Sunday, January 31, 2021

स्मरण रहे आपकी...

 l भगवान तो मिलते हैं स्मरण से  / सम्पत्ति हो चाहें विपत्ति l


        *भगवान की स्मृति बनी रहे,*

      

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    दुःख-सुख समान हैं यह कह देना तो बड़ा सरल है पर व्यक्ति को ऐसा प्रतीत नहीं होता। अगर व्यक्ति गहराई से विचार करके देखे तो इसका रहस्य स्पष्ट हो जाता है। सुख के लिए तो सभी व्यग्र होते हैं। दुःख की बात सत्संग में कही जाती है तथा यह भी कहा जाता है कि बिना दु:ख के ईश्वर नहीं मिलता। इसके लिए उदाहरण भी पुराणों से दे दिए जाते हैं। एक उदाहरण महाभारत से भी दिया जाता है।

      महाभारत युद्ध के बाद जब भगवान विदा लेने लगे और कुन्ती से पूछा कि तुम क्या चाहती हो? तो उन्होंने कहा -- *"विपदः सन्ति नोसश्वद"*-- मैं चाहती हूँ कि हमारे ऊपर निरन्तर विपत्तियाँ आती रहें। उद्धरण देने में यही कहा जाता है पर फिर वही अधूरा ज्ञान ! क्या सचमुच कुन्ती विपत्तियाँ ही चाहती हैं। ऐसा था तो पहले ही माँग लेती कि आप हमारे लड़कों को वन में उसी तरह से भटकाइए। पर ऐसा नहीं किया। उन्होंने तो लड़ने की प्रेरणा दी, पुत्रों को विजयी होने का आशीर्वाद भी दिया। पर जब आज भगवान से यह कहती हैं कि विपत्ति दीजिए तो सचमुच बड़ी समस्या होती है। बड़े कहे जाने वाले भी यह बात कहते हैं तो उसे काटने में संकोच तो लगता है। पर आप गहराई से विचार करके देखिए क्या वे सचमुच विपत्ति माँग रही हैं ? 

     कुन्ती ने जब भगवान से विपत्ति माँगी तो क्या भगवान ने उन्हें विपत्ति का वरदान दे दिया ? ऐसा तो वर्णन आता नहीं है। वस्तुतः इसका एक सूत्र है जिस पर लोगों की दृष्टि नहीं जाती। और उसका परिणाम होता है कि लोगों के समझने में कुछ भूल हो जाती है।

      *कुन्ती के हृदय की भावना यह है कि भगवान का स्मरण निरन्तर बना रहे। उन्होंने यह जो कहा कि विपत्ति दीजिए इसके पीछे उनका उद्देश्य यह था कि सम्पत्ति पाकर मैं आपको कहीं भूल न जाऊँ, इसलिए वे स्मरण के लिए विपत्ति माँगती हैं। केवल विपत्ति के लिए विपत्ति नहीं माँगती।* दोनों में अन्तर है न! जैसे किसी बालक ने हठपूर्वक बार-बार कहा कि मैं अमुक वस्तु खा लूँ, तो माँ ने कहा “जहर खा ले ! "अब यहाँ जहर खाने का अर्थ सचमुच जहर खाने से नहीं अपित् बालक को उस वस्तु को खाने से रोकना है। इस कथन के पीछे कुन्ती का तात्पर्य इतना ही था कि *अनुकूलता पाकर अगर मैं आपको भूल जाऊँ तो उस अनुकूलता की अपेक्षा प्रतिकूलता अधिक अच्छी है कि जिसमें आप याद रहें। महत्त्व केवल भगवान को याद रखने का है।* अगर विपत्ति में ही भगवान की याद आती हैं तो संसार में अधिकाँश व्यक्ति विपत्ति में ही होते हैं, और उन्हें तो भगवान की बड़ी याद आती होगी। इस संदर्भ में विनोद में एक बात आती है।

     तुलसी जयन्ती के अवसर पर एक कवियित्री ने बड़ी सुन्दर कविता सुनाई, जिसमें उन्होंने कहा कि धन्यवाद तो रत्नावली को देना चाहिए कि जिन्होंने तुलसीदास को तुलसीदास बना दिया। अगर उन्होंने न फटकारा होता तो तुलसीदास, तुलसीदास कैसे बनते ? उस समय मैंने यही कहा कि मैं रत्नावली को तो प्रणाम करता ही हुँ , लेकिन स्त्रियों की फटकार से ही अगर तुलसीदास बनते होते तब तो लगभग प्रत्येक घर में एक-एक तुलसीदास बन जाते। इसका अर्थ यह है कि क्या मात्र विपत्ति से ईश्वर मिल जाता है ? क्या दुःख से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है ? वस्तुतः *भगवान तो मिलते हैं स्मरण से। सम्पत्ति हो चाहें विपत्ति पर भगवान की स्मृति बनी रहे, यह महत्त्व की बात है।*

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