना जाय तो दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की कुल प्रसार संख्या ६० करोड़ से अधिक है। प्रति वर्ष ७ लाख पुस्तकों की कुल मिलाकर ८ अरब प्रतियां छापी जाती हैं।
भारतीय भाषाओं में लड़ाकू तेवर, साहित्य संरचना का प्रयास, जनता में सान्निध्य, ज्ञान, कला, गुण आदि का समावेश बराबर देखा जा सकता है। यदि उनके साहित्यों का अध्ययन किया जाये तो वह बहुरूपता भाषा की शक्ति के रूप में ही प्रकट होती है। इसलिए उनकी निभायी भूमिका, जनता के सानिध्य और समाज विकास में योगदान को कमतर करके नही आंका जा सकता। जनसंचार माध्यमों में भी यह गुण निरंतर देखा जा सकता है। यही कारण है कि भारतीय भाषाओं को देश की स्वतंत्रता में प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में ही पहचाना जाता है।
चेतना के विस्तार के साथ-साथ जानने की इच्छा का भी विस्तार होता है और परिणामस्वरूप संवाद और संचार के माध्यमों का विस्तार ही नहीं होता, उनमें नये-नये प्रयोग होते रहते हैं और संभावनाएं बढ़ती जाती हैं। राजनैतिक चेतना का विस्तार सारे विकासक्रम पर प्रभाव डालता है। जातीय अस्मिता भी जन-संचार का विस्तार करती है और उनमें नये क्षितिजों की संभावना खुलती है।
भारत बहुत बड़ा देश हैज्ञ्उपमहाद्वीप। उसमें प्राकृतिक, पर्यावरणीय, खानपानगत, वेशभूषागत, रहनसहनगत, रीति-रिवाज-परंपरागत तमाम भिन्नताएं और समानताएं हैं। सभ्यता और संस्कृति की विशद समष्टिगत चेतना तथा राजनीतिक एकबद्धता की भावना के तहत हम एक महान राष्ट्र की भावना से आपूरित होते हैं। हमारा प्रयास रहे कि भारत की तमाम भाषाएं एक साथ सहभावना में विकास करें। एक-दूसरे के प्रति मैत्रीभाव रखते हुए राष्ट्र को समृद्ध, उन्नत और गरिमामय बनायें।

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