Monday, February 15, 2021

सतसंग शाम RS 15/02

**राधास्वामी!! 15-02-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-     

                                

(1) सुरतिया सुनत रही। नित राधास्वामी बानी सार।।-

(राधास्वामी सतगुरु हुए दयाल।

दीन जान लिया गोद बिठार।।)

(प्रेमबानी-4-शब्द-7-पृ.सं.109)                         


(2) इतनी अरज हमारी। सुन लो पिता पियारे।

चरनों में आ गिरा हूँ । मैं दास अब तुम्हारे।।-

( (प्रेमबिलास-शब्द-7-पृ.सं.8,9,10)

                                                       

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे। 

                       

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


**राधास्वामी!!-15- 02- 2021-

आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन

 -कल से आगे-( 156)-


 आप किसी लकड़ी के टुकड़े को जलती आग के समीप ले जायँ और ध्यानपूर्वक देखें कि जलती आग का उस लकड़ी के टुकड़े पर कैसे असर होता है।

आग छूते ही पहले लकड़ी के भीतर से जल का अंश और दूसरा मसाला गैस बनकर आग की क्रिया को रोकता है। फिर धीरे-धीरे लकड़ी का सिरि गर्म होने लगता है, फिर काला सा पड़ जाता है, और अंत में जलने लगता है और प्रदीप्त  हो जाता है।

अर्थात् आरंभ में लकड़ी का मसाला आग की क्रिया को रोकता है। कुछ देर बाद फिर आग का किसी अंश में असर हो जाता है( यह दूसरा दर्जा है)। और कुछ और देर बाद आग का बहुत अधिक असर हो जाता है (यह तीसरा दर्जा है)। और अंत में आग का पूरा असर हो जाता है और लकड़ी जलने लगती है (यह चौथा दर्जा है)।

इसी प्रकार जब मनुष्य आध्यात्मिक साधन की कमाई में लगता है तो पहले उसके शरीर और मन और उनसे संबंध रखने वाले बंधन अपना जोर दिखाकर रुकावटें पैदा करते हैं। राधास्वामी- मत में पहले इन विघ्नों को दूर करने का उपाय गुरु-भक्ति निर्धारित किया गया है (यह पहली मंजिल है)।

जब ये रुकावटें कुछ हल्की पड़ जाती है तो यह अंतरी साधन का अधिकारी बन जाता है और उसके लिए अंतरी साधन कुछ सहज हो जाता है और कुछ सफलता के साथ बनने लगता है। परिणाम यह होता है कि उसकी सूरत (आत्मा) अंतःकरण के घाट से खिंचकर जब तक ऊँचे चेतन स्थानों से संबंध जोड़ने लगती है (यह दूसरी मंजिल है)।

और जैसे तीसरे दर्जे में आग का पर्याप्त प्रवेश होने पर लकड़ी की रुकावटों का जोर जाता रहता है और भड़क उठने के लिए तैयार हो जाती है ऐसे ही अभ्यासी मन और माया की सब रुकावटों के दूर हो जाने पर मन और माया की हद से पार सुन्न अर्थात मुक्तिपद में गति प्राप्त कर लेता है और इस योग्य हो जाता है कि अगली मंजिल की ओर कदम बढ़ा सकें (यह तीसरी मंजिल है)।

और जैसे अग्नि का पूरा असर हो जाने पर लकड़ी भडककर अग्नि- रूप हो जाती है ऐसे ही  अभ्यासी अंत में सच्चे कुलमालिक के धाम अर्थात निर्मल चेतन केंद्र में पहुँच जाता है और जैसे नदियाँ समुंद्र में गिर कर समुंद्र- रूप हो जाती है वैसे ही वह भी निर्मल चेतन धाम में पहुंचकर निर्मल चेतन रूप हो जाता है (यह चौथी मंजिल है)।

रहा प्रश्न कि इस जन्म में नाम का उपदेश क्यों दिया जाता है, उसका कारण यह है कि नाम का सुमिरन पहली मंजिल में गुरु-भक्ति दृढ करने में सहायक होता है जैसा कि दूसरे स्थान पर वर्णन किया जा चुका है पातंजल योगसूत्रों में भी प्रणव अर्थात ब्रह्म के नाम का सुमिरन 'ईश्वरप्राणिधान' के लिए साधन माना गया है।

ये शब्द पढ़कर भी यदि कोई व्यक्ति यह कहने का साहस करेगा कि चौथी मंजिल से आगे भी कोई मंजिल है तो हम यही कहेंगे-

ईंकार अज़ तो आयदो दो मरदाँ चुनी कुनन्द। अर्थात- यह कार्य तुम से बन पड़ा है और तुम्हारे ऐसे सूरमा ही ऐसा किया करते हैं।                              

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा- परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!

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