Wednesday, November 24, 2010

kashinath singh

प्रेमचंद से उलट चल रहे हैं आजकल के साहित्‍यकार : काशीनाथ
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वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह संस्मरण लिखें कहानी या उपन्यास उनकी हर रचना में कहीं न कहीं काशी की कैफियत झलकती है। समय और साहित्य के बदलते रंग-ढंग पर उनके विचार-
सुबह-सुबह गंगा के किनारे से उगता सूरज, चाय के कुल्हड़ों से उठता धुंआ, मंदिर के घंटों की आवाज और कड़ाही से निकलती गर्म-गर्म कचौरियां अनायास ही काशी की याद दिलाती हैं। कहते हैं, जिसने काशी में कदम रखा वो यहां का हो गया। ऐसे काशी के जिक्र के साथ वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह का जिक्र भी खुद-ब-खुद शामिल हो लेता है। काशीनाथ सिंह काशी में बसते हैं और काशी उनमें, उनकी रचनाओं में बसता है। उनके शब्द, उनका अंदाज, उनका सोचने का ढंग सबकुछ औरों से जुदा है। वे जो सोचते हैं, उसे जीते हैं और उसे वैसा ही रचते भी हैं। साहित्य जगत के वरिष्ठतम लोगों में से एक काशीनाथ जी से जब गुफ्तगू का सिलसिला चला तो जीवन और साहित्य के कई रंग उभरकर सामने आए।
कहते हैं मरने के बाद अगर स्‍वर्ग पाना हो, तो काशी आइये, शिव की यह नगरी कभी भी नहीं नष्‍ट नहीं होती,  इस दर्शन पर आप क्‍या कहेंगे ? और आप खुद को इससे कैसे जुड़ता पाते हैं ?
काशी में जीवन और मृत्यु का जश्न समानांतर चलता रहता है। इस शहर की यह खासियत है कि यहां बीता हुआ कल होता है, आज होता है लेकिन आने वाला कल नहीं होता। किसी को आने वाले कल की फिक्र नहीं होती। यही काशी का परंपरागत रूप है लेकिन इन दिनों यह रूप थोड़ा बदल रहा है। नई पीढ़ी आने वाले कल के बारे में सोचने लगी है।
जहां तक मेरा सवाल है, इस शहर का अंदाज तो मुझसे मेल खाता है लेकिन मेरे अपने नाम से नहीं। मेरा ईश्वर में कोई विश्वास नहीं है लेकिन मैं दूसरों के भरोसे को तोडऩा पसंद नहीं करता, इस नाते कई बार मंदिर गया भी हूं।
 
साहित्य और समाज में क्या अंतर होता है?
लेखक अपनी रचनाओं में वह रचता है जो वह चाहता है। यानी कहीं न कहीं आइडियलिज़्म होता है बैकग्राउंड में। जबकि समाज का सच इस आइडियलिज़्म से अलग होता है। इसी कारण साहित्य में रचे गए में और समाज में कुछ अंतर देखने को मिलता है।
इस बदलते समय में परंपरा और संस्कार जैसे शब्दों के क्‍या मायने रह गये हैं ?
 
परंपरा, संस्कार, मर्यादा ये सारे शब्द नये समय में नये अर्थ खोज रहे हैं। इन शब्दों की पुरानी परंपरागत परिभाषाएं अब टूट रही हैं।  यह टूटन स्वाभाविक है। इसे मैं इस रूप में देखता हूं कि इस टूटन के बीज से जो कुछ नया जन्म लेगा, वह बहुत अच्छा होगा।
 
 
आने वाले समय में साहित्य का क्या भविष्य है?
साहित्य का काम होता है अपने समय का साक्षात्कार करते हुए उस समय का अपनी रचनाओं में डाक्यूमेंटेशन करना। लेकिन यह सचमुच दु:खद है कि आजकल के लेखक इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। इन दिनों पाठकों को निरपेक्ष मानकर लिखा जा रहा है। इन दिनों ज्यादातर इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि लिखना है। ऐसे लेखन में गंभीरता नहीं है, लापरवाही है। यह लापरवाही साहित्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
 
 
साहित्‍य केवल कविता और कहानी तक ही सिमट गया है।
 
सही कहा आपने, साहित्य इन दिनों सिर्फ कुछ विधाओं में ही सिमट गया है। आलोचकों की नजर सिर्फ कविताओं पर ठहरती है, पाठक आमतौर पर कहानी, उपन्यास को साहित्य समझता है, जबकि ऐसा है नहीं। साहित्य की और भी विधाएं हैं।
 
 
साहित्य के मौजूदा चलन पर आप क्या कहेंगे?
इन दिनों एक चीज बहुत देख रहा हूं कि ज्यादातर उपन्यास पुस्तकालयों में बैठकर या आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से जानकारी इकट्ठा करके लिखे जा रहे हैं। आजादी के दौर की घटनाएं, पात्र उपन्यास में आ रहे हैं। प्रेमचंद से उलट यह काम हो रहा है। प्रेमचंद देखकर, महसूस करके लिखते थे, जबकि इन दिनों पढ़कर, जानकारी हासिल करके लिखा जा रहा है। ऐसे लेखन में संवेदना कहीं उपेक्षित है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि पाठकों में ऐसी रचनाओं के प्रति एक उदासीनता का भाव आने लगा है।
इन दिनों आत्मकथाओं का दौर चल पड़ा है आप क्या कहेंगे?
इन दिनों आत्मकथात्मक लेखन काफी बढ़ गया है। जब मैंने नामवर सिंह, त्रिलोचन, धूमिल आदि पर संस्मरण लिखे, तब इस ओर ज्यादा काम नहीं हो रहा था। इसके बाद जो दलित लेखक आए, उन्होंने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान और मैत्रेयी पुष्पा ने भी आत्मकथात्मक लेखन किया। यह प्रवृत्ति इन दिनों बढ़ी है। मुझे लगता है कि आत्मकथा या संस्मरण का ऐसा होना जरूरी है, जिसमें लेखक का जीवन पाठकों को कुछ दे जाए। वरना एक कमरे में बैठकर अपनी दास्तान लिख देना तो बहुत आसान है।
लेखन में शैली कितनी महत्वपूर्ण है?
यह बहुत महत्वपूर्ण है। शैली वह हथियार है जो है किसी भी रचना को जीवंतता देती है। जुलूस और अपना मोर्चा जैसे उपन्यासों में जिस तरह की फोटोग्राफिक शैली देखने को मिली वह बाद में नहीं मिली। हालांकि काशी का अस्सी को उपन्यास माना नहीं गया लेकिन उसमें भी वही शैली थी। वह शैली तो पॉपुलर हुई लेकिन उस शैली में उपन्यास फिर देखने को नहीं मिला।
नई पीढ़ी के रंग-ढंग के बारे में आप क्या कहेंगे?
इस पीढ़ी की कुछ चीजें तो बहुत अच्छी लगती हैं। जैसे छोटे-छोटे बच्चे कंप्यूटर ऑपरेट कर लेते हैं। चैनल्स पर लाइव शो में भाग लेते बच्चों को देखना हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है लेकिन तकलीफ भी होती है कि ये बच्चे अपने बचपन से दूर जा रहे हैं। ये पैसे की भूख लेकर पैदा होते हैं और उसे ही लिए हुए जी रहे हैं। एक जो आध्यात्मिक व सांस्कृतिक मन हुआ करता था वो अब देखने को नहीं मिलता।

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