Friday, July 17, 2020

जय शनि ओम महाराज


शनिदेव_ने_ज़ब स्वयं_बताई_प्रसन्न_करने_की_पूजन_विधि
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उन्हें प्रसन्न करने के लिए हर व्यक्ति ये प्रयास करे।

                      पद्मपुराण_की_कथा

पद्म पुराण में शनि के दोष और शनि पीड़ा से मुक्ति के लिए बहुत ही सुन्दर कथा का वर्णन आता है।

पद्म_पुराण के अनुसार शनि देव के नक्षत्रो में भ्रमण के दौरान कृतिका नक्षत्र के अंतिम चरण की उपस्थिति पर ज्योतिषियों ने राजा_दशरथ जी को बताया कि अब शनिदेव रोहिणी नक्षत्र को भेदकर जाने वाले हैं जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर आने वाले बारह_वर्ष_तबाही के रहेंगे, अकाल पड़ेगा, महामारी फैलेगी इत्यादि।

इस पर राजा दशरथ ने मुनि_वशिष्ठ_जी आदि ज्ञानियों को बुलाकर इसका उपाय पूछा, जिस पर श्री वशिष्ठ जी ने बताया इसका कोई भी उपाए संभव नहीं है। ये तो ब्रह्मा जी के लिए भी असाध्य है।

यह सुनकर राजा दशरथ परेशान हो कर, बहुत ही साहस जुटाकर जनता को कष्ट से मुक्ति के लिए स्वयं ही अपने दिव्य_अस्त्र_व_दिव्य_रथ_लेकर_सूर्य_से_सवा_लाख_योजन_ऊपर_नक्षत्र_मंडल में पहुँच गए।

महाराजा दशरथ रोहिणी नक्षत्र के आगे अपने दिव्य रथ पर खड़े हो गए और दिव्य अस्त्र को अपने धनुष में लगाकर शनिदेव को लक्ष्य बनाने लगे।

             महाराजा_दशरथ_और_शनिदेव_संवाद

इस पर शनि देव कुछ भयभीत हुए परन्तु जल्दी ही हँसते हुए उन्होंने महाराजा दशरथ को कहा, "राजन् ! मेरी दृष्टि के सामने जो भी आता है वह भस्म हो जाता है।"

मानव, देवता, असुर सभी मेरी दृष्टि से भयभीत होते हैं परन्तु तुम्हारा तप, साहस, व निस्वार्थ भाव निश्चित ही सरहानीय है। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ । तुम्हारी जो भी इच्छा हो वह ही वर माँग लो।”

इस पर महाराजा दशरथ ने शनिदेव से कहा, "हे शनिदेव! कृपया रोहिणी नक्षत्र का भेद न करें।”

शनि देव ने प्रसन्नता पूर्वक महाराज दशरथ को ये वर दे दिया साथ ही एक और वर माँगने के लिए कहा।

इस पर राजा दशरथ ने शनिदेव से बारह वर्षों तक विनाश न करने का वचन लिया जिसे भी शनिदेव ने स्वीकार कर लिया।

इसके बाद महाराजा दशरथ ने धनुष बाण रख कर हाथ जोड़कर शनिदेव_की_स्तुति निम्न प्रकार से की –

नमः कृष्णाय नीलाय शीतिकण्ठनिभाय च |
नमः कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नमः ||
नमो   निर्मांसदेहाय   दीर्घश्मश्रुजटाय   च |
नमो   विशालनेत्राय    शुष्कोदरभायकृते ||
नमः पुष्कलगात्राय  स्थूलरोम्णे च वै  पुनः |
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते ||
नमस्ते  कोटराक्षाय  दुर्निरीक्ष्याय  वै  नमः |
नमो  घोराय  रौद्राय  भीषणाय  करलिने ||
नमस्ते सर्व भक्षाय बलीमुख   नमोऽस्तु ते |
सूर्यपुत्र   नमस्तेऽस्तु   भास्करेभयदाय च ||
अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक  नमोऽस्तु  ते |
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तु ते ||
तपसा   दग्धदेहाय   नित्यं   योगरताय   च |
नमो नित्यं क्षुधातार्याय अतृप्ताय च वै नमः ||
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु       कश्यपात्मजसूनवे |
तुष्टो ददासि वै राज्यमरुष्टो हरसि तत्क्षणात् ||
देवासुरमनुष्याश्च          सिद्धविद्याधरोरगा: |
त्वया विलोकिताः सर्वे नाशं यान्ति समूलतः ||
प्रसादम  कुरु  मे  देव   वराहोरहमुपागतः ||
( पद्म पुराण उ० ३४|२७-३५ )

स्तोत्र रूप में शनिदेव अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होकर एक और वर माँंगने के लिए महाराजा दशरथ से कहा। राजा ने शनिदेव से कहा कि,”आप किसी को भी कष्ट न दें।”

इस पर शनिदेव ने कहा,” राजन! ये संभव नहीं है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ग्रहों के द्वारा सुख व कष्ट भुगतता है। व्यक्ति की जन्म पत्रिका की दशा, अन्तर्दशा व गोचर के अनुसार ही मैं उन्हें कष्ट प्रदान करता हूँ।”

किन्तु राजन मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूंँ कि यदि कोई मनुष्य श्रद्धा व एकाग्रता से तुम्हारे द्वारा रचित उक्त स्तोत्र का पाठ व जाप करे तथा मेरी लोहे की प्रतिमा पर शमी के पत्तों से पूजा करे साथ ही साथ काले तिल, उड़द, काली गाय का दान करे तो दशा, अन्तर्दशा व गोचर द्वारा उत्पन्न पीड़ा का नाश होगा और मैं उसकी रक्षा करूंँगा।

तीनों वरदानों को प्राप्त कर महाराजा दशरथ शनिदेव को प्रणाम कर वापस अपने रथ पर बैठ अयोध्या लौट गए।
बोलो_शनिदेव_की_जय

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