Tuesday, November 30, 2010

radhaswami satasang गरुड़ पुराण रहस्य

गरुड़ पुराण रहस्य-1

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गरुड़ पुराण रहस्य

प्रथम भाग 
माता भागवती देवी के जीवन की झाँकी
लेखक:परम दयाल फकीर चंद जी महाराज
माता भागवती देवी परम दयाल फकीर चंद जी महाराज की धर्मपत्नी थींउनका जीवन वृत्तान्त देने के कई कारण हैंसबसे मुख्य तो यह है कि उनकी मृत्‍यु पर परिवार के लोगों के कहने पर गरुड़ पुराण की कथा रखाई गईजिसे महाराज जी ने भी सुनाउसके सुनने पर उसके गुप्त रहस्यों को महाराज जी ने विज्ञान तथा निज अनुभव के आधार पर वर्णन किया हैदूसरा कारण यह है कि जो लोग इस पुस्तक को पढेंगे और इसमें माता जी का उल्लेख आयेगा तो उनके हृदय में उनके बारे में जानने की लालसा पैदा होगीतीसरी बात यह है कि ऐसे परमपुरुष की पत्नी के बारे में जानने की उत्‍कंठा हर एक को रहती है इसलिए उनका वृत्तान्त दिया जाता हैउनके जीवन का संक्षिप्त विवरण मेरी प्रार्थना पर महाराज जी ने स्वयं लिखकर भेजा है जो आगे दिया जाता है किन्तु मैंने भी 10-12 वर्ष के समय में जो उनके बारे में जाना उसको बिना लिखे रह नहीं सकता.
जब मैं पहली बार होशियारपुर गया था तो महाराज जी के पास घर पर ही ठहरा थाउस समय जिस प्रेम भाव से मेरी मां व्यवहार करती थीउसी ढंग से चौके में पास बैठा कर खाना खिलाया और पुत्रवत व्यवहार कियाउस समय ही मैंने यह समझा कि वही मेरी माँ हैउनके चेहरे से सच्चाई और भोलापन टपकता थाहृदय में छल-कपट के लिए कोई स्थान नहीं था.
मैंने यह भी देखा कि वह और लोगों से भी बड़े प्रेम से व्यवहार करती थींसेवा-भाव उनमें कूट-कूट कर भरा थामहाराज जी ने अपने वचनों में स्वयं स्वीकार किया है कि एक समय था जब 25-2530-30 सत्संगी दोनों समय प्रतिदिन इनके यहाँ ठहरे रहते थे और माता जी सारा
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दिन उनके भोजन आदि बनाने में लगी रहती थीं और यह सिलसिला 10-12 साल तक बराबर चालू रहा मगर कभी कोई शिकायत ज़ुबान पर नहीं लाईं.
एक बड़ा गुण उनमें यह भी था कि वे कभी बेकार नहीं रहती थीं। हर समय काम में लगी रहती थींअवकाश के समय में विशेष कर वह चरखा काता करती थींअन्तिम दिन भी वे कते हुए सूत के पिंडे शाम तक बनाती रहीं और थक कर सो गईं.
उनके जीवन की एक मुख्य घटना है जो मुझे श्री गोपाल दास जी से ज्ञात हुईएक समय जब महाराज जी सुनाम स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे तो वहाँ एक सेठ ने एक नया आलीशान मन्दिर बनवाया थापडोस की स्त्रियाँ वहाँ माता जी को लिवा ले गईं.। वहाँ पर एक महन्त रहता थासब स्त्रियों ने उस महन्त के पैर छुए मगर माता जी ने उन सबके आग्रह पर भी उनके पैर छूने से मना कर दिया और कहा कि मैं सिवाय पति के और किसी के पैर नहीं छूती.
उनके जीवन की इतनी घटनाएँ हैं  कि यदि लिखा जाए तो एक बड़ी पुस्तक बन जाएगीयहाँ केवल शिक्षाप्रद बातों का वर्णन आवश्यक समझ कर दिया है आगे जो वृत्तान्त महाराज जी ने स्वयं अपनी लेखनी से लिखा है वह दिया जाता है.
                                                  (देवीचरन मीतल)
(परम संत दयाल फकीर चंद जी महाराज द्वारा)
मेरी स्त्री भागवती दिनांक 15-12-63 को परलोक सिधार गई मैंने गरुड़ पुराण का रहस्य अपनी स्त्री की मृत्यु पर लिखाक्योंजीवन में पहली बार मुझे गरुड़ पुराण के सुनने का अवसर मिला हैइसी क्रम में देवीचरन ने लिखा कि मैं उनके जीवन पर कुछ प्रकाश डालूँ इसलिए लिख रहा हूँ.
मेरी शादी 1911 ई. में हुईदिन याद नहीं हैइतना याद है कि उस दिन अंग्रेज़ सम्राट दिल्ली आया था और उसका दरबार हुआ थाशायद दिसम्बर का महीना थामैं विवाह करना नहीं चाहता थाविचार साधन और अभ्यास की ओर थेदाता दयाल महर्षि शिवब्रतलाल जी महाराज उस समय अमेरिका में थेउनकी आज्ञा भी नहीं ले सकता थापिता जी के मजबूर करने पर रज़ामंद हो गया.
        
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पहली बार मैं जब अपनी स्त्री से मिला तो मैंने कहा कि भागवान् मैं निर्धन हूँसंभव है मैं तुम्हारी सांसारिक आवश्यकताओं को पूरा न कर सकूँइसलिए यह समझ लेना कि हम दोनों घर के नौकर हैंहमने केवल रोटी और कपड़ा ही लेना हैउसके पिता ने भी अपनी लड़की को यही कहा था कि फकीर चंद को किसी वस्तु के लिए तंग न करनाइस स्त्री ने जीवन भर सादा वस्त्र और साधारण भोजन के सिवाय मुझसे कभी कुछ नहीं माँगाउसको थोड़ी बहुत बीमारी रहती थी मगर जब तक रोग के कारण बेबस नहीं हुई उसने कभी इलाज नहीं कराया ताकि खर्च न हो.
मेरे माता-पिता की अत्यन्त सेवा कीयहाँ तक कि दाता दयाल ने प्रयत्न किया कि उसका पासपोर्ट बनवा कर बग़दाद उसको भेज दें मगर उसने मेरे पिता की सेवा को अधिक आदरणीय समझा और घर नहीं छोड़ाकुटुम्ब परवर बहुत थीमेरे भाई के बच्चों की बहुत कुछ सेवा कीउसका फल यह हुआ कि गोपाल दास ने उसकी 7 साल निस्स्वार्थ शारीरिक सेवा की.
वह आत्माभिमानी थीकिसी की अनुचित बात को सहन नहीं कर सकती थीदाता दयाल ने उसको यह आज्ञा दे रखी थी कि यदि कोई अनुचित रूप से बुरा-भला कहे तो वह एक के बदले सोलह सुनायेइस पर वह जीवन भर आरूढ़ रही.
इसको पहले कर्मों के कारण साधारणतया डरावने स्वप्न आया करते थेदाता दयाल इसे नाम नहीं देना चाहते थे मगर मेरे हठ करने पर उन्होंने नाम दान प्रदान कर दियासाधन के समय अभ्यास में भय लगा करता थादाता दयाल को लिखाउत्तर मिला थाप्रारब्ध कर्म ऐसे ही हैंअभ्यास छोड़ देतुम्हारी संगत से कर्म कट जाएँगे.
मैं 12 वर्ष बसरा बग़दाद में रहाअपने विचारों के कारण गृहस्थ से विरक्त रहता था मगर इस समय में जब वह युवा थी किसी तरह की शिकायत मुझे या मेरे माता-पिता को नहीं हुईआज 24 वर्ष से मैं और वह बहैसियत पति और स्त्री नहीं थेउसने मुझे ख़ुशी से इजाजत दी हुई थी.
यद्यपि वह अभ्यास साधन आदि नहीं करती थी मगर उसका विश्वास मालिक पर अवश्य थामैं भक्त होता हुआ तथा ज्ञानवान् होता हुआ कभी-कभी घबराया करता था मगर वह नहीं घबराई बल्कि मुझे हौसला दिया करती थीवह मेरे और स्वास्थ्य खाने-पीने का बड़ा भारी ख्याल रखती थीबीमारी की दशा में भी लड़की या नौकर को हमेशा मेरे भोजन की बाबत हिदायत करती रहती थी.
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पिछली उम्र में उसको सत्संगियों से स्वतः  ही ग़ैरियत आ गई थी विशेषकर स्त्रियों सेक्योंकि जब ये लोग मुझे अपने अज्ञान की भक्ति के कारण अधिक तंग करते थे तो वह व्याकुल जाती थी मगर बीमारी से पहले इसने सत्संगियों की बहुत सेवा की थीअपने बच्चों और घर से मोह अधिक रखती थी.
दाता दयाल ने उसकी हर तरह से संभाल की। एक बार अढ़ाई हज़ार रुपया प्रसाद के रूप में उसको वापस किया35 वर्ष के बाद बीस हज़ार रुपया मेरी स्त्री को दे गएकिसी समय दाता दयाल के संकेत के अनुसार मुझे कई जगह दान देने की आवश्यकता पड़ीइसने पहले बैंक से रुपया निकलवा कर भेजने को कहा मगर चूँकि  वह रुपया दाता दयाल ने उसको दिया हुआ था और कहा था फकीर!  अपना कमाओ और खाओयह रुपया भागवती की सन्तान के लिए है(ओह दाता दयाल!  तेरी याद आती है तो आँसू आ जाते हैं) मैंने उसे स्वीकार नहीं कियातब उसने अपने कुल ज़ेवर जो मैंने बसरा की नौकरी से बनवाए थे मुझे दे दिए और ख़ुशी से दिएइसका फल उसको यह मिला कि मैंने उसकी बीमारी पर काफ़ी रुपया खर्च किया और यह रुपया गिरिधर सिंह वारंगल निवासी ने मुझे उसके इलाज के लिए दियामगर मित्रोमैंने लिया और खर्च कियाकई बार मेरी स्त्री ने कहा,"जब जवान थेकमाते थे अपना रुपया पानी की भाँति बाँटाअब बुढ़ापे में दुम हिलाकर सत्संगियों से लो." उसके शब्द कठोर हुआ करते थे मगर थे सच्चे!
मैंने आवेश में या फ़क़ीरी के भावों के कारण रुपये की परवाह नहीं कीसन 1926 ई. तक तो निर्धनता ही निर्धनता रहीसन 1919 तक सब रुपया माता-पिता की भेंट होता रहाइसके पश्चात दाता दयाल ने सँभाला.
उसके मरने के बाद घर के भिन्न-भिन्न ट्रंकों में से 1979 रुपए निकलेइसमें से कुछ रकम उसके लड़के ने दी हुई थी और कुछ उसने किफ़ायतशआरी करके जोड़ा हुआ मालूम होता हैमेरे लिए वह रकम बड़ी नियामत की हैदाता की आज्ञा है कि फकीर अपनी जीविका आप कमाओअब बुढ़ापा आ गयाअपनी रोटी कमा लेता हूँ मगर कब तकमेरी स्त्री का भला हो जिसने मेरे ऋण को निबाहने के लिए वह रकम इकट्ठी करके मेरे लिए छोड़ गई.
मैं महसूस करता हूँ कि मैं अपना कर्त्तव्य पूरी तरह नहीं निबाह सकायद्यपि मैंने अपनी ओर से अपने सच्चे हृदय से अपने ख्याल के अनुसार सच्ची हमदर्दी और सेवा की है मगर वह
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एक सच्ची स्त्री की हैसियत में अपना कर्त्तव्य पूरा कर गई और अन्त समय बिना किसी कष्ट के या शारीरिक गति के प्राण त्याग गई.
    
गरुड़ पुराण रहस्य
द्वितीय भाग
गरुड़ पुराण पर प्रश्नोत्तर
परम दयाल फकीर चंद की महाराज 
चूँकि मेरी स्त्री की मृत्यु चारपाई पर हुई इसलिए मेरे कुटुंबी जनों ने कहा कि इनका क्रिया कर्म कुरुक्षेत्र में कराना चाहिएउन्होंने गरुड़ पुराण की कथा भी रखवाईमेरे कुछ मित्र जिनका संबंध मेरी तरह सन्त मत से है उन्होंने कई प्रश्न किए तथा अन्य ब्राह्मणों ने इस विषय पर किएजो प्रश्न और उत्तर हुए उनको लेख बद्ध किया जाता है.
प्रश्न- गरुड़ पुराण के कथनानुसार अन्त समय यह वैतरणी नदी और यम दोनों के हाथों से जो कष्ट होते हैं क्या ये ठीक हैं.?
उत्तर- हांमगर सबके लिए नहीं। केवल उनको जो निगुरे हैंजिन्होंने गुरु धारण नहीं किया उनको अवश्यमेव नरक और स्वर्ग भोगने पड़ते हैं?
प्रश्न फकीर साहबआप तो निष्पक्ष व्यक्ति हैं मगर यह गुरु मत का पक्ष क्यों?
उत्तर-मेरी ओर देखो और मेरी बात को सुनोक्या स्वप्न की अवस्था में अनेक लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के दृश्य नहीं देखते हैंकोई पहाड़ से गिरता है.। किसी को साँप बिच्छू डंक मारते हैंकोई शेर चीता आदि से भय खाता हैकोई गंदी नालियों में फिरते हैंकोई समुद्र या
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नदी में तैरते हैंकोई स्वप्न में बड़बड़ाते हैं या रो उठते हैंकोई अच्छे-अच्छे दृश्य देखता हैयह हमारा स्वप्न का जगत क्या है?  यही तो नरक और स्वर्ग का दृश्य हैजो हमको कष्ट देता है या सुखी करता है.
यमराज और धर्मराज का मार्ग उससे बचाव
प्रश्न- यह ठीक है मगर यह स्वप्न हैक्या मरने के बाद भी यही दशा होती है?
उत्तर- मृत्यु भी एक लम्बा स्वप्न हैजिस प्रकार इस स्वप्न के पश्चात जाग्रत अवस्था आती है इसी प्रकार इस मृत्यु के लम्बे स्वप्न के बाद भी जाग्रति आती हैक्योंकि प्रत्येक स्वप्न का परिणाम जाग्रति होना अनिवार्य हैइस हमारे स्वप्न में या हमको कोई दूसरा आदमी आवाज़ देकर या शरीर को हिलाकर जगा देता है अथवा हम स्वयं जागते हैं मगर मृत्यु के बाद जो हम अपने मानसिक स्वप्न या संकल्प-विकल्पों से जाग्रत होते हैं तो चूँकि यह शरीर नहीं होता है इसलिए या तो हम किसी दूसरी देह में जाएँगे या उस स्वप्न से या मानसिक कल्पनाओं से ऊपर जाकर किसी और जगह रहेंगेइस स्वप्न के समय को यमराज या धर्मराज का मार्ग कहते हैं.
जो आदमी अकाल मृत्यु से मरते हैं अर्थातजिन्हें मरने का ज्ञान नहीं होता है कि वे मर रहे हैं वे अपनी मानसिक दुनिया में अपने ही स्वप्न में रहते हैंक्योंकि उनका शरीर नहीं होता है इसलिए उनका सूक्ष्म शरीर भटकता रहता हैऐसे प्राणियों की सद्गति के लिए अर्थात् उनको उस स्वप्न से या इस भटकने से बचाने के लिए यह अनिवार्य है कि कोई उनके सूक्ष्म शरीर के स्वप्न को तुड़वा दे और उनको यह विश्वास करा दे कि यह स्वप्न जो तू देख रहा है यह वास्तव में तेरा अपना ही ख्याल है और तू इससे निकल। ये जितने क्रिया-कर्म आदि हैं उनका असली मन्तव्य यही है कि मरने वाले के स्वप्न को तोड़ दिया जाए और उसको जगा दिया जायताकि इसकी सुरत जाग्रत होकर अपनी कल्पना से बाहर हो जाय.
प्रश्न- क्या कोई प्रमाण आप दे सकते हैं?
उत्तर- कुछ वर्ष की बात है एक पढ़ा लिखा आर्य समाजी गुजरांवाला के ज़िले का निवासी था(पूरा याद नहीं मगर समाचार-पत्र में पढ़ा था) वह एक मकान में किराए पर रहाउसको रात को एक सूक्ष्म शरीर वाली स्त्री ने आकर कहा कि वह एक ब्राह्मणी की आत्मा हैउसका प्रेम एक मुसलमान से थाउसके साथ रही मगर उसने अपना धर्म नहीं बदलाजब वह मर गई तो
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मुसलमानों ने उसको क़ब्रिस्तान में दबाने नहीं दियाउसके मुसलमान पति ने उसको अपने ही मकान में दबा दियासमय के बाद उसका मुसलमान पति भी मर गयाउस ब्राह्मणी के सूक्ष्म शरीर ने इस आर्य समाजी को कहा कि मकान के अमुक हिस्से में क़ब्र को खुदवा कर उसकी हडि्डयाँ जला दे और हरिद्वार में पहुँचा देइस आर्य समाजी सज्जन ने ऐसा ही किया और हरिद्वार में जाकर उसकी हडि्डयाँ फेंक दींइसके पश्चात फिर उस औरत ने दर्शन नहीं दिए.
बात यह है कि मरने वाला जिस प्रकार के विचार अपने मन में रखता है वही सूक्ष्म शरीर देखता रहता हैचूँकि वह स्त्री ब्राह्मणी थी उसको हिन्दू धर्म से ऐसे ही संस्कार मिले हुए थेवह प्रेत-योनि में रहती थीजब उसके ख्याल की पूर्ति हो गई वह चली गई.
दूसरे दाता दयाल महर्षि जी महाराज की घटना हैउन्होंने एक मुसलमान स्त्री की आत्मा को देखा था जिसने अपने बच्चे की बीमारी की दवा बताई थीजिन्हें अपने मरने का ज्ञान होता है कि वे मर रहे हैं और उनके सूक्ष्म शरीर को अर्थात् मन को सत्संग द्वारा ज्ञान हुआ है कि मनुष्य क्याहै कहाँ से आया हैकहाँ को जाना है तो वह अपने आदि तत्त्वोंअसली तत्त्वों या असलियत की ओर स्वयं चले जाएँगे और इस मानसिक शरीर के बन्धनों से स्वतंत्र हो जाएँगे.  
यदि मन को यह ज्ञान नहीं है और वह सिवाय अपने मन के विचारों के और कोई जीवन नहीं जानते हैं उनको इनके रिश्तेदार या मित्र अपने कर्म से या बातों से बोध कराकर उनके स्वप्न को तोड़ देते हैं और वह प्राणी फिर मानसिक जगत में आकर दूसरे शरीर में चला जाता है और पहले स्वप्न अर्थात् जन्म की घटनाओं को भूलकर एक नया स्वप्न यानी जीवन धारण करता हैइसलिए प्राणी के लम्बे स्वप्न को तोड़ने के लिए क्रिया कर्म है.
इसलिए राधास्वामी मत के बारह मासा में सावन मास के शब्द में लिखा है कि बिना गुरु भक्ति और नाम भक्ति के कोई प्राणी इस यमराज और धर्मराज के चक्र से बच नहीं सकता हैवाणी पढ़ कर देख लो.
प्रश्न- तो क्या ये सब गुरु भक्त यमराज के चक्र से बच जाएँगे?
उत्तरहाँ और नहींहाँ इसलिए कि यदि किसी ने किसी सत्पुरुष के सत्संग से भेद या रहस्य को जान लिया है तो चल जाएगा और यदि किसी ने रस्मी तौर से गुरु मत को धारण किया है और अज्ञान तथा भ्रम से केवल मत्थे टेकताभेंट चढ़ाता है वह किसी सूरत में इस मन के चक्र से नहीं निकलेगा मगर फिर भी वह नरक में न जाएगाकहा है-
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                                           बुरा भला जो गुरु भगत,
                                           कबहूँ नर्क न जाय ।।
प्रश्न-यह क्यों और कैसे?”
उत्तर-चूँकि मरते समय उसके विश्वास के अनुसार उसके अन्दर कोई न कोई रूप चाहे राम का चाहे गुरु या कृष्ण का अथवा किसी और का प्रकट होगा उसका मन सिवाय इस रूप के किसी दूसरी ओर नहीं जायेगाइसलिए उसके मन के संकल्प न उठेंगे और वह उस वैतरणी नदी में जिसका उल्लेख गरुड़ में हैनहीं जाएगायह नरक या वैतरणी नदी आदि मानसिक और कल्पित हैं और चूँकि मनुष्य के गंदेस्वार्थपरतालोभलालच आदि के भाव या संस्कार मनुष्य के चिदाकाश पर मौजूद रहते हैं इसलिए उसके लम्बे स्वप्न अर्थात मृत्यु के बाद या जीवन के स्वप्न में फुरते हैंयदि किसी भी इष्ट वाले को सत्संग द्वारा कुछ समझ आई है तो वह नरक में नहीं जा सकता है अर्थात उसका मानसिक स्वप्न जो चिदाकाश के बुरे या गंदे संस्कारों के कारण आता हैध्यान योग की बरकत से नहीं आएगाइसलिए कहा गया है कि- ‘बुरा भला जो गुरु भगत कबहुँ नरक न जाय.’
नरक स्वर्ग वैतरणी
प्रश्न- जो बुराइयाँ या गलत और गंदे विचार मनुष्य ने लिए हुए हैं वे कैसे दूर होंगे.
उत्तर- वे कर्म ध्यान की शक्ति सेअपना मानसिक अर्थात कल्पित खेल नहीं कर सकेंगे किन्तु उनका जो संस्कार है वह संस्कार उसको दूसरे शरीर में प्रभाव दिखाएगावह कल्पित दुःख कहीं भोगेगा.
प्रश्न-तो यह नरक स्वर्ग या वैतरणी कहीं बाहर नहीं हैं?
 उत्तर-ये मेरी समझ में कल्पित हैंजिस प्रकार हम अपने ख्याल से स्वप्न में अपनी नई दुनिया बना लेते हैं इसी प्रकार अन्त समय प्राणी अपने संकल्प से अज्ञानवश अपनी मानसिक रचना आप बना लेते हैंयद्यपि वह कल्पित होती है मगर वह कल्पना जब तक है अति दुःख या सुख का कारण बनती है.
     
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यदि देखा जाए तो गरुड़ पुराण सत हैवहाँ दो मार्ग से वह सूक्ष्म शरीर जाता है-एक यम मार्ग दूसरा धर्मराज का मार्गजिस तरह प्रत्येक स्वप्न के बाद उत्थान होता है इसी प्रकार पहले मानसिक कल्पना में जो यम का मार्ग है इससे प्राणी गुजरता हैचूँकि हर संकल्प के बाद उत्थान का होना और किसी अन्य जगह ठहराव का आना लाजिमी है इसलिए यमराज के मार्ग के आगे धर्मराज का मार्ग आता है और यहाँ से फिर उस प्राणी की दूसरी योनि कर्मानुसार मिलती हैयह गरुड़ पुराण का कहना है.
जो पहले ही ज्ञानारूढ़ होकर मरते हैं उनको यममार्ग में जाने की कोई आवश्यकता नहींवह ध्यान योग की शक्ति से तुरन्त ही इन संस्कारों की बदौलत जो उसके चिदाकाश पर होते हैं दूसरी योनि ले लेते हैं इसलिए राधास्वामी दयाल ने कहा है:-
    यम पुर से अब सत गुरु राखें।
                                बहुत जीव नरक को ताकें ।।
इसलिए कोई ध्यान योग को करने वाला या किसी का ध्यान करने वाला किसी सूरत में इस वैतरणी नदी या नरक लोक में नहीं जा सकता है.
क्रिया-कर्म
प्रश्न- जो प्राणी अकाल मृत्यु से मरते हैं उनको तो अपने इष्ट का ध्यान रहता ही नहीं होगाउनका क्या इलाज है?
उत्तर- उनके सूक्ष्म शरीर का जीवन यानी लम्बे स्वप्न को वे मनुष्य नहीं तोड़ सकते हैं जिनका ध्यान शरीर और मन में ही रहता हैदूसरे शब्दों में जिन्होंने जन्म-मरण को ही जीवन समझ रखा हैऐसे प्राणी जब अपना ख्याल देंगे वे शारीरिक और मानसिक ही देंगेमरने वाला अपने शरीर को न जाने हुए चूँकि छोड़ गया हुआ है वह इसलिए जाग्रत नहीं होगाइसलिए पिछले महा पुरुषों ने उसकी क्रिया-कर्म के लिए कुरुक्षेत्र या हरिद्वार आदि में या नारायण बलि आदि के द्वारा उनकी प्रेत-योनि दूर करने का प्रबन्ध किया हैप्राचीन काल में इन स्थानों पर आत्मनेष्टी महापुरुष जो शब्द और प्रकाश के साधक थे वे अपना ख्याल ब्रह्म या शब्द ब्रह्म में बैठकर देते थेउससे उनकी गति हो जाती थी यानी उनका लम्बा स्वप्न टूट जाता था.
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प्रश्न- क्या इस प्रकार ख्याल देने से दूसरे का स्वप्न टूट सकता है?
उत्तर- यदि मेस्मेरिज़्म वाला अपने ख्याल से किसी को बेहोश करके उससे भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तर ले सकता है और मौजूदा टेलीविज़न और टेलिपैथी ठीक है तो यह भी हो सकता हैख्याल की धार में अत्यन्त शक्ति है बशर्ते कि ख्याल दाता साधक और एकाग्रचित्त हो.
यद्यपि हिन्दू गया और हरिद्वार में यह कर्म कराते हैं मगर मेरा निज अनुभव यह है कि वहाँ उनकी गति शायद न हो सकती हो क्योंकि वहाँ के आचार्य या पांडे आदि की रहनी आत्मिक नहीं होती हैजो जैसा है वैसे ही भाव या रेडिएशन उसके अन्दर से निकलते रहते हैंइसलिए मैं अपनी स्त्री का क्रिया कर्म स्वयं 22-12-63 को सत्संग में करूँगा.
सांसारिक और व्यावहारिक लोक-लाज के लिए परिवार वालों को अधिकार दे दिया है कि जैसा वे अच्छा समझते हैं अपनी माता या चाची ताई के लिए जो चाहे करें.
प्रश्न- आप गरुड़ पुराण को सत मान रहे हैंइनमें पिंड दिए जाते हैंक्या आप भी अपनी क्रिया कर्म में पिंड देंगे?
उत्तर – मित्रो!  हर एक भक्त याद तो करता है उस ईश्वर को या अपने इष्ट को मगर उसका सुमिरन करने या प्रेम करने के लिए उसकी कोई न कोई मूर्ति बनाता है अथवा कोई न कोई चिह्न बना लेता हैयह पिंड वास्तव में मृतक प्राणी की मूर्ति मानी जाती है और उसके अनुसार मनुष्य अपना ख्याल उस प्राणी को देता हैपिंड तो केवल एक चिह्न ख्याल देने के लिए है और कोई प्रयोजन नहींमैं अपने ख्याल से  स्त्री का ध्यान करके उसको मुखातिब करता रहता हूँ और उस दिन करूँगा.   
प्रश्न – क्या आपके ऐसा करने से आपकी स्त्री का सूक्ष्म शरीर आपकी बात सुन लेगा?
उत्तर- यदि धन्ना भक्त का ईश्वर पत्थर द्वारा बोल सकता हैयदि नामदेव की मूर्ति उसका दिया हुआ भोजन खा सकती हैतो मेरी स्त्री भी मेरे ख्याल को सुन सकती है.
प्रश्न- मगर यह हो सकता है कि धन्ना भक्त का ईश्वर उसका अपना ही मन हो और नामदेव की मूर्ति भी उसकी अपने ही मन की वृत्ति हो तो आपकी यह क्रिया (अमल) भी आपका ही मन होगा
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उत्तरठीक हैमगर यदि मन की शक्ति रूप धर सकती है तो मन की वृत्ति दूसरे के सूक्ष्म शरीर को भी गति दे सकती हैविचार की शक्ति पहिले विचार को ही बदलती हैविचार के संगठन का नाम मन हैसूक्ष्म शरीर है.
प्रश्नबात साफ हो गई मगर आवागमन के चक्र से रिहाई क्या कोई बाहरी गुरु कर सकता है?
 उत्तर –वहाँ भी बाहरी गुरु की दया की आवश्यकता हैवह गुरु सत्संग में सत्संग कराकर मनुष्य की तवज्जह को या उसकी सुरत को मन से पृथक कराकर अपने आत्म-स्वरूप प्रकाश रूप में ठहरने की सच्ची हिदायत दे सकता है और विश्वास करा सकता हैयदि मनुष्य चाहे तो अपने आपको मन के चक्र से अलग रख कर शब्द और प्रकाश के रूप में अपने आपको बदल सकता हैसच्चे संत के सत्संग से मनुष्य स्वयं एकाग्रचित्त हो जाता है और उसका ख्याल बदल जाता है
प्रश्न--- क्या कोई बाहरी गुरु जिस तरह कोई किसी को स्वप्नावस्था में प्यार करता है इसी प्रकार प्राणी को शब्द और प्रकाश में अपने ख्याल से ले जा सकता है?
उत्तर ---हांबशर्ते कि वह आदमी इस बात का इच्छुक होयमराज मार्ग में तो चूँकि सुरत मन में रहती हुई अपने कल्पित दुःखों से घबराई हुई होती है वह तो शीघ्र चेतवान हो सकती है क्योंकि वह मानसिक रूप से दुखी है मगर दूसरे लोग संसार में रहते हुए दुखी व अशान्त नहीं होतेजो होते हैं उनको महापुरुष अपने ख्याल की धार यानी हित के संस्कारों से इस मन के चक्र से ऊपर ले जा सकते हैं.    
प्रश्न ---कोई प्रमाण?
उत्तर –मेरा जीवन!  जिज्ञासु थाखोजी थामन के चक्र ने इतना बाँधा हुआ था कि इससे निकलना कठिन था किन्तु आकांक्षा  थीदातादयाल (महर्षि शिव) ने युक्ति निकाली कि जिससे मुझे सार तत्त्व और असलियत का भेद मिल गयाअब मैं इस मन के चक्र में फँसता नहीं हूँ और अपने आपको शब्द व प्रकाश रूप मानता हुआ प्रकाश और शब्द की सैर करता रहता हूँकल की मालिक जाने!
प्रश्न---गरुड़ पुराण में एक जगह लिखा हुआ है कि मनुष्य यमराज के मार्ग से गुजरता हुआ धर्मराज के दरबार में जाता हैवहाँ से फिर विभिन्न योनियों में आता है और एक जगह
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लिखा है कि धर्मराज के दरबार के बाद फिर मनुष्य योनि में आता हैइस संबन्ध में आपका क्या विचार है
उत्तर---जो प्राणी धर्म परायण नहीं होते हैं वे यमराज के मार्ग से अर्थात अपने कल्पित विचारों में रहने के पश्चात विभिन्न योनियों में आते हैं मगर जो धर्मराज के दरबार में पहुँच जाते हैं वे फिर मनुष्य योनि में ही आयेंगेअन्य योनि नहीं भोगते हैंअपने संस्कारों को साथ लिए हुए अपने कर्मानुसार मनुष्य योनि में दुःख-सुख आदि भोगते हैं.
 प्रश्न---धर्मराज से क्या अभिप्राय है?
उत्तर ---किसी एक सिद्धान्त का पूर्णतया दृढ़ विश्वासी होना ही धर्म कहलाता हैजब मनुष्य अपनी समस्त कल्पनाओं का किसी एक सिद्धान्त के साथ लगाव कर लेता हैतो वह सिद्धान्त उसकी समस्त कल्पनाओं को एकाग्र करके एक केन्द्र पर ले आता हैदेखोआप लोग अभ्यास करते हैंचूँकि आपके अभ्यास का कोई प्रयोजन है और इस प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए अनेक बार विभिन्न बातें सोचते हो मगर अन्त में इन कुल वासनाओं या विचारों को जो अपने ध्येय को प्राप्त करने के लिए सोचे थेध्येय के पूरा होने पर छोड़ देना पड़ता है अथवा वे छूट जाते हैंइसी तरह जिस मनुष्य ने किसी भी ध्येय को जीवन में सामने रखा उसने उसके प्राप्त करने के लिए जो-जो कुछ अनेक प्रकार के विचार लिए वे सब समाप्त हो जाने हैंइसलिए धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है और वह नरक स्वर्ग के चक्र से मनुष्य को निकाल कर एक स्थान पर पहुँचा देता हैइसलिए जिसने जीवन का कोई ध्येय नहीं बनाया और उसकी ऐसे ही गुज़री जिस में उसकी वृत्तियाँ उसको विभिन्न प्रकार के खेलों या कर्मों में फिराती रहींवह मरने के पश्चात यमराज के मार्ग से होता हुआ फिर अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियाँ लेता रहेगा और यदि कोई धर्म या ध्येय है तो उस ध्येय को पूर्ण कर लेने के लिए फिर मनुष्य योनि ही मिलेगी.
प्रश्नगरुड़ पुराण में लिखा है कि मृतक प्राणी धर्मराज के दरबार से होते हुए चार मार्ग से जाते हैंदक्षिणउत्तरपूर्व और पश्चिमउसका अभिप्राय क्या है.
उत्तर- मुझे क्या खबर कि गरुड़ पुराण के रचयिता ने यह कैसे लिखा है मगर मैं इस वर्तमान समय का आदमी हूँसाधन किया है और करता हूँआचार्य बनकर जो अनुभव प्राप्त हुए हैं उनके आधार पर उत्तर देता हूँ.
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मनुष्य का आत्मा प्रकाश स्वरूप हैइसका निश्चय मुझे साधन से हुआ हैमैं साधन में प्रकाश स्वरूप होता रहता हूँ मगर इस प्रकाश रूपी आत्मा पर मन अर्थात विचार के खोल चढ़े हुए होते हैंजब प्राणी का आत्मा इस खोल को लिए हुए अपने शरीर को त्यागता है वह इस खोल में फिरता हैयदि उसके मन में सांसारिक वस्तुओं से संबन्ध है यानी उनकी वासना है तो वह उसका शरीर भारी होगा और वह दक्षिण की ओर यानी नीचे को उतरेगायदि उसके विचार प्रेम प्रीतिभलाई के होंगे तो उसकी वासनाएँ कम भारी होंगी और वह पूर्व या पश्चिम की ओर जायेगायदि वह निर्वाण आदि का इच्छुक होगा तो बिल्कुल हल्का होने के कारण ऊँचा चढ़ कर फिर ठहरेगापृथ्वी गोल है और यह हर समय घूमती रहती हैभारी वस्तु सदा आकर्षण शक्ति के नियम के अनुसार नीचे को आती हैफिर अपने-अपने केन्द्र पर बैठकर वहाँ अपनी-अपनी वासनाओं के अनुसार जो उसके चिदाकाश पर चित्रगुप्त के रूप में मौजूद हैं वह वहाँ से फिर विभिन्न योनियाँ लेता है.
मगर जो मरने से पहले अपने अन्तर प्रकाश और शब्द रूप हो जाता है वह सीधा बड़े प्रकाश में चला जाता है और शब्द का स्वरूप हो जाता हैइसलिए कोई धर्मराज का दरबार नहीं है क्योंकि धर्मराज मन का ही रूप हैयमराजचित्रगुप्तधर्मराज ये मन के तीन रूप हैं.    
यमराज मन के अनेक प्रकार के ख्यालातचित्रगुप्त मन के अन्दर दबी हुई वासनाएँ हैं और धर्मराज मन की एकाग्रता है
धर्मराज का स्थान
प्रश्न- इस धर्मराज का स्थान कहाँ है?
उत्तर – मनुष्य के मन के अन्दर जो त्रिकुटी का स्थान है जहाँ ध्यानध्येय और ध्यानी तीन अवस्थाओं की एकत्रित अवस्था है वह हमारे अन्दर भी है और बाहर में भी हैशरीर के त्याग के पश्चात मनुष्य का सूक्ष्म शरीर अपनी मानसिक का ख्याली दुनिया में चला जाता हैचूँकि उसके जीवन में किसी न किसी प्रकार की इच्छा होती  है और प्रत्येक मनुष्य अपने ध्येय का कोई न कोई नाम या रूप बनाता है इसलिए वह रूप-रँग उसके सामने आते हैं और हर रूप-रँग चूँकि कल्पित होता है समय के पश्चात समाप्त हो जाता हैजब यह समाप्त होता है उसके मन को ठहराव मिल जाता हैइस ठहराव का नाम धर्मराज का दरबार हैचूँकि वासनाएँ गुप्त रूप से

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उसके अन्दर हैं इसलिए उनके गुप्त चित्र फिर उसको वासनाओं के पूरा करने के लिए दूसरे शरीरों में जन्म देती हैं.
मैंने गरुड़ पुराण को जीवन में पहली बार सुना थाकथन भयानकरोचक और यथार्थ भी हैंसोलहवां स्कंद यथार्थ हैपहले कथन रोचक और भयानक हैंबहुत कम लोग यथार्थ को समझ सकते हैंजो वर्णन शैली प्राचीन ऋषियों ने ग्रहण की वही संत कबीर आदि संतों ने ग्रहण कीयथार्थ बात में आकर्षण कम होता हैउसको केवल शुद्ध बुद्धि वाले मनुष्य समझ सकते हैं.
धर्मराज और त्रिकुटी
प्रश्न – राधास्वामी मत वाले आपके साथ कैसे सहमत होंगेवहाँ त्रिकुटी में लाल रँग बताते हैंओम या मृदंग का शब्द सुनाई देता हैकितने ही योजन उसका विस्तार बताते हैं और आप धर्मराज के स्थान को त्रिकुटी का स्थान कहते हैं.   
उत्तर--गरुड़ पुराण में भी धर्मराज के दरबार की कई योजन लम्बाई चौड़ाई आदि वर्णन की हैवहाँ सुनहरे रँग के प्रकाश का भी उल्लेख हैलम्बाई का अनुभव जो मुझे है वह सत्य हैनाप-तोल तो मैंने नहीं की शायद किसी ने भी न की होमालिक जाने!  यमराज के मार्ग की भी काफ़ी लम्बाई गरुड़ पुराण में वर्णन की है अनुमान से सत्य मालूम होती है.
अनेक प्रकार के बाजों का भी उल्लेख हैमेरी समझ में हिन्दू धर्म वालों को अपने शास्त्रों का अमली अनुभव नहीं है और न राधास्वामी मत वालों को अपनी वाणी का अमली अनुभव हैयह रहस्य केवल गुरु कृपा से ज्ञात होता हैकलियुग में शास्त्र सबके सब कील दिए हैं ऐसा उल्लेख है और सन्त कबीर और राधास्वामी दयाल ने भी भेद को गुप्त रखासन्त कबीर का कथन है:-
धर्म दास तोहि लाख दुहाई ।
सार भेद बाहर नहिं जाई ।।
राधास्वामी दयाल कहते हैं:-
                                     सन्त बिना कोई भेद न जाने,
                                    वह तोहि कहें अलग में ।
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परिणाम यह हुआ कि यह संतमत जो सनातन धर्म की एक शाखा है और केवल निवृत्ति मार्ग की शिक्षा देता है इसके अनुयाइयों में भी भिन्नता हो गई और हम सबके सब आपस में बंट गएमैंने जगत कल्याण के ख्याल से बात को स्पष्ट कर दिया और वाणी जाल से आप तो निकल गया हूँ दूसरों को निकालने का साहस कर रहा हूँ.
धर्मराज का दरबार –फिर जन्म
प्रश्न ---अच्छा!  गरुड़ पुराण में लिखा है कि धर्मराज के दरबार से प्राणी वापस आकर जन्म लेते हैंवे वापस आकर कैसे विभिन्न योनियों में आते हैं?
उत्तरसूक्ष्म शरीर क्या हैवासनाओं का केन्द्र हैयह अपने लम्बे स्वप्न के जीवन को भोगता हुआ स्थिर हो जाता हैउसका स्वप्न यमराज है ठहराव धर्मराज है और वासनायें जो गुप्त हैं वह चित्रगुप्त का स्थान हैठहराव के पश्चात फिर अपनी वासनाओं के कारण आकाश मण्डल में घूमता रहता है और यह वासना रूपी आत्मा अनुकूल विचार या वासना वाले स्त्री-पुरुष के दिमाग के साथ मिलकर उनके रक्त और वीर्य में आ जाता है और बच्चे के रूप में पैदा होता है और अपने कर्म का सिलसिला जारी रखता हैयही बात गरुड़ पुराण में है और यही बात सावन मास के व अन्य शब्दों में है जो सार-वचन पद्य में और गद्य में मौजूद हैवासना रूपी सूक्ष्म शरीर चुम्बक के नियम के अनुसार पुरुष व स्त्री के दिमाग में असर करता है.
चौरासी के चक्र से छुटकारा
प्रश्न – उसको 84  के चक्र से छुटकारा कब मिलता है?
उत्तर- जब तक यह प्रकाश और शब्द रूप न हो जायआवागमन का चक्र कभी समाप्त न होगाउसका इलाज गरुड़ पुराण में गायत्री का अजपा जाप और गुरु स्वरूप का ध्यान हैयही बात राधास्वामी मत या संतमत में हैयहाँ अजपा जाप और गुरु स्वरूप का ध्यान हैइसके बाद प्रकाश का मार्ग हैगरुड़ पुराण की गायत्री क्या है?
ओम् भूः भुवस्वमहजनतपसत्यम । तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनप्रचोदयात् ।।
     
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अर्थात् इन श्रेणियों से आगे जो सावित्री रूपी प्रकाश है उसके दर्शन करो जो तुम्हारी बुद्धि का प्रेरक हो । यही बात राधास्वामी मत में है कि सहसदल कंवलत्रिकुटीसुन्नमहासुन्नभंवर गुफा से आगे सतलोक जो शब्द और प्रकाश का भंडार है या मंडल है उसमें चलो । तब तुम्हारा आवागमन समाप्त होगा ।
प्रश्न –गुरु का ध्यान तो मानसिक ही होगा ?
उत्तर-हांमगर गरुड़ पुराण या हिन्दू शास्त्रों में कहा है :-
                                    गुरुर्ब्रह्मः गुरुर्विष्णुःगुरुर्देवो महेश्वर:
                                    गुरुसाक्षात् परब्रह्मः तस्मै श्री गुरुवेनम:
और संतमत में भी –
                                गुरु को मानस जानते, ते नर कहिये अंध ।
                                दुखी होंय संसार में, आगे जम का फंद ।।
जो यह समझते हैं कि गुरु फकीर चन्द पुत्र मस्तराम या कोई और मनुष्य है वे इस शरीर के फंदे से अर्थात मन के चक्र से नहीं निकल सकते ।
                                गुरु किया है देह को, सत्गुरु चीन्हा नाहिं ।
                              कहे कबीर ता दास को, तीन ताप भरमाहिं ।।
प्रश्न – ऐसा तो कोई भी नहीं समझता होगा । न हिन्दू लोग न सन्तमत वाले.
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उत्तर- तो इन दोनों में से कोई भी आवागमन से बच नहीं सकता हैगरुड़ पुराण में स्पष्ट लिखा है कि परब्रह्म से आगे शब्द ब्रह्म है और सन्तमत में शब्द अनहद को सत्गुरु माना जाता है.

                      शब्द गुरु को कीजिए, बहुत गुरु लबार ।
                      अपने अपने स्वार्थ को, ठौर ठौर बटमार ।।
प्रश्न – तो शब्द गुरु और शब्द ब्रह्म एक की वस्तु हुई?
उत्तर- हां इसलिए मैंने इस सत्संग में यह कहा था कि सनातन धर्म और संत मत एक ही बात है
तत्त्व ज्ञान यही है कि मनुष्य शब्द ब्रह्म या शब्द योग का साधन करे और अपने आवागमन को समाप्त करे.
क्रिया कर्म
प्रश्न- जिन्हें तत्त्व ज्ञान न हुआ हो क्या उनकी क्रिया कर्म अनिवार्य है?
उत्तर-हांअनिवार्य हैजितने भी ये संस्कार हैं सबके सब प्राकृतिक हैंकोई किसी तरीके से करता हैकोई किसी तरीके सेमित्रो!  जीवन इसी ख़ब्त में व्यतीत हुआमौज मुझे सत्पद की खोज के सिलसिले में दाता दयाल महर्षि शिवव्रतलाल जी के चरणों में लाई थीउनके संस्कारों के प्रभाव से मैं यह कामकाज 25 वर्ष से कर रहा हूँइस काम से मुझ स्वयं (अपने) को लाभ पहुँचास्त्री गुज़री और मैं यह समझता हूँ कि यह मौज ने मेरी बेहतरी के लिए ही कियाशेष जीवन में और साधन और अभ्यास करूँगाअब कोई भी जिम्मेदारी नहीं रहीबड़ी लड़की को मेरा लड़का अपने साथ ले जायेगामैं अकेला हो गयामुझे किसी बात का दावा नहीं हैजीवन का अनुभव है. जो भी जीवन शेष है जगत के कल्याण के लिए काम करूँगायदि कोई और प्रश्न- आप लोगों को पूछना हो तो पूछ सकते हैंअपने निज अनुभव के आधार पर उत्तर दूँगा.
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उत्तर- गरुड़ पुराण में तो बहुत विस्तार से काम लिया गया हैआपने संक्षिप्त रूप से काम लिया है.
उत्तर:- वह कृत्य की जो विधि वर्णन करता है वह लम्बी हैमैंने कृत्य को छोड़ दियायह परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है मगर तत्त्व बात सदा स्थित रहती है.
 आवागमन
आवागमन है और यह तब टूटेगाजब तक सूक्ष्म शरीर कायम है तब तक आवागमन विभिन्न लोक लोकान्तरों में होता ही रहता है.
प्रश्न- गरुड़ पुराण में जहाँ जाकर आवागमन का चक्र समाप्त होता है वह शब्द ब्रह्म का स्थान हैतो सन्तमत के सिद्धान्त के अनुसार यह आवागमन का चक्र कहाँ समाप्त होता है?
उत्तर- देखो मित्रो!  मेरा ज्ञान पुस्तकीय नहीं हैमैंने साधन किया है और करता रहता हूँसाधन से और गुरु बनकर जो अनुभव प्राप्त हुए हैं उनसे सिद्ध होता है कि जब मैं शारीरिक मानसिक भान बोध भूल जाता हूँ तो प्रकाश और शब्द रूप हो जाता हूँवहाँ-
                        न कोई तख़य्युल ही रहान कोई रूप न रेखा ।
                        जो कुछ भी रहा शब्द रहाया प्रकाश स्वरूपा ।।
                        इस प्रकाश में नानाविधि की शक्लें हैं बनतीं ।
                        जो कि ज़िन्दगी में कभी कभी थीं मैंने देखीं ।।
     कभी-कभी अशब्द व अप्रकाशपने की अवस्था आती रहती हैवहाँ न मैं न तूचिराग गुल पगड़ी गायबउसके प्रमाण में दाता दयाल का शब्द है--
                        गुरु करो अपने आपकोअपना पता मिले ।
                        उसकी कीजो सैर हो आवे बका मिले ।।
                         बेख़ुद बनो ख़ुदी कोकरो दिल से महवगर ।
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अपनी ही ज़ाते पाक़ मेंज़ाते ख़ुदा मिले ।।
                        बेअक्ली व अक़्ल़ के धन्धों से हो निजात।
                        उस वक़्त़ ज़िन्दगी का भीतुमको मज़ा मिले  ।।
देखो मित्रो मैंने जीवन भर साधन योगकर्म और भक्ति का सौदा किया हैसुरत शब्द का परिणाम बता दिया कि मेरी सुरत साधन करती हुई अशब्द और अप्रकाश गति में चली जाती हैकेवल इस साधन से भी आवागमन नहीं छूटता.
प्रश्न- क्यों?
उत्तर-- साधन के समय आनन्द अवश्य मिलता है और फिर शारीरिकपनेमानसिकपने और आत्मिक अवस्था के भान-बोध अप्रकाश और अशब्द गति में जाने के बाद समाप्त हो जाते हैं मगर फिर उत्थान होता है तो शारीरिकमानसिक और आत्मिक भान-बोध होता है । फिर सुरत इस भान-बोध को देख कर समय-समय पर इन भान-बोध से आकर्षित होती है और फँस जाती हैइसलिए केवल शब्द अभ्यास ही आवागमन से छुटकारा दिलाने वाला नहीं हो सकताइसके साथ सत्पुरुषों का सत्संग जो स्वयं निर्बन्ध होंअनिवार्य है.
मेरे मन में प्रेमभक्तियोग के संस्कार प्रबल थेदाता दयाल ने दया करके आचार्य पदवी दे दीसत्संगियों के तजुर्बों ने सिद्ध किया कि यह सब प्रेम भक्तियोगविचार इस सूक्ष्म प्रकृति के खेल हैं अर्थात मन के खेल हैं और यही मन का खेल माया कहलाती हैजब तक मनुष्य को पूर्ण ज्ञान नहीं होता है कि यह सत-चित-आनन्द सब प्राकृतिक हैंआवागमन से दायमी (स्थायी) मुक्ति असम्भव हैयही बात गरुड़ पुराण में हैराधास्वामी मत में भी मुक्ति का यही रहस्य हैशब्द है :-
                        बंझा ने बालक जाया । जिन सकल जीव भरमाया ।।
                        अज्ञानी नाम कहाया । जन माया सकल उपाया ।।
आदि-आदियदि पूरा पढ़ना हो तो ‘सार वचन’ पद्य से पढ़ लोइस शब्द की आगे कड़ी है :-
                   करमी विषयी और उपासक इन सब चक्कर खाया ।
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                        काल जाल से कोई न बाचानिज घर अपने कोई न आया ।।
                   ब सत्पुरुष दया चित आईकलि में संत रूप धर आया ।
                   सब जीवों को दिया संदेशासत्त लोक का भेद बताया ।।
यही बात गरुड़ पुराण में है कि आवागमन से रिहाई न वेद पाठियों कीन व्रत रखने वालों कीन किसी और ढंग से होती हैकेवल गायत्री के अजपा जाप,  गुरु मूर्ति के ध्यान और परब्रह्म और शब्दब्रह्म की प्राप्ति से होती है.
दाता दयाल का साहित्य इस विषय पर बहुत ही उत्तम और व्याख्या सहित है.
राधास्वामी पन्थ और निवृत्ति मार्ग
प्रश्न – (एक सनातन धर्मी) जब यही बात है तो फिर राधास्वामी नाम की क्या आवश्यकता थीइस पंथ को नया नाम क्यों दिया गया?
उत्तर- यद्यपि इस श्रुति मार्ग या अनहद मार्ग का वर्णन उपनिषद आदि में है और शब्दब्रह्म का संकेत गरुड़ पुराण में भी है मगर आप लोग कितने हैं जो इस मार्ग पर चलते हैंइसलिए कलयुग में जीवों के कल्याण के लिए :-
                   सतयुग त्रेता द्वापर बीता काहु न जानी शब्द की रीता।।
                   कलियुग में स्वामी दया विचारी । प्रगट करके शब्द पुकारी।।
                   जीव काज स्वामी जग में आए । भवसागर से पार लगाए ।।
                   तीन छोड़ चौथा पद दीन्हा । सत्तनाम सत्गुरु गति चीन्हा ।
     जीवों का कल्याण प्रवृत्ति मार्ग में नहीं हैयहाँ सब लोग किसी न किसी रूप में द्वन्द्व की रचना के कारण दुखी हैंसन्तमत केवल निवृत्ति मार्ग अर्थात भवसागर से पार कराने का भेद देता हैयही बात गरुड़ पुराण में है कि प्रत्येक व्यक्ति को धर्मराज का दरबार लाजिमी है और आवागमन लाजिमी हैयह संस्कार जो दिए जाते हैं केवल प्रवृत्ति मार्ग को श्रेष्ठ बताने के लिए हैं.
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प्रश्न- क्या निवृत्ति मार्ग का संस्कार है?
उत्तर – वह भी है मगर यह केवल गायत्री का प्राणायाम है और संतमत में संक्षेप करके सत्नाम या पाँच नाम या राधास्वामी नाम का संस्कार है.
प्रश्न- राधास्वामी नाम का क्या अर्थ है?
उत्तर- राधा आदि सुरत का नाम । स्वामी आदि शब्द पहचान।।
गरुड़ पुराण में शब्दब्रह्म का उल्लेख हैये झगड़े सब शब्द के हैंयह राधास्वामी वास्तव में धुनात्मक नाम है जो हमारे असली तत्त्व की गति की आवाज़ (शब्द) हैआवाजे़ तो अनेक हैं मगर वे स्थूलसूक्ष्म और कारण प्रकृति की गति का परिणाम होती हैंइसी अन्तरीय धुनात्मक नाम के सुनने से मनुष्य की तवज्जह(सुरत) थिर हो जाती हैतब उसको असलीसच्चा और पूर्ण ज्ञान होता है.
प्रश्न-(वही सनातन धर्मी) इसके अधिकारी कहाँ हैइस समय राधास्वामी मत में लाखों आदमी शामिल हैंक्या वे सब अन्तरीय धुनात्मक नाम को सुनते हैं?
उत्तर- आपने पक्ष और कटाक्ष की बात की हैक्या सब सनातन धर्म वालों की एक श्रेणी हैनहीं हैबीज डाला गया हैसंस्कार किसी न किसी जन्म में अपना काम करेगा.
प्रश्न- आपकी इस बात से तो मैं यह समझता हूँ कि आप सनातन धर्म के अनुयायी हैं.
उत्तर- सनातन कहते हैं सबसे पुराने या आदि कोहम सबके सब मनुष्य  ही हैं और हम सबका मार्ग एक की है मगर श्रेणियां हैंमैंने इसलिए शब्द ‘मानवता’ का प्रयोग किया हैहिन्दूमुसलमानसिखईसाई सबके सब मनुष्य हैंहम सबका मार्ग प्राकृतिक हैहम अपने अज्ञान और भ्रमवश भेदभाव बना बैठे हैं.
प्रश्न-ऐसा  क्यों?
उत्तर- गुरु नहीं मिलाकोई सच्ची बात बताने वाला नहीं मिलायदि कहीं कोई है तो भी जनसाधारण परवाह नहीं करते हैंआप भी मेरी स्त्री के मरने पर मातमपुर्सी के ख्याल से आ
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गए और आपने मेरा पिछला सत्संग जो गरुड़ पुराण के आधार पर हुआ था सुनाचूँकि वह अच्छा लगाआप कई ब्राह्मण सज्जन आ गए हैं.
प्रश्नकर्त्ता- बात ठीक हैहम आपके राधास्वामी मत से स्वाभाविक दूर रहना चाहते हैं मगर यदि यही राधास्वामी मत है तो हम हर्षपूर्वक इन विचारों को स्वीकार करते हैंआपने लौकिक व्यवहार को नहीं छोड़ा है.
उत्तर- देखो !  मैं स्वंय तो राधास्वामी मत में नहीं आया थामुझे उस मालिक परमतत्त्वराम या कोई और नाम रखोके मिलने और आवागमन से बचने की लालसा थीवर्षों रोने-धोने के बाद मेरा एक स्वप्न था जो मुझको दाता दयाल महर्षि शिवव्रतलाल जी महाराज के चरणों में ले गया थावहाँ से मेरे भाग्य में यह राधास्वामी मत आयाचूँकि इस मार्ग में निवृत्ति मार्ग के ख्याल से सबका खंडन है मैंने प्रण किया था कि इस लाइन पर सच्चा होकर चलूँगाऔर जो मिलेगा सबको बता जाऊँगा.
चूँकि वही खंडन गरुड़ पुराण के 16वें स्कंध में मौजूद है यद्यपि वर्णन शैली का अन्तर हैइसलिए मेरी तमाम शंकाएँ समाप्त हो गईं और मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि निवृत्ति मार्ग के लिए निचली श्रेणियों में साधनविश्वास आदि आवश्यक है
प्रश्न-वह कैसे?
उत्तर- सहसदल कंवलत्रिकुटीसुन्नमहासुन्नभंवर गुफा आदि का साधन अथवा भूर्भुवस्वः महजनतपलोक का साधन अथवा मानसिक जगत में सुखदाई और लाभदायक होता है.                    
  निर्वाण
प्रश्न- वह कैसे?
उत्तर- यह गरुड़ पुराण का विषय हैमेरी ‘उन्नति मार्ग,  ‘मानव-धर्म-प्रकाश’ पुस्तकों का अध्ययन करोसंतमत में 5  नाम का साधन भी मानसिक जगत की उन्नति का काम करता हैइन स्थानों पर साधन करने से मनानन्दयोगानंदविवेकानन्दज्ञानानन्द आदि मिलते हैंनिर्वाण या अपने घर दायमी वास के लिए निज नामसत नामया राधास्वामी नाम आदि का साधन और किसी पूर्ण पुरुषवीतराग पुरुष या परमसंत का सत्संग अनिवार्य हैं.
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प्रश्न-सत्गुरुपूर्ण पुरुष या वीतराग पुरुष किस जाति का होना चाहिए?
उत्तर- गरुड़ पुराण में लिखा है कि यह गरुड़ पुराण सूत जी ने ऋषियों को सुनाया था और विष्णु भगवान ने गरुड़ से कहा थाहोगामगर सूत जी कौन थेयह स्वयं इतिहास से समझ लोयहाँ जाति पाँति का प्रश्न नहीं हैसब मनुष्य एक हैंजो शब्द और प्रकाश स्वरूप हो गया और यदि वह सत्संग का सिलसिला चालू करता है तो वह भी पूर्ण पुरुषवीतराग पुरुष हो सकता है.
प्रश्न-यह ठीक है कि सूत जी उच्च जाति या कुल के नहीं थे मगर वाणी तो विष्णु भगवान ने गरुड़ को कही थी.
उत्तर-उसका लिखने वाला कोई महान पुरुष हैसम्भव है वेदव्यास जी होंजिन्होंने विष्णु भगवान का नाम रखकर वाणी कही हो क्योंकि गरुड़ पुराण में अजामिल आदि का उल्लेख आता हैइससे सिद्ध हुआ कि यह किसी सन्त का लिखा हुआ हैविष्णु और गरुड़ का एक नाम हैपुराण अलंकार और कथा के रूप में असलियत और सत पद के प्राकट्य के रूप हैंजिस समय ये लिखे गए होंगे उस समय ऐसी ही वर्णन शैली होगीदाता दयाल ने पुराणों की बड़ी प्रशंसा की है और साथ ही सोसाइटी को कायम रखने का ख्याल रहा होगा ताकि सामान्य जनता एक ज़ंजीर में रहे और सामाजिक प्रबन्ध न बिगड़े.
प्रश्न-आवागमन कब मिटेगा?
उत्तर- जब मानव जीवन शब्दब्रह्म के लोक में चला जायेगा या शब्द स्वरूप  हो जाएगाजब तक ऐसा नहीं होता जीव विभिन्न अवस्थाओं में फिरता  रहेगाउस समय तक संस्कार अनिवार्य हैइसके बिना गुज़ारा नहीं होता.
प्रश्न- वे विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं!
उत्तर –योग की श्रेणियाँपिंड और अंड देशगरुड़ पुराण में इसका वर्णन आया है मगर वहाँ संकेत मात्र है.  राधास्वामी मत में इनकी पूर्ण व्याख्या हैयद्यपि वह भी अब वर्तमान समय के बुद्धिवाद के लिए सन्तुष्टि देने वाली नहीं हैमैंने इसलिए उनको वैज्ञानिक ढंग से अक्टूबर  सन् 1962  ई. के ‘मनुष्य बनो’  में स्पष्ट कर दिया है.
     
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चूँकि गुरु ऋण थामेरा यह सन् 1905  ई. का प्रण था कि जो कुछ मेरी समझ में आयेगा वर्णन कर जाऊँगा और इस प्रण का असली कारण यह खंडन था जो राधास्वामी मत व कबीर मत में किया हैइसलिए मैंने यह काम  कियायह मौज होगीऔर क्या कहूँमेरा विचार इन सब प्रश्नोत्तरों को प्रकाशित करने का हैवे सज्जन कहने लगे कि हमें तो बड़ी प्रसन्नता होगीयहाँ तक कि हमने एक-दो समाचार पत्रों में भी आपके गरुड़ पुराण पर प्रकाश डालने का ज़िक्र किया है मगर एक बात का उत्तर दें.
   गुरु की मुख्यता
प्रश्न – यह कि आप ईश्वरपरमेश्वरब्रह्मपरब्रह्म का इष्ट नहीं रखते किन्तु केवल गुरु को ही मानते हैं.
उत्तर- मित्रो अब ज्ञात होता है कि ईश्वरपरमेश्वरब्रह्मपरब्रह्मशब्दब्रह्म ये तो मुझ में पहले भी थे और मैं इनसे ही निकला थामुझे पता न थादातादयाल ने दया करके अज्ञान भ्रम का पर्दा दूर कर दियाअब चेतन्यता की दशा में सिवाय  गुरु  के किसका अहसान मानूँआप ही सोचो!
                      वन्दनम् सत ज्ञान दातावन्दनम् सत ज्ञानमय ।
                     वन्दनम् निर्वाण दाता,   बन्दनम् निर्वाण मय।
                      भक्ति-मुक्ति योग युक्तिआपके आधीन सब ।
                      आप ही हैं सिन्धुसद्गतिजीव जन्तु मीन सब ।
                      आप गुरु सत्गुरु दया और प्रेम के भण्डार हैं ।
                      आप कर्त्ता धर्त्ता हैंकरतार जगदाधार है ।।
                      ऋद्धि सिद्धि शक्ति नौनिधि हैं चरण में आपके ।
                      बच गया भव दुख से जोआया शरन में आपके।।
                      भक्ति दीजै नाम कीसतनाम में विश्राम दे ।
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                      राधास्वामी अपना कीजैराधास्वामी धाम दे ।।
इसलिए इस मानवता मन्दिर में दाता दयाल महर्षि शिव  का और समस्त सत्पुरुषों काजिन्होंने संसार में जीवों के कल्याण के लिए और अज्ञान भ्रम मिटाने  के लिए काम किया हैसाहित्य व महर्षि शिवब्रतलाल जी महाराज का स्टेचू रख रहा हूँ.
गरुड़ पुराण रहस्य
तृतीय भाग
गरुड़ पुराण पर प्रश्नोत्तर
परमदयाल फकीर चन्द की महाराज
          नोट – इस पुस्तक के द्वितीय भाग में परम संत दयाल फकीर साहब ने गरुड़ पुराण के रहस्यों को प्रश्न और उत्तर के रूप में संक्षेप में वर्णन किया हैमगर इस तृतीय भाग में गरुड़ पुराण के रहस्यों की बहुत कुछ व्याख्या की गई है और उनको राधास्वामी दयाल व कबीर साहब की वाणियों के आधार पर तथा वैज्ञानिक ढंग से समझाया गया है ताकि सन्तमत और सनातन धर्म वाले तथा शिक्षित वर्ग सन्तमत और गरुड़ पुराण की शिक्षा को समझ सकें और यह जान सकें कि दोनों की शिक्षा एक ही है और इस प्रकार असलियत को समझ कर पारस्परिक धार्मिक और साम्प्रदायिक भेदभाव व पक्षपात को मिटा सकें!
                                                                                                            (देवीचरन मीतल)
     मैं यहाँ दस साल से आ रहा हूँआज दाता दयाल के स्टेचू को देखाख्याल हुआ कि मैं इनके दरबार में क्यों गयामुझे अपना बचपन याद आता है जब मालिक या परम तत्त्व से मिलने की तड़प में रोया करता थाउस समय मेरा स्वप्न था जो मुझे दाता दयाल (महर्षि शिव) के चरणों में ले गयाउन्होंने मुझे राधास्वामी मत की शिक्षा दीचूँकि स्वामी जी की वाणी (माया संवाद) में सब मत और सम्प्रदायों का खंडन था अतः जीवन में देखना चाहता था कि राधास्वामी दयाल या कबीर ने जो कुछ कहा है उसमें कहाँ तक सच्चाई हैयह या तो मौज होगी या कर्म होंगेइसका फैसला नहीं दे सकता.
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     मैं बचपन से इस लाइन में चला हूँबड़ा साधन और अभ्यास किया है और सच्चे शिष्य और सच्चे गुरु की हैसियत से जो अनुभव किए हैं वह कहता रहता हूँ और कहता हूँ.
     सवा महीना हुआ मेरी स्त्री परलोक सिधार गईब्राह्मण कुल के नाते मेरे कुटुम्बी जनों के कहने पर गरुड़ पुराण की कथा रखवाईमैंने इस कथा को जीवन में पहली बार सुना थागरुड़ पुराण की कथा मरने पर रखी जाती हैउस समय क्यों रखते हैं इसका कारण है.
गरुड़ पुराण सुनाने का समय
     देखो !  जीवों को दुनिया में इतना आकर्षण है कि सच्चाई या सार तत्त्व को सुनने का उनके पास समय नहीं है और न रुचि हैगरुड़ पुराण में पूर्ण ज्ञान भरा हैजो राधास्वामी मत की शिक्षा है वही उसमें हैगरुड़ पुराण सुनाने का समय ऋषियों ने मनुष्य की मृत्यु के बाद रखा हैयह समय उन्होंने बड़ा सोच समझ कर रखा है क्योंकि मरने वाले के घर के तथा बाहर से आने वालों के दिलों पर एक प्रकार का प्रभाव दुनिया की तुच्छता का होता हैइसलिए यह कथा उस समय ही उपयुक्त समझी गई ताकि गरुड़ पुराण को सुनकर दुनिया से वैराग हो जायजब तक संसार से मनुष्य को उपरामता नहीं आती कोई व्यक्ति राधास्वामी मत या संतमत का अधिकारी नहीं होता हैसंतमत की भी शिक्षा उनको है :-
                        विषयन से जो होय उदासा । परमारथ की जा मन आसा ।
                        धन संतान प्रीति नहीं जाके । खोजत फिरे संत गुरु जाके ।।
     लाखों लोग राधास्वामी मत में हैं मगर क्या वे इस शिक्षा के अधिकारी हैंमैंने गरुड़ पुराण सुनाउसमें वर्णन है कि जीव कहाँ से आता है और कहाँ जाता हैकिन-किन अवस्थाओं में होकर उसे गुज़रना पड़ता हैआदि-आदिइस सम्बन्ध में कबीर का कथन है :
               उतते कोई न आइया,  जासे पूछूँ जाय। इतते सब कोई जात हैभार लदाय लदाय ।।
              उतते सत्गुरु आइयाबुधि मति जाकी धीर। भवसागर के जीव कोकाढ़ लगायो तीर ।।
 सत्गुरु 
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     जीव कहाँ से आता है और कहाँ जाता है इस विषय को यथार्थ रूप से केवल सत्गुरु हृदयांकित करा सकता हैवह सत्गुरु वह है जिसे सच्चा ज्ञान और अनुभव हो अर्थात त्रिलोकी के अथवा तीनों प्रकार के शरीरों के परे का जिसे अनुभव हो.
     हमारे तीन शरीर हैं :- स्थूलसूक्ष्म  और कारणइनसे परे वह परम तत्त्व है जो इन तीनों में रहता हैस्थूल शरीर हमारा देह हैसूक्ष्म शरीर हमारा मन हैयह संकल्प का या वासना का केन्द्र हैकारण शरीर शब्द और प्रकाश हैवह आत्म-स्वरूप हैजो वस्तु इनमें रहती है और इनकी साक्षी है वह हम हैंवह परमतत्त्व हैसंत उसे सुरत कहते हैंजब तक कोई मनुष्य शरीर में रहता हुआ शब्द और प्रकाश का अनुभव करता हुआ परे नहीं जाता उसको त्रिलोकी का ज्ञान नहीं हो सकता.
     लोग पुस्तकें पढ़ लेते हैंकिसी ने कोई ग्रंथ पढ़ लियाउसका या गीता या भागवत या रामायण का प्रमाण दे दियाइसी को सब कुछ समझ बैठते हैंउनमें अपनी गाँठ का कुछ नहीं होतामैंने जीवन भर सफ़र किया हैसावन अभ्यास किए हैं और अब भी करता हूँमैं जो कहता हूँ अपना अनुभव कहता हूँयह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ वह ठीक ही है.
     मैं अपनी नीयत से सच्चाई से चला हूँ और जिस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ वह कह रहा हूँ.

गरुड़ पुराण और राधास्वामी और संतमत
     गरुड़ पुराण में लिखा है कि मरने वाले को यमराज पकड़ते हैंवैतरणी  नदी में ले जाते हैंजीव फिर धर्मराज के यहाँ और फिर चित्रगुप्त के यहाँ जाता हैमैं मानता हूँ कि यह ठीक हैइसका प्रमाण भी आगे चलकर दूँगाराधास्वामी दयाल ने भी अपनी वाणी में ऐसा ही कहा है मगर राधास्वामी मत वालों को इतना अनुभव ज्ञान नहीं हैवे एक-दो पुस्तक पढ़कर दूसरे के धर्म का खंडन ग़लत रूप से करते हैंराधास्वामी दयाल ने बारहमासा के सावन माह में लिखा है :-
                   सावन आया मास दूसरा। सास मरी घर आया सुसरा ।।
                   काली घटा शुभात्मन हुआ । श्यामकज में यह मन मूआ ।।
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                     गरजे बादल चमके बिजली। सुरत निरत की झड़ियाँ लागीं ।
                   धुन अनंत शब्दन से चाली ।। वृद अवस्था चेतन लागी ।
                   यमपुर से अब सत्गुरु राखें । बहुतक जीव मौत दर ताकें ।।
     इस शब्द से प्रकट है कि स्वामी जी मानते हैं कि यमपुर है और गरुड़ पुराण भी यही मानता हैफिर दोनों में क्या अन्तर हैकुछ नहीं.
     इसी प्रकार गरुड़ पुराण में अनेक बातों का जैसे नरक स्वर्गयमराजधर्मराजवैतरणीचित्रगुप्त आदि-आदि का वर्णन आया हैइन सब बातों का स्पष्टीकरण संतमत तथा विज्ञान की दृष्टि से आगे किया जाएगा ताकि यह समझ में आ जाय कि गरुड़ पुराण की शिक्षा और संतमत की शिक्षा में कोई भेद नहीं हैहांवर्णन शैली भिन्न-भिन्न है.
यमराज (मृत्यु के बाद की अवस्था)
     देखोयह प्रतिदिन के व्यवहार में देखते हो कि जब जाग्रत अवस्था में होते हो काम करते रहते होजब सोने लगते हैं तब मन अनेक प्रकार के स्वप्न देखता हैकोई अच्छे स्वप्न देखता हैकोई बुरे और भयावहकोई साँपबिच्छूशेरभेड़िया आदि देखता है कोई बड़बड़ाता है कोई गंदी नालियों में गिरता पड़ता है और कोई अनेक प्रकार की यात्नाएँ भोगता हैकहने का अभिप्राय यह है कि मन पर जैसे-जैसे संस्कार पड़े होते हैं चाहे वे प्रारब्ध कर्म के अनुसार हों अथवा बाह्य जगत में देखनेसुनने और कर्मों के कारण होंइन सबकी फिल्म दिमाग पर पड़ती रहती है और मन तरह-तरह के संकल्प विकल्प उठाता रहता हैस्वप्नावस्था में वह फिल्म चलती रहती हैसाधन में जो मन के ख़्यालात होते हैं वे फिल्म बनकर सामने आते रहते हैंबैठे अभ्यास करने और मन ले गया कहीं का कहींउस मन का या मन की उस अवस्था का नाम है यमराजजो स्वप्नावस्था है वही अवस्था साधन में होती है और वही मरने के बाद होती हैमृत्यु के पश्चात जो अवस्था होती है वह साधारणतया एक लम्बा स्वप्न होता है और हमारा प्रतिदिन का स्वप्न थोड़े समय का होता है.
यमराज या उस अवस्था से छुटकारा

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     इस यमराज से कौन रक्षा कर सकता हैराधास्वामी मत में कहा गया है कि यमपुर से गुरु रक्षा कर सकता  हैगुरु कैसे रक्षा करेगावह तुमको गुरु बताएगा अथवा नाम का अजपा जाप और गुरु मूर्ति का ध्यान बताएगाहिन्दू शास्त्रों में गायत्री मंत्र का अजपा जाप और गुरु मूर्ति का ध्यान बताया गया हैइन दोनों में कोई अन्तर नहीं हैअसलियत का ज्ञान न होने से भेद भाव हो गया है.
     अभी मैंने बताया कि यमपुर से गुरु रक्षा कर सकता है और वह तुमको गुरु बता देगाउस गुरु के अनुसार चलना आपका काम हैइसलिए बड़े आग्रह के साथ कहता हूँ कि मेरी बात को एकाग्रचित्त होकर सुनो.
     आप लोग या दुनियाचाहे मुझे अहंकारी कहे मगर मैं विश्वास दिलाता हूँ कि क़ुदरत ने मुझे किसी विशेष मिशन के लिए भेजा हैमेरा मिशन है काल-माया से निकलने का रास्ता साफ़ कर जाऊँएक प्रेतात्मा है जो नाम से बाबा सीलू हैउसका स्थूल शरीर नहीं है मगर वह शरीर सीटी में बातों का उत्तर देता हैजिसके जरिए बाबा सीलू आता है और उत्तर देता हैवह मेरा एक मित्र हैइससे सिद्ध होता है कि जब स्थूल देह से सूक्ष्म शरीर निकलता है वह प्रेत योनि में जाता हैइससे बचने के लिए सुमिरन ध्यान ही सहायक हैसम्भव है दूसरे पंथों में कोई और तरीका हो.
     हमको स्वप्न आते हैंवह 1-2  मिनट के होते है जिसमें वर्षों की घटनायें गुज़र जाती हैंएक बार मुझे मेरी लड़की ने अपना स्वप्न सुनाया कि वह पैदा हुईबच्चे हुएउसका भाई पदम अलग हो गयाइसमें 80  वर्ष लगेहम फिर मिले.  गोद में लियामैं रो पड़ीस्वप्न था मिनट का और साल भोगे 80. यदि सुमिरन-ध्यान नहीं मिला तो इस योनि में पहुँचावेगा जो ऊपर बताई गई हैजब तक तुम स्वप्न में हो दुख-सुख से बच नहीं सकतेइससे कौन बचायेगा?
     एक समय की बात है जब मैं सुनाम में स्टेशन मास्टर थादाता दयाल (महर्षि शिव) वहाँ पधारेवहाँ एक लखपति सज्जन थेउन्होंने मुझसे कहा कि दाता दयाल उनके यहाँ खाना खायेंगेजब उनसे कहा गया तो बोले फकीरक्या तेरे घर में मेरे लिए टुकड़ा नहीं रहाउन सज्जन से कहा कि तुम अमीर और मैं फकीरमेरा तुम्हारा क्या संबन्धउनके कहने का अभिप्राय यह था कि मेरे पास जिज्ञासु आएँसंत मार्ग जिज्ञासुओं का हैइसलिए मैं भी कहता हूँ कि मेरे पास सच्चाई के जिज्ञासु आएँ या वे आएँ जो 84  के चक्र और आवागमन से बचना
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चाहते हैंउनको चाहिए  कि वे गुरु सेवा करेंबिना सेवा के किसी को कुछ नहीं मिलता फिर गुरु सेवा क्या है?
गुरु सेवा और गुरु
                   दर्शन करे बचन पुनि सुने । सुन सुन कर निज मन में गुने ।।
                   गुन गुन काढि लिए तिस सारा । काढ़ि सार तब करे अहारा ।।
                   करि अहार पुष्ट हुआ भाई। भवभयभौ सब गए नसाई ।।
     यह है गुरु सेवायदि धन देने वाले परमात्मा को पा सकते तो इस दौलत को पा जाते और निर्धन उससे वंचित रह जातेमगर यह तो सुरत (तवज्जह) देने का विषय हैवचन सुनने और उनके गुननेमनन करने से जैसा कि वाणी में ऊपर कहा है तुम्हारा बेड़ा पार होगाकेवल गुरु-गुरु  या राधास्वामी- राधास्वामी करने से काम न बनेगाक्योंकि तुमको इस भवसागर से और यमराज से सत्गुरु ही निकाल सकता हैवह सत्गुरु कौन हैवह है सच्चा ज्ञानसच्चा विवेक और सच्चा अनुभव और यह ज्ञानविवेक तथा अनुभव जब मिलेगागुरु से ही मिलेगा.
     जो लोग यह समझते हैं कि गुरु मरता है और जन्म लेता है अथवा एक गुरु मरा दूसरा गद्दीनशीन हुआ और ऐसा समझ कर उनको पूजता है तो उसका बेड़ा पार नहीं होताकबीर साहब का सत्गुरु की बाबत कहना है :-  
                   सत्गुरु चीन्हो रे भाई
                   सत्त नाम बिन सब नर बूड़े नरक पड़ी चतुराई ।।
                   वेद पुरान भागवत गीताइनको सबै दृढ़ावै ।
                   जाको जनम सफल रे प्रानीसो पूरा गुरु पावै ।।
                   बहुत गुरु संसार कहावेंमंत्र देत है काना ।
                   उपजें बिनसें या भौ सागरमरम न काहू जाना ।।
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                   सत्गुरु एक जगत में गुरु हैंसो भव से कढ़िहारा ।
                   कहैं कबीर जगत के गुरुआमरि मरि लें अवतारा।।
     दृढा़ने का अर्थ है रटनाउन्हीं शब्दों को बार-बार बोलनावेदों का पाठ इसी तरह से 84  के चक्र से छुड़ाने के लिए दृढ़ाना हैयह नहीं कि वेदों का पाठ गलत हैस्कूल  में जो बच्चा पहाड़े बार-बार नहीं बोलता अर्थात दृढ़ाता नहीं वह आगे चल कर फेल रहेगाजब पहाड़े याद हो जायेंगे तब आगे चलेगाइसी प्रकार जब वेद वाणी दृढ़ हो जाएगी तब आगे चल सकेगावेद पाठ का महत्व इतना ही है जितना कि बच्चे के पहाड़े.
     इस सिलसिले में एक बात याद आ गई हैहोशियारपुर में एक वृद्ध पुरुष 82-83 वर्ष की आयु का हैउसने श्री ब्रह्मशंकर जी महाराज से नाम लिया हुआ थाउनके चोला छूटने पर उसने साहब जी महाराज को व उनके बाद दूसरों को गुरु मानाउनका  पोता मेरे पास आयाउसने कहा कि मेरे बाबा इतने गुरुओं से मिलकर भी अशान्त हैंउनकी शिकायत है कि संतमत की शिक्षा गलत हैसोचता हूँ उसने एक गुरु  से नाम लियाफिर दूसरे की गुरु मानाचूँकि गुरुओं ने यह ख्याल दिया हुआ है कि जब एक गुरु मर जाता हैउसकी रूह दूसरे गुरु में चली जाती है मगर सत्गुरु कभी मरता नहींसंत कबीर का भी ऐसा कथन है.  उसकी तालीम सब पंथ वाले मानते हैंउनके पिछले शब्द ‘सत्गुरु चीन्हो रे भाई’  में एक कड़ी आती है.
              ‘सत्गुरु एक जगत में गुरु हैंसो भव के कढ़िहारा ।
              कहैं कबीर जगत के गुरुआ,  मरि मरि लें अवतारा ।।
     जब एक गुरु की रूह दूसरे चोले में आई तो उसकी रूह बिना मरे हुए दूसरे चोले में नहीं जा सकतीअफसोसगुरु के रूप को नहीं समझ गयाइन वृद्ध सज्जन ने गुरु के रूप को नहीं समझा और न वास्तविक रूप से गुरु धारण कियाइसलिए वे अशान्त रहेमेरी ड्यूटी है कि सच्चा और सही मार्ग बता जाऊँबाकी काम तुमको करना हैइस साफ़ बयानी से मेरी आत्मा पर कोई बोझ नहीं रहता.
विचारों की फुरना

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     जब तुम स्वप्न में हो या अभ्यास में बैठते हो अथवा मृत्यु के बाद लम्बे स्वप्न में हो तो तुम्हारे अन्दर वही फुरेगा या फुरता है जो तुमने अपने जीवन में किया है या सोचा है या जैसे-जैसे विचारों ने तुम्हारे हृदय में घर किया हुआ हैयदि जीवन में धोखेईर्ष्याद्वेष आदि के विचार रहे हैं तो वही रूप बन कर आयेंगेयदि मैं अपनी मान प्रतिष्ठा के लिए सच्ची बात न कह कर तुमको धोखे में रखता हूँ तो वही विचार भयानक रूप रख कर मेरे सामने आयेंगे मैं उनसे बच कैसे सकता हूँ और तुम भी कैसे बच सकते हो?
     मेरी स्त्री को नाम मिला हुआ थावह स्वप्न में डरा करती थीअभ्यास करती तो सांपशेर आदि दिखाई देते और उसे डर लगता थादाता दयाल महर्षि महाराज से कहा गयाउन्होंने कहा कि यह इसके प्रारब्ध कर्म है मगर यह तुम्हारी संगत के कट जायेंगे और अभ्यास करने को मना कर दिया.
     जब तुम लम्बे स्वप्न में जाते हो तो शरीर तो वहाँ होता नहींकेवल स्वप्न की फिल्म चलती रहती हैउस स्वप्न की फिल्म से गुरु बचा सकता हैगुरु तुमको नाम और ध्यान बता देगाकोई संस्कार दे देगा
धर्म
     गरुड़ पुराण में लिखा है कि जब मनुष्य मरता है तो धर्म ही रक्षा करता हैअब धर्म क्या हैधर्म कहते हैं किसी इष्टआइडियलनामविचारसंस्कार को धारण कर लेनातुम देखते हो कि जब साधन में बैठते हो तो मन कठिनता से एकाग्र होता हैछलाँगें मारता हैतरह-तरह के संकल्प उठाता है मगर चूँकि तुमको संस्कार मिला हुआ है तुम गुरु के दिए हुए नाम और रूप को बनाओगे और तुम्हारे चिदाकाश पर जो संस्कार पड़े हैं वे सामने आने लगेंगेउस नाम और रूप ने जिसको तुमने धारण कर रखा है वह तुमको स्वप्न की फिल्म से निकाल ले जाएगा और इस तरह धर्म तुम्हारा रक्षक और सहायक होगा.
     हिन्दुओं में यह प्रथा है कि जब प्राणी मरने लगता है तो उससे गोदान कराते हैं और गाय की पूँछ उसके हाथ में देकर दान करा देते हैंचूँकि हिन्दुओं में गाय को बहुत पूज्य माना गया है तो मरने वाले के सामने यह गाय का ख्याल दूसरे गंदे विचारों से बचा देता है और वह स्वप्न की फिल्म से बच जाता है.

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     कोई भी धर्म या सम्प्रदाय वाला हो यमराज से सबको गुजरना पड़ता हैइसलिए गरुड़ पुराण का यह कथन सबके लिए है चाहे वह ईसाई होसिख होपारसी हो यहूदी होमुसलमान हो या कोई और होकोई बच नहीं सकता है.
     यह सवाल किया जा सकता है कि दूसरे सम्प्रदाय वाले तो यमराज को मानते नहीं हैं फिर उनको यमराज से क्यों गुजरना पड़ेगा?
 यमपुर-यमदूत-चित्रगुप्त
     देखोयमराज शब्द के झमेले में न पड़ोजो सिद्धान्त है उसे समझोसिद्धान्त किसी एक धर्म-संप्रदाय की वस्तु नहीं होतावह तो प्राणी मात्र के लिए लागू होती हैयह विज्ञान का नियम हैतुम जब एकान्त में बैठते हो या अभ्यास करते हो  तो एक विशेष प्वाइंट या ख्याल को लेकर चलते हो और जब तक एक नाम और रूप का सहारा नहीं है तो वह ख्याल बढ़ता ही जाएगायही दशा मरते समय होती हैजो-जो ख्याल संस्कार चिदाकाश पर पड़े होते हैं वे सामने आने लगते हैं और उन्हीं में फँसा रहकर प्राणी शरीर त्याग देता है और इस तरह यमराज से बच नहीं सकता है.
     पहले पहल ख्याल छोटा होता हैइसलिए सूक्ष्म शरीर अंगुष्ठ समान कहा गया हैयदि अभ्यास में सुमिरन ध्यान छूट जाय तो मन के विचार बेहद बढ़ जाते हैंमरते समय किसी को अपने गुरु या इष्ट या राम-कृष्ण आदि का ध्यान बँध जाय तो यह यमराज के दुखों से बच जायगाइसलिए कहा गया है :-
                                              बुरा भला जो गुरु भगतकबहुँ नर्क न जाय ।
     सवाल होता है कि क्या कोई वास्तव में यमपुर हैहाँहैदेखोहमारे शरीर के अन्दर असली रूप सुरत हैइस पर प्रकाश का रूप चढ़ा हुआ हैउस पर मन का खोल हैजब मनुष्य मरता है तो उसका सूक्ष्म शरीर या वासना निकल जाती है और दूसरा जन्म लेने तक भ्रमण करती रहती हैइसका प्रमाण इस समय भी होशियारपुर में मौजूद हैवहाँ एक ऐसा सूक्ष्म शरीर हैलोगों ने सूक्ष्म शरीर से बातें की हैंसंत मत का मक़सद है तीनों शरीरों से निकालकर सतपद पर पहुँचना बशर्ते कि किसी को जिज्ञासा हो या उत्कट इच्छा होतुम कहोगे कि मैं गलत कह रहा हूँसुनो दाता दयाल महर्षि शिवव्रतलाल जिन्हें ज्ञान का अवतार मानता हूँ उन्होंने मेरे लिए क्या लिखा  है :-
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                  तू तो आया नर देही मेंधर फकीर का भेषा ।
                          दु:खी जीव को अंग लगाकरलेजा गुरु के देशा ।
                          तीन ताप से जीव दु:खी हैंनिबल अबल अज्ञानी ।
                          तेरा काम दया का भाईनाम दान दे दानी ।
    इस शब्द की अन्तिम कड़ी में मुझे दया करने को कहा गया है.। वह मैं कर रहा हूँवह कैसेवह इस तरह कि मैं किसी से कुछ न लेकर जीवन की तफलता काआवागमन से बचने कायमपुर आदि के कष्टों से बचने का गुरु या उपाय बता रहा हूँ.
यमपुर   से अब सत्गुरु राखें.’  अर्थात सत्गुरु सुमिरन-ध्यान बता कर इस योनि से बचा सकता है.
     यमदूत- कभी मन में ऐसे रूप या ख्याल आते हैं जिन्हें तुम चाहते हो कि न आएँ मगर वे ख्याल जाते नहीं अथवा वह रूप दूर नहीं होता और इससे तुमको कष्ट होता  हैजब जाग्रत में ऐसे ख्याल सताते हैं तो फिर स्वप्न में क्यों न सामने आएँगे और क्यों न सतायेंगे.
बारह मासा की अगली कड़ियों में कहा गया है –
                   यमपुर से अब सत्गुरु राखें । बहुतक जीव मौत दर ताकें ।।
                   काल घटा यम आकर छाई ।धारा मौत अधिक बरसाई ।।
                   जीव अनेक रहे घबराई । काया गढ़ उन दीन्ह ढवाई ।।
                   जमपुर जाय जीव पछतावे । जम के दूत तिन बहुत सतावें ।।
                   नाना कष्ट देय पल पल में । फिर फाँसी डालें गल गल में ।
                   कुंभी नर्क माहिं दें गोते ।  जीव सहें दुख अतिकर रोते।
                   वे निरदई दया नहि लावें । अति तरास से जिव मुरझावें ।।
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                   अग्नि ज्वाल से फिर लिपटावें । हाय हाय कर सब चिल्लावें।।
                   सुने न कोई मुश्किल भारी । सर्पन माला ले गल भारी ।
                   मार मार चहुं दिस से होई । पति गति अपनी सब विधि खोई ।।
                   नर्कन में अति त्रास दिखावें । फिर चौरासी ले पहुँचावें।।
                   गुरु भक्ति बिन यह गति पाई ।  नर देही सब बाद गँवाई।।
     इस शब्द में यमपुरयमदूत और जीवों की नाना भाँति के त्रास देने का वर्णन है । यही वर्णन गरुड़ पुराण में भी है.
     इस यमपुर और नरक के दुखों से बचने के लिए स्वामी जी ने गुरु भक्ति बताई हैवह गुरु भक्ति क्या हैगुरु भक्ति गुरु की देह से प्रेम करने का नाम नहीं हैसच्ची भक्ति है उनके वचनों पर श्रद्धा और विश्वास और जो आदर्श गुरु ने बताया है उसको धारण करनाजो नामउपाययुक्ति गुरु ने बताई है उस पर आरूढ़ होनाजिसका मन विषय विकारों से भरा है और शुद्ध नहीं है वह गुरु के बताए हुए आदर्श पर आरूढ़ नहीं हो सकताइसलिए इस मन को शुद्ध करो.
     चाहे वेद पाठ करो न करो मगर वेद वाक्य ‘शिवसंकल्पमस्तु’  के अनुसार शुभ विचार रखो तो वेद भक्त है वरना नहींकेवल वेद-वेद करने से क्या बनेगा!  इसलिए शुभ संकल्प रखना है और आशावादी होकर रहना है.
     इस तरह जो संस्कार तुम्हारे चिदाकाश पर पड़े हैं स्वप्न में उन्हीं की ओर ध्यान जाएगापहले जो संस्कार या वासनायें गुप्त रूप से दबी पड़ी हुई हैं और पूरी नहीं हुई हैं वे फुरेंगीचित्रगुप्त दबी हुई इच्छायें हैंयदि रूप बना हैधर्मराज ठहरा है तो यमराज से बच जाओगेअच्छी-अच्छी योनियां मिल जायेंगी मगर 84  के चक्र से नहीं बच सकतेक्योंकि वासनाओं को भोगने के लिए जन्म लेना पड़ेगा.
     जो आदमी नाम रूप का सहारा लेकर मरते हैं वे हंस के चोले में जन्म लेंगेक्योंकि मन ठहरा हुआ है अर्थात यमराज से बच कर मानव जीवन में आयेंगे.
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     गरुड़ पुराण में गायत्री मंत्र का अजपा जाप और गुरु मूर्ति का ध्यान बताया गया है और राधास्वामी मत में नाम का अजपा जाप अर्थात सुरत को शब्द से लगाना और गुरु मूर्ति का ध्यान है मगर सुमिरन ध्यान से पहले सत्संग की आवश्यकता है.
                      जो जो भजन भक्ति से चूके। तिनके मुख जम पल पल थूके ।।
थूकना क्या हैउचित या अनुचित ख्यालों का उठना ही थूकना है.
     गुरु धारण करने का अर्थ मत्था टेकना नहीं किन्तु गुरु के वचनों पर चलना हैगुरु के वचनों पर चलने से जो मन छलाँगे मारता है उससे बच जाओगे
स्वप्न का प्रभाव और उसे जगाना
    यह मन के संकल्प ही हैं जो मनुष्य को जाग्रत अवस्था में दुखी-सुखी करते हैंजिस प्रकार इनका प्रभाव जाग्रत में होता है उसी प्रकार स्वप्न का प्रभाव स्वप्नावस्था में भी होता हैस्वप्न में तुम स्त्री बना लेते हो और भोग भोगते होवीर्यपात हो जाता है!  फिर कौन कहता है कि स्वप्न का प्रभाव नहीं होता!  बहुत से लोग स्वप्न में भयभीत हो जाते हैं और चिल्ला उठते हैंकोई हितैषी उनको स्वप्न से जगा देता है और उनका वह कष्ट दूर हो जाता हैजग जाने के तीन तरीके हैं :-
(1)             कोई आवाज देकर जगा दे.
(2)             कोई हिलोरें देकर जगा दे.
(3)             या अपने आप जागे.
जो व्यक्ति मर जाता हैउसका स्थूल देह तो होता नहीं वह सूक्ष्म शरीर में स्वप्न देखता हैउसे उस स्वप्न से कौन जगा सकता हैसुनो
यदि मरने वाले को गुरु से नाम की दीक्षा मिली हुई है और रूप का ध्यान करता है तो नाम रूप के सहारे वह यमराज से बच जाएगा.
जिसको स्वप्न में यह ज्ञान है कि स्वप्न देख रहा है तो वह दुनिया को स्वप्नवत समझेगा और उस अवस्था में नहीं रहेगायदि यह ज्ञान नहीं अथवा रूप का सहारा नहीं तो उसे जगाने वाला चाहिएऐसे व्यक्ति को वह जगा सकता है जो सच्चा हितैषी हो.
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क्रिया कर्म
     इसलिए पुत्र उनके जगाने के लिए क्रिया कर्म करते थेजब पुत्र यह क्रिया कर्म करते थे तब भारत में मानवताशिष्टाचार और सदाचार थाअब वह प्रणाली नहीं रहीआज के युग में पुत्र या कुटुम्ब परिवार में हमदर्दी कहाँ है!  इसलिए सन्तों की प्रणाली आईसंतों ने वही पुरानी बात नए ढंग से वर्णन की.
     क्रिया कर्म करने वाला पुत्र या कोई अन्य मोहग्रस्त न होना चाहिए वरना मरे हुए व्यक्ति की सद्गति नहीं होगी क्योंकि जब वह रो रहा है तो रोते समय के भाव-विचार सद्गति कैसे दिला सकते हैंइसलिए किसी के मरते समय मरने वाले की सद्गति की दृष्टि से घर वालों को रोना-पीटना नहीं चाहिए वरना वे मरे हुए को उस स्वप्न से जगाने के बजाय फँसा रहे हैंउसके जगाने वालों को सच्चे हृदय से उसके लिए प्रार्थना करनी चाहिएइस प्रकार मरने वाले को स्वप्न से जगाया जा सकता है.
     कितने व्यक्ति ऐसे मरते हैं जिन्हें मरने का ज्ञान नहीं होता जैसे अकाल मृत्यु से अर्थात जल में डूबने सेबिजली सेअचानक कोई घटनाओं सेउनका सूक्ष्म शरीर बाहर में अपनी देह न पाकर भटकता है क्योंकि उनको मरने का ज्ञान तो है ही नहीं उनके ठहरने का केन्द्र तो मन और देह बना हुआ हैइसलिए ऐसे व्यक्ति को साधारण व्यक्तिपुत्र आदि नहीं जगा सकता.
          ऐसे व्यक्ति को शब्द और प्रकाश में रहने वाला आत्मनेष्टी पुरुष जगा सकता हैजो अपने ख्याल से उसका भला चाहेमरे हुए को जगाने के लिए उसका नाम और रूप बनाना पड़ता है और उसका नाम लेकर ख्याल दिया जाता हैमैंने अपनी स्त्री का फोटो रखकर क्रिया कर्म किया पुत्र ने अलग कियाविधि सबकी अलग है मगर सिद्धान्त सब में एक हैजो पुत्र क्रिया-कर्म नहीं करता वह अपने माता-पिता का हितैषी नहीं है किन्तु द्रोही हैपुराने समय में जिनका कोई नहीं होता था उनका क्रिया-कर्म गांव का मुखिया या पुरोहित करता थाये क्रिया-कर्म पहले पंडित कराते थेवे उच्च कोटि के आत्मनेष्ठी पुरुष होते थे.  आज के गुरु पैसे का ध्यान रखते हैंयह लोभीलालची और मान के इच्छुक बने हुए हैंपंडे और ब्राह्मण भी लोभी लालची हैंआत्मनेष्टी तो शायद बहुत कम हैंऐसे पुरुषों से जीव का कल्याण नहीं हो सकता.
     मेरी स्त्री सोई हुई मरी इसलिए उसका क्रिया-कर्म मैंने स्वयं कियाआप लोग भी जब आपका कोई रिश्तेदार मरे तो उसके लिए सच्चे हृदय से प्रार्थना किया करें.
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     यदि अकाल मृत्यु से कोई व्यक्ति मर गया है तो उसकी देह और हड्डी पर भी किसी ब्रह्मनेष्टी पुरुष की दृष्टि पड़ जाय तो इससे भी उसकी सद्गगति हो सकती है.
     विज्ञान से यह सिद्ध है कि सृष्टि की उत्पत्ति सूर्य की किरणों (Cosmic Rays) से होती हैउनसे जीवन मिलता हैइसी प्रकार शब्द और प्रकाश का जो पुरुष साधन करते हैंउसका रूप बने हुए हैंउनसे जो धारें निकलती रहती हैंवे धारें आत्मिक धारें (Spiritual Rays)  हैंवही कॉस्मिक रेज़ हैंइसलिए ऐसे साधु की दृष्टि  उस मरे हुए पर पड़ जाए तो वह यम-योनि में नहीं आयेगायदि वह अपना ख्याल किसी को दे दे तो वह भी यमपुर से बच जाएगायहाँ मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि मेरे यहाँ के भाषणों को यदि मृतक को सुना दिया जाएगा तो वह यमपुर से बच जाएगा.
     ब्राह्मण वह जो ब्रह्म स्मरण करता हो और शब्द और प्रकाश में रहता होसूत जी ने ऋषियों को कथा सुनाईसूत जी ब्राह्मण नहीं थे इसलिए जाति का कोई बन्धन नहींशब्द और प्रकाश में रहने वाला किसी भी जाति का हो उसकी शुभ भावना से मृतक प्राणी की सद्गति हो सकती हैब्राह्मण जाति में पैदा होने की विशेषता यह है कि उसे ब्राह्मण शब्द का ज्ञान हैंवह दूसरों की अपेक्षा अधिकार-संस्कार के अधीन शीघ्र उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है.
                                                    गरुड़ पुराण रहस्य भाग 2                                                      

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