Wednesday, November 10, 2010

punya prasun vajpayee

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तू कहता कागज की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी- कबीर ने जब दोहा कहा या लिखा होगा, तो उन्होंने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन टीवी पत्रकारिता उनके इस दोहे को भविष्यवाणी की तरह सिद्ध कर देगी। टीवी पत्रकारिता ने दस से भी कम वर्षों में जिस तरह से समाज में अपने आपको स्थापित कर लिया है, सचमुच आश्चर्यजनक है। यह यात्रा शुरू हुई थी ‘आज तक’ नामक 20 मिनट के एक छोटे से कार्यक्रम से, जिसकी सफलता आज समाचार चैनलों की होड़ में बदल चुकी है। आज तक, एनडीटीवी इंडिया, जी न्यूज इंडिया टीवी चैनल सेवन.... ये महज कुछ समाचार चैनलों के नामं हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि अगले कुछ वर्षों में कम से कम दर्जन भर समाचार चैनल हिन्दी में ही शुरू हो जाएंगे। महज पांच सालों के भीतर ही समाचार चैनलो की भूमिका बढ़ी है। जिस तरह से उसने अपनी उपयोगिता साबित की है,। उससे यह साबित हुआ है कि यह एक स्थायी माध्यम के रूप में समाज में बना रहने वाला है।

जिस तेजी से समाज में समाचार चैनलों की जगह बनी हैं, उसी तरह से उसको लेकर बहसे भी तेज हुई हैं। चाहे स्टिंग आँपरेशन का मामला हो या नैतिकता का या अपराध और सेक्स से जुड़े पहलू हों, टीवी को लेकर इस तरह की बहसें भी  बढ़ी हैं। स्वयं पत्रकारिता के पेशे को लेकर भी तरह-तरह की बहसें चल रही हैं। प्रिंट पत्रकारिता का दौर मिशन पत्रकारिता का दौर था जिसे निश्चित और तौर पर टीवी ने एक प्रोफेशन में बदल दिया है। अचानक पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े पहलुओं की चर्चा होने लगी है देश भर में पत्रकारिता प्रशिक्षण को लेकर जागरूकता बढ़ी हैं।

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