Wednesday, November 17, 2010

khushwant singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बैसाख की पहली तिथि पंजाबी पंचांग के अनुसार नव-वर्ष दिवस के रूप में मनाई जाती है। इसी दिन 13 अप्रैल 1978 को जनरैल सिंह भिंडरावाले ने धूम-धड़ाके से पंजाब के रंगमंच पर पदार्पण किया। इस घटना से न केवल पंजाब के जन-जीवन में तूफान आया बल्कि पूरे देश के लिए इसके दूरगामी घातक परिणाम हुए। पूरा पंजाब अशांत और आतंकवाद के हाथों क्षत-विक्षत हो गया और आज यह समस्या इतनी पेंचीदा बन गई लगती है कि इसका न सिर्फ कोई हल कारगर नहीं होता वरन् समय-समय पर देश की अखंडता के लिए यह सचमुच का खतरा पैदा कर देती है। सुप्रसिद्ध लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह की प्रस्तुत पुस्तक सुस्पष्ट रूप से इस समस्या का इतिहास दर्शाती है, स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पंजाबियों के गिले-शिकवों और असंतोष का विवरण देती है, और सभी प्रमुख घटनाओं पर रोशनी डालती है।

लेखक का व्यक्तिगत जुड़ाव पुस्तक को विशेष महत्व प्रदान करता है, जो लगभग इसके प्रत्येक पृष्ठ पर प्रकट है। इसमें लेखक ने एक तरफ पंजाब की राजनीति और वहाँ की स्थिति पर, जिसे संकीर्ण विचारोंवाले अकाली नेताओं ने गड्डमड्ड कर दिया है, तथा दूसरी ओर केन्द्र सरकार द्वारा जान-बूझकर खेले जाने वाले शरारतपूर्ण राजनीतिक खेल पर अपने विचार प्रकट किए हैं। इस सबका दुर्भाग्य परिणाम सामने है जिसे कोई भी देख सकता है। यह परिणाम है : भारत के सबसे उन्नतिशील राज्य की प्रगति के मार्ग में गत्यवरोध आ गया है, यहाँ की कृषि और औद्योगिक अर्थव्यवस्था तहस-नहस हुई पड़ी है, इसका प्रशासन और न्यायपालिका पंगु बनकर रह गए हैं। संभवत: सबसे ज्यादा परेशानी की बात यह है कि अभी समाधान की कोई उम्मीद कहीं नज़र नहीं आती।
जो लोग वर्तमान गत्यवरोध को अधिक गहराई से समझना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक अवश्य पठनीय है।

भूमिका

पंजाब की राजनीतिक आबोहवा 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध से गर्म होनी शुरू हो गई थी और 1980 तक आते-आते इसमें उबाल आना शुरू हो गया था। संयोगवश 1980 में ही मुझे ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के संपादक का पद और राज्यसभा की सदस्यता मिली। संपादक के रूप में जो कुछ मैं लिखता रहा, और सांसद के तौर पर जो भाषण मैंने संसद में दिए वे ज्यादातर पंजाब की तेजी से बिगड़ती स्थिति से ही सम्बन्धित थे। मसलन: अकाली-निरंकारी झगड़े, जरनैल सिंह भिंडराँवाले का उदय, धर्मयुद्ध मोर्चा, भारतीय फौजों द्वारा स्वर्ण मंदिर पर धावा, इंदिरा गांधी की हत्या और उत्तरी भारत के छोटे-बड़े शहरों में सिखों का कत्ले-आम। उसके बाद आया राजीव-लोंगोवाल समझौता, राजीव गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार द्वारा इसका हनन, लम्बी अवधि तक का राष्ट्रपति शासन, खाड़कू गतिविधियों का तेज होना और इनका भारत के अन्य भागों में भी फैलना। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ को छोड़ने और राज्यसभा से अवकाश प्राप्त करने के बाद भी मेरे अनेक लेखों और सिंडीकेटेड स्तम्भों-‘विद मैलिस टुवर्डस वन एंड ऑल’, ‘दिस अबव ऑल’ तथा ‘गॉसिप : स्वीट एंड सॉवर’ के विषय मुख्यत: पंजाब से जुड़े मुद्दे ही रहे। इसके अतिरिक्त मैंने विदेशी समाचारपत्रों एवं संकलित करनेवाली रोहिणी चोपड़ा उर्फ सिंह ने एक बड़ा प्रशंसनीय कार्य किया है कि उसने मेरे लेखों और भाषणों को संपादित कर कालक्रमानुसार संकलित कर दिया है, जिससे मैं उनमें से कुछेक को इस पुस्तक में प्रयुक्त कर सका हूँ।

ये पंजाब की राजनीति पर मेरी व्यक्तिगत विचारधारा के सच्चे प्रतिबिंब हैं। इनमें जहाँ एक तरफ संकीर्ण विचारों वाले अकाली नेताओं द्वारा पैदा की गई गड़बड़ी का लेखाजोखा है, वहीं दूसरी तरफ श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके सुपुत्र राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्रीय सरकार द्वारा जानबूझकर खेली गई शरारती राजनीति का वर्णन है। इन सबने मिलकर भारत के सर्वाधिक प्रगतिशील राज्य के विकास को जड़ कर दिया, इसकी कृषि सम्बन्धी और औद्योगिक अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया तथा इसके प्रशासनतंत्र और न्यायतंत्र के परखचे उड़ा दिए। यह एक बड़ी त्रासद कहानी है। मैं चूँकि एक भारतीय हूँ, पंजाबी हूँ और सिख हूँ, इसलिए स्वाभाविक है कि इस पुस्तक में वर्णित घटनाओं के प्रति मेरे उद्गार आवेगपूर्ण ही होंगे और इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी भी नहीं हूँ।
खुशवंत सिंह

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