Sunday, February 14, 2021

मैं कर्मयोगी क्यों?

मैं कर्मयोगी  क्यों?


कर्म तो सब लोग करते है, पर क्या मैं कर्म योगी हूं??? क्यू की इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है


व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।

 बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌॥


हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं

 ॥41॥


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।

 वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥

 कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।

 क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥

 भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।

 व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥


हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती

 ॥42-44॥


त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।

 निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌॥


हे अर्जुन! वेद उपर्युक्त प्रकार से तीनों गुणों के कार्य रूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं, इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित योग (अप्राप्त की प्राप्ति का नाम 'योग' है।) क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने वाला और स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो

 ॥45॥


श्रीमद भगवत गीता वर्षों से सब को प्राप्त है तो भी हम में से कोई विरला ही सच्चा कर्म योगी होता है। हमारी वृत्ति विषय विकार में भटकी रहती है। तो भी अभ्यास से हम कर्म योगी बन सकते है।


अस्तु।


सद्गुरु नाथ महाराज की जय।

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