Tuesday, November 30, 2010

कबीर के काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता

कबीर के काव्य की सामाजिक प्रासंगिकता

डॉ. किशोरीलाल रैगर


मध्यकालीन भारतीय समाज जहाँ पुरोहितवाद, सामन्तशाही, मिथ्याचार, रूढवादिता, छद्म, जडता, पाखण्ड और अंधविश्वास पर टिका था, वहीं इस युग के संतों ने समस्त रूढयों को अस्वीकार करते हुए लोक और शास्त्र् के अर्थहीन मूल्यों को नकार कर खुला विरोध किया तथा उस परम्परा को समृद्ध किया, जिसका बीजारोपण बौद्ध, सिद्ध, नाथों ने किया था। प्राचीनकालीन वैदिक समाज में जब पापाचारों और मिथ्याचारों का बोलबाला होने लगा था, तब उस चातुर्वर्णव्यवस्था को चुनौती देकर शुद्ध सामाजिकता की स्थापना के लिए जो संघर्ष बुद्ध ने किया उसी को तरजीह देते हुए सिद्धों और नाथों ने उस परम्परा को आगे बढाते हुए निर्गुण संतों तक पहुँचाया। बौद्ध धर्म की तरह ही मध्यकालीन भक्ति आंदोलन भी अद्वितीय था, जिसने सामाजिक जडता को तोडकर जाति-पाँति, ऊँच-नीच, छुआछूत, धनी-निर्धन, देशी-विदेशी, हिन्दू-मुस्लिम, जैन-बौद्ध, शैव-शाक्त, स्त्री-पुरुष आदि के विभेद को दूर कर वास्तविक सत्य का ज्ञान करवाया। जब हम मध्यकालीन निर्गुण संतों की बात करते हैं तो उनमें नानक, कबीर, रविदास, दादू, दरिया, गरीबदास, चरणदास, सुन्दरदास, पलटू आदि का नाम आदर के साथ लेते हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक रूढयों और वर्जनाओं को तोडकर सामाजिक समरसता की स्थापना में बडा योगदान दिया। कबीरदास इन निर्गुण संतों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
कबीर के जन्म संबंधी विवादों में यदि न पडें तो काशी के लहरतारा तालाब में ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा संवत् 1455 को कबीर का अवतरण हुआ मानते हैं। इस संबंध में कबीरपंथियों में यह पद बहुत प्रसिद्ध हैं -
‘‘चौदह सौ पचपन साल भए, चंद्रवार एक ठाठ ठए ।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि प्रगट भए ।।
घन गरजे दामिनि दमके बूँदें बरषे झर लाग गए ।
लहर तालाब में कमल खिले, तहँ कबीर भानु प्रकट भए ।।’’
(कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्याम सुन्दरदास, पृ.13)
यह युग दिल्ली सल्तनत के लोदीवंशी बादशाहों का युग था। कबीर ने तत्कालीन समाज में अपनी प्रखर सामाजिकता और निर्भयता का परिचय देते हुए धर्म और समाज के कई मिथों को तोडकर सत्य की स्थापना के लिए संघर्ष किया, जिसमें वह सफल भी रहे। इसलिए अपने समय में उनके काव्य की प्रासंगिकता पर किसी प्रकार का प्रश्न चिह्न खडा नहीं किया जा सकता।
वर्तमान युग में जहाँ चारों ओर आपा-धापी, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, परस्पर निजी स्वार्थ, कुण्ठाएँ, तनाव, ईर्ष्या-द्वेष, आतंकवाद, धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, स्त्री-पुरुषवाद, दलित उत्पीडन आदि प्रवृत्तियाँ हावी हैं, जिनके कारण आम व्यक्ति अत्यन्त दुःखी हो रहा है तथा समाज में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो रही है। ऐसी परिस्थितियों में यदि हम कबीर के काव्य का मूल्यांकन करें तो उसकी प्रासंगिकता हमें उनके समय से आज अधिक उपयुक्त दृष्टिगत होती है। यदि उस कलियुग में कबीर न होते तो उनके द्वारा प्रसूत प्रेमाभक्ति और सामाजिक समरसता का वह बिरवा इस तरह पुष्पित-पल्लवित नहीं होता। इस संबंध में संत पीपा का यह पद द्रष्टव्य है -
‘‘जौ कलि-माँझ कबीर न होते ।
तो लोक वेद अरु कलियुग मिलि करि भगति रसातलि देते।’’ (संत कबीर, डॉ. रामकुमार वर्मा, पृ.5)
तात्पर्य यह है कि यदि इस कलियुग में कबीर का अवतरण न होता तो लोक, वेद और कलियुग ने मिलकर भक्ति को रसातल में पहुँचा दिया होता। इस पद से स्पष्ट है कि उस युग में धार्मिक क्षेत्र् में कितनी अराजकता फैली हुई थी। अतः यह पद कबीर की महत्ता को स्वतः प्रमाणित करता है। ‘‘मासिकागद छूयो नहीं, कलम गह्यौ नहिं हाथ।’’ जैसी स्वीकारोक्ति द्वारा उन्होंने जो कुछ भी प्राप्त किया अपनी साधना और अनुभवों से प्राप्त किया। वह शास्त्रें या पोथियों में लिखी बात नहीं कहते। अनुभूत सत्य होने के कारण ही कबीर की उक्तियाँ शाश्वत सत्य की तरह आज भी प्रासंगिक हैं।
कबीर के काव्य में जितनी प्रेमाभक्ति मिलती है, उतनी ही सामाजिकता भी दृष्टिगोचर होती है। हालाँकि हमें इस विवाद में नहीं पडना चाहिए कि कबीर कवि थे, भक्त थे या समाज सुधारक। वस्तुतः वे रूहानियत की उच्चावस्था को प्राप्त एक ऐसे संवेदनशील संत कवि थे, जो पर-पीडा को न केवल पहचानते थे, अपितु स्वयं अनुभव भी करते थे। इसलिए भले ही उनकी वाणी किसी सामाजिक आंदोलन के लिए न हो, परन्तु वह मनुष्य व समाज के परिष्कार के लिए अवश्य थी। फिर चाहे वह मार्ग भक्ति का हो या समाज सुधारक का, उससे क्या फर्क पडता है, क्योंकि कबीर में एक गहरी संवेदनशीलता है, जिसका प्रयोग उन्होंने मनुष्य के दुःख को दूर करने के लिए उसी तरह करुणा-प्रसूत होकर किया जिस तरह भगवान बुद्ध ने किया था। इस संबंध में डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह मत उचित प्रतीत होता है - ‘‘जन्मजात सामाजिक पहचान के स्थान पर कबीर समाज संवेदना और मूल्यबोध पर आधारित पहचान की खोज करते हैं, अपने लिए भी और अपने श्रोताओं, संवादियों के लिए भी। इस ‘सामाजिक’ खोज म लगे होने के कारण ‘आध्यात्मिक’ खोज उन्हें बेमानी नहीं लगने लगती। उनके लिए ये खोजें विरोधी नहीं परस्पर निर्भर हैं। कबीर सामाजिक व्यवस्था, परम्परा और मान्यताओं के रूपान्तरण का प्रस्ताव करते हुए अपनी वैयक्तिक सत्ता को लगातार रेखांकित करते हैं - इसलिए वे ‘आधुनिक मनुष्य’ को अपने चित्त के अधिक निकट लगते हैं।’’ (‘अकथ कहानी प्रेम की’ ः डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, पृ.20)।
कबीर आज इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे पाखण्ड, जडता, अंधविश्वास और रूढयों को स्वीकार नहीं करते, अपितु वैचारिक संवेदना के स्तर पर निर्भय होकर सत्य की स्थापना पर जोर देते हैं, तथा सभी भेदों-विचारों से परे हटकर सत्यानुभूति की बात करते हैं, और लोगों के दुःख को सुख में बदलने के लिए तत्परता दिखाते हैं। इस सम्बन्ध में उनका यह पद देखिए -
‘‘जमतै उलटि भया है राम ।
दुःख विसर्या सुख किया विश्राम ।।
बैरी उलटि भया है मीता ।
साषत उलटि सजन सहज समाऊँ ।।
कहे कबीर सुख सहज समाऊँ ।
आप न डरौं न और डराऊँ ।।’’
(संत काव्य, डॉ. परसुराम चतुर्वेदी, पृ.157 से उद्धृत)
वस्तुतः कबीर न आप डरते हैं और न ही औरों को डराते हैं, अपितु सहज सुख और मित्र्ता की बात करते हैं।
ज्ञान के व्यापक विस्तार के बावजूद आज भी लोग विभिन्न तरह के मिथ्याचारों, ढोंगों, पोंगा-पंथियों और कथित साधुओं के चक्कर में पडकर विभिन्न तरह की धर्म-साधनाओं में बुरी तरह उलझे हुए हैं। कबीर इन कष्टसाध्य साधनाओं, पूजा-पाठ आदि का विरोध करते हुए सहज समाधि पर बल देते हैं। इस संबंध में उनका यह पद हमारी आँखें खोलने के लिए पर्याप्त है -
‘‘साधो सहज समाधि भली ।
गुरु प्रताप जा दिन सो उपजी दिन-दिन अधिक चली।। जहाँ-जहाँ डोलौं सो परिकरमा जो कछु करौं सो सेवा। जब सोवौं तब करौं दण्डवत पूजौ और न देवा।। ..........
कह कबीर यह उनमनि रहनी सो परगट करि भाई। दुःख-सुख से कोई परे परम पद तेहि पद रहा समाई।।’’ (संत कबीर, शांति सेठी-राधा स्वामी सत्संग ब्यास, पृ.177)
वस्तुतः कबीर विभिन्न मत-मतांतरों व कष्ट-साध्य यौगिक क्रियाओं तथा विभिन्न तरह की पूजा-आराधना को पाखण्ड मानते हैं। उनकी दृष्टि में ‘शब्द रूपी राम नाम’ ही इस भवसागर से पार उतारने का एक मात्र् आधार है और इसके लिए किसी मंदिर-मस्जिद में जाने की आवश्यकता नहीं, अपितु समर्थ गुरु की कृपा दृष्टि की आवश्यकता है। उनकी भक्ति पद्धति में ‘‘जलदस्रु भावुकता नहीं थी, जो जरा सी आँच से पिघल जाये। यह प्रेम ज्ञान द्वारा नीत और श्रद्धा द्वारा अनुगमित था। ...उनका मन जिस प्रेम रूपी मदिरा से मतवाला था, वह ज्ञान के महुवे और गुड से बनी थी, इसीलिए अंध-श्रद्धा, भावुकता और हिस्टीरिक प्रेमोन्माद का उनमें एकांत अभाव था।’’ (हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ.105)।
मध्यकालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद, पण्डा- पुरोहितवाद, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य, साम्प्रदायिकता आम बात थी। कबीर इन पाखण्डों को पनपाने में मुल्ला-मौलवी व पण्डितों दोनों को ही दोषी ठहराते हैं। ध्यातव्य है कि आज कहीं भी जातिगत वैमनस्य या साम्प्रदायिकता का खतरा उत्पन्न होता है, वहाँ धार्मिक गुरु ही सबसे अगुवा होते हैं। ‘‘कबीर समाज में जो विसंगतियाँ देखते हैं, उनके विवरण-विस्तार में अधिक नहीं जाते, उन्हें टुकडों में व्यक्त करते हैं, पर पूरी तल्खी के साथ। सम्प्रदायवाद, जाति-उपजातिवाद पर उनके आक्रमण सबसे तीखे हैं, क्योंकि इससे श्रेणी-वर्ग-विभाजन होता है, मनुष्य खण्ड-खण्ड हो जाता है।’’ (भक्ति काव्य का समाजदर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.94)
कबीर के समय में अधिक समस्या हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की थी। हिन्दू अपने धर्म को श्रेष्ठ समझते थे, तो मुसलमान अपने धर्म को, जिनको लक्ष्य करते हुए कबीर साफ-साफ शब्दों में कह उठते हैं -
‘‘अरे इन दोउन राह न पाई ।
हिन्दू अपनी करैं बडाई, गागर छुवन न देई ।
वेश्या के पायन तर सौवे, यह देखो हिन्दुआई । मुसलमान के पीर औलिया, मुर्गी मुर्गा खाई ।
खाला केरी बेटी ब्याहैं, घर ही में करैं सगाई । ...................................................
हिन्दुअन की हिन्दुआई देखी, तुरकन की तुरकाई । कहै कबीर सुनौ हे साधौ, कौन राह ह्वै जाई ।।’’ (संत सुधार, खण्ड-1, पृ.109)
कबीर दोनों धर्म वालों की रीति-नीतियों पर ही आश्चर्य प्रकट करते हैं। मुसलमान जहाँ मस्जिद में सजदा करते हैं, वहीं हिन्दू मन्दिर में दण्डवत प्रणाम करते हैं। एक रोजा रखता है, तो दूसरा व्रत-उपवास। एक पश्चिमाभिमुखी होकर नमाज पढता है, तो दूसरा पूर्वाभिमुखी होकर भगवान की पूजा-अर्चना करता है, एक हज यात्र करता है, तो दूसरा अडसठ तीर्थों की यात्र, लेकिन ईश्वर के वास्तविक मर्म को दोनों ही नहीं समझ पाये। इस स्थिति में आज भी किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है। अतः इस संबंध में कबीर की यह वाणी बहुत प्रासंगिक
है*-
‘‘अल्लह राम जिउं तेरे नांई ।
बंदे ऊपरि मिहरि करौ मेरे सांई ।।
........................................
क्या उजू जप मंजन कीए क्या मसीति सिरू नाए । दिल महिं कपट, निवाज गुजारै क्या हज काबै जाए।। बाह्मन ग्यारसि करै चौबीसों, काजी माह रमजानां। ग्यारह मास कहौ क्यूं खाली एकहि मांह निमानां।। ...................................................
पूरब दिसा हरी का बासा पच्छिम अलह मुकामां । दिल महिं खोजि दिलै दिलि खोजहु, इहंहं रहीमा रामां।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी,
पृ.103)
यहाँ मेरा उद्देश्य किसी धर्म-विशेष पर प्रहार करने का नहीं, अपितु कबीर के उस विचार को प्रतिस्थापित करना है, जिसके माध्यम से वह दोनों धर्मों को वास्तविकता को उजागर करते हैं। यदि ईमानदारी से निरीक्षण करें तो दोनों धर्मों में आज भी इस तरह की ढेर सारी विकृतियाँ भरी पडी हैं, जिनका उल्लेख संत कबीर स्थान-स्थान पर करते हैं। अतः कबीर कहते हैं कि एक-दूसरे पर दोषारोपण करने की अपेक्षा अपने-अपने हृदय को खोजो, वहीं पर राम और रहीम मिलेंगे, जो दोनों एक ही हैं। उनमें किसी तरह का विरोध और भेदभाव नहीं है।
वर्ण-व्यवस्था, जाति-पाँति, छुआछूत और ऊँच-नीच की कुत्सित व्यवस्था ने सदियों से भारतीय समाज को खोखला किया है, जिसके कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की खाई अत्यधिक गहरी हुई है। आज भी जातियों और उपजातियों को सुदृढ कर और अधिक पेचीदा बनाया जा रहा है। कबीर ने जैव वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय तर्कों द्वारा वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद पर करारा प्रहार किया है जो जन्मजात भेदभाव को दूर करता है। उन्होंने कहा है -
‘‘जो पै करता बरन बिचारे। तौ जनतै तीनि डांडि किन सारे।। जे तूँ बाभन बभनी जाया। तो आन बाट होई काहे न आया।। जे तूँ तुरुक तुरुकिनी जाया। तो भीतरी खतना क्यूं न कराया।। कहै कबीर मद्धिम नहिं कोई। सो मद्धिम जा मुख राम न होई।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं.डॉ. पारसनाथ तिवारी, पृ.106)
उन्होंने स्पष्ट किया कि सभी का जन्म एक ही तरह से होता है, चाहे वह ब्राह्मण हो या शूद्र, हिन्दू हो या मुसलमान कोई किसी दूसरे रास्ते से नहीं आता। सबकी उत्पत्ति एक ही परम तत्त्व से हुई है। अतः वर्ण-अवर्ण का विचार ही गलत है। उन्होंने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है -
‘‘पानी पवन संजोई करि, कीया है उतपाति ।
सुन्नि में सबद समाइगा, तब कासनि कहिए जाति।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं.डॉ. पारसनपाथ तिवारी, पृ.120)
दुनिया के अन्य देशों में वर्गगत भेदभाव हैं, पर हमारे यहाँ पर जातिगत भेद हैं, जो अत्यधिक खतरनाक हैं, क्योंकि वर्ग बदला जा सकता है, किन्तु जाति नहीं। अतः कबीर ने उस मिथ को तोडने का साहसिक प्रयास किया है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘विप्र पूजहि शील-गुन हीना, न शूद्र ज्ञान प्रवीणा।’’ उन्होंने इस व्यवस्था का आध्यात्मिक समाधान देते हुए कहा है कि -
‘‘हम वासी उस देश के, जहाँ जाति-पाँति कुल नाहिं।’’
(कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी, पृ.174)
जाति-व्यवस्था को तोडने का जो कदम कबीर ने उठाया है, वह आज भी हमारे लिए अत्यधिक प्रासंगिक है। उन्होंने और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है -
‘‘एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा । एक जोति थै सब उतपना, कौन बाह्मन कौन सूदा।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ. पारसनाथ तिवारी, पृ.57)
छुआछूत जाति व्यवस्था को और भी अधिक पुष्ट करती है, जिससे मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की खाई और भी अधिक चौडी होती है। कबीर इस व्यवस्था को सिरे से खारिज करते हैं तथा छुआछूत करने वाले व्यक्तियों को कठघरे में खडा कर उनसे धीरे-सीधे सवाल करते हैं -
‘‘काहे कौ कीजै पांडे छोति बिचारा। छोतिहि तैं उपना सब संसारा।। हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध। तुम कैसे बामन हम कैसे सूद।। छोति-छोति करता तुम्हही जाए। तो ग्रभबास काहे कौ आए।। जनमत छोति मरत ही छोति। कहै कबीर हरि की निरमल जोति।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.89)
कबीर का यह यक्ष प्रश्न हमें सोचने को विवश करता है कि जब सब मनुष्य एक ही ज्योति से उत्पन्न हुए हैं तो फिर यह छुआछूत और ऊँच-नीच का भेदभाव क्यों ?
कबीर का यह आक्रोश स्वाभाविक है, क्योंकि ऐसी कुत्सित सोच समाज को पतन की ओर धकेलती है। इसी कारण सदियों से भारतीय समाज के खण्ड-खण्ड टुकडे हुए हैं तथा हम प्रगति पथ की ओर अच्छी तरह नहीं बढ पाये हैं।
जाति-पाँति की तरह हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य आज भी बडी समस्या है। कबीर एक ओर हिन्दुओं को तो दूसरी ओर मुसलमानों को समझाते हुए कहते हैं कि जब पूरे जगत् का स्वामी एक ही है तो दो-दो जगदीश कहाँ से आये। अल्लाह, राम, रहीम, केशव, हरि, हजरत ये ईश्वर के ही पर्यायवाची नाम हैं। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया है कि जिस प्रकार एक ही सोने से बने विभिन्न प्रकार के गहनों के अलग-अलग नाम होते हैं, उसी प्रकार अपनी सुविधा और आस्था की दृष्टि से हम भगवान के भी अलग-अलग नाम धरते हैं। इसलिए उसकी पूजा करो या नमाज पढो, कोई फकर् नहीं पडता। इस सम्बन्ध में यह पद द्रष्टव्य है -
‘‘दुई जगदीश कहाँ ते आया, कहुँ कौन भरमाया । अल्लाह राम, करीम, केसवा, हरि इहि महं भाव न दूजा।। गहना एक कनक ते गढना, इहि महं भरम न दूजा ।
कहन-सुनन को दुइ करि थापिन, इक नमाज इक पूजा।।’’ (संत सुधार, खण्ड-1, पृ.109-110)
इसलिए कबीर दोनों धर्मावलम्बियों को ही कहते हैं कि ‘‘एक राम जपहु रे, हिन्दू तुरक न कोई।’’
कबीर के समय में अवतारवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, छापा-तिलक आदि का बोलबाला था। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में अवतारवाद का घोर विरोध किया है। उनकी दृष्टि में अवतार हो या पैगम्बर दोनों ही परमात्मा नहीं हैं। उन्होंने कहा कि संसार में दशरथ के पुत्र् को ‘राम’ कहा जाता है, किन्तु ‘राम’ का मर्म ही दूसरा है - ‘दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।’ उन्होंने राम का ही नहीं हिन्दुओं के अन्य अवतारों का भी खण्डन किया है तथा उस परमात्मा को अगम-अनामी रूप में मानकर घट-घट बासी बताया है। अवतारवाद को बढावा देने के लिए विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्ति के रूप में पूजा की जाने लगी थी और यह सर्वविदित है कि मूर्तियाँ मन्दिरों में कैद थीं, जहाँ शूद्रों का प्रवेश नितान्त वर्जित था। ऐसी स्थिति में कबीर ने लोगों को मूर्ति-पूजा के भ्रमजाल से निकालकर स्पष्ट कहा कि पत्थर की मूर्ति की पूजा से यदि भगवान मिलता है तो मैं पूरे पहाड को पूजना श्रेष्ठ समझता हूँ। मूर्ति से भली तो पत्थर की बनी वह चक्की है जिससे आटा पीसा जाता है और उससे संसार का भरण-पोषण होता है। इसलिए मूर्ति पूजा का तीव्र विरोध करते हुए उन्होंने कहा है -
‘‘पाहन कूं का पूजिए, जे जनम का देइ जवाब । अंधा नर आसामुखी, यों ही खावै आब।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ.श्यामसुन्दर दास, पृ.34)
उन्होंने और भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि मूर्ति पर भोग के रूप में जो प्रसाद चढाया जाता है उसको पुजारी ही डकार जाता है। इस पर करारी चोट करते हुए कबीर कहते हैं*-
‘‘लाडू, लावन, लापसी, पूजा चढे अपार ।
पूजि पुजारी ले गया, मूरत के मुहिं छार ।।’’ (कबीर ग्रंथावली, सं. डॉ.पारसनाथ तिवारी, पृ.109)
कबीर ने मूर्ति पूजा की भाँति मुसलमानों द्वारा मस्जिद बनाने व उसमें नमाज की बाँग देने का भी तीव्र विरोध किया है। इस सम्बन्ध में कबीर ने कहा है -
‘‘कांकर-पाथर जोड के, मस्जिद लई बनाय ।
ता चढ मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय।।’’
मुसलमानों द्वारा रोजा रखना फिर गाय या अन्य पशु का वध करना आदि को भी कबीर ने अनुचित मानते हुए पुरजोर विरोध किया है। ‘‘कबीर हर प्रकार के कठमुल्लेपन पर प्रहार करते हैं, क्योंकि मिथ्याचार सत्य-प्राप्ति के मार्ग में बडी बाधा है। कबीर ने मुल्ला-काजी, बाभन-पुरोहित वर्ग के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया है, क्योंकि वे समाज को सही दिशा में नहीं ले जाते। उनकी ऐसी विचित्र् कर्मकाण्डी व्यवस्था है, जहाँ अचार-विचार के लिए अवसर ही नहीं। यह आक्रमण यदि कोरा भाववादी आक्रोश होता तो अपने समय में ही चीख- चिल्लाकर समाप्त हो जाता। पर कबीर ने इसे व्यापक वैचारिक आधार पर देखा-परखा, तब किसी तात्त्विक निष्कर्ष पर पहुँचे।’’ (भक्तिकाव्य का समाज दर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.93)
कबीर को जहाँ कहीं भी विसंगति लगी और उससे समाज में अंधविश्वास पनपा उसका उन्होंने डटकर विरोध किया। इस क्रम में उनको जप-माला और तिलक-छापा भी युक्ति-युक्त प्रतीत नहीं हुआ। कबीर ने कहा कि यदि माला पहनने से ही भगवान की प्राप्ति होती तो सर्वप्रथम कुएँ से पानी निकलवाने वाले रहट को होती -
‘‘कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।
माला पहन्यां हरि मिले, तो अरहट के गलिदेव।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.35)
इसी तरह छापा-तिलक लगाकर लोगों को ठगने वालों पर व्यंग्य करते हुए कबीर कहते हैं -
‘‘बैसनो भया तो का भया, बुझा नहीं विवेक।
छापा-तिलक बनाह करि, दगध्या लोक अनेक ।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.36)
तत्कालीन समय में तीर्थाटन को मुक्ति का सस्ता साधन माना जाता था। हिन्दू अडसठ तीर्थों की यात्र में विश्वास रखते थे, तो मुसलमान हज करने में। तीर्थाटन करने वाले दोनों ही मजहबों के लोग भ्रम में हैं। कबीर का कहना है कि तीर्थाटन के बाद भी व्यक्ति काल का ग्रास बनता ही है तो फिर तीर्थ यात्र करने से क्या लाभ -
‘‘जोगी, जपी, तपी, संनियासी, बहु तीरथ भ्रमना। लूंचित, मुंडित, मौनी, जटाधारी, अति तऊ मरना।।’’ (कबीर ग्रंथावली, डॉ. श्यामसुन्दरदास, पृ.243)
कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि तीर्थों में स्नान करने से मन का मैल नहीं धुलता। मन का मैल तभी धुलेगा जब सच्चे गुरु की शरण में जाकर सदाचरण अपनायेंगे तथा शब्द रूपी नाम को अपनायेंगे। मुसलमान की हज यात्र को भी उन्होंने ऐसा ही बताया है। वे कहते हैं -
‘‘कबीर हज करने होई गइआ, कैसी बार कबीर । सांई मुझ महि किआ खता, मुखहु न बोले पीर।।’’ (संत कबीर, डॉ. रामकुमार वर्मा, पृ.297)
हज करने वालों को कितना घमण्ड हो जाता है, इस पर कबीर ने करारा प्रहार किया है। वस्तुतः कबीर एक बौद्धिक बहस छेडते हैं। वे कोरा बयान नहीं देते, अपितु जो कुछ कहते हैं, तर्कों के साथ कहते हैं। इसलिए छह सौ वर्ष गुजर जाने के पश्चात् भी कबीर की वाणी आज भी हमें उसी तरह सावचेत करती है, जितनी उनके समय में। उपर्युक्त विमर्श के पश्चात् यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब कबीर तमाम तरह के बाह्याचारों को सिरे से खारिज करते हैं, तो वास्तव में वह चाहते क्या थे*? कबीर व उनके समकालीन निर्गुण संत एक ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें ऊँच-नीच, जाति-वर्ण, हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य न हो तथा धर्माधिकारी मिथ्याचारों व अंधविश्वासों में लोगों को फँसाये नहीं। वे एक ऐसे वैज्ञानिक समाज की कल्पना करते हैं, जो समरसता पर आधारित हो तथा लोग विवेकसम्मत बात को ही मानें। इसलिए प्रपंचों से दूर वे निर्गुण-निराकार परमब्रह्म की आराधना पर बल देते हैं, जहाँ किसी धर्म, जाति या लिंग का भेद-भाव नहीं तथा ब्राह्याचारों को तो तनिक भी स्थान नहीं हो। ‘‘कबीर निराकार-निर्गुण की भक्ति का प्रतिपादन सोद्देश्य करते हैं, जिसके मूल में सामाजिक-सांस्कृतिक कारक है और कर्मकाण्ड, तीर्थांटन आदि का विरोध भी इसी आशय से है। इससे धार्मिक शोषण से मुक्ति मिलती है। ‘‘देव पूजि-पूजि हिन्दू मुये, तुरक मुये हज जाई, जटा बाँधि-बाँधि योगी मुये, इनमें किनहूँ न पाई।’’ कबीर जातीय सौमनस्य के सबसे प्रबल प्रवक्ता हैं - ‘‘मध्यकालीन सामंती समाज की विसंगतियों पर चोट करते हुए वे जिस व्यंग्य का अस्त्र् अपनाते हैं, वह आज भी प्रासंगिक हैं।’’ (भक्तिकाव्य का समाजदर्शन, डॉ. प्रेमशंकर, पृ.94)
कबीर एक संत कवि ही नहीं महान् विचारक भी हैं, जो अपने समय और समाज की समस्याओं से टकराते हैं, तथा तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक अन्तर्विरोधों को एक चुनौती के रूप में देखते हैं एवं उनका युक्ति-युक्त समाधान भी देते हैं। उनकी वाणी में विवेकजन्य करुणा है, क्योंकि वह बुद्ध की तरह समाज को दुःखों के बंधन से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। इसलिए कबीर लोगों से सभी तरह के प्रपंचों को छोडकर आध्यात्मिक धरातल पर प्रेम-पंथ की ओर चलने का आग्रह करते हैं। जहाँ आज मनुष्य इतना आपाधापी युक्त हो गया है कि समस्त संवेदनाएँ ही खत्म होती जा रही हैं। ऐसे में कबीर का आध्यात्मिक प्रेम-पंथ हमें जीने की सच्ची राह दिखाता है। कबीर अपनी वाणी के माध्यम से उच्चतर मानवीय मूल्यों का संधान करते हैं तथा खुली राह खडे होकर अपने साथ चलने का आह्वान करते हैं -
‘‘कबीरा खडा बाजार में, लिये लुकाठी हाथ ।
जो घर फूंकै आपना, चलौ हमारे साथ ।।’’
यहाँ घर फूंककर तमाशा देखने वाली बात नहीं, अपितु ‘लुकाठी’ का तात्पर्य उस जलती हुई ‘मशालनुमा लकडी’ से है जो अंधकार की कारा से मुक्ति दिलाकर प्रकाश देती है। उनका कहने का तात्पर्य यह है जो अपने अहं का विसर्जन कर सकता है, वही इस दुर्गम प्रेम पथ पर कबीर के साथ चल सकता है, जहाँ पर चलने के लिए गहरे आत्मविश्वास व आस्था के साथ गुरु कृपा की आवश्यकता है।
पूँजीवाद के इस युग में मनुष्य स्वार्थ में ऐसा लिप्त है कि वह उलटे-सीधे तरीकों से धन सम्पदा का संचय किये जा रहा है, जिसका कोई उद्देश्य नहीं, क्योंकि उसे इस संसार की वास्तविकता का पता नहीं। कबीर के अनुसार मनुष्य अपने जीवन में जो धन जोडता है, उसका तनिक भी उपयोग नहीं कर सकता और न ही वह उसके साथ जाता है। अतः ऐसे लोगों को कबीर सावधान करते हुए कहते हैं -
‘‘काहे कूँ भीत बनाऊँ टाटी, का जाणू कहँ परिहै माटी।। काहू कूँ मंदिर महल चिनाऊँ, मूवाँ पीछे घडी एक रहन न पाऊँ।। काहे कूँ छाऊँ-ऊँच उचेरा, साढै तीन हाथ घर मेरा।।
कहे कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भुह लीजै।।’’ (कबीर ग्रंथावली, श्यामसुन्दरदास, पृ.35)
आधुनिक भौतिकवादियों को कबीर की उपर्युक्त बात भले ही जमती न हो, किन्तु जीवन की कडवी सच्चाई यही है, जिसे नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि जीवन क्षण भंगुर है। इसलिए संतोष वृत्ति धारण करते हुए कबीर कहते हैं -
‘‘साईं इतना दीजिए, जामै कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।’’
निष्कर्षतः वैसे तो कबीर के काव्य पर चर्चा करें तो उसके अनेकानेक पक्ष हैं, किन्तु हमने उनकी सामाजिक प्रासंगिकता के जिन विभिन्न पहलुओं पर जो विचार-विमर्श किया है, उससे यही प्रतीत होता है कि कबीर का अपने जीवनानुभवों से प्रसूत ‘आँखिन देखी’ बात में पूर्ण विश्वास है। पोथियों में लिखी बातों पर वे प्रश्न चिह्न खडा करते हैं। वे एक ऐसे प्रचेता हैं जिनका पग-पग मानवीय प्रेम, करुणा, शील, क्षमा, दया और संतोष से अटा पडा है। उन्होंने धार्मिक-सामाजिक कर्मकाण्डों, मिथ्याचारों, वर्णजाति, साम्प्रदायिकता आदि के विरुद्ध पूरे साहस के साथ प्रखरता से प्रहार किया है। ये बातें उनके व्यक्तित्व को निखार कर उन्हें निर्भय क्रांतिकारी व्यक्तित्व का दर्जा देती है। वस्तुतः वे चिंताकुल कवि हैं, जिन्हें सामाजिक विसंगतियाँ उद्वेलित करती हैं। इसलिए वे उच्चतर मानवीय मूल्यों एवं आचरण की प्रतिष्ठा के लिए इतने मुखर होकर संवाद करते हैं। ‘‘कबीर की कविता की ताकत इस जद में है कि वे कविता कर रहे हैं, ऐसे जगत् में जहाँ बहुत से लोग साधु का ज्ञान नहीं, उसकी जाति ही पूछते हैं। ...उनकी कविता का सपना किसी एक जाति, बिरादरी, पंथ या मजहब का सपना नहीं, मनुष्य के साझे चैतन्य का सपना है। वह एक और धर्म स्थापित करने का नहीं, धर्म के ‘फाउस्टियन पैक्ट’ से मनुष्य की मुक्ति का, धर्मेतर अध्यात्म का सपना है।’’ (अकथ कहानी प्रेम की, डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल, पृ.38)
कबीर का यह अध्यात्म-सपना उनकी सामाजिक प्रासंगिकता को आज के संदर्भ में स्वतः सिद्ध करता है ताकि मनुष्य वैश्वीकरण के भँवरजाल में न फँसकर अपने आप को उससे बचाये।

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