Tuesday, November 23, 2010

लघु समाचार पत्रों को बंद होने से बचाएं

लघु समाचार पत्रों को बंद होने से बचाएं

सबसे पहले तो मैं भड़ास4मीडिया को पत्रकारिता क्षेत्र के हर एंगल पर प्रकाश डालने के लिए बधाई देता हूं। दैनिक जागरण में बतौर रिपोर्टर कार्य करने के दौरान मैं वेतन उत्पीड़न का शिकार होकर खुद की पत्रकारिता करने उतरा। आज मैं अपने अखबार का तीन साल से मालिक हूं। चूंकि मैंने जागरण में बिना वेतन काम करने की पीड़ा को झेला है। इसलिए मैं अपने यहां रिर्पोटिंग से लेकर टाइपिंग एवं पेज सेटिंग का सारा काम खुद करता हूं।
तीन साल से मैं लगातार न्यूज ऑफ जेनरेशन एक्स नामक द्विभाषीय समाचार-पत्र का प्रकाशन कर रहा हूं। यूं तो पत्रकारों एवं समाचार पत्रों के संगठन के नाम पर कई समूह एक्टिव हैं लेकिन किसी का भी ध्यान लघु समाचार पत्रों के मिटते अस्तित्व की ओर नहीं जा रहा है। डीएवीपी हो या सूचना जनसम्पर्क विभाग, सभी आर्थिक रूप से मजबूत पूंजीवादी समाचार-पत्रों को और अधिक आर्थिक सशक्ति देने के लिए पूरी जी जान से लगे हैं, लेकिन किसी का भी ध्यान आर्थिक तंगी के चलते बंदी की कगार पर पहुंच चुके स्थानीय लघु समाचार पत्रों की ओर नहीं जा रहा है। समाचार-पत्रों के प्रोत्साहन के लिए नियम बनाने का ठेका जब भी सरकार हमारे बड़े भाईयों को देती है तो ऐसे कायदे कानून तैयार कर दिये जाते हैं जिनमें उलझ कर लघु समाचार-पत्र को चलाने वाले श्रमजीवी पत्रकार या तो रिश्वत, दलाली की गर्त में चले जायें अथवा आर्थिक तंगी उन्हें पत्रकारिता से तौबा कर बर्तन मांजने बैठ जायें।
पत्रकारिता जगत के अपने सभी भाईयों को प्रणाम करते हुए मैं आपके सामने एक मुद्दा रख रहा हूं। यदि उस पर सभी भाई सहमत हों तो लघु समाचार-पत्रों को एक जीवन मिल सकता है। यदि लघु समाचार पत्रों के हितों की रक्षा के लिए सत्ता को प्रभावित करने वाले हमारे भाई कुछ मदद करते हैं तो अपनी योग्यता के बूते कम पूंजी के साथ अपना पेपर चलाने वाले पत्रकारों के हितों की रक्षा हो जायेगी।
लगातार आसमान छू रही महंगाई एवं नियमों के जाल में पत्रकारिता उद्योग को जकड़ने की निरन्तर कोशिश सत्ता की ओर से जारी है। रसूखदार पदों पर पहुंचने वाले हमारे कई भाई भी जाने अनजाने इन साजिशों में हिस्सेदारी दर्ज करा रहे हैं। लगातार महंगे होते कागज के बीच डीएबीपी के लघु समाचार-पत्रों पर लागू किये जा रहे मनमाने नियम, मेरे जैसे समाचार पत्रों को बंदी की कगार पर पहुंचा रहे हैं। पत्रकारों एवं समाचार-पत्रों के हितों की आवाज को बुलंद करने वाले सभी संगठन ऐसे नियमों पर अपनी सहमति जता रहे हैं। जिनका पालन ही झूठ की बुनियाद के साथ शुरू होता है।
सबसे पहले मैं आपका ध्यान सशुल्क प्रसार वाले नियम की ओर दिलाना चाहता हूं। स्थानीय स्तर पर प्रकाशित होने वाले लघु एवं मीडियम समाचार-पत्र कभी भी अपने दावों पर खरे नहीं उतर सकते। रही बात बिग न्यूज पेपर की तो यह भी फर्जी बैलेंस शीट के सहारे ही खुद को बड़ा दिखाने में कामयाब रहते हैं। वर्ना जिस दिन भी सत्यम की तरह मीडिया की बड़ी से लेकर छोटी दुकानों की बैलेंस शीटों का क्रॉसचैक हो गया तो न जाने मीडिया के कितने राजू जेल की सलाखों के पीछे होंगे। सशुल्क प्रसार डीएबीपी के नियमों के दबाव में अखबार मालिकों को फर्जी प्रसार दावे पेश करने होते हैं।
सरकार दो तरह के विज्ञापन समाचार-पत्रों को देती है। पहला डिस्पले दूसरा वर्गीकृत। वर्गीकृत के लिए भले ही सरकार प्रसार संख्या निर्धारित करे लेकिन लघु समाचार-पत्रों के हितों की रक्षा के लिए आरएनआई में रजिस्टर्ड समाचार-पत्रों के लिए प्रसार बाध्यता खत्म होनी चाहिए। प्रेस मान्यता को सरकारी विज्ञापन मान्यता की आड़ में न देना भी श्रमजीवी पत्रकारों के हितों को चोट पहुंचाता है। प्रसार बाध्यता से बाहर जाकर जो भी समाचार-पत्र यदि उक्त श्रेणी के अधिकतम पर पहुंचकर अपने लिये ज्यादा विज्ञापन मांगे। उसके साथ कोई रियायत न हो। उसकी प्रकाशन क्षमता का क्रॉसचैक कर उसे लघु समाचार-पत्र की श्रेणी से बाहर कर दिया जाये। 25000 प्रसार संख्या की लघु समाचार-पत्रों के लिए मानक बहुत ज्यादा है। इसे घटाकर 100 से 1000 के बीच रखा जाये। मध्यम श्रेणी के अखबारों के लिए 1000 से 10000 प्रतियों का दायरा रखा जाये। इसके पश्चात बडे़ समाचार-पत्र की श्रेणी प्रारम्भ हो। इससे सभी श्रेणी के समाचार-पत्रों के हितों की रक्षा हो सकती है। विज्ञापन दर विशेषज्ञ तय कर सकते हैं लेकिन डीएबीपी मान्यता आरएनआई में समाचार पत्र के रजिस्‍ट्रेशन के साथ ही मिल जाये।
दूसरा नियम पेज साईज का है। डीएबीपी ने लघु समाचार-पत्रों पर वह नियम थोप रखे हैं जो मीडियम एवं बिग अखबारों पर लागू होते हैं। साप्ताहिक समाचार-पत्र को 4 पेज टेबुलाइट साईज होने पर मान्यता दे दी जाती है जबकि दैनिक समाचार पत्र के लिए यह आकार 4 फुल पेज हो जाता है। लघु समाचार पत्रों का यहां भी शोषण होता है। लगातार महंगे होते कागज एवं अन्य खर्चों में हो रही बढ़ोत्तरी के सापेक्ष समाचार-पत्र में पृष्ठ संख्या लघु समाचार-पत्रों के बजट को गड़बड़ा देती है। यदि दैनिक समाचार पत्रों में भी साप्ताहिक की भांति 4 पेज टेबुलाइट साईज के कर दिये जाये तो न सिर्फ कागज की बचत होगी, बल्कि लघु समाचार-पत्र के स्वामियों को भी कुछ बचत अवश्य होगी। समाचार-पत्र के मूल्य के अनुरूप यदि उसकी लागत होगी तो निश्चित ही श्रमजीवी पत्रकार दलाली की गर्त में जाने से खुद को बचा सकेंगे।
पत्रकार संगठनों ने समय समय पर सरकारों से अलग अलग सुविधाएं हासिल की है। भड़ास परिवार ने भी पत्रकारों के हितों की बात को हमेशा प्राथमिकता प्रदान की है। ऐसे में यदि भड़ास परिवार एवं मेरे पत्रकार भाई इस विषय की गम्भीरता को समझ कर इस मुद्दे को अपने अपने ढंग से उठायेंगे तो जल्द ही लघु समाचार-पत्र एक नया सवेरा देख पायेंगे। अपने स्तर से मैं इस मुद्देका बिगुल बजा चुका हूं। मेरे साथ इस लड़ाई में जो भी साथी आना चाहे उनका स्वागत है। पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा में।

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