Monday, May 10, 2021

DB सतसंग सुबह 11/05

 **राधास्वामी!! 11-05-2021- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-                                                                                       

(1) चलो री सखी आज से मिलाऊँ। तन मन धन की प्रीति छुडाऊँ।।-(राधास्वामी पद हम जानि। कहन सुनन का लगा ठिकाना।।) (सारबचन-शब्द-1-पृ.सं.371,372-तिमरनी ब्राँच-अधिकतम उपस्थिति-39)                                                       

(2) गुरु प्यारे के सँग प्यारी चलो निज धाम।टेक।। यह तो देश तुम्हारा नाहीं नहिं पावे यहाँ तू आराम।।-(उनकी दया का करो भरोसा। राधास्वामी करें तेरा पूरन काम।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-49-पृ.सं.43,44)                                                              

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।  

    सतसंग के बाद:-                                               

(1) राधास्वामी मूल नाम।।                               

  (2) अतोला तेरी कर न सके कोई तोल।।                                                                   

(3) बढत सतसंग अब दिन दिन। अहा हा हा ओहो हो हो।।

(प्रे. भा. मेलारामजी-फ्राँस)                                         

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

**परम गुरु हुजूर मेहताजी जी महाराज

- भाग 1- कल से आगे:- आपको मालूम है कि जब यह बादल ऊपर आते और बरसते हैं तो वे आग व गोलों की वर्षा करते हैं और तबाही  और बर्बादी चारों ओर फैला देते हैं। क्या आप में से किसी को यह विचार न आया कि हुजूर राधास्वामी दयाल ऐसी दया करें कि हम सब इस आपत्ति व संकट से बच जायँ। आखिर इस तरह के विचारों का दिल में पैदा न होने का कारण क्या है? क्या आप साहिबान का यह विचार है कि यदि इस प्रकार के प्रार्थना हमारे दिल में पैदा होगी तो वह प्रार्थना के विरुद्ध होगी?  और यह प्रार्थना हमको मालिक की नजर से दूर डाल देगी।

 कम से कम मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मेरी राय में, इस प्रकार की प्रार्थना का हमारे दिल में पैदा न होना केवल अनुचित है बल्कि सच्चे परमार्थ के प्रतिकूल है और हमारे प्रमार्थी लाभ को हानि पहुँचाने वाला है। यदि इस प्रकार के विचार व प्रार्थना हमारे दिल में इस उद्देश्य से पैदा हों कि हमारी व हमारी संतान की हर तरह से रक्षा रहें और हमारे व्यक्तिगत हित पहले की तरह सुरक्षित रहे, हमारे आराम व सुख में कोई बाधा न पड़े, हमारा धन सब तरह से सुरक्षित रहे तो इस प्रकार की प्रार्थना निःसन्देह स्वार्थ पर निर्भर होगी और परमार्थ के विरुद्ध होगी। परंतु यदि हम संगत को और सारी मनुष्य जाति को इन आपत्तियों से बचाने के लिए मालिक के चरणो में इस प्रकार की प्रार्थना पेश करते हैं तो हमारी तवज्जह मालिक के चरणो में जाती है औ संसार की ओर नहीं जाती  इसलिए यह प्रार्थना हमारे लिए परमार्थी लाभ पहुँचाने वाली होती है। अब यदि आपने इस समय के विषय को समझ लिया है तो आप स्पष्ट रुप से बतलावे कि आप में से कौन साहब ऐसे हैं जिनके दिल में ऐसे विचार पैदा होते रहे हैं कि उनकी सम्पत्ति, संतान व बैंक का धन किसी न किसी तरह से बच जाय या जो यह विचार करते हैं कि चलो दयालबाग में ठहरें, यहाँ रहने से उन तमाम बातों का प्रबंध ठीक हो जायगा। क्रमशः                                          🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-[ भगवद् गीता के उपदेश]- कल से आगे :-जो दान बदले की आशा से या आयंदा फल की आशा कायम करके या दिक हो कर दिया जाता है वह रजोगुणी है और जो दान देश और काल का लिहाज छोड़ कर ,कुपात्र लोगों को, भिडकी और निरादर के साथ दिया जाता है वह तमोगुणी है। ओम्, तत् या सत्त यह ब्रह्म के जानने वाले और वेद और यज्ञ प्रकट हुए। इसलिये ब्रह्मवादी सदा 'ओम्' शब्द का उच्चारण करके यज्ञ, दान और तप संबंधी शास्त्रोक्त कर्म प्रारंभ करते हैं और मोक्ष के चाहने वाले 'तत्त्' शब्द का उच्चारण करके फल की इच्छा दिल में न लाकर यज्ञ,तप और दान संबंधी भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म करते हैं।【 25】                       हे अर्जुन! 'सत्त्' शब्द का प्रयोग असलियत और नेकी के अर्थ में होता है। नेक काम के अर्थ में भी 'सत्त' शब्द का प्रयोग होता है। यज्ञ,तप, और दान में टिक कर लग जाने को भी 'सत् ' कहते हैं और उनके निमित्त जो कर्म किया जावे उसे भी 'सत्त' कहते हैं। इसके विरुद्ध जो आहुती, दान, तप आदि कर्म श्रद्धारहित किया जावे वह'असत्त' कहलाता है। ऐसा कर्म न इस लोक में और न परलोक में फलदायक होता है।【28】 क्रमशः 🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**

**परम गुरु हुजूर महाराज- प्रेम पत्र -भाग 2- कल से आगे:-(3) मालूम होवे कि प्रमार्थियों की चाल दुनियादारों की चाल के बरखिलाफ यानी उल्टी होती है। दुनियादार धन, स्त्री, पुत्र और नामवरी के वास्ते जान देने को तैयार होते हैं और परमार्थी अपने सच्चे मालिक के चरणों पर इन सबको, बल्कि अपने तन मन और जान को, अर्पण करने को तैयार रहता है।                                              उसकी नजर में मालिक की प्रसन्नता और उसके नूर के दर्शन के बराबर कोई चीज रचना भर में नहीं ठहरती है और दुनियादार धन और नामवरी की सब में ज्यादा कदर करते हैं और मालिक की तरफ से बेखबर रहते हैं।                                                              परमार्थी हर एक के साथ दीनता और प्यार के साथ बरतना चाहता है, पर दुनियादार अहंकार और मान और बेपरवाही की नजर से हर एक को देखता है।                                      परमार्थी को दुनिया के सामान सब नाशमान और तुच्छज्ञान और दुखदाई नजर आते हैं और संसारी इन चीजों की बड़ी कदर करता है और उनको बड़ा बहुमूल्य पदार्थ और अपने वास्ते निहायत सुखदाई देखता है। इस सबब से परमार्थी और संसारी जीवों का आपस में मेल नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मन को समझ की हालत जुदी जुदी है ।                                                           (4)- दुनियादारो की मांग और समझ गलत है और यह गलती उनको आखिरवक्त पर या निहयत सख्त तकलीफ के वक्त पर नजर आती है कि उस वक्त कोई शख्स या सामान, जिसका उन्होंने बड़ा भरोसा बाँधा था, उनकी मदद नहीं कर सकता, बल्कि उनको छोड़कर सब अलग हो जाते हैं । और परमार्थी ने जो समझ धारण की है, उसका फायदा उसको हर वक्त और तकलीफ या आखरी के वक्त बहुत ज्यादा मालूम होता है, यानी जिस सच्चे मालिक को उसमें अपना सच्चा माता और पिता मानकर पकड़ा है और उसकी याद अंतर में बढ़ाई हैं, वह मालिक दयाल हर वक्त उसकी खबरगिरी करता है और तकलीफ के वक्त जरूर मौजूद होकर और अपने दर्शन देकर और कुल तकलीफ को फौरन दूर करके महा सुख और आनंद अपने बच्चे को देता है। क्रमशः                                                 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

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