Tuesday, November 30, 2010

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आकर्षण बन रही है व्यावहारिक कला PDF Print E-mail
Written by Mulakat India   
Sunday, 05 July 2009 00:00
 सृजन एक शास्वत प्रक्रिया है जिसमें कला, कलाकार एवं वल्यूज समय के सापेक्ष चलते हैं। आज कला शब्द का आशय व्यापक संदर्भ में लिया जाने लगा है-साहित्य, संगीत, नाटक, फैशन, शिल्प, वास्तु, सिनेमा, रहन-सहन समस्त जैविक क्रियाओं में कलात्मकता का बोध किया जाने लगा है। यही कारण है कि शास्त्रीय मूल्यों की अपेक्षा व्यावहारिक पक्ष अधिक आकृष्ट करते हैं। दूसरा पक्ष यह भी है कि अधिकांशत:  लोगों के पास एक तो समयाभाव है दूसरे त्वरित परिणाम की अपेक्षा पालने वाले मानसिक दबाव में किसी भी सृजन में मौलिकता से कोसों दूर चले जाते हैं। इन्हीं सब मुद्दों पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर हीरालाल प्रजापति से विस्तार से बात की हमारी संवाददाता वंदना ने......
 बाजारवाद के दौर में कला को आप किस तरह से देख रहे हैं?
कला को समाज का दर्पण मानने वाले समाज का नजरिया कलाकार से बड़ी भूमिका एवं जिम्मेदारी की अपेक्षा रखता है। फिर भी मौलिक सृजनात्मकता को आज का कलाकार कितना महत्व देता है कहा नहीं जा सकता। कला के अंतरराष्ट्रीय बाजार ने कलाकारों की कृतियों को एक ब्रांड के रूप में पेश कर रखा है। इससे कलाकार बाजार की मांग के अनुरूप अपनी कृत बनाने के लिए मजबूर है। ऐसे में उनकी कृतियां कम, अनुकृतियां ज्यादा बनने लगी हैं। मांग की भीड़ में उनकी सृजनात्मकता का गुण कहीं खो सा गया है।
 शिक्षक के रूप में आपकी क्या उपलब्धि है?
एक कला शिक्षक के रूप में विगत 25 सालों से नवोदित कलाकारों की पौध को विकसित एवं उन्नत करने की दिशा में संलग्न हैं। आपकी पौधशाला से विकसित अनेक छात्र प्रतिष्ठित कला महाविद्यालयों, स्कूल एवं कॉलेजों के अलावा विज्ञापन एजेंसियों, मनोरंजन एवं सार्वजनिक क्षेत्र में अपनी सेवाएं प्रदान कर सुसज्जित राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान कर काशी का मान बढ़ाया है। 
अपनी उपलब्धियों के बारे में बताइए।
पहली बार जब मैंने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया तो लोगों ने किसी और के लिए आशा किया था। मेरी ओर तो उनका कोसों दूर तक ध्यान नहीं था। जब मैं अपने सीनियर छात्र वर्तमान में मेरे सहयोगी शिक्षक श्री विजय सिंह की एक बात यह कि प्रथम आना शायद उतना कठिन नहीं है जितना उसे बनाये रखना मेरी उपलब्धियों के पीछे शायद सबसे बड़ा कारण है। वर्ष 1978 में राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में सहभागिता से अपनी कला यात्रा के प्रथम सोपान पर कदम रखा। अखिल भारतीय एवं प्रादेशिक स्तर पर महत्वपूर्ण सहभागिता के अलावा अनेकानेक पुरस्कारों को भी प्राप्त किया तथा कलाकृतियां प्रतिष्ठित संस्थाओं के स्थायी एवं व्यक्तिगत संग्रहों में संग्रहित है।
 कला क्षेत्र में कैसे आना हुआ?
बचपन से ही रंगों और आकृतियों ने अपनी ओर आकृष्ट किया। कक्षा की प्रथम पंक्ति में बैठकर भी कॉपियों के पीछे के तीन चार पन्नों में अध्यापकों, छात्रों की मुद्राएं बनाना आम बात थी। सड़कों पर शिव-हनुमान को रंगीन चॉक द्वारा चित्रों को बनाते देखना और फिर घर आकर कोयले से जमीन पर बड़े स्केच फिर मौका मिलने पर शादी के अवसरों पर घोड़े, सिपाही, ग्वालिन, मोर, मछली बनाना और रंग भरना बचपन में काफी आनंददायक होता था। कला की नियमित शिक्षा दी जाती है ऐसा बिल्कुल भी पता नहीं था और जब मुझे पता चला तो विज्ञान की पढ़ाई छोड़ ललित कला के प्रशिक्षण के लिए आवेदन किसी अन्य छात्र के माध्यम से कर दिया। बीएचयू का मुख्य द्वार किधर है ये भी पता नहीं था। प्रवेश परीक्षा के दिन कॉलेज ढूंढ़ते हुए पहुंचना पड़ा था। मन में सिर्फ एक ही इच्छा थी किसी प्रकार प्रवेश हो जाय। 30 छात्रों की मेरिट में किसी भी नंबर पर हो पर मेहनत कर प्रथम आने का संकल्प था। ईश्वर की कृपा एवं दृढ़ इच्छा शक्ति से स्नातक एवं परस्नातक लगातार सात साल के शिक्षा क्रम में प्रथम स्थान आया और उपरोक्त दोनों उपाधियों के लिए बीएचयू स्वर्ण पदक एवं मेरिट छात्रवृत्ति मिला था। इस प्रकार कला क्षेत्र में प्रवेश मिला और उसकी बारीकियों को समझने का अवसर भी मिला। हालांकि पूर्वजों से मूर्तन कला विरासत में मिली है लेकिन समय के साथ पारंपरिक विधाओं का आकर्षण कम हो चला था। क्योंकि वर्तमान आवश्यकता के अनुरूप अपने आपको न ढाल पाने की मजबूरियों से प्रतिष्ठापरक जीवन-यापन कठिन ही नहीं दुरूह भी था यही कारण था कि अन्य रोजगार की तलाश में परिवार के लोग अलग-अलग पेशे से जुड़ते चले गए। होश संभालने के साथ मन में यह कसक जरूर थी कि किसी प्रकार पारंपरिक कामों को नया रूप दें। विज्ञान की पढ़ाई बीच में छोड़ ललित कला विषय में प्रवेश लिया। बाबू जी द्वारा हमेशा सहयोग एवं प्रोत्साहन मिला। प्रथम प्रेरणास्रोत बाबूजी ही रहे तत्पश्चात् पाठ्यक्रम प्रशिक्षण के दौरान प्रोफेसर अर्जुन कुमार, पी. गज्जर जिनकी विश्वविख्यात छवि रही उनका सान्निध्य मिला और एक पत्थर को तराशकर एक हीरा बना दिया। उनके ही आशीर्वाद से इस कला यात्रा का इतना लंबा सफर तय कर पाया।
 पहली जॉब के अनुभवों को बताईये ?
पहला आवेदन इंस्ट्रक्टर पद के लिए दयाल बाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट आगरा के लिए किया था जब मैं एमएफए अंतिम वर्ष में था। वसंत पंचमी के दिन साक्षात्कार था। चूंकि संस्था राधा स्वामी संप्रदाय की थी। लोगों का कहना था आप लोग तो वैसे ही आये हैं। यहां किसी की नियुक्ति यदि होती है तो किसी सत्संगी का ही होगा। उस दिन भंडारा था। सभी लोग व्यस्त थे। सभी आवेदक समय से पहुंच चुके थे। उस समय संस्थान के निदेशक माननीय डॉ जी पी शेरी का संदेश मिला कि इतने कलाकार यहां उपस्थित है तो क्यों न एक चित्र वो तैयार करें। विषय एवं रंग ब्रश उपलब्ध करा दिये गये। शाम चार-पांच बजे से साक्षात्कार शुरू हुए। मेरा साक्षात्कार करीब एक डेढ़ घंटे चला। पांच यूजीसी एवं तीन अपनी संस्थान की ओर से अग्रिम वेतन वृद्धि की स्वीकृति करते हुए मुझे सेवा का अवसर दिया जो दयाल बाग वासियों के लिए एक आश्चर्य ही था। यह 2 मई 1983 की बात है जब मैंने पहली जॉब ज्वाइन किया था। ठीक एक वर्ष बाद स्थायी कर दिया। एक वर्ष लगभग ग्यारह माह की सेवा लोगों को आज भी याद है। यह मेरे लिए सबसे सुखद तथ्य है।
 आपकी कार्यशैली क्या है?
मैं ग्राफिक्स क्षेत्र से जुड़ा हुआ हूं। शिक्षक रूप में अप्लाइड आर्ट्स के विषय से संबद्ध हूं। फिर भी मुझे प्रायोगिक कार्य करने में आनंद की अनुभूति होती है। अकादमिक कार्य भी किए हैं। पर पुरस्कारों की आशा नहीं की। मेरी कृतियां किसी विशेष शैली पर आधारित नहीं हैं। फिर भी पेंसिल, वाटर कलर, पेन एंड इंक, अक्रेलिक ऑयल आदि अनेक माध्यमों में कार्य किया। राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तर पर कैम्प, वर्कशॉप आदि में भाग लेने के अलावा संगोष्ठियों में भी हिस्सा लिया। कक्षा का सबसे कमजोर समझा जाने वाला विद्यार्थी जब मेरे सहयोग एवं अपनी लगन से आगे आता है तो मुझे काफी संतुष्टि होती है। 
शिक्षण-प्रशिक्षण में क्या कुछ नया करते हैं?
पाठ्यक्रम की अपनी एक सीमा होती है और संस्था की भी। ऐसे में उपलब्ध संसाधनों में अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हमारे छात्र खरे उतरते हैं तो अच्छा लगता है। इसके लिए निर्धारित पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त वर्तमान जरूरतों के अनुसार कार्य कराना मेरी प्राथमिकताएं होती हैं। 
 ऐसी बात जो दु:स्वन की भांति भूलना चाहेंगे।
जीवन सुख-दुख का संगम है। व्यक्ति को दुख भुलाकर कर्तव्य मार्ग पर चलते रहना चाहिए। दूसरों के अलावा अपनों ने भी कम दुख नहीं दिये हैं। मैंने किसी का कभी अहित नहीं चाहा जिसने भी कष्ट दिया कभी बदले के भाव मन में नहीं आये क्योंकि जिस उद्देश्य को लेकर शिक्षण क्षेत्र में आया उस लक्ष्य की ओर बढ़ता चला गया। ईश्वर ने हर कदम पर मेरा साथ दिया जिसकी अनुभूति हमेशा होती रही है। 
आने वाला कल कैसा होगा?
यह तो भविष्य की बात है,फिर भी दूर-दराज के क्षेत्रों से आने वाले छात्रों को वर्तमान में रहकर कार्य करने के अलावा अपनी जमीन अपनी माटी से जुड़े रह कर आगे बढ़ने के संकल्प के साथ जब ये छात्र अग्रसर होते हैं तो उनके अपने भविष्य के साथ उनका आने वाला कल भी स्वर्णिम होता है। 
व्यक्तिगत परिचय-उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में दस जुलाई 1957 में जन्में हीरालाल प्रजापति के इस मुकाम तक पहुंचने में माता-पिता रूक्मणी देवी और शिवपूजन का बड़ा योगदान रहा। पर कला गुरू प्रोफेसर ए पी गज्जर के आशीर्वाद और सहयोग के बिना यह सब संभव नहीं था। अध्यापन का कार्य 2 मई 1983 से कमर्शियल ऑर्टिस्ट के रूप में दयाल बाग एजुकेशनल इंस्टीट्यूट आगरा से शुरू किया। यहां पर 13 अप्रैल 1985 तक कार्यरत रहा। उसके बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के दृश्य कला संकाय विभाग में 15 अप्रैल 1985 से प्रवक्ता पद पर अप्लाइड आर्ट्स का अध्यापन शुरू किया। इस पद पर 31 मार्च 1998 तक कार्य करने के बाद अप्रैल 1998 से वर्तमान समय तक सेलेक्शन ग्रेड एसोसिएट प्रोफेसर पर कार्यरत हैं। अभी तक अपने अधीन पांच छात्रों को पीएचडी कराया है और 180 से ज्यादा छात्रों को गाइड किया है। आईफेक्स नई दिल्ली, हैदराबाद ऑर्ट सोसायटी, महाकोशल कला परिषद रायपुर, उत्तर प्रदेश राज्य ललित कला अकादमी पुरस्कारों सहित अखिल भारतीय स्तर पर कई प्रमुख पुरस्कार पा चुके हैं। सोवियत संघ द्वारा धरती पर जीवन पोस्टर प्रतियोगिता में डिप्लोमा प्रदत्त। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कला प्रतियोगिताओं में सहभागिता के अलावा 15 संयुक्त एवं एकल प्रदर्शनी का आयोजन। अनेक कैम्प, वर्कशॉप एवं संगोष्ठियों में 1984 से अब तक सक्रिय सहभागिता। कलावृत्तियां राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर कला संगठनों एवं व्यक्तिगत संग्रहों में संग्रहित।  मुलाकातइंडियाडॉटकॉम से बातचीत के लिए धन्यवाद  

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