Saturday, February 27, 2021

सतसंग के उपदेश, भाग do *बचन (20)*

मालिक की दया का भरोसा रखने से ज़िन्दगी के दुख बरदाश्त करने में भारी सहायता मिलती है।*


            *शहर कलकत्ता के एक रईस ने ज़िन्दगी से दुखी होकर अव्वल अपने दो निरपराध बच्चों को ज़हर पिलाया और बाद में ख़ुद ज़हर पी कर परलोक को सिधार गया और यह तहरीर छोड़ गया कि उसका विश्वास परमात्मा की हस्ती से उठ गया था और उसने ज़िन्दगी से तंग आकर ये कर्म किये। सब जानते हैं कि जब इन्सान मुसीबतों से घिर जाता है और बावजूद हर क़िस्म की मेहनत व कोशिश के अपनी हालत ख़राब पाता है तो ख़ुदा, देवी, देवता, भूत, प्रेत की जानिब मुख़ातिब होता है और जब उस जानिब से भी मायूसी हो जाती है तो पागल होकर जो मन में आता है कर गुज़रता है और अक्सर ख़ुदकुशी (आत्मघात) कर लेता है इसलिये इस रईस से जो कर्म बन पड़ा वह इतना आश्चर्यजनक नहीं है मगर इस घटना से एक निहायत मुफ़ीद मतलब सबक़ हासिल होता है यानी यह कि जब तक इन्सान का मालिक की दया में विश्वास क़ायम रहता है वह हिम्मत नहीं हारता, वह सख़्त से सख़्त मुश्किल बरदाश्त करता हुआ बेहतरी की राह देखता है। यानी मालिक की दया का भरोसा एक ऐसा लंगर है जिसे गिराकर इन्सान ज़िन्दगी के समुद्र की लहरों से बेख़ौफ़ आशा की नाव में बैठा हुआ दुनिया का तमाशा देख सकता है। लेकिन चूँकि आम लोगों को न तो मालिक का कुछ पता है और न ही उसकी ज़ात में सच्चा विश्वास है इसलिये अक्सरऔक़ात मामूली झोंके आने पर लंगर टूटकर उनकी आशा की नाव डूब जाती है। इसके अलावा अक्सर लोग ख़्वाहमख़्वाह दया का भरोसा बाँधकर अपनी हैसियत से बढ़कर सौदे कर बैठते हैं या नाजायज़ फ़ायदा उठाने के लिये मुक़द्दमाबाज़ी करते हैं और वक़्तेमुनासिब आने पर मायूसी का मुँह देखते हैं। सन्तमत यह ज़रूर सिखलाता है कि हर प्रेमीजन को मालिक की हस्ती व दया में सच्चा व गहरा विश्वास रखना चाहिये लेकिन साथ ही यह भी सिखलाता है कि उस मालिक को हाज़िर व नाज़िर जानकर किसी ऐसे कर्म का भागी न बनना चाहिये और न कोई ऐसी उम्मीद बाँधनी चाहिये कि जिससे वह परमार्थी आदर्श से गिर जाय। सच्चे मालिक की दया में भरोसा इसलिये नहीं बँधवाया जाता कि हर प्रेमीजन मालिक से अपनी मर्ज़ी के मुआफ़िक़ काम ले और अपनी जायज़ व नाजायज़ इच्छाएँ पूरी करावे बल्कि इसलिये कि नामुवाफ़िक़ हालात के आने  पर उसका धीरज बना रहे और वह हरक़िस्म की ग़ैरज़रूरी चिन्ता व फ़िक्र से आज़ाद रहकर मुनासिब यत्न व कोशिश कर सके। जब तक हमारा इस दुनिया में क़याम है तबतक दुनियवी ज़रूरियात का और उनके पूरा करने के सिलसिले में विरोधी सूरतों का पैदा होते रहना क़ुदरती बात है। हमारा यह ख़्याल करना क़तई ग़लत व लाहासिल होगा कि हुज़ूरी शरण लेने से हम तमाम सृष्टिनियमों और संसारी तूफ़ानों से बचे रहें। हमें समझ बूझ कर सृष्टिनियमों का पालन करते हुए ज़िन्दगी बसर करनी होगी। हमें दुश्मनों, धोकेबाज़ों और फ़साद करने वालों से बचने के लिये मुनासिब इन्तिज़ाम करना होगा और नीज़ हमें हर क़िस्म की दैविक व भौतिक आपत्तियों को बर्दाश्त करते हुए अपने कर्तव्य पालन करने होंगे लेकिन जैसे आम लोग अपनी ज़िन्दगी रुपये, पैसे और इष्टमित्र की मदद या चालाकी व सीनाज़ोरी के भरोसे पर बसर करते हैं और मुख़ालिफ़ सूरतों के नमूदार होने पर उन्हीं से काम लेते हैं हमें बजाय इनके सच्चे मालिक की दया का भरोसा रखकर दिन काटने होंगे और नामुवाफ़िक़ बातों के ज़ाहिर होने पर मालिक की दया का आसरा लिये हुए मुनासिब यत्न व कोशिश करनी होगी और यह बात बेख़ौफ़ कही जा सकती है कि इन उसूलों पर चलने से किसी भी प्रेमीजन को मायूसी का मुँह न देखना पड़ेगा। यह मुमकिन है कि कुछ अर्से के लिये किसी की मुश्किलों में **ज़ाहिरन् इज़ाफ़ा होता जावे और उसे किसी जानिब से मदद की सूरत दिखलाई न दे लेकिन यह नहीं हो सकता कि कोई प्रेमीजन, जो सँभलकर चाल चलता है और परमार्थी आदर्श को हमेशा निगाह के रूबरू रखता है, हमेशा के लिये या बहुत समय के लिये चिन्ता व फ़िक्र की आग में डाला जावे।*


*सतगुरु किसे कहते हैं?*


*(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)*


*(17 जून, सन् 1934 ई. आदित्य मुक़ाम कुर्तालम)*


*आज शाम का सतसंग इस मनोहर शब्द से शुरू हुआ जिसकी पहली कड़ी निम्नलिखित हैः-*


*‘मेहर होय कोई प्रेमी जाने ऐसा गुरू हमारा’*

*इस मनोहर शब्द का श्रोताओं पर गहरा असर हुआ जिसको सुनकर प्रेमी भाई और बहनें अत्यंत प्रभावित हुए। इसमें सतगुरु की महिमा और बड़ाई का वर्णन है जिससे हर मुल्क के जिज्ञासु हर ज़माने में प्रकाश प्राप्त करेंगे। नीचे पूरा शब्द लिखा जाता हैः-*      **मेहर  होय कोई  प्रेमी जाने  ,    ऐसा    गुरू     हमारा         ।।टेक।।*


*रूप  रंग  रेखा नहिं  ताके    ,    नहिं   गोरा  नहिं  कारा       ।।1।।*


*सर्व निवासी घट घट  बासी ,    तीन   लोक    के  पारा        ।।2।।*


*मौज होय जग देह धर आवे ,    जीवन     करे    उबारा        ।।3।।*


*भक्ति भाव  की रीति चलावे ,    प्रेम   प्रीति   की   धारा       ।।4।।*


*चिन्ता  में  सद रहे अचिन्ता ,    हर्ष   सोग    से   न्यारा        ।।5।।*


*चरन सरन दे दास भक्त का ,    मेटे   दुख   भय    सारा       ।।6।।*


*काज  करे  कर्ता  नहिं  होवे ,    अचरज    अकथ  ब्योहारा   ।।7।।*


*बुधि   चतुराई  मूर्छा  खाई  ,    ज्ञान   जोग  थक  हारा        ।।8।।*


*जा पर मेहर करी राधास्वामी, (घट)  अन्तर  रूप निहारा   ।।9।।*

*आज रात को जो हुज़ूर साहबजी महाराज ने इसी शब्द पर बचन फ़रमाया उससे शब्द का भावार्थ अधिक स्पष्ट रूप से उपस्थित भाइयों को विदित हो गया जिसको संक्षेप में नीचे लिखा जाता है:-*

*यह शब्द इसलिए बड़ा आवश्यक है कि इसमें गुरु-भक्ति की फ़िलासफ़ी बयान की गई है।* *हमारे मत में गुरु भक्ति पर कमाल ज़ोर दिया जाता है। कुछ सतगुरुभक्ति को मर्दुमपरस्ती ख़्याल करते हैं हमने इन लोगों की नुक्ताचीनी का जवाब देने के लिये यह शब्द बनाया था।* *इस शब्द में हमने सतगुरु गति वर्णन की है जैसी कि हमारे मत में सिखलाई जाती है।*

*सच्ची बात यह है कि सतसंगियों की विवेकशक्ति पर, यदि वह कुलमालिक के अवतार को केवल मनुष्य समझें, बड़ा आक्षेप आयेगा।* *हम किसी मनुष्य के शरीर व मन को मालिक का अवतार नहीं समझते, न ही सतगुरु के शरीर या मन में आध्यात्मिकता पाई जाती है, वह तो केवल शारीरिक और मानसिक मसाले के बने हैं इसलिये वह कैसे कुल मालिक के प्रतिनिधि हो सकते हैं।* *हम सतगुरु के शरीर को वह ग़िलाफ़ समझते हैं जिसमें मालिक की धार विराजमान है क्रियाशील है। स्थूल शरीर कपड़े मात्र हैं जिन्हें कि सतगुरु केवल शारीरिक नियमों के अधीन ग्रहण करते हैं क्योंकि कोई शक्ति यानी शारीरिक शक्ति भी अपने इज़हार के लिये बगै़र वसीला के काम नहीं करती।* **कोई उष्णता को देख नहीं सकता हालाँकि उष्णता अनुभव की जा सकती है। इसी तरह बिजली वस्तु क्या है कोई नहीं कह सकता केवल अनुमान की जा सकती है। बिजली की शक्ति देखी या अनुभव नहीं की जा सकती। इसका ज्ञान केवल वस्तु के द्वारा किया जा सकता है। तमाम शक्तियों को अपने इज़हार के लिये ग़िलाफ़ धारण करना पड़ता है। इसी कानून की रू से कुल मालिक की शक्ति को भी मनुष्य जाति के उद्धार के लिये आवरण धारण करना पड़ता है।* *यदि परम शक्ति किसी देव का शरीर धारण करके, जिसका सिर आसमान पर और पैर पाताल में हों, उतरे और ऐसी भाषा बोले जिसको यहाँ कोई नहीं समझ सकता।* **तो उसकी शिक्षा को कोई नहीं समझेगा और उसका अवतार धारण करना व्यर्थ जायगा इसलिये दया के मिशन की कामयाबी उसी* *सूरत में संभव है जब कुल मालिक मनुष्य-शरीर धारण करे और आध्यात्मिक शक्ति स्वयं शरीर पर क़ाबू नहीं पा सकती, न उसे उपयोग कर सकती है बल्कि उसे मानसिक ग़िलाफ़ की ज़रूरत होती है इसलिये सतगुरु मन भी धारण करते हैं।*  **सतसगुरु की शक्ति उनके शरीर और मन को जान देती है इसके अलावा अपने मिशन की पूर्ति करती है। आम आदमियों की तरह सतगुरु में आध्यात्मिक शक्ति सोई हुई नहीं होती।* *जैसे कोयला तभी मनुष्य के लिये हितकर सिद्ध हो सकता है जब उसके अन्दर गर्मी की लहरें क्रियाशील हो जायँ।*

*यहाँ पर यह वर्णन करना उचित होगा कि आत्मा के दो कर्म हैं-* *प्रथम उसका पैदा करने वाला अंग, जिससे हममें से प्रत्येक मनुष्य जानकार है अर्थात् हमारा शरीर सुरत से बनाया जाता है, जिसको उसका* *रचनात्मक अंग कहते हैं। इसका दूसरा अंग, जो हममें से प्रायः बहुतों में सोया हुआ है, इसको बोधनात्मक अंग कहते हैं। इसका सुरत की बोधनात्मक अवस्था से सम्बंध है और यह काम प्रत्येक मनुष्य में नहीं होता परन्तु सतगुरु में यह काम होता रहता है। सतगुरु की सुरत का कुल मालिक से सीधा मिलाप होता है।* *सतगुरु का शरीर दूसरे लोगों के शरीर के अनुसार ही होता है परन्तु उनके शरीर के अंदर सुरत जाग्रत होती है और उसका कुल मालिक के साथ सीधा सम्बंध रहता है जैसा कि समुद्र के क़रीब दरिया होते हैं रात के वक्त़ समुद्र के पानी का लेबल चाँद के* *खिंचाव के कारण ऊँचा हो जाता है और यह दरियाओं में चला जाता है। कभी*

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