Friday, February 26, 2021

ईश्वर के प्रतिनिधि होते हैं संत सतगुरु /

ईश्वर के प्रतिनिधि होते हैं संत सतगुरु 


प्रस्तुति पं0 कृष्ण मेहता** 

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संत किसे कहते हैं? 

संत-जीवन का आदर्श क्या है? 

किन लक्षणों द्वारा संत का यथार्थ परिचय प्राप्त हो सकता है?


 इस तरह के प्रश्न प्राय: हमारे मन में उठते रहते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराणमें स्वयं भगवान इस संदर्भ में प्रकाश डालते हुए कहते हैं- संत सब पर दया करने वाला, किसी से भी द्रोह न करने वाला, परनिंदा आदि दोषों से रहित, सुख-दु:ख में समान भाव वाला, तितिक्षु, सत्यवादी, सबका उपकार करने वाला, विषयों से विचलित न होने वाला, जितेंद्रिय, कोमल चित्त, पवित्र, अकिंचन, निष्कामी,स्वल्प भोजन करने वाला, शांत, स्थिर, भगवत्परायण,मननशील,सावधान, गंभीर, संकट में भी धैर्य रखने वाला, भूख, प्यास, शोक, मोह, जरा और मृत्यु इन छहों विकारों पर विजयी, मान न चाहने वाला, दूसरों को मान देने वाला, दक्ष, सबसे मैत्री रखने वाला, कारुणिक और ज्ञानवान होता है।

संतों के जीवन में आत्मा के आठ गुणों का विकास होता है।

 गौतमस्मृति में आत्मा के आठ गुण बताए गये हैं-

 ••••••••••••दया, क्षमा, अनसूया,शौच, अनायास, मंगल, अकार्पण्यऔर अस्पृहा।इनके लक्षण बृहस्पतिस्मृतिमें विस्तार से बताए गए हैं। 


महाभारत का मत है-  

""आचार लक्षणोधर्म: सन्तश्चाचारलक्षणा:""

अर्थात् आचार ही धर्म का लक्षण है, सदाचारी होना ही संत का लक्षण है। 


""सतां सदा शाश्वतधर्मवृत्ति:। 

सन्तोन सीदन्तिन चव्यथन्ते॥""


संत सदा धर्म का पालन करते हैं। संत कभी घबराते और दुखी नहीं होते हैं। श्रीमद्भगवद्गीतामें योगेश्वर श्रीकृष्ण ने सत्पुरुष के चालीस लक्षण गिनाए हैं।


देवर्षिनारद भक्तिसूत्र में संतों का संग दुर्लभ और अमोघफलदायकबताते  हैं। सच्चे संत परमसुख(मोक्ष) का कारण बनते हैं। 


आद्यशंकराचार्यका कथन है कि ""जिस सत्पुरुष ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उसके लिये सम्पूर्ण जगत नन्दनवन है, समस्त वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, सारा जल गंगाजल है, उसकी वाणी चाहे प्राकृत हो या संस्कृत, वह वेद का सार है, उसके लिए सारी पृथ्वी काशी है। ऐसे संत का एक क्षण के लिए भी संग हो जाए, तो वह सत्संग भवसागर से पार उतार देने वाला होता है।


 महर्षि वेदव्यासका मानना है कि जल में डूबते हुए लोगों के लिए संत दृढ नौका के समान हैं। 

भयानक संसार-समुद्र में गोते खाने वालों के लिए ब्रह्मवेत्ताशांतचित्त संतजनही परम अवलम्ब (सहारा) हैं।

जैसे-जैसे पुरुष सांसारिक पदार्थोसे निवृत्त होता है, तैसे-तैसे वह दुखों से मुक्त होता जाता है। संत निवृत्तिपरायण(त्यागी) होते हैं, इसलिए वे सदा आनन्दमग्न रहते हैं। संसारिकइच्छाओं का अंत हो जाने पर ही व्यक्ति संत बन सकता है। 


""जो लोग क्षुद्र सिद्धियों का प्रदर्शन कर अपने नाम-रूप की पूजा कराना चाहते हैं, वे तो संत हैं ही नहीं। ""


बल्कि आजकल तो बहुत लोग ऐसे मिलते हैं, जिनको यथार्थ में योगविभूतियां(सिद्धियां) भी प्राप्त नहीं हैं। ऐसे तथाकथित महात्मा अपनी चतुराई से भोले-भाले सीधे-सादे लोगों को ठगते हैं।


 संत का वास्तविक चमत्कार तो उसका ईश्वर को समर्पित जीवन-दर्शन है। सच्चे संत प्राय: अपने को जनसाधाणमें प्रकट नहीं करते हैं वरन वे गुप्त रूप से लोक-कल्याण में योगदान देते हैं। वे बडे-बडे आश्रम बनाने और सुख के संसाधन जुटाने में नहीं फंसते। स्वप्रचारसे वे कोसों दूर रहते हैं।


संत-भाव की प्राप्ति में सबसे बडा विघ्न है- 

•""कीर्ति की कामना।""

       स्त्री-पुत्र, घर-द्वार, धन-सम्पत्ति का त्याग कर चुकने वाला पुरुष भी कीर्ति की मोहिनी में आसक्त हो जाता है। जिस मनुष्य की साधना चुपचाप चलती है, उसको इतना डर नहीं है परन्तु जिसके साधक होने का पता लोगों को हो जाता है, उसकी ख्याति चारों ओर फैलने लगती है। फिर उसकी पूजा-प्रतिष्ठा चालू हो जाती है। 


साधक प्रसिद्धि के मोह-पाश में जरा भी फंसा कि उसका पतन आरंभ हो जाता है। जब भक्तों द्वारा इंद्रियों को आराम पहुंचाने वाले भोग-पदार्थ समर्पित होने लगते हैं, तब उनकी वासना जागृत होकर और भी प्रबल हो उठती है। 


इंद्रियां मन को खींचती हैं, मन बुद्धि को और जहां बुद्धि अपने परम लक्ष्य परमात्मा को छोडकर विषय-सेवन परायणा इंद्रियों के अधीन हो जाती है, वहीं सर्वनाश हो जाता है। 


अतएव संत को तडक-भडक से बचते हुए सादगी के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए। 


संयम संत का ब्रह्मास्त्र है।

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