Wednesday, November 17, 2010

पत्रकारिता पत्रकारिता के नौ सूत्र

पत्रकारिता के नौ सूत्र

मीडिया - 3 Comments » - Posted on April, 19 at 11:34 am
हिमांशु शेखरहर देश की पत्रकारिता की अपनी अलग जरूरत होती है। उसी के मुताबिक वहां की पत्रकारिता का तेवर तय होता है और अपनी एक अलग परंपरा बनती है। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता और पश्चिमी देशों की पत्रकारिता में बुनियादी स्तर पर कई फर्क दिखते हैं। भारत को आजाद कराने में यहां की पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। जबकि ऐसा उदाहरण किसी पश्चिमी देश की पत्रकारिता में देखने को नहीं मिलता है। आजादी का मकसद सामने होने की वजह से यहां की पत्रकारिता में एक अलग तरह का तेवर विकसित हुआ। पर समय के साथ यहां की पत्रकारिता की प्राथमिकताएं बदल गईं और काफी भटकाव आया। पश्चिमी देशों की पत्रकारिता भी बदली लेकिन वहां जो बदलाव हुए उसमें बुनियादी स्तर पर भारत जैसा बदलाव नहीं आया।
इन बदलावों के बावजूद अभी भी हर देश की पत्रकारिता को एक तरह का नहीं कहा जा सकता है। पर इस बात पर दुनिया भर में आम सहमति दिखती है कि दुनिया भर में पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आई है। इस गिरावट को दूर करने के लिए हर जगह अपने-अपने यहां की जरूरत के हिसाब से रास्ते सुझाए जा रहे हैं। हालांकि, कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें हर जगह पत्रकारिता की कसौटी बनाया जा सकता है। ऐसे ही नौ बातों को अमेरिका की ‘कमेटी आॅफ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ ने सामने रखा है।
बात को आगे बढ़ाने से पहले इस कमेटी के बारे में बुनियादी जानकारी जरूरी है। कंसर्डं के लिए हिंदी में चिंतित शब्द का प्रयोग होता है। इस लिहाज से कहा जाए तो कमेटी ऑफ़ कंसर्डं जर्नलिस्ट वैसे पत्रकारों, प्रकाशकों, मीडिया मालिकों और पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े लोगांे की समिति है जो पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। पत्रकारिता के भविष्य को सुरक्षित बनाए रखने के मकसद से यह समिति अपने तईं इस दिशा में प्रयासरत रहती है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग पत्रकारिता को अन्य पेशों की तरह न समझें। बल्कि एक खास तरह की सामाजिक जिम्मेदारी को निबाहते हुए पत्रकार काम करें। इस समिति की नींव 1997 में रखी गई थी। उस दिन हावर्ड फैकल्टी क्लब में पचीस पत्रकार एकत्रित हुए थे। इसमें कुछ चोटी के संपादक थे तो कुछ रेडियो और टेलीविजन के जाने-माने चेहरे। इन पचीस लोगों में पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण लोग और कुछ बड़े लेखक भी शामिल थे। वहां मौजूद सारे लोगों में एक समानता थी। सभी इस बात पर सहमत थे कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ गंभीर खामियां आ गई हैं। वे इस बात से भी डरे हुए थे कि पत्रकारिता जनता के हितों का पोषण करने के बजाए कहीं न कहीं जनहित को नुकसान पहंुचा रही है। सब इस बात पर भी सहमत थे कि ऐसी स्थिति में पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निबाहते हुए कुछ न कुछ किया जाना चाहिए।
इसी बात को ध्याम में रखकर ‘कमेटी ऑफ़ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ का गठन किया गया। गठन के बाद इस समिति ने दो साल तक पत्रकारों और लोगों के बीच लगातार काम किया। समिति ने इक्कीस गोष्ठियों का आयोजन किया। इसमें तीन हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। इसके अलावा इन गोष्ठियों में गंभीरता से काम कर रहे तीन सौ से ज्यादा पत्रकारों की भी भागीदारी रही। समिति ने विश्वविद्यालय के शोधार्थियों को भी अपने साथ जोड़ा। शोधार्थियों ने सौ से ज्यादा पत्रकारों से पत्रकारिता के मूल्यों पर आधारित लंबे साक्षात्कार किए। पत्रकारिता के सिद्धांतों पर आधारित दो सर्वेक्षण भी इस समिति ने किया। समिति ने उन पत्रकारों के पत्रकारिता जीवन का अध्ययन भी किया जिनसे समिति ने बातचीत की थी। इसके जरिए उन पत्रकारों की प्राथमिकता के बारे में जानकारी जुटाई गई जिनसे बातचीत करके समिति कुछ अहम नतीजे पर पहुंचने वाली थी। दो साल तक कठोर परिश्रम करने और समाज के अलग-अलग हिस्सों के लोगों के अनुभवों को सहेजने के बाद समिति ने एक किताब प्रकाशित की। इस किताब का नाम है- एलीमेंट ऑफ़ जर्नलिज्म। इस किताब को लिखा बिल कोवाच और टॉम रोसेंशियल ने। इसी किताब में समिति ने पत्रकारिता के बुनियादी तत्व के तौर पर नौ बातों को सामने रखा। जिसकी कसौटी पर दुनिया के हर देश की पत्रकारिता को कस कर देखने से कई बातें खुद ब खुद स्पष्ट होंगी।
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के बाद इस बात को स्थापित किया है कि सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है। कहा जा सकता है कि यह तो पत्रकारिता के पारंपरिक बुनियादी सिद्धांतों में शामिल रहा ही है। पर यहां सवाल उठता है कि इसका कितना पालन किया जा रहा है? इस कसौटी पर भारत की पत्रकारिता को कस कर देखा जाए तो हालात का अंदाजा सहज ही लग जाता है। अभी की पत्रकारिता में अपनी-अपनी सुविधा और स्वार्थ के हिसाब से खबरों को पेश किया जा रहा है। एक ही घटना को अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाना भी इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य को सामने लाने की प्राथमिकता से मुंह मोड़ा जा रहा है। ऐसा इसलिए भी लगता है कि घटना से जुड़े तथ्य तो एक ही रहते हैं लेकिन इसकी प्रस्तुति अपने-अपने संस्थान की जरूरतों और अपनी निजी हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। पिछले साल जामिया एनकाउंटर बहुत चर्चा में रहा था। इस एनकाउंटर की रिपोर्टिंग की बाबत आई एक रपट में यह बात उजागर हुई कि तथ्यों को लेकर भी अलग-अलग मीडिया संस्थान अपनी सुविधा के अनुसार रिपोर्टिंग करते हैं। जब एक ही घटना की रिपोर्टिंग कई तरह से होगी, वो भी अलग-अलग तथ्यों के साथ तो इस बात को तो समझा ही जा सकता है कि सच कहीं पीछे छूट जाएगा। दुर्भाग्य से  ही सही लेकिन ऐसा हो रहा है। 
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर दूसरी बात यह स्थापित की कि पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। इस कसौटी पर देखा जाए तो अपने यहां की पत्रकारिता में भी जनता के प्रति निष्ठा का घोर अभाव दिखता है। अभी के दौर में एक पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान में कदम रखते हुए यह समझाया जाता है कि आप किसी मिशन भावना के साथ काम नहीं कर सकते हैं और आप एक नौकरी कर रहे हैं। इसलिए स्वभाविक तौर पर आपकी जिम्मेदारी अपने नियोक्ता के प्रति है। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि आपकी पगार मीडिया मालिक देते हैं इसलिए उनकी मर्जी के मुताबिक काम करना ही इस  दौर की पत्रकारिता है। यहां इस बात को समझना आवश्यक है कि अगर मालिक की प्रतिबद्धता भी पत्रकारिता के प्रति है तब तो हालात सामान्य रहेंगे। पर आज इस बात को भी देखना होगा कि मीडिया में लगने वाले पैसे का चरित्र का किस तेजी के साथ बदला है। जब अपराधियों और नेताओं के पैसे से मीडिया घराने स्थापित होंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी। इसी के हिसाब से उन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों की जवाबदेही तय होगी। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान में मुख्यधारा की पत्रकारिता में गिने-चुने संस्थान ही ऐसे दिखते हैं कि जहां के पत्रकारों के लिए जनता के प्रति निष्ठावान होने की थोड़ी-बहुत संभावना है।
समिति के मुताबिक खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है। इस आधार पर अगर देखा जाए तो पुष्टि की परंपरा ही गायब होती जा रही  है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो बीते साल मुंबई में हुए हमले के मीडिया कवरेज के दौरान देखने को मिला। एक खबरिया चैनल ने खुद को आतंकवादी कहने वाले एक व्यक्ति से फोन पर हुई बातचीत का सीधा प्रसारण कर दिया। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या वह व्यक्ति सचमुच उस आतंकवादी संगठन से संबद्ध था या फिर वह मीडिया संगठन का इस्तेमाल कर रहा था। जिस समाचार संगठन ने उस साक्षात्कार ने उस इंटरव्यू को प्रसारित किया क्या उसने इस बात की पुष्टि की थी कि वह व्यक्ति मुंबई हमले के जिम्मेवार आतंकवादी संगठन से संबंध रखता है। निश्चित तौर ऐसा नहीं किया गया था। बजाहिर, यहां सूचना के स्रोत की पुष्टि में अपेक्षित अनुशासन की उपेक्षा की गई। ऐसे कई मामले भारतीय मीडिया में समय-समय पर देखे जा सकते हैं। हालांकि, आतंकवादी का इंटरव्यू प्रसारित करने के मामले में एक अहम सवाल तो यह भी है कि क्या किसी आतंकवादी को अपनी बात को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए मीडिया का एक मजबूत मंच देना सही है? ज्यादातर लोग इस सवाल के जवाब में नकारात्मक जवाब ही देंगे।
समिति ने कहा है कि पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए जिन्हें वे कवर करते हों। इस कसौटी पर भी अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता के समक्ष यह एक बड़ा संकट दिखता है। अपने निजी संबंधों के आधार पर खबर लिखने की कुप्रथा चल पड़ी है। कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिसमें यह देखा गया है कि निहित स्वार्थ के लिए खबर लिखी गई हो। कई बार वैसी ही पत्रकारिता होती दिखती है जिस तरह की पत्रकारिता सूचना देने वाले चाहते हैं। राजनीति और अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त यह समस्या और भी बढ़ जाती है। राजनीति के मामले में नेता जो जानकारी देते हैं उसी को इस तरह से पेश किय जाता है जैसे असली खबर यही हो। नेता कब मीडिया का इस्तेमाल करने लगते हैं, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं होता है। अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त जो जानकारी पुलिस देती है उसी के प्रभाव में आकर अपराध की पत्रकारिता होने लगती है। पुलिस अपने द्वारा की गई हत्या को एनकाउंटर बताती है और ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि मीडया उसे एनकाउंटर के तौर पर ही प्रस्तुत करती है।
समिति इस नतीजे पर भी पहुंची कि पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए। इस बिंदु पर सोचने के बाद यह पता चलता है कि जब पत्रकार सत्ता से नजदीकी बढ़ाने के लोभ का संवरण नहीं कर पाता है तो पत्रकारिता कहीं पीछे रह जाती है। भारत की पत्रकारिता के बारे में एक बार किसी बड़े विदेशी पत्रकार ने कहा था कि यहां जो भी अच्छे पत्रकार होते हैं उन्हें राज्य सभा भेजकर उनकी धार को कुंद कर दिया जाता है। राज्य सभा पहुंच कर अपनी पत्रकारिता की धार को कुंद करने वाले पत्रकारों के नाम याद करने में यहां की पत्रकारिता को जानने-समझने वालों को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं देना पड़ेगा। ऐसे पत्रकार भी अक्सर मिल जाते हैं जो यह बताने में बेहद गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके संबंध फलां नेता के साथ या फलां उद्योगपति के साथ बहुत अच्छे हैं। यही संबंध उन पत्रकारों से पत्रकारिता के बजाए जनसंपर्क का कार्य करवाने लगता है और उन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता है। जब यह पता चलता है तब तक वे उसमें इतना सुख और सुविधाएं पाने लगते हैं कि उसे ये समय के नाम पर सही ठहराते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।
समिति अपने अध्ययन के आधार पर इस नतीजे पर पहुंची है कि पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रया स्वभाविक तौर पर उत्पन्न हो उसके अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए। लेकिन आज कल ऐसा हो नहीं रहा है। इसमें मीडिया घराने उन सभी बातों को प्रमुखता से उठाते हैं जिन्हें वे अपने व्यावसायिक हितों के पोषण के लिए उपयुक्त समझते हैं। उनके लिए जनता के स्वाभाविक मसले को उठाना समय और जगह की बरबादी करना है। ये सब होता है जनता की पसंद के नाम पर। जो भी परोसा जाता है उसके बारे में कहा जाता है कि लोग उसे पसंद करते हैं इसलिए वे उसे प्रकाशित या प्रसारित कर रहे हैं। जबकि विषयों के चयन में सही मायने में जनता की कोई भागीदारी होती ही नहीं है। इसलिए जनता जिस मसले पर व्यवस्था की आलोचना करनी चाहती है वह मसला मीडिया से दूर रह जाता है। इसका असर यह हो रहा है कि वैसे मसले ही मीडिया में प्रमुखता से छाए हुए दिखते हैं या उनकी मात्रा ज्यादा रहती है जो लोगों को रोजमर्रा के कामों में ही उलझाए रखे और उन्हें उस दायरे से बाहर सोचने का मौका ही नहीं दे।
समिति ने पत्रकारिता के अनिवार्य तत्व के तौर पर कहा है कि पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके। इस आधार पर तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि खबर को रोचक और प्रासंगिक बनाने की कोशिश तो यहां की पत्रकारिता में दिखती है लेकिन उसे सार्थक बनाने की दिशा में पहले करते हुए कम से कम मुख्यधारा के मीडिया घराने तो नहीं दिखते। सही मायने में जो संस्थान सार्थक पत्रकारिता कर रहे हैं, वे बड़े सीमित संसाधनों के साथ चलने वाले संस्थान हैं। उनके पास हर वक्त विज्ञापनों का टोटा रहता है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अगर पत्रकारिता सार्थक होने लगेगी तो बाजार के लिए अपना हित साधना आसान नहीं रह जाएगा। इसलिए बडे़ मीडिया घराने विज्ञापन और संसाधन के मामले में अमीर होते हैं और सार्थकता के मामले में उनकी अमीरी नजर नहीं आती।
समिति के मुताबिक समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए। इस नजरिए से देखा जाए तो इसी बात में खबरों के लिए आवश्यक संतुलन का तत्व भी शामिल है। विस्तार के मामले में अभी जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह तो कहा जा सकता  है कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन बहुत बुरी भी नहीं है। जहां तक संतुलन का सवाल है तो इस मामले में व्यापक सुधार की जरूरत दिखती है। संतुलन में अभाव की वजह से ही आज ज्यादातर मीडिया घरानों  की एक पहचान बन गई है कि फलां मीडिया घराना तो फलां राजनीतिक विचारधारा के आधार पर ही लाइन लेगा। इसे शुभ संकेत तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से यह चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इस मामले में पश्चिमी देशों की मीडिया में तो हालात और भी खराब हैं। अमेरिका में हाल ही हुए चुनाव में तो अखबारों ने तो बाकायदा खास उम्मीदवार का पक्ष घोषित तौर पर लिया। 
आखिर में समिति ने पत्रकारिता के लिए एक अहम तत्व के तौर पर इस बात को शामिल किया है कि पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए। इस कसौटी की बाबत तो बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सही मायने में पत्रकारों के पास अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी होती तो जिन समस्याओं की बात आज की जा रही है, उन पर बात करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

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