Friday, January 29, 2021

धार्मिक लोक कथाएं / कृष्ण मेहता

सातवां  घड़ा !!*


  गाँव में एक नाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। नाई ईमानदार था, अपनी कमाई से संतुष्ट था। उसे किसी तरह का लालच नहीं था। नाई की पत्नी भी अपनी पति की कमाई हुई आय से बड़ी कुशलता से अपनी गृहस्थी चलाती थी। कुल मिलाकर उनकी जिंदगी बड़े आराम से हंसी-खुशी से गुजर रही थी।


नाई अपने काम में बहुत निपुण था। एक दिन वहाँ के राजा ने नाई को अपने पास बुलवाया और रोज उसे महल में आकर हजामत बनाने को कहा। नाई ने भी बड़ी प्रसन्नता से राजा का प्रस्ताव मान लिया। नाई को रोज राजा की हजामत बनाने के लिए एक स्वर्ण मुद्रा मिलती थी। इतना सारा पैसा पाकर नाई की पत्नी भी बड़ी खुश हुई। अब उसकी जिन्दगी बड़े आराम से कटने लगी। घर पर किसी चीज़ की कमी नहीं रही और हर महीने अच्छी रकम की बचत भी होने लगी। नाई, उसकी पत्नी और बच्चे सभी खुश रहने लगे।


एक दिन शाम को जब नाई अपना काम निपटा कर महल से अपने घर वापस जा रहा था, तो रास्ते में उसे एक आवाज सुनाई दी। आवाज एक यक्ष की थी। यक्ष ने नाई से कहा, ‘‘मैंने तुम्हारी ईमानदारी के बड़े चर्चे सुने हैं, मैं तुम्हारी ईमानदारी से बहुत खुश हूँ और तुम्हें सोने की मुद्राओं से भरे सात घड़े देना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे दिये हुए घड़े लोगे ?


नाई पहले तो थोड़ा डरा, पर दूसरे ही पल उसके मन में लालच आ गया और उसने यक्ष के दिये हुए घड़े लेने का निश्चय कर लिया। नाई का उत्तर सुनकर उस आवाज ने फिर नाई से कहा, ‘‘ठीक है सातों घड़े तुम्हारे घर पहुँच जाएँगे।’’ नाई जब उस दिन घर पहुँचा, वाकई उसके कमरे में सात घड़े रखे हुए थे। नाई ने तुरन्त अपनी पत्नी को सारी बातें बताईं और दोनों ने घड़े खोलकर देखना शुरू किया। उसने देखा कि छः घड़े तो पूरे भरे हुए थे, पर सातवाँ घड़ा आधा खाली था। नाई ने पत्नी से कहा—‘‘कोई बात नहीं, हर महीने जो हमारी बचत होती है, वह हम इस घड़े में डाल दिया करेंगे। जल्दी ही यह घड़ा भी भर जायेगा। और इन सातों घड़ों के सहारे हमारा बुढ़ापा आराम से कट जायेगा।


अगले ही दिन से नाई ने अपनी दिन भर की बचत को उस सातवें में डालना शुरू कर दिया। पर सातवें घड़े की भूख इतनी ज्यादा थी कि वह कभी भी भरने का नाम ही नहीं लेता था। धीरे-धीरे नाई कंजूस होता गया और घड़े में ज्यादा पैसे डालने लगा, क्योंकि उसे जल्दी से अपना सातवाँ घड़ा भरना था। नाई की कंजूसी के कारण अब घर में कमी आनी शुरू हो गयी, क्योंकि नाई अब पत्नी को कम पैसे देता था। पत्नी ने नाई को समझाने की कोशिश की, पर नाई को बस एक ही धुन सवार थी—सातवां घड़ा भरने की।


अब नाई के घर में पहले जैसा वातावरण नहीं था। उसकी पत्नी कंजूसी से तंग आकर बात-बात पर अपने पति से लड़ने लगी। घर के झगड़ों से नाई परेशान और चिड़चिड़ा हो गया।


एक दिन राजा ने नाई से उसकी परेशानी का कारण पूछा। नाई ने भी राजा से कह दिया अब मँहगाई के कारण उसका खर्च बढ़ गया है। नाई की बात सुनकर राजा ने उसका मेहताना बढ़ा दिया, पर राजा ने देखा कि पैसे बढ़ने से भी नाई को खुशी नहीं हुई, वह अब भी परेशान और चिड़चिड़ा ही रहता था। एक दिन राजा ने नाई से पूछ ही लिया कि कहीं उसे यक्ष ने सात घड़े तो नहीं दे दिये हैं ? नाई ने राजा को सातवें घड़े के बारे में सच-सच बता दिया।


तब राजा ने नाई से कहा कि सातों घड़े यक्ष को वापस कर दो, क्योंकि सातवां घड़ा साक्षात लोभ है, उसकी भूख कभी नहीं मिटती। नाई को सारी बात समझ में आ गयी। नाई ने उसी दिन घर लौटकर सातों घड़े यक्ष को वापस कर दिये। घड़ों के वापस जाने के बाद नाई का जीवन फिर से खुशियों से भर गया था।


*शिक्षा:-*


हमें कभी लोभ नहीं करना चाहिए। भगवान ने हम सभी को अपने कर्मों के अनुसार चीजें दी हैं, हमारे पास जो है, हमें उसी से खुश रहना चाहिए। अगर हम लालच करें तो सातवें घड़े की तरह उसका कोई अंत नहीं होता है।


         

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*हम ईश्वर की असीमता को तो पकड़ नहीं पाएंगे।*

 *उचित यही है कि हम अपनी सीमा को जान लें।*

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      एक दिन कौशल्या अम्बा बालक श्रीराम के लिए मालपुआ लाती हैं और भगवान जब स्वाद लेने लगे तो कागभुशुण्डिजी ने सोचा कि आज भी मालपुआ का प्रसाद प्राप्त होगा। पर प्रभु ने निर्णय किया कि नहीं आज तो मैं दूसरा ही प्रसाद दूंगा। तब भक्त और भगवान में एक अनोखा खेल प्रारम्भ हो गया।   

      कागभुशुण्डिजी प्रसाद पाने के लिए बड़े उत्साह से भगवान के पास गए पर ज्योंही वे पास गए, भगवान भाग खड़े हुए। जब मैं वहाँ से दूर चला गया तो *"चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥"* श्रीराम फिर मालपुआ दिखाने लगे। कागभुशुण्डिजी ने कहा कि मैं रूठकर वहाँ से जाने लगा कि जब आप बुलाकर भी नहीं देते हैं तो मैं जा रहा हूँ। किन्तु आज विचित्रता यह है कि *"आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।”* जब वे दूर जाने लगे तो भगवान रोने लगे। प्रभु का अभिप्राय था कि इतने दिन मैंने प्रसाद दिया पर अगर एक दिन नहीं दिया तो रूठ गए। किन्तु भाई ! मैं तो तुम्हारा सामीप्य चाहता हूँ। 

     उस दिन भगवान ने भुशुण्डिजी को भक्ति का प्रसाद न देकर ज्ञान का प्रसाद दिया। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि भक्ति में जो रस है वह ज्ञान में तो नहीं है। कागभुशुण्डिजी भागते हैं तो भगवान अपनी भुजाओं को उन्हें पकड़ने के लिए फैला देते हैं। इस प्रकार भगवान ने कागभुशुण्डि जी के समक्ष विराट का एक तात्त्विक पक्ष प्रगट किया। वे जहाँ-जहाँ जाते हैं, सर्वत्र भगवान की भुजाओं का अनुभव करते हैं। पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक सर्वत्र उन्होंने भगवान की भुजा अपने पीछे देखी। सर्वत्र भगवान की भुजा का तात्पर्य वेदान्त की मान्यता *‘भगवान सर्वत्र हैं'* का दर्शन कराना है। तुम यह न समझ लो कि मैं केवल अयोध्या में बैठा हुआ हूं, अन्यत्र नहीं हूँ। नहीं-नहीं मैं अयोध्या में भी हूँ, तथा अन्यत्र भी हूँ। 

     परन्तु मन में फिर संशय उत्पन्न होता है कि ईश्वर अगर सर्वव्यापक है तथा प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में बैठा हुआ है तब हम उस ईश्वर को पकड़ क्यों नहीं लेते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रभु ने कागभुशुण्डिजी को दूसरा सूत्र दिया। उन्होंने कहा कि -- 

*ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात ।*

*जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहिं मोहि तात ॥*

      मैं जहाँ भी गया, सर्वत्र भगवान की भुजा थी पर दो अंगुल की दूरी जरूर बनी हुई थी। यही सत्य हम सबके लिए है। हमारे पास भी ईश्वर है। लाखों मील की यात्रा हम लोग कर लेते हैं पर यह दो अंगुल की दूरी बनी ही रह जाती है। वेदान्त की भाषा में कहें तो यह *'नाम'* और *'रूप'* दो अंगुल हैं। भक्तों की भाषा में कहें तो *'भक्त की इच्छा'* एक अंगुल और *'भगवान की कृपा'* दूसरा अंगुल और जब दोनों मिल जायँ तो भगवान प्राप्त हो जायें। भुशुण्डिजी प्रकृति के सातों आवरणों का भेदन कर सकते थे और उन्होंने किया भी --

*"सप्ता बरन भेद करि जहाँ लगे गति मोरि।*

*गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि व्याकुल भयउँ बहोरि॥"*

    अगर सचमुच पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सबमें ईश्वर है तो चलिए हम उस ईश्वर को खोजें जितना खोज सकें। हम लोग तो पृथ्वी में भी पूरी खोज नहीं कर पाएँगे, आकाश, जल, वायु और अग्नि में भला कहाँ खोज करेंगे पर भुशुण्डिजी के चरित्र में यह संकेत मिला कि उन्होंने सर्वत्र ईश्वर का साक्षात्कार किया। लेकिन दूरी नहीं मिटी । अन्त में *'मूंदेउँ नयन'* उन्होंने आँखें मूंद लीं।

     यह *'आँख मूंद लेना'* रामायण की एक सांकेतिक भाषा है। आँखें वस्तुतः बुद्धि का प्रतीक हैं । आँखों को हम बड़ा महत्व देते हैं। जो बातें हमें आँखों से दिखाई देती हैं उन्हें हम प्रामाणिक मानते हैं। यही बात बुद्धि के सम्बन्ध में भी है। लेकिन प्रश्न यह है कि बुद्धि असीम है या ससीम ? कागभुशुण्डिजी को यह ज्ञात हुआ कि *हम ईश्वर की असीमता को तो पकड़ नहीं पाएंगे। उचित यही है कि हम अपनी सीमा को जान लें।* नेत्र मूंदने का अभिप्राय है कि वे अपनी सीमा को जान गए । बस यहीं ईश्वर से मिलने का उपाय है। रामायण की मान्यता भी यही है कि

        *तुमहिं आदि खग मसक प्रयंता।*

        *नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।*

         

: *कालनेमि की रोचक कथा*

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 एक ऐसा दैत्य जिसने कलियुग तक भगवान विष्णु का पीछा नहीं छोड़ा...


सतयुग में दो महाशक्तिशाली दैत्य हुए - हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष। ये इतने शक्तिशाली थे कि इनका वध करने को स्वयं भगवान विष्णु को अवतार लेना पड़ा। हिरण्याक्ष ने अपनी शक्ति से पृथ्वी को सागर में डुबो दिया। तब नारायण ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया। उसके दो पुत्र थे - अंधक एवं कालनेमि जो उसके ही समान शक्तिशली थे। 


जब तक उनके चाचा हिरण्यकशिपु जीवित रहे, उन्होंने उनके संरक्षण में जीवन बिताया किन्तु जब नारायण ने हिरण्यकशिपु को नृसिंह अवतार लेकर मारा तब दोनों भाई ने प्रतिशोध लेने की ठानी। अंधक अपनी महान शक्ति के मद में आकर देवी पार्वती से धृष्टता कर बैठा और महारुद्र के हाथों मारा गया। तब कालनेमि ने महादेव से प्रतिशोध लेने हेतु अपनी पुत्री वृंदा, जिसे ये वरदान प्राप्त था कि उसके होते उसके पति की मृत्यु नहीं हो सकती, उसका विवाह जालंधर नमक दैत्य से कर दिया जो महादेव का घोर शत्रु था।


 हालाँकि वृंदा का सतीत्व भी जालंधर को बचा नहीं सका और वो नारायण के छल के कारण भगवान शिव के हाथों मारा गया। जब कालनेमि को विष्णु के छल और अपनी पुत्री और दामाद के मृत्यु का समाचार मिला तो उसने नारायण से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की।


परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि, जो प्रजापति होने के साथ-साथ सप्तर्षिओं में भी एक थे, उनके छः पुत्र हुए। एक दिन महर्षि मारीचि अपने पुत्रों के साथ अपने पिता ब्रह्मदेव से मिलने गए। वहाँ देवी सरस्वती भी उपस्थित थी। जब वे वहाँ पहुँचे तो उनके सभी पुत्रों ने अपने पितामह ब्रह्मा से परिहास में ही कहा कि - "हे पितामह! सुना है कि आपने अपनी ही पुत्री देवी सरस्वती से विवाह कर लिया था। ये कैसे संभव है?" ऐसा कह कर सारे हँसने लगे। 


तब ब्रह्माजी ने उन सभी को श्राप दिया कि अगले जन्म में वो एक दैत्य के रूप में जन्मेंगे। उनके क्षमा माँगने पर उन्होंने कहा कि उसके भी अगले जन्म में उन्हें नारायण के बड़े भाई के रूप में जन्म लेने का सौभाग्य मिलेगा और उन्हें अधिक समय तक पृथ्वीलोक पर ना रहना पड़े इसी कारण जन्मते ही उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।


 उधर कालनेमि अपने पिता हिरण्याक्ष के वध का प्रतिशोध लेने के लिए ब्रह्माजी की तपस्या कर रहा था। जब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो उसने वरदान माँगा कि उसे छः ऐसे पुत्र मिलें जो अजेय हों। तब ब्रह्मदेव के वरदान स्वरूप महर्षि मरीचि के श्रापग्रसित छः पुत्र अगले जन्म में कालनेमि के छः पुत्रों के रूप में जन्मे। उनके अतिरिक्त उसकी एक और कन्या थी वृंदा, जिसे तुलसी के नाम से भी जानते हैं।


 जब कालनेमि के छः पुत्रों ने उत्पात मचाना शुरू किया तो कालनेमि के चाचा हिरण्यकशिपु ने उन्हें पाताल जाने की आज्ञा दे दी। कालनेमि के रोकने पर भी उन सभी ने हिरण्यकशिपु की आज्ञा मानी और पाताल जाकर बस गए। इससे कालनेमि स्वयं अपने पुत्रों का शत्रु हो गया और निश्चय किया कि वो अगले जन्म में अपने ही पुत्रों का अपने हाथों से वध करेगा। 


इसके बाद अपने चाचा हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात, अपने भाई प्रह्लाद के लाख समझाने के बाद भी कालनेमि ने भगवान विष्णु पर आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में उसने देवी दुर्गा की भांति सिंह को अपना वाहन बनाया। दोनों में घनघोर युद्ध हुआ और कहा जाता है कि उस युद्ध में कालनेमि ने भगवान विष्णु पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार किया किन्तु उससे नारायण को कोई हानि नहीं हुई। फिर कालनेमि ने नारायण पर एक अमोघ त्रिशूल से प्रहार किया किन्तु नारायण ने उसे बीच में ही पकड़ कर नष्ट कर दया। 


फिर उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से कालनेमि का अंत कर दिया। मरते हुए उसने प्रतिज्ञा की कि वो फिर जन्म लेगा और नारायण से प्रतिशोध लेगा। अपने भाई की मृत्यु पर प्रह्लाद अत्यंत दुखी हो गया। अंततः प्रह्लाद की प्राथना पर भगवान विष्णु ने उसे आश्वासन दिलाया कि अगले जन्म में भी वही उसका वध करके उसे जीवन मरण के चक्र से मुक्त करेंगे। 


मथुरा के राजा उग्रसेन अपनी पत्नी पद्मावती के साथ सुख से राज कर रहे थे। विवाह के तुरंत बाद पद्मावती अपने पिता सत्यकेतु के घर गयी। एक बार कुबेर का एक संदेशवाहक गन्धर्व द्रुमिला (गोभिला) सत्यकेतु से मिलने आया। जब उसने पद्मावती को देखा तो उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया। उसने छल से उग्रसेन का वेश बनाया और पद्मावती से मिलने आया। पद्मावती उसे अपना पति समझ कर उसके साथ उसी प्रकार का व्यहवार करने लगी।


 थोड़े दिनों के पश्चात उसके पुत्र के रूप में कालनेमि ने नारायण से प्रतिशोध लेने के लिए जन्म लिया। उसका नाम कंस रखा गया। उसके जन्म के पश्चात देवर्षि नारद ने पद्मावती को गन्धर्व के छल के बारे में बता दिया जिससे उसे अपने पुत्र से घृणा हो गयी। उसने अपने पति उग्रसेन को तो कुछ नहीं बतया किन्तु वो मन ही मन उसकी मृत्यु की कामना करने लगी। 


आगे चल कर कंस ने अपने पिता को कैद कर लिया और ये जानकर कि देवकी उस संतान को जन्म देगी जो उसके वध का कारण बनेगा, उसे भी कारावास में डाल दिया। बाद में उसे पता चला कि देवकी की आठवीं संतान के रूप में भगवान विष्णु जन्म लेंगे तो उसने उसे मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की ठानी। देवकी के पहले छः पुत्रों के रूप में कालनेमि के छः पुत्र जन्मे जिन्हे मारकर कंस रुपी कालनेमि ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।


 देवकी की सातवीं संतान संकर्षित हो वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में चली गयी जिससे बलराम का जन्म हुआ। देवकी के गर्भ से उनकी जगह महामाया ने जन्म लिया जिसने बताया कि देवकी की आठवीं संतान का भी जन्म हो गया है। अपना प्रतिशोध लेने के लिए कंसरुपी कालनेमि ने कृष्ण के कारण गोकुल के सभी बच्चों के वध का आदेश दिया। सैकड़ों बच्चे मारे गए किन्तु कृष्ण को कुछ नहीं हुआ। १६ वर्ष की आयु में कृष्ण ने अपने भाई बलराम के साथ कंस का वध कर संसार को उसके अत्याचार से मुक्त किया।


इस प्रकार कालनेमि ने सतयुग से द्वापर तक नारायण का पीछा किया किन्तु प्रभु को कौन मार सका है? हर बार उसे अपने प्राण गवाने पड़े। कहते है कि कालनेमि ही द्वापर के अंत समय प्रत्येक रात्रि के रूप में उसे कलियुग के और निकट ले जाता है। यहाँ तक कि कलियुग को भी कालनेमि का अवतार माना जाता है। ये भी मान्यता है कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए ही कालनेमि कलियुग के रूप में जन्मा ताकि इस युग में भी वो नारायण के कल्कि अवतार से प्रतिशोध ले सके। हालाँकि अगर ये सत्य है तो हम जानते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा।


  जैसा करता है ... प्रकृति या भगवान उसे वैसा ही उसे लौटा देता है।*


एक बार द्रोपदी सुबह स्नान करने यमुना घाट पर गयी 

तभी उसका ध्यान सहज ही एक साधु की ओर गया जिसके शरीर पर मात्र एक लँगोटी थी l

साधु स्नान के पश्चात अपनी दूसरी लँगोटी लेने गया तो... वो लँगोटी अचानक हवा के झोके से उड़ पानी मे चली गयी और बह गयी l

सँयोगवश साधु ने जो लँगोटी पहनी थी... वो भी फटी हुई थी

साधु सोच मे पड़ गया कि अब वह अपनी लाज कैसे बचाए ...थोड़ी देर मे सूर्योदय हो जाएगा और घाट पर भीड़ बढ़ जाएगी l

साधु तेजी से पानी के बाहर आया और झाड़ी मे छिप गया l

द्रोपदी यह सारा दृश्य देख अपनी साड़ी जो पहन रखी थी....उसमे आधी फाड़ कर उस साधु के पास गयी और उसे आधी साड़ी देते हुए बोली- तात , मै आपकी परेशानी समझ गयी हूँ l

इस वस्त्र से अपनी लाज ढक लीजिए lसाधु ने सकुचाते हुए साड़ी का टुकड़ा ले लिया और आशीष दिया ...."जिस तरह आज तुमने मेरी लाज बचायी...उसी तरह एक दिन भगवान तुम्हारी लाज बचाएगे" l

और

जब भरी सभा मे चीरहरण के समय द्रोपदी की करुण पुकार नारद ने भगवान तक पहुंंचायी ... तो भगवान ने कहा- कर्मो के बदले मेरी कृपा बरसती है,..

क्या कोई पुण्य है द्रोपदी के खाते में???

जाँचा परखा गया तो उस दिन साधु को दिया वस्त्र दान हिसाब मे मिला . .. जिसका ब्याज भी कई गुणा बढ गया था ....जिसको चुकता करने भगवान खुद पहुँच गये द्रोपदी की मदद करने l

दुषशासन चीर खींचता गया और हजारो गज कपड़ा बढ़ता गया l


*इंसान यदि सुकर्म करे तो...उसका फल सूद सहित मिलता है और दुषकर्म करे ..तो सूद सहित भोगना भी पड़ता हैं  ।।*


*_🙏🏻🙏🏻_*

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