Monday, January 25, 2021

राधास्वामी सतसंग DB 25/1

 **राधास्वामी!! 25-01-2021- आज वाम सतसंग में पढे गये पाठ:-                                         

(1) मैं तो पडी री दूर निज घर से। मेरा दरशन को जिया तरसे।।-(राधास्वामी दया काज हुआ पूरा। जाय मिली निज बर से।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-4-पृ.सं.92)                                                     

(2) पाती भेजूँ पीव को प्रेम प्रीति सों साज। छिमा माँग बिनती कहूँ सुनिये पति महाराज।। नाम तुम्हारा निस दिन जपती। रुप तुम्हारा हिरदे धरती।।-(धूम धाम अतिकर मची जग टी हाट बजार। बिन तुम अँगुली भीड में मेरै कौन सहार।। (प्रेमबिलास-शब्द-129-पृ.सं.)                                  

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।                                        

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻

 शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे-( 131)- स्वयं पुस्तक सारबचन के फुटनोट में पूर्वोक्त शब्द का अर्थ लिखा है वह उद्दघृत किया जाता है कि जिससे ज्ञात हो कि आक्षेपक का यह विचार कहाँ तक ठीक है कि ये उल्टे शब्द इस उद्देश्य से रचे गए हैं कि सर्वसाधारण पर यह प्रभाव डाला जाए कि हमारी बानी के अर्थ हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।                                            

 (१) गुरु ने यह उल्टी बात बताई कि संसार में मूर्ख होकर के बरत यानी चतुराई छोड़ दे, तो तेरा कोई दामन नहीं पकड़ सकेगा। और दूसरे यह कि मूर यानी मूलपद की रक्षा और संभाल रख यानी इस तरफ से उलट कर राधास्वामी के चरनों को दृढ करके पकड़।                                     

  (२) जिस किसी ने संसार की तरफ से उदास होकर इसके कारोबार में दखल देना छोड़ दिया यानी इस तरफ से सो गया और परमार्थ में लग गया उसी ने जमा हासिल की, यानी परमार्थ की कमाई करके प्रेम की दौलत पाई, और जो संसार की तरफ मुतवज्जह रहा और बहुत होशियारी और शौक से उसके कारोबार करता रहा, उसी ने परमार्थ की दौलत खोई, और अपनी चेतनता मुफ्त गवाँ दी। ★          ★          ★          ★                   

(५) जो शख्स की अपने परमार्थ की कमाई और तरक्की को जगत से छिपाये हुए चला। उससे मालिक प्रसन्न हुआ, और जिस किसी ने कि सचौटी के साथ अपने परमार्थ का भेद और कमाई का हाल जगत् के जीवों  से खोल कर कहा, उसी को अनेक तरह के विघ्नों ने मुकाबिला करना पड़ा और सख्त तकलीफ उठानी पड़ी और उसके परमार्थ में घाटा हुआ।                                                

(६) जब सुरत गगन की तरफ को चढ़ने लगी तब अग्नि यानी माया (जोकि सुरत की मदद से चेतन थी) काँपने लगी यानी उसकी चेतनता खिंच गई, और जब अमृत की वर्षा अंतर में चढ़ने गली सुरत पर होने लगी तब बसबब खिंचाव और सिमटाव सुरत के जो उसकी धारें नीचे की तरफ जारी थीं वे सूखने लगीं और सिमटती चलीं।।    

                          

(७) और तब रोटी यानी माया उसके पदार्थ जो सुरत की धार से चेतन थे अब उस चेतनता के लिए भूखे तड़पते हैं और इसी तरह पानी यानी मन सुरत की चेतन धार के वास्ते प्यासा तड़पने लगा। ★          ★          ★          ★                                                 

(९) बंझा यानी माया से (जबकि सुरत उसके घेर में उतर कर आई) अनेक प्रकार की रचना और अनेक पदार्थ पैदा हुए, और जब सुरत यानी जनती और असल कर्ता उलट कर पिंड और ब्रह्मंड के परे पहुँची तब सब रचना सिमट गई और वह अकेली अपने घर की तरफ सिधारी।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻             

  यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा-

परम गुरु हुजूर   साहबजी महाराज!


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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