Tuesday, November 30, 2010

समाचार-पत्र : जनमत का प्रहरी , जनमत का निर्माता

समाचार-पत्र : जनमत का प्रहरी , जनमत का निर्माता – ले. किशन पटनायक (३)

लेख का भाग एक , दो 
    समाचार-पत्र अगर समाचारों के पत्र होते , तो इतनी सारी बहस की जरूरत नहीं होती । अगर दुनिया मे कभी समाचारों का पत्र होगा तो वह एक बिलकुल भिन्न चीज होगी । मौजूदा सभ्यता में समाचार-पत्र एक तरह से देखें तो जनमत का प्रहरी है , दूसरे ढंग से देखें तो वह जनमत का निर्माता है । यह मत-निर्माण सिर्फ तात्कालिक मुद्दों के बारे में नहीं होता है , बल्कि गहरी मान्यताओं और दीर्घकालीन समस्याओं के स्तर पर भी होता है । यह मत-निर्माण या प्रचार इतना मौलिक और प्रभावशाली है कि इसे मानस-निर्माण ही कहा जा सकता है । प्रचार का सबसे प्रभावशाली रूप है समाचार वाला रूप । अगर आप यह कहें कि ’ गन्दगी से घृणा करनी चाहिए’, तो यह गन्दगी के खिलाफ़ एक कमजोर प्रचार है । अगर आप कहें कि ’गन्दगी बढ़ गयी है’, तो गन्दगी के खिलाफ़ यह ज्यादा प्रभावशाली वाक्य है । आप कहे कि ’पाकिस्तान को दुश्मन समझो’, तो इसका असर कम लोगों पर होगा । कुछ लोग पूछेंगे , क्यों ? लेकिन वही लोग जब पढ़ेंगे कि ’ पाकिस्तान को अमरीका से हथियारों का नया भंडार मिला’ तो दुश्मनी अपने आप मजबूत हो जायेगी । आप प्रचार करेंगे कि ’ हमें पाँच-सितारा होटलों की जरूरत है’, तो लोग कहेंगे – नहीं । लेकिन वे जब पढ़ेंगे कि ’ होटल व्यवसाय से सरकार ने १० करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा कमाई’ तो उन्हें खुशी होगी । प्रचार में द्वन्द्व रहता है । शिक्षा – दान में द्वन्द्व रहता है । समाचार में द्वन्द्व नहीं होता है – इसलिए समाचारों से मान्यतायें बनती हैं , मानस पैदा होता है । इसीसे अनुमान लगाना चाहिए कि दैत्याकार बहुराष्ट्रीय पत्र – पत्रिकाओं का कितना प्रभाव तीसरी दुनिया के शिक्षित वर्ग पर होता है ।
     गांधीजी ने जब ’हिन्द-स्वराज्य’ लिखा, डॉक्टरों और वकीलों के पेशे को समाज-विरोधी पेशे के रूप में दिखाया । हो सकता है कि वे उदाहरणॊं की संख्या बढ़ाना नहीं चाहते थे या हो सकता है कि पत्रकारों के समाज – विरोधी चरित्र का साक्षात्कार उन दिनों उन्हें नहीं हुआ था । गांधी अति अव्यावहारिक विचारकों की श्रेणी में आते हैं । उनके सपने का समाज नहीं बनने वाला है । हम वकीलों-डॉक्टरों के पेशे को समाज -विरोधी नहीं कह सकते । साधारण नागरिक के लिए पग-पग पर वकील-डॉक्टर की सेवा की जरूरत पड़ जाती है । जैसे हम जानते हैं कि स्कूलों में अच्छी शिक्षा नहीं दी जाती है, लेकिन हम अगर स्कूलों को समाज विरोधी कहेंगे, तो हमारे बच्चे मूर्ख रह जायेंगे । इसी तरह समाचार-पत्र के आधुनिक मनुष्य के लिए  एक बहुत बड़ा बोझ होने पर भी उसे पढ़े बिना रहने पर हम अज्ञानी रह जायेंगे । समाज में बात करने लायक नहीं रह जायेंगे । ज्यादा से ज्यादा आप इसे एक विडम्बनापूर्ण स्थिति कह सकते हैं , जहाँ समाचार-पत्रों की स्वाधीनता है , लेकिन पत्रकार पराधीन है । समाचार-पत्र आधुनिक मनुष्य के ऊपर एक बहुत बड़ा अत्याचार है । साथ ही , वह हमारी सांवैधानिक आजादी का माध्यम भी है ।
- स्रोत : सामयिक वार्ता , अक्टूबर , १९८८

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