Friday, February 19, 2021

बसंत ऋतु का आगमन


 श्री कालिका महापुराण पांचवा दिन /बसंत ऋतु का आगमन



महर्षि मार्कण्डेय ने कहा-तभी से लेकर ब्रह्माजी भी समय-समय में ही परिपीडित होकर चिन्तन किया करते थे कि भगवान् शम्भु ने मेरी केवल कान्ता के प्रति अभिलाषा को ही देखकर मुझे बुरा कह दिया था वही शम्भु अब मुनिगणों के ही समक्ष में दाराओं को किस तरह से ग्रहण करेंगे अथवा कौन सी नारी उन शम्भु की पत्नी होगी और कौन सी नारी है जो उनके मन में स्थान बनाकर अवस्थित हो रही है, जो योग के मार्ग से भ्रष्ट करके उनको मोहित करेगी। उनका मोह न करने में कामदेव भी समर्थ नहीं हो सकेगा । वे तो नितान्त योगी हैं, वे वीरांगनाओं के नाम को भी सहन नहीं किया करते हैं । मध्य और अन्त में सृष्टि होती है उनका वध अन्य कारित नहीं है अर्थात् अन्य किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है । इस भूमण्डल में कोई ऐसे होंगे जो महान् बलवान् मेरे द्वारा बाध्य होंगे । कुछ भगवान् विष्णु के वारणीय हैं और उपाय से कुछ शम्भु के हैं। उस सांसारिक भोगों के सुखों से विमुख तथा एकांत विरागी भगवान् शम्भु के विषय में इससे अन्य कोई भी कर्म नहीं करेगा, इसमें संशय नहीं है ।


लोकों के पितामह लोकेश ब्रह्माजी यही चिन्तन् करते हुए ने आकाश में स्थित होते हुए उन्होंने भूमि में स्थित दक्ष आदि को देखा था। रति के साथ मोह से समन्वित कामदेव को देखकर ब्रह्माजी फिर वहाँ पर गए और कामदेव को सन्त्वना देते हुए उससे बोले-हे मनोभव अर्थात् कामदेव ! आप इस अपनी सहचारिणी पत्नी रति के साथ में शोभायमान हो रहे हैं और यह भी आपके साथ संयुक्त होकर अत्यधिक शोभित हो रही है । जिस रीति से लक्ष्मी देवी से भगवान् होती है। जैसे चन्द्रमा से रात्रि और निशा से चन्द्र शोभायमान होता है ठीक उसी भाँति आप दोनों की शोभा होती है और आपका दाम्पत्य पुरस्कृत होता है । अतएव आप जगत् के केतु हैं और विश्वकेतु हो जायेंगे। हे वत्स अब तुम इस समस्त जगत् के हित सम्पादित करने के लिए पिनाकधारी भगवान् शम्भु को मोहित कर दो जिससे सुख के मन वाले भगवान् शम्भु द्वारा का परिग्रह कर लेवें । किसी भी विजन देश में, स्निग्ध प्रदेश में, पर्वतों पर और सरिताओं में जहाँ-जहाँ पर ईश गमन करें वहाँ-वहाँ पर ही इसके साथ उनको मोहयुक्त कर दो ।


इस वनिता से विमुख भगवान् हर को जो कि पूर्णतया संयत आत्मा वाले हैं मोहित कर दो । तुम्हारे बिना अर्थात् वाला त्रिभुवन में नहीं है। हे मनोभव ! भगवान् हर के सानुराग हो जाने पर अर्थात् दाम्पत्य जीवन के सुखभोगों के अभिलाषी होने पर आपके शाप की भी उपशान्ति हो जायेगी। इस कारण आप इस समय अपना ही हित करो। हे कामदेव ! अनुराग से युक्त होकर जब शम्भु वरारोह की इच्छा करें तो उस अवसर पर तुम्हारे उपभोग के लिए ये तुमको सम्भावित अवश्य ही करेंगे। इसलिए जगत् की भलाई करने के लिए तुम भगवान् हर के मोहन करने के कर्म में पूर्ण यत्न करो । महे श्वर को मोहित करके आप शिव के केतु हो जाओ । ब्रह्माजी के इस वचन का श्रवण करके कामदेव ने ब्रह्माजी से जगत् का हितकारी जो तथ्य था वह कहा था । कामदेव ने कहा-हे विभो ! मैं आपकी आज्ञा से अवश्य ही शम्भु का मोहन करूंगा किन्तु हे प्रभो ! पोषित रूपी महान् अस्त्र जो हैं उस कान्ता को मेरे लिए आप सृजित कर दीजिए । मेरे द्वारा शम्भु 1. के सम्मोहित करने पर जिसके द्वारा उसका अनुमोहन करना चाहिए, हे लोकभृत् ! उस परम रमणीय रामा का आप निदेशन कीजिए । उस प्रकार की रामा को मैं नहीं देख रहा हूँ जिसके द्वारा उनका अनुमोहन होवे । अब हे धाता ! कर्तव्य यही है कि अब कुछ उसी तरह का उपाय करें।


मार्कण्डेय मुनि ने कहा-कामदेव के इस प्रकार से कहने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने यही चिन्ता की थी कि मुझे ऐसी सम्मोहनी पोषा (नारी) उत्पन्न करनी चाहिए । इस चिन्ता में समाविष्ट उन ब्रह्माजी को जो इसके अनन्तर निःश्वास विनिःसृत हुआ था उसी से बसन्त ने जन्म धारण किया था जो कि पुष्पों के समुदाय से विभूषित था। भ्रमरों की संहति ( समूह ) को धारण करने वाले मुकुलित आग्र के अंकुरों को सरस किंशुकों ( ढाक के पुष्प ) को साथ लिए हुए प्रफुल्लित पादप (वृक्ष) की भाँति शोभित हुआ था उसी बसन्त की स्वरूप शोभा का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह रक्त कमल के सदृश था तथा विकसित ताम्ररस के समान उसके नेत्र थे, सन्ध्या की बेला में उदीयमान अखण्ड चन्द्रमा के समान उसका मुख था और उसकी पर सुन्दर नासिका थी। शंख के सदृश श्रवणों के आवर्त्त वाला था तथा श्याम वर्ण के कुञ्चित (घुंघराले ) केशों से शोभित था, सन्ध्या के समय में अंशुमाली के तुल्य दोनों कुण्डलों से विभूषित था । उसकी गति मदमस्त हाथी के समान थी और उसका वक्ष:स्थल विस्तीर्ण था तथा पानी स्थूल और आयत भुजाओं से संयुत था एवं उसके दोनों करों का जोड़ा अतीव कठोर था।


उसके उरु, ग्रीवा कम्बु के कटि और जंघायें सुवृत्त अर्थात् सुडौल थे, उसकी तुल्य थी एवं उसकी नासिका उन्नत थी, वह गूढ़ शत्रुओं वाला, स्थूल वक्षःस्थल से युक्त था। इस रीति से समस्त लक्षणों से वह सर्वाङ्ग सम्पूर्ण था । उसके अनन्तर उस प्रकार के सम्पूर्ण कुसुमाकर (बसन्त) के समुत्पन्न हो जाने पर सुगन्ध से संयुत वायु वहन करने लगी और सभी वृक्ष पुष्पित हो गये थे । कोयलें मधुर स्वरों से समन्वित होती हुई सैकड़ों बार पञ्चम स्वर में बोलने लगी थीं, विकसित कमलों वाली सरोवरें पुष्करों से युक्त हो गयी थीं। इसके अनन्तर हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्माजी उस प्रकार के अतीव उत्तम उसको समुत्पन्न हुआ देखकर कामदेव से मधुर वचन बोले-हे कामदेव ! यह आपका मित्र उत्पन्न होकर समुपस्थित है जो कि सर्वदा ही अनुकूलता का व्यवहार करेगा। जिस रीति से अग्नि का मित्र वायु है जो उसका सभी जगह पर उपकार किया करता है उसी भाँति यह आपका मित्र है जो सदा ही आपका ही अनुगमन करेगा । वसति के अन्त का हेतु होने से ही यह बसन्त नाम वाला होवेगा। इसका कर्म यही है कि सदा आपका अनुगमन करे तथा लोकों का अनुरञ्जन किया करे । यह बसन्त श्रृंगार है और बसन्त में मलयानिल वहन किया करता


है। आपके वश में ही कीर्तन करने वाले भाव सदा सुहृद होवें |

विव्वोक आदि हाथ तथा चौंसठ कलायें जिस प्रकार से आपके सुहृद हैं वैसे ही रति देवी के भी सौहार्द भाव को करेंगे । हे कामदेव ! अब आप इन सहचरों के साथ जिनमें बसन्त प्रधान है और तुम्हारे ही उपयुक्त परिवार स्वरूपा इस सहचारिणी रति के साथ मिलकर अब महादेव को मोहित करो और सनातनी सृष्टि की रचना कर डालो । इन समस्त सहचरों के साथ जो भी इष्ट हो उसी देश में चले जाओ मैं उसको भावित करूँगा जो हरि को मोहित कर देगी इस रीति से सुरों में सबसे बड़े ब्रह्माजी के द्वारा कहे गए वचनों से कामदेव परम हर्षित होकर अपने गणों के सहित तथा पत्नी और अनुचरों के साथ उस समय में वहाँ पर चला गया था। प्रजापति दक्ष को साथ समस्त मानस पुत्रों को अभिवादन करके उस समय कामदेव वहीं पर चला गया था जहाँ हर भगवान् शम्भु हैं । उस अनुचरों के सहित कामदेव के चले जाने पर जो कि शृंगार भाव आदि से संयुत था, हे द्विजोत्तमो ! पितामह ने दक्ष प्रजापति से मरीचि, अत्री प्रमुख मुनीश्वरों के साथ में कहा था ।


*🙏🌹जय भगवती जय महामाया🌹🙏*

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