Wednesday, February 17, 2021

जहाँ आज भी श्री कृष्ण विराजमान hai

 यहां आज भी कृष्ण की आहट सुनाई देती है...  / कृष्ण मेहता




यह काशी का ब्रज है। काशी के वैष्णवों की मथुरा है। वृन्दावन है। उनके लिए यही गोकुल है। और यही है बरसाने। अपने मोहल्ले में वे द्वारका की खुशबू महसूस करते हैं। यहां की हवाओं में उन्हें कृष्ण का सुवास आता है। उस योगेश्वर के वहीं कहीं आसपास होने का अहसास होता है। उन्हें यहां कान्हा की आहट सुनायी देती है। उस आनंद सागर अच्युत की लीला दिखायी देती है। वो अपने बच्चों के नाम उस बांकेबिहारी पर सिर्फ इस लिए रखते हैं कि इसी बहाने वे अपने केशव को पुकारते रहें। इतना पुकारें... इतना पुकारें... और इतना पुकारें कि उनके आखिरत के वक्त उन्हें तारने के लिए वो दयानिधि गोपाल स्वयं हाजिर हो जाए। जीवन के अंतिम लमहों में वो अपने नंदलाल का दर्शन कर ही लें। ये काशी का ब्रज यानि मोहल्ला चौखंबा है। आपको यहां हर तरफ वैष्णव तिलक लगाये लोगों का हुजूम नजर आएगा। यहां के लोगों को इससे मतलब नहीं है कि तिलक लगाये सामने खड़ा शख्स भारत के किस प्रांत का रहने वाला है। वो किस बिरादरी का है। या कौन सी भाषा बोलता है। वो बस ये जानता है कि सामने वाले के गले में पड़ी कंठी उसके कृष्णवंशी होने की जमानत है। उसकी बिरादरी यशोदानंदन की है। वो कन्हैया के बताये मजहबे इश्क का हमराही है। उसकी बोली मोहब्बत है। उसका ताल्लुकात सिर्फ प्रेम से है। और उसका लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ अपने केशव को पाना है। इस तरह के लोगों के हुजूम में कोई मानिंद व्यापारी है तो कोई सरकारी अमले में बड़ा ओहदेदार है। हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं तो कई सामान्य कारकून हैं। आपको यह जानकर हैरत होगी कि चौखंबा में सब्जी बेचने वाले से लेकर दूसरी इतर जातियों के लोग भी मांस मदिरा त्याग कर कंठी धारण किये हुए हैं। दिन भर जय श्रीकृष्ण या जय गोपाल का जयकारा लगाने वाले इन लोगों की आस्था का केन्द्र है गोपाल मंदिर। यहां वैष्णवों के दो आराध्य देवता बसते हैं। एक हैं श्री गोपाल लाल जी और दूसरे हैं श्री मुकुंद राय जी। दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के दो रूप हैं। यहां के भक्त अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण को ठाकुर जी कहते हैं। मंदिर में स्थापित गोपाल लाल जी और राधिका जी का विग्रह इतना आकर्षक है कि उन्हें देखते ही कोई भी व्यक्ति सम्मोहित हो जाएगा। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण के इन दोनों स्वरूपों के दर्शन मात्र से मन वांच्छित फल की प्राप्ति होती है।  

ठाकुर श्री गोपाल लाल जी और राधिका जी का यह विग्रह पहले उदयपुर के राणा वंश की एक वैष्णव महिला लाढ़ बाई के पास था। महाप्रभु वल्लभाचार्य के पौत्र श्री गोकुल नाथ जी ने लाढ़ बाई से यह देव प्रतिमा प्राप्त कर भगवान की सेवा शुरू की। बरसों बरस उन्होंने स्वयं ठाकुर जी की सेवा की। विक्रम संवत 1787 में श्री गोकुलनाथ जी के वंशज गोस्वामी जीवन लाल जी महाराज इस विग्रह को काशी लेकर आये और उन्होंने चौखंबा में गोपाल मंदिर बना कर इसकी स्थापना की। गोस्वामी जीवन लाल जी महाराज के वंशज आज भी अपने देवता की सेवा में लगे हुए हैं। गोपाल मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण भी गोस्वामी जीवन लाल जी ने ही संवत 1834 में कराया था। यही वजह है कि मंदिर को जीवन लाल जी की हवेली के नाम से भी जाना जाता है।

 गोपाल मंदिर के ठीक बगल में है षष्ठनिधि ठाकुर श्री मुकुंद राय जी का मंदिर। इसका निर्माण संवत 1898 में किया गया था। मुकुंद लाल जी भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप हैं। गोपाल मंदिर को वैष्णवों का षष्ठपीठ कहा जाता है। दरअसल यह पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का प्रमुख आध्यात्मिक केंद्र और आराधना स्थल है। यहां बारह महीने धार्मिक, साहित्यिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अनुष्ठान होते रहते हैं। यहां हैरत करने वाली बात ये है कि गोपाल मंदिर परिसर में नौ कुंए हैं। इन कुंओं को नव-कूपी तीर्थ कहा जाता है। मंदिर परिसर में एक गुफा भी है। इस गुफा में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सोलहवीं शताब्दी में विनय पत्रिका ग्रन्थ की रचना की थी। तुलसीदास जी के छोटे भाई श्री नंददास जी भी यहां रहा करते थे। श्री नंददास अष्टछाप के दिग्गज कवि थे। उनका निवास यहां धरोहर के रूप में आज भी सुरक्षित है। उन्होंने यहीं भ्रमर गीत की रचना की थी। गोपाल मंदिर परिसर में कमल तलैया और गोस्वामी मुरलीधर लाल जी के हाथों स्थापित शिलाओ पर उत्कीर्ण ब्रज चौरासी कोस का प्रतिरूप एक बारादरी में विराजमान है। इसकी परिक्रमा यहां आने वाले वैष्णव करते हैं। मन्दिर में एक गौशाला भी है जिसमें गायों की भावपूर्वक सेवा की जाती है। मन्दिर परिसर में मुख्य द्वार के समीप ही काशी खंड में वर्णित श्री बटुक भैरवजी का मंदिर है। कहते हैं कि ये भैरव श्री मुकुन्द गोपाल भगवान के प्रहरी हैं। यह पवित्र रमणिक स्थल प्राचीन काल से ही श्री मुकुन्द गोपाल प्रभु की तमाम लीलाओं का केंद्र रहा है। मन्दिर का सिंहपौर बहुत खूबसूरत है। मन्दिर के पिछले हिस्से में एक बड़ा सा बगीचा है। इस भव्य से सुन्दर बगीचे में किसी समय शुद्धाद्वैत मार्तण्ड श्री गिरिधरजी महाराज की माताश्री अपने सेव्य स्वरूप श्रीगोपाल लालजी को लाड़ती दुलारती थीं। वो अपने ठाकुर गोपाल लाल जी को एक सुन्दर सी गाड़ी में बैठा कर पूरे बगीचे की सैर कराती थीं। बगीचे में एक तरफ बहुत सुन्दर सा शीशमहल है। इस शीशमहल में दुर्लभ झाड़ फानूस लगे हुए हैं। बगीचे में कमल तलैया भी है। यहां श्रीमुरलीधरलालजी द्वारा स्थापित शिलाओ पर उत्कीर्ण ब्रज 84 कोस का प्रतिरूप भी एक बारादरी में बना हुआ हैै। तमाम  वैष्णव नित्य नियम पूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं। इससे उन्हें श्रीगिरिराजजी और ब्रज के सभी पवित्र स्थानों को पूजने का सौभाग्य भी मिल जाता है। बगीचे के उत्तर पूर्व के कोने में एक अत्यन्त प्राचीन विष्णु स्वरूप चतुर्भुज मूर्ति स्थापित है।

जगद्गुरु महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी ने पांच सौ साल पहले शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद दर्शन की स्थापन कर काशी को ब्रजधाम बना दिया था। शुद्धाद्वैत मार्तंड श्री गिरिधरजी महाराज उनके अनुयायी थे। उन्होंने मंदिर परिसर में शुध्दता और पवित्रता को विशेष अहमियत दी। यहां ठाकुर जी को लगने वाला भोग मंदिर परिसर में ही बनता है। इसके अलावा श्री ठाकुर जी का सेवइत जिस वस्त्र को पहन कर सेवा करता है उस वस्त्र वो दोबारा नहीं पहनता। भगवान के विग्रह को स्पर्श करने का अधिकार सिर्फ दो लोगों को ही है और वे गोस्वामी परिवार के ही होते हैं।

वैष्णव तीर्थ स्थान होने के कारण यहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व अत्यंत धूमधाम से मनाया जाता है। अर्द्ध रात्रि में भगवान के जन्म से शुरू होने वाला समारोह छठ तक चलता है। मंदिर में दर्शन का समय बहुत ही कम वक्त के लिए होता है। प्रातःकाल मंगला, श्रृंगार, पालना और भोग का दर्शन होता है। इसके बाद मंदिर का पट बंद हो जाता है। शाम को उत्थापन के बाद होने वाली भोग आरती और शयन आरती को देखने के लिए भक्तों की भारी भीड़ जमा होती हैं। महज पन्द्रह मिनट के दर्शन के बाद मंदिर का पट बंद कर दिया जाता है। मनोरथ के दर्शन का वक्त महाराज श्री की तरफ से उसी दिन घोषित किया जाता है। यहां श्री ठाकुर जी के विग्रह के छोटे होने के कारण कई भक्त अपने साथ दूरबीन लेकर आते हैं ताकि अपने इष्ट की छवि को अच्छी तरह से निहार सकें। यहां फोटोग्राफी पूरी तरह से प्रतिबंधित है। जन्माष्टमी के अलावा यहां होली पर खेली जाने वाली अबीर गुलाल और गुलाब की पंखुड़ियों की होली और नवरात्र पर होने वाला गरबा रास भी बहुत प्रसिध्द है।

काशी के कैंट रेलवे स्टेशन से करीब छह किलोमीटर दूर स्थित इस मंदिर के लिए कालभैरव मंदिर के बगल की गली से भैरव बाजार होते हुए या फिर चौक से ठठेरी बाजार होते हुए जाया जा सकता है। मंदिर के संकरी गली में होने के कारण वहां पैदल जाना ही संभव है।


जय श्री कृष्ण

No comments:

Post a Comment

सूर्य को जल चढ़ाने का अर्थ

  प्रस्तुति - रामरूप यादव  सूर्य को सभी ग्रहों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि सभी ग्रह सूर्य के ही चक्कर लगाते है इसलिए सभी ग्रहो में सूर्...