Thursday, April 30, 2020

परम गुरू हुजूर सरकार साहब / स्मारिका





स्मारिका
परम गुरु सरकार साहब

         

  90. यद्यपि सरकार साहब की दया व मेहर से बहुत से सतसंगियों की बीमारी व तकलीफ़ें दूर हो गई थीं पर उन दयाल की अपनी बीमारी और शारीरिक तकलीफ़ चलती ही रही और उसमें कोई वास्तविक कमी नहीं आई। प्रायः यह आश्चर्य होता है कि अपने भक्तों के रक्षक गुरू महाराज अपने आपको क्यों नहीं चंगा कर लेते? एक बार हुज़ूर  साहबजी महाराज ने इसका स्पष्ट शब्दों में उत्तर 20 जून सन् 1937 ई. को अपने अन्तिम दिनों में दिया था जबकि कुर्तालम के सेक्रेटरी ने प्रार्थना की थी कि वे दयाल अपनी बीमारी को दूर फेंक दें। साहबजी महाराज ने फ़रमाया- ‘‘हुज़ूर  राधास्वामी दयाल की मौज के सामने हमारा आत्म-समर्पण बिना किसी शर्त के होना चाहिए। मैंने ख़ुद बीमारी माँगी नहीं थी। हुज़ूर  राधास्वामी दयाल अपनी मौज व मर्ज़ी से जो कुछ हमें प्रदान करें, हमें उसे ख़ुशी से स्वीकार करना चाहिए।’’

सरकार साहब ने भी abscess (ख़ास किस्म के फोड़े) की सख़्त आज़माइश का सामना अनुकरणीय सहनशीलता से किया और साहबजी महाराज बरसों तक ब्लड प्रेशर और दिल की बीमारी से पीड़ित रहे परन्तु उनमें से किसी ने भी लेश मात्र की परेशानी, घबराहट या मानसिक अशांति नहीं दिखाई।



यद्यपि सरकार साहब ने कोई ख़ास किताब नहीं लिखी थी फिर भी कई ऐसे विषयों के सम्बन्ध में, जिनके विषय में बहसमुबाहिसे होते थे और जिनके विषय को स्पष्ट और पूर्ण व्याख्या की आवश्यकता थी,उन दयाल ने अपने पत्रों में और ‘प्रेम समाचार’में जो कि जून सन् 1913 ई. में प्रकाशित हुआ था, विस्तारपूर्वक लिखा। महाराज साहब के गुप्त हो जाने के पश्चात् सब से अधिक बहस की समस्या, जो उठाई गई थी, वह राधास्वामी मत के मिशन (विशेष उद्देश्य) के बारे में थी कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल का यह मिशन था या नहीं कि इस पृथ्वी से अपनी निज धार को वापिस खींच लेने से पहले तमाम रचना का उद्धार पूरा किया जाए। अगर ऐसा था तब महाराज साहब के बाद उन दयाल का दूसरा संत सतगुरू जानशीन होना चाहिए था और इन्टर रेगनम (बीच का समय जब कि कोई संत सतगुरू न हो) की थ्योरी को बीच में लाने की और इन्टर रेगनम की व्याख्या उस मानी में करने की, जिस मानी में सेन्ट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव काउन्सिल के मेम्बरान करते मालूम होते थे,कोई आवश्यकता न थी।

सतसंगियों को लिखे गए अपने पत्रों में सरकार साहब ने स्पष्ट रूप से फ़रमा दिया था कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल की निजधार उस समय तक वापिस नहीं जाएगी जब तक कि हुज़ूर  राधास्वामी दयाल का मिशन पूरा न हो जाए और अपने लेख ‘परम गुरु’ जो कि प्रेम समाचार में प्रकाशित हुए, उन दयाल ने हमेशा के लिए इस सम्बन्ध में समस्त संदेहों और शंकाओं को दूर कर दिया। सतसंग साहित्य में संत सतगुरू की अद्वितीय स्थिति (पोज़ीशन) के बारे में इससे अधिक स्पष्ट और ज़ोरदार व्याख्या इससे पहले कभी नहीं हुई।


राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय राधास्वामी।।।।।।।।।।

सुपरमैन सुपरमैन



दयालबाग की गुड़िया है
दस रुपया दाम है
सुपरमैन बच्चों के लिए
खेतों  में आई है

राजाबरारी की गुड़िया है
ऐगजीबीशन में सजाई है
दाता जी ने दृष्टि डाल कर
बच्चों में बँटवाई है

गुड़िया  मेरी सयानी है
पीती ठँडा पानी है
न रोती है न लड़ती है
बड़ों का कहना मानतीहै

इसके सँग मैं  खेलूँगी
खेत में झूला झूलूँगी
इसे परशाद खिलाऊँगी
संग में मैं भी खाऊँगी

इसके संग मैं जाऊँगी
मैरिज पंचायत में नाम लिखाऊँगी
गुड्डा ढूँढ के लाऊँगी
दुल्हन इसे बनाऊँगी

गुड़िया मेरी सँवरेंगी
और ख़ुशी से झूमेंगी
खेतों में ब्याह रचाऊँगी
नाचूँगी और गाऊँगी

दूध पियो भइ दूध पियो
एक  रुपये का  दूध पियो
अमृत पेय नाम है
खेतों का परशाद है

बुद्धि को बढ़ाता है


बौडी को बनाता है
सुपरमैन  स्कीम में
सब बच्चों को मिलता है

आज 30/04 को शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन






**राधास्वामी!!
30-04-2020-                       
आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-                                                                         
(1) चलो प्रेम सभा से मिलो री सखी। जहाँ राधास्वामी गुन नित गाय रहे।। टेक।। (प्रेमबानी-3-शब्द-1"प्रेम लहर-भाग दूसरा"-पृ.सं.240)                                                           
  (2) स्वामी तुम अचरज खेल दिखाया।।टेक।। मेहर दया का धार भरोसा चरनन में चल आया। मेहर भरी दृष्टि इक लेकर दुख सब दूर बहाया।। (प्रेमबिलास-शब्द-107,पृ.सं.156)                                                                                   
(3) सतसंग के उपदेश-भाग तीसरा-कल से आगे।।               
  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

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*राधास्वामी!! 30-4 -2020-   

                      

  आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन-

कल से आगे -(123 )

 जो लोग अंतरी शब्द की निस्बत शंका करते हैं दरअसल अंतरी शब्द की असलियत से नावाकिफ है। संसार में दो चीजें हैं- जड़ प्रकृति यानी माद्दा और शक्ति यानी कुव्वत। और शक्ति के दो स्वरुप है- गुप्त और प्रकट। जब शक्ति गुप्त है तो अरुप व अनाम है और जब शक्ति प्रकट होती है तो पहले उसके भंडार यानी मखजन में क्षोभ या  हिलोर पैदा होती है और फिर शक्ति की धारे बाहर फैलती है।

चेतन शक्ति का यह क्षोभ व धार रुप ही राधास्वामीमत में निज शब्द कहलाता है। इस शब्द से संबंध कायम करने के लिए मुनासिब दर्जे की सुक्ष्मता व पवित्रता प्राप्त करनी होती है और इससे से संबंध कायम होने पर मनुष्य की सुरत आप से आप शरीर व मन की कैदो से आजाद होकर उसके प्रकट होने के स्थान से जा मिलती है क्योंकि यह शब्द परम आकर्षक व परम समर्थ है।

इस निज शब्द की अगर इंसानी बोली में नकल उतारी जावे तो धार का शब्द राधा और क्षोभ का शब्द स्वामी बनता है और इसलिए राधास्वामी शब्द सच्चे मालिक का नाम बयान किया जाता है ।   
                                           

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻 

                            

 सत्संग के उपदेश- भाग तीसरा**

राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय

Wednesday, April 29, 2020

भगवान लीला की तीन कहानियां




 प्रस्तुति- कृष्ण मेहता:

ठाकुर जी की मुरली
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किसी गांव में एक पुजारी अपने बेटे के साथ रहता था।
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पुजारी हर रोज ठाकुर जी और किशोरी जी की सेवा मन्दिर में बड़ी श्रद्धा भाव से किया करता था।
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उसका बेटा भी धोती कुर्ता डालकर सिर पर छोटी सी चोटी करके पुजारी जी के पास उनको सेवा करते देखता था।
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एक दिन वह बोला बाबा आप अकेले ही सेवा करते हो मुझे भी सेवा करनी है..
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परन्तु पुजारी जी बोले बेटा अभी तुम बहुत छोटे हो... परन्तु वह जिद पकड़ कर बैठ गया।
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पुजारी जी आखिर उसकी हठ के आगे झुक कर बोले अच्छा बेटा तुम ठाकुर जी की मुरली की सेवा किया करो...
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इसको रोज गंगाजल से स्नान कराकर इत्र लगाकर साफ किया करो।
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अब तो वह बालक बहुत खुशी से मुरली की सेवा करने लगा।
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इतनी लगन से मुरली की सेवा करते देखकर हर भक्त बहुत प्रसन्न होता तो ऐसे ही मुरली की सेवा करने से उसका नाम "मुरली" ही पड़ गया।
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अब तो पुजारी ठाकुर और ठकुरानी की सेवा करते और मुरली ठाकुर जी की मुरली की।
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ऐसे ही समय बहुत अच्छे से बीत रहा था कि एक दिन पुजारी जी बीमार पड़ गए.. मन्दिर के रखरखाव और ठाकुर जी की सेवा में बहुत ही मुश्किल आने लगी।
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अब उस पुजारी की जगह मन्दिर में नए पुजारी को रखा गया...
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वह पुजारी बहुत ही घमण्डी था, वह मुरली को मन्दिर के अंदर भी आने नहीं देता था
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अब मुरली के बाबा ठीक होने की बजाय और बीमार हो गए और एक दिन उनका लंबी बीमारी के बाद स्वर्गवास हो गया।
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अब तो मुरली पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया... नए पुजारी ने मुरली को धक्के मारकर मन्दिर से बाहर निकाल दिया।
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मुरली को अब अपने बाबा और ठाकुर जी की मुरली की बहुत याद आने लगी।
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मन्दिर से निकलकर वह शहर जाने वाली सड़क की ओर जाने लगा... थक हार कर वह एक सड़क के किनारे पड़े पत्थर पर बैठ गया।
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सर्दी के दिन ऊपर से रात पढ़ने वाली थी मुरली का भूख और ठंड के कारण बुरा हाल हो रहा था
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रात होने के कारण उसे थोड़ा डर भी लग रहा था।
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तभी ठाकुर जी की कृपा से वहाँ से एक सज्जन पुरुष "रामपाल" की गाड़ी निकली
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इतनी ठंड और रात को एक छोटे बालक को सड़क किनारे बैठा देखकर वह गाड़ी से नीचे उतर कर आए और बालक को वहाँ बैठने का कारण पूछा।
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मुरली रोता हुआ बोला कि उसका कोई नहीं है। बाबा भगवान् के पास चले गए।
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सज्जन पुरुष को मुरली पर बहुत दया आई क्योंकि उसका अपना बेटा भी मुरली की उम्र का ही था। वह उसको अपने साथ अपने घर ले गए।
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जब घर पहुँचा तो उसकी पत्नी जो की बहुत ही घमण्डी थी, उस बालक को देखकर अपने पति से बोली यह किस को ले आए हो
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वह व्यक्ति बोला कि आज से मुरली यही रहेगा उसकी पत्नी को बहुत गुस्सा आया लेकिन पति के आगे उसकी एक ना चली।
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मुरली उसे एक आँख भी नहीं भाता था। वह मौके की तलाश में रहती कि कब मुरली को नुकसान पहुँचाए
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एक दिन वह सुबह 4:00 बजे उठी और पांव की ठोकर से मुरली को मारते हुए बोली कि उठो कब तक मुफ्त में खाता रहेगा
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मुरली हड़बड़ा कर उठा और कहता मां जी क्या हुआ तो वह बोली कि आज से बाबूजी के उठने से पहले सारा घर का काम किया कर।
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मुरली ने हाँ में सिर हिलाता हुआ सब काम करने लगा अब तो हर रोज ही मां जी पाव की ठोकर से मुरली को उठाती और काम करवाती।
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मुरली जो कि उस घर के बने हुए मन्दिर के बाहर चटाई बिछाकर सोता था।
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रामपाल की पत्नी उसको घर के मन्दिर मे नही जाने देती थी... इसका कारण यह था कि मन्दिर मे रामपाल के पूर्वजो की बनवाई चांदी की मोटी सी ठाकुर जी की मुरली पड़ी हुई थी।
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मुरली ठाकुर जी की मुरली को देख कर बहुत खुश होता, उसको तो रामपाल की पत्नी जो ठोकर मारती थी दर्द का एहसास भी नहीं होता था।
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एक दिन रामपाल हरिद्वार गंगा स्नान को जाने लगा तो मुरली को भी साथ ले गया।
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वहाँ गंगा स्नान करते हुए अचानक रामपाल का ध्यान मुरली की कमर के पास पेट पर बने पंजो के निशान को देख कर तो वह हैरान हो गया
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उसने मुरली से इसके बारे में पूछा तो वह टाल गया।
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अब रामपाल गंगा स्नान करके घर पहुँचा तो घर में ठाकुर जी की और किशोरी जी को स्नान कराने लगा...
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बाद में अपने पूर्वजों की निशानी ठाकुर जी की मुरली को भी गंगा स्नान कराने लगा..
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तभी उसका ध्यान ठाकुर जी की मुरली के मध्य भाग पर पड़ा.. वहाँ पर पांव की चोट के निशान से पंजा बना था... जैसे मुरली की कमर पर बना था...
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तो वह देख कर हैरान हो गया कि एक जैसे निशान दोनों के कैसे हो सकते हैं.. वह कुछ नहीं समझ पा रहा था।
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रात को अचानक जब उसकी नींद खुली तो वह देखता है कि उसकी पत्नी मुरली को पांव की ठोकर से उसी जगह पर मार कर उठा रही है...
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उसको अब सब समझते देर न लगी...
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रामपाल को उसी रात कोई काम था। जिस कारण रामपाल ने मुरली को रात अपने कमरे मे ही सुला लिया !
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रामपाल रात को मन्दिर मे ठाकुर जी को विश्राम करवाने के बाद दरवाजा लगाने के लिए कांच का दरवाजा मन्दिर के बाहर की और खुला रख आए !
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उसकी पत्नी रोज की तरह आई और ठोकर मार कर मुरली को उठाने लगी...
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मुरली तो वहाँ था नहीं और उसका पांव मन्दिर के बाहर दरवाजे पर लगा.. और उसका पैर खून खून हो गया.. वह दर्द से कराहने लगी।
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उसके चीखने की आवाज सुनकर रामपाल उठ गया... और उसको देखकर बोला कि यह क्या हुआ...
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उसने कहा कि यह कांच के दरवाजे की ठोकर लग गयी...
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रामपाल बोला कि जो ठोकर तुम रोज मुरली को मारती रही ठाकुर जी की मुरली उस का सारा दर्द ले लेती थी...
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जो ठाकुर जी को प्यारे होते हैं भगवान् उनकी रक्षा करते हैं...
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देखो भगवान् की मुरली भी अपने सेवक की रक्षा करती है.. उसकी पीड़ा अपने ऊपर ले लेती है..
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रामपाल की पत्नी को उसकी सजा मिल गई.. जिससे मुरली को ठोकर मारती थी आज वह पंजा डाक्टर ने काट दिया..
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रामपाल की पत्नी को अपनी भूल का एहसास हो गया था और अब वह मुरली का अपने बेटे की तरह ही ध्यान रखती थी।


               "

भक्त दर्जी और सुदामा माली"

     


 मथुरा में एक भगवद्भक्त दर्जी रहता था। कपड़े सीकर अपना तथा अपने परिवार का पालन करता एवं यथासंभव दान करता था। भगवान का स्मरण, पूजन, ध्यान ही उसे सबसे प्रिय था। इसी प्रकार सुदामा नामक एक माली भी मथुरा में था। भगवान की पूजा के लिये सुन्दर-से-सुन्दर मालाएं, फूलों के गुच्छे वह बनाया करता था। दर्जी और माली दोनों ही अपना-अपना काम करते हुए बराबर भगवान के नाम जप करते रहते थे और उन श्यामसुन्दर के स्वरूप का ही चिन्तन करते थे।
       
भगवान न तो घर छोड़कर वन में जाने से प्रसन्न होते हैं और न तपस्या, उपवास या और किसी प्रकार शरीर को कष्ट देने से। उन सर्वेश्वर को न तो कोई अपनी बुद्धि से संतुष्ट कर सकता है और न विद्या से। बहुत-से ग्रंथों को पढ़ लेना या अद्भुत तर्क कर लेना, काव्य तथा अन्य कलाओं की शक्ति अथवा बहुत-सा धन परमात्मा को प्रसन्न करने में समर्थ नहीं है। दर्जी और माली दोनों में से कोई ऊंची जाति का नहीं था। किसी ने वेद-शास्त्र नहीं पढ़े थे, कोई उनमें तर्क करने में चतुर नहीं था और न ही उन लोगों ने कोई बड़ी तपस्या या अनुष्ठान ही किया था। दोनों गृहस्थ थे। दोनों अपने-अपने काम में लगे रहते थे। परंतु एक बात दोनों में थी, दोनों भगवान के भक्त थे। दोनों धर्मात्मा थे। अपने-अपने काम को बड़ी सच्चाई से दोनों करते थे। ईमानदारी से परिश्रम करके जो मिल जाता, उसी में दोनों को संतोष था। झूठ, छल, कपट, चोरी, कठोर वचन, दूसरों की निन्दा करना आदि दोष दोनों में नहीं थे। भगवान पर दोनों का पूरा विश्वास था। भगवान को ही दोनों ने अपना सर्वस्व मान रखा था और ‘राम, कृष्ण, गोविन्द‘ आदि पवित्र भगवननाम् उनकी जिह्वा पर निरन्तर नाचा करते थे। भगवान को तो यह निश्छल सरल भक्ति-भाव ही प्रसन्न करता है।
   
   जब अक्रूर जी के साथ बलराम और श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये तो अक्रूर को घर भेजकर भोजन तथा विश्राम करने के पश्चात दिन के चौथे पहर वे सखाओं से घिरे हुए मथुरा नगर देखने निकले। कंस के घमंडी धोबी को मारकर श्यामसुन्दर ने राजकीय बहुमूल्य वस्त्र छीन लिये। वस्त्रों को स्वयं पहना, बड़े भाई को पहनाया और सखाओं में बांट दिया। वे वस्त्र कुछ राम-श्याम तथा बालकों के नाप से तो बने नहीं थे, अत: ढीले-ढाले उनके शरीर में लग रहे थे। भक्त दर्जी ने यह देखा और दौड़ आया वह। त्रिभुवनसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र हंसते हुए उसके सम्मुख खड़े हो गये। जिनकी एक झांकी के लिये बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र तरसते रहते हैं, वे श्यामसुन्दर दर्जी के सम्मुख खड़े थे। महाभाग दर्जी ने उनके वस्त्रों को काट-छांटकर, सीकर ठीक कर दिया।
       
बलराम जी तथा सभी गोप बालकों के वस्त्र उसने उनके शरीर के अनुरूप बना दिये। प्रसन्न होकर भगवान ने दर्जी से कहा- "तुम्हें जो मांगना हो, मांगो।" दर्जी तो चुपचाप मुख देखता रह गया। श्रीकृष्णचन्द्र का। उसने किसी इच्छा से, किसी स्वार्थ से तो यह काम किया नहीं था। हाथ जोड़कर उसने प्रार्थना की- "प्रभो! मैं नीच कुल का ठहरा, मुझे आप लोगों की सेवा का यह सौभाग्य मिला, यही क्या कम हुआ।" भगवान ने दर्जी को वरदान दिया- "जब तक तुम इस लोक में रहोगे, तुम्हारा शरीर स्वस्थ, सबल, आरोग्य रहेगा। तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होगी। तुम्हें सदा मेरी स्मृति रहेगी। ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी तुम्हारे पास भरपूर रहेंगी। इसके पश्चात मेरा रूप धारण करके तुम मेरे लोक में मेरे पास रहोगे। तुम्हें मेरा सारूप्य प्राप्त होगा।"
     

 इसके पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र सुदामा माली के घर गये। सुदामा तो राम-श्याम को देखते ही कीर्तन करते हुए आनन्द के मारे नाचने लगा। उसने भूमि में लोटकर दण्डवत प्रणाम किया। सब को आसन देकर बिठाया। सखाओं तथा बलराम जी के साथ श्यामसुन्दर के उसने चरण धोये। सब को चन्दन लगाया, मालाएं पहनायीं, विविधत सब की पूजा की। पूजा करके वह हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा। उसने कहा- "भगवन! मैंने ऋषि-मुनियों से सुना है कि आप दोनों ही इस जगत के परम कारण हैं। आप जगदीश्वर हैं। संसार के प्राणियों का कल्याण करने के लिये, जीवों के अभ्युदय के लिये आपने अवतार लिया है। आप तो सारे संसार के आत्मस्वरूप हैं। सभी प्राणियों के सुहृद हैं। आप में विषमदृष्टि नहीं है। सभी प्राणियों में समरूप से आप स्थित हैं। फिर भी जो आपका भजन करते हैं, उन पर आपका अनुग्रह होता है। मैं आपका दास हूँ, अत: मुझे कोई सेवा करने की आज्ञा अवश्य करें, क्योंकि आपकी सबसे बड़ी कृपा जीव पर यही होती है कि आप उसे अपनी सेवा का अधिकार दें। आपकी आज्ञा का पालन करना ही जीव का परम सौभाग्य है।"
     

 सुदामा ने सखाओं के साथ भगवान की पूजा कर ली थी, उन्हें मालाएं पहनायी थीं, फिर भी उसे प्रसन्न करने के लिये श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- "सुदामा! हम सबको तुम्हारी सुन्दर मालाएं और फूलों के गुच्छे चाहिये।" माली सुदामा ने बड़ी श्रद्धा से बहुत ही सुन्दर-सुन्दर मालाएं फिर भगवान को तथा सभी गोप बालकों को पहनायीं, उन्हें फूलों से सजाया और उनके हाथों में फूलों के सुन्दर गुच्छे बनाकर दिये। भगवान ने कहा- "सुदामा! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम वरदान मांगो।" सुदामा भगवान के चरणों में लोट गया। हाथ जोड़कर उसने फिर प्रार्थना की- "प्रभो! आप अखिलात्मा में मेरी अविचल भक्ति रहे, आपके भक्तों से मेरी मैत्री रहे और सभी प्राणियों के प्रति मेरे मन में दया-भाव रहे- मुझे यही वरदान दें।"
     

  भगवान ने 'एवमस्तु' कहकर फिर कहा- "तुमने जो मांगा, वह तो तुम्हें मिल ही गया। तुम्हें दीर्घायु प्राप्त होगी। तुम्हारे शरीर का बल तथा कान्ति कभी क्षीण नहीं होगी। लोक में तुम्हारा सुयश होगा और तुम्हारे पास पर्याप्त धन होगा। वह धन तुम्हारी सन्तान परम्परा में बढ़ता ही जायेगा।" माली को यह वरदान देकर श्रीकृष्णचन्द्र नगर दर्शन करने चले गये।
     
 वे दर्जी और माली जीवन भर भगवान का स्मरण-भजन करते रहे और अन्त में भगवान के लोक में उनके नित्य पार्षद हुए।
                   
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"भक्त नीलाम्बरदास"

       
 हरि हरि कहि पागल फिरैं, डोलैं हाल बेहाल।
       
 जिनके हिय मैं बसि गयो, हियहारी नँदलाल॥

     
  नीलाम्बर दास के हृदय में वह हृदयहारी नन्दलाल बस गया था। घर पर स्त्री थी, पुत्र थे, भरा-पूरा कुटुम्ब था, धन था, मान-प्रतिष्ठा थी; किंतु जब वह चितचोर किसी के चित्त को चुरा लेता है, तब ये ही संसार के सुख, जिनके लिये लोग दिन-रात हाय-हाय करते हैं, अनेक पाप करते भी नहीं हिचकते, उसे विष-जैसे लगते हैं। नीलाम्बर दास का भी भाग्योदय हुआ था। उनका हृदय भी उस हरि ने चुरा लिया था। घर-द्वार, धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, मान-प्रतिष्ठा, सबको तृण के समान त्यागकर, सबसे पिण्ड छुड़ाकर वे उत्तरप्रदेश से श्रीजगन्नाथ-पुरी को चल पड़े थे। नीलाचलनाथ के दर्शन की प्यास उनके प्राणों में जाग उठी थी। मुख से 'हरि-हरि' कहते, मन से हरि का ध्यान करते वे मतवाले की भाँति चले जा रहे थे।
       
अनेक पर्वत, नदी, नाले, वन, नगर पार करते नीलाम्बरदास गङ्गा-किनारे पहुँचे। वर्षा की ऋतु, बढ़ी हुई भगवती भागीरथी की धारा, न कोई ग्राम, न घाट। सन्ध्या हो चुकी थी। नीलाम्बरदास गङ्गा-तीर पर उस निर्जन स्थान में बैठकर भजन करने लगे। थोड़ी देर में उधर से एक मल्लाह जाल लिये, मछली मारता नौका पर निकला। नीलाम्बरदास ने उसे पुकारा - 'अरे भाई ! कृपा करके इस ब्राह्मण को उस पार उतार दो। तुम जो माँगोगे, वही दूँगा। भाड़े के लिये चिन्ता न करो।'
     
  मल्लाह को लगा कि यात्री के पास धन है। अच्छा शिकार फँसा समझकर वह नौका किनारे ले आया। नीलाम्बरदास प्रसन्न होकर भगवान् का स्मरण करते हुए नाव में बैठ गये। सूर्यदेव छिप चुके थे अन्धकार बढ़ता जा रहा था। नीलाम्बरदास नौका पार लगाने की शीघ्रता कर रहे थे; पर यह देखकर कि मल्लाह उनकी बात सुनता ही नहीं, वह धारा में नाव बहाये ले जा रहा है उन्हें सन्देह हो गया। वे बोले-' भाई! तेरा मतलब क्या है? तू मुझे मार डालना चाहता है क्या? अच्छा, मैं भी देखता हूँ कि श्रीजगन्नाथ के यात्री को तू कैसे मारता है।'
         मल्लाह ने कहा-' मेरा मतलब समझने में तुम्हें अब बहुत देर नहीं लगेगी। तुमको यदि किसी को याद करना हो तो कर लो। मैं तुम्हें अभी नीलाचल पहुँचाये देता हूँ।'
   
 
इस निर्जन प्रदेश में बढ़ी गङ्गा के बीच यात्री को मारकर फेंक देना और उसका धन छीन लेना बड़ा सरल काम था। मल्लाह पहले से इसीलिये नौका पर बैठाकर यात्री को ले आया था। अब नीलाम्बरदास ने घबराकर भगवान् को पुकारना प्रारम्भ किया- ' एक बार श्रीजगन्नाथ के दर्शन होने पर प्राण भले चले जायें, पर उन रथारूढ़ नीलाचलनाथ के दर्शन अवश्य हों। इस विपत्तिसे वे दयामय ही ब्राह्मण को बचा सकते हैं।'
     
  जब कोई सर्वथा असहाय होकर भगवान् को पुकारता है, तब भगवान् उसकी प्रार्थना का उत्तर अवश्य देते हैं। वे जगन्नाथ एक राजपूत का वेश धारण करके किनारे पहुँचे और उन्होंने पुकारा - 'अरे ओ मल्लाह ! नाव ले आ। यदि तुझे मरने की इच्छा न हो तो चल, आ इटपट इधर।' मल्लाह की तो नानी मर गयी। भय से थर- थर काँपने लगा वह लेकिन नाव को वह बहाव में बहाये ही जा रहा था जब उसने दूसरी पुकार पर भी ध्यान न दिया तो एक बाण खट से आकर नौका में घुस गया और किनारे से शब्द आया- अब की बार नाव पर बाण मारा है। अब यदि तू इधर नहीं आता तो सिर उड़ा दूँगा।' मल्लाह भय के कारण सफेद पड़ गया। उसने नौका किनारे की ओर मोड़ी।
     
 किनारे पहुँचने पर राजपूत ने उसे डाँटा और वे ब्राह्मण से बोले-'मैं लुटेरे, हत्यारों से यात्रियों की रक्षा करने के लिये इधर घूमा करता हूँ। मैंने यह वेश पीड़ितों की रक्षा के लिये ही धारण किया है।'
     
 ब्राह्मण ने धन्यवाद दिया, कृतज्ञता प्रकट की और श्रीजगन्नाथजी के दर्शनों के लिये शीघ्र गङ्गा-पार होने की इच्छा व्यक्त की। राजपूत ने मल्लाह को डाँटकर कहा - 'इन ब्राह्मण देवता को झटपट उस पार उतार दे। अभी मेरे सामने इन्हें उस पार उतार। तनिक भी इधर-उधर किया तो मेरा धनुष देखे रह।' मछुए को तो प्राणों के बचने की आशा ही नहीं थी। अब उसे कुछ धैर्य हुआ। वह अपने अपराध की बार-बार क्षमा माँगता हुआ उठा और नीलाम्बरदास को नौका में बैठाकर उसने तुरंत पार उतार दिया। मछुए का मन बदल गया था। उसे अपने कृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप था। वह ब्राह्मण के पैरों पर गिर पड़ा। उसे आशीर्वाद देकर नीलाम्बर दास पुरी को चल पड़े।
       
भगवान् जगन्नाथ बलरामजी तथा सुभद्रा के साथ रथ पर विराजमान हैं। लाखों भक्तों का समूह जय-जयकार कर रहा है। चारों ओर कीर्तन, जयघोष और आनन्द-ही-आनन्द है। पुरी पहुँचने पर नीलाम्बरदास को भगवान् की इस झाँकी के दर्शन हुए। वे बेसुध-से होकर भगवान् के रथ के सामने साष्टाङ्ग दण्डवत् करते गिर पड़े। लोगों ने दौड़कर उन्हें उठाना और मार्ग से हटाना चाहा, पर अब नीलाम्बरदास को कौन हटा सकता था। वे तो श्रीजगन्नाथ से एक हो गये थे मार्ग में तो उनका देह पड़ा धा, जिसे भक्तों ने कीर्तन करते हुए समुद्र में विसर्जित कर दिया। जगन्नाथपुरी में अब तक उनके इस दुर्लभ मरण की महिमा गायी जाती है।
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रवि अरोड़ा की नजर में




इरफ़ान : लाल घास पर नीला घोड़ा

रवि अरोड़ा
शायद सन 1987 की बात रही होगी जब इरफ़ान खान से पहली मुलाक़ात हुई । उन दिनो वे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा यानि एनएसडी में थियेटर के हुनर सीख रहे थे और दिल्ली के श्रीराम सेंटर में उनके नाटक ‘ लेनिन का एक दिन ‘ का मंचन था । लगभग सोलो ड्रामा था यानि पूरे समय लेनिन बने पात्र के ही डायलोग थे । सच कहूँ तो लेनिन बने इरफ़ान से मैं ज़रा भी प्रभावित नहीं हुआ । उन दिनो मुझपर भी थियेटर का जुनून था और ख़ुद कई नाटक लिखने, निर्देशित करने के साथ साथ दो तीन नाटकों में अभिनय भी कर चुका था । चूँकि सारा सारा दिन मंडी हाउस की ख़ाक भी छानता था सो बड़े बड़े रंगकर्मियों के पचासों प्रभावशाली नाटक स्वयं देख भी चुका था । नाटक के बाद एनएसडी के ही अपने मित्र दिनेश खन्ना के साथ इरफ़ान से कई चलताऊ सी  मुलाक़ात हुईं । दिनेश खन्ना इरफ़ान के सीनियर थे और इरफ़ान आख़िरी समय तक उन्हें मानते भी बहुत थे । आजकल एनएसडी में ही प्रोफ़ेसर के पद पर आसीन दिनेश खन्ना से आज सुबह जब फ़ोन पर बात हुई तो वे इरफ़ान की यादों से सराबोर नज़र आये । ख़ैर , उन्ही दिनो इरफ़ान का एक और नाटक देखा- लाल घास पर नीला घोड़ा । उस नाटक में इरफ़ान का काम देख कर मैं इतना प्रभावित हुआ कि बाद में जब उन्हें फ़िल्मे मिलनी शुरू हुईं तो उनकी कोई फ़िल्म देखने से चूका नहीं ।

शुरुआती दिनो में इरफ़ान के अभिनय में जो बात मुझे चुभती थी वह थी उनकी खरखराती आवाज़ और सामने वाले पात्र से आई कोंटेक्ट नहीं करना । हैरानी होती थी कि एनएसडी की बेसिक ट्रेनिंग में ही सामने वाले पात्र की आँख में आँख डाल कर देखना शामिल है फिर इरफ़ान एसा क्यों नहीं करते थे ? मगर फ़िल्मों में अभिनय करते हुए अपनी इस कमी को उन्होंने जिस ख़ूबसूरती से अपने ख़ास स्टाइल में बदला , वह कमाल का था । आज बड़े बड़े अभिनेता उनके इस स्टाइल की नक़ल करते हैं । ख़ैर उन्ही दिनो टीवी सीरियल बनने शुरू हुए और एनएसडी के तमाम छोटे बड़े अभिनेताओं को काम मिलने लगा । इरफ़ान के हिस्से भी कई धारावाहिक आये और श्याम बेनेगल के धारावाहिक ‘ भारत एक खोज ‘ से वे नामचीन लोगों की निगाह में भी चढ़ गए और उन्हें फ़िल्मों में भी काम मिलने लगा । बालीवुड पहुँच कर उन्होंने जो झंडे गाड़े उसका एक मात्र श्रेय उनकी जी तोड़ मेहनत को ही जाता है । जहाँ तक मुझे याद है कि एनएसडी के दिनो में इरफ़ान बहुत अच्छी अंग्रेज़ी नहीं बोलते थे मगर पिछले कुछ सालों मे हालीवुड की फ़िल्मों में उन्होंने जो फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोली वह हैरान कर देने वाली थी । आज जब उनका निधन हुआ वे 54 वर्ष के हो चुके थे । कमाल की बात है कि उन्हें अब तक युवाओं की ही भूमिका मिल रही थीं । ज़ाहिर है इसके लिए उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर बहुत मेहनत की होगी मगर अफ़सोस कैंसर जैसी महामारी ने इस बात  भी लिहाज़ नहीं किया । दिनेश खन्ना बता रहे थे कि अपनी इसी बीमारी की वजह से हाल ही इंतक़ाल फ़रमाई अपनी माँ के जनाज़े में भी इरफ़ान शरीक नहीं हो पाये थे । उन्होंने दो साल तक कैंसर को हराने की जी तोड़ कोशिश की मगर कल ख़ुद ही हार मान ली ।
आज सुबह से सोशल मीडिया के तमाम बैनर और टीवी चैनल इरफ़ान के फ़ौत होने से ग़मज़दा हैं । वे भी गमगींन हैं जो मुस्लिम रेहड़ी वालों से सब्ज़ी-फल न ख़रीदने की सलाह देते फिरते हैं । यह सब देख कर मन को थोड़ी सी तसल्ली भी मिली कि हमारे सौहार्द में चलो अभी इतने कीड़े नहीं पड़े हैं , जितने कभी कभी महसूस होते हैं । लाल घास के इस नीले घोड़े के निधन पर सभी का धर्म-जाति से ऊपर उठकर अफ़सोस व्यक्त करना बताता है कि वाक़ई आज कोई बड़ा नुक़सान हुआ है ।

अहो मेरे मालिक





सतगुरु जी*
*हर पल का शुकराना* 🙏
*हर स्वांस का शुकराना* 🙏
*हाथ थामने का शुकराना* 🙏
*अपना बनाने का शुकराना* 🙏
*अंग संग  रहने  का शुकराना* 🙏
*हर दुख से बचाने का शुकराना* 🙏
*सिर पर हाथ रखने का शुकराना* 🙏
*आपके हर रहमों कर्म का शुकराना*🙏🏻



अहो मेरे मालिक अहो मेरे दाता ।।
इस कोरोना  जगत में अब कुछ न सुहाता।।

नज़र मेहर  की मुझ पर अब कीजिये।
कोरोंना विपदा का निवारण कीजिये ।।

तडपते हैं दर्शन को सभी  प्रेमी जन ।   
 सहैं   नित दुख अतिकर  अंतर्मन ।।

आपको पर था हमारा पहले से ख्याल ।
तभी आपने  जारी किया ई सत्संग बेमिसाल ।।

आपकी मेहर से भंडारे में घर से भाग ले सकेंगे।
भेद भी अब सहजता से कर सकेंगे ।।

इस अनिश्तता की स्तिथि का कब होगा अंत ।।
उबारो हम सब को ,  हे प्रिय कंत ।।

विपदा में पड़ी अनेकों की जीविका ।
तुम बिन को कर सके निवारण  उनका। ।।

ख्वाइश ये पूरी करो अब हे, दाता । खेतो में जाकर चरणों  में बैठे ।।
पिए अमी रस और पना रस।बारिश या  तेज धूप में भी रहे  डटे  ।।

ऐसी मेहर की वृष्टि कीजे,भूले हम अपनी  सभी व्यथा ।।
शुक्राना करें हम पल छिन छिन, मिला है जो ,कुल मालिक का संरक्षण  व अपरम्पार दया ।।

Radhasoami 🙏🙏




आज 29/04 को शाम के सत्संग में पढ़ा था




**राधास्वामी!!

29-04-2020-


 आज शाम के सत्संग में पढ़े गए पाठ -                                                                                           
 (1) प्यारी क्यों सोच करें ,प्यारे राधास्वामी तेरे सहाई ।। टेक।। (प्रेमबानी- भगग 3- शब्द 16, पृष्ठ संख्या 239) 
                       
(2) स्वामी तुम अचरज खेल दिखाया।। टेक।।( प्रेमबिलास- शब्द -107 ,पृष्ठ संख्या 154 )                                                                                                                       
(3)  सत्संग के उपदेश- भाग तीसरा -कल से आगे।।         

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**


**राधास्वामी!! 
                                           
29-04- 2020- 
                             
  आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे -(122 ) सवाल- एक शख्स सत्संगी है लेकिन बुरे अंगों में बर्तता है और दूसरा शख्स गैरसत्संगी है लेकिन अच्छा चाल चलन रखता है, दोनों में कौन बेहतर है?                                                                 जवाब - मौजूदा हालत के लिहाज से गैरसतसंगी बेहतर है लेकिन हो सकता है कि सतसंगी के अंदर से पिछले जन्मों का मसाला खारिज हो रहा हो इसलिए अगर कोई सत्संगी जाहिर में बुरे अंगों में बर्तता है लेकिन अंतर में अपनी कमजोरी देख कर झुरता व पछताता है और सँभल कर चलने के लिये मुनासिब यत्न करता है तो उसकी जाहिरा हालत देख कर उसके खिलाफ नतीजा निकालना नादुरुस्त होगा।

 पूरे सतगुरु की शरण का मिल जाना कोई छोटी बात नहीं है। यह गति भी उत्तम संस्कारों की वजह से मिलती है इसलिए अगर किसी सत्संगी में हजार औगुन है और यह गुन है तो इस गुन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इस गुन के लिहाज से सत्संगी गैरसतसंगी पर सबकत ले जाता है। चुनाँचे कबीर  साहब का बचन है:-                                                   
कबीर मेरे साध की निन्द्या करों न कोय। जो पै चंद कलंक है तउ उजियारा होय।।                कबीर साहब फरमाते है कि मेरे साध जन की कसरें देखकर उनकी निंदा मत करो क्योंकि वह बेचारा अपनी कसरे दूर करने के लिए मुनासिब यत्न कर रहा है और अपने पिछले कर्मों व आदतों की वजह से मजबूर है लेकिन वह साधन करके दिन-ब-दिन अपना बोझ हल्का कर रहा है ।

एक दिन उसकी सब कसरे दूर हो जाएंगी । देखो हरचंद हिंदू शास्त्रों में चंद्रमा के सिर दोष लगाया  गया है लेकिन बावजूद दोषी होने के चंद्रमा संसार को रोशनी पहुंचाता है ऐसे ही साध जन भी बावजूद अपनी कसरों के इस काबिल होता है कि दूसरों को रोशनी पहुँचावे।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**

राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय राधास्वामी
।।।।।।।।।।




राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय राधास्वामी





सतगुरु जी*

*हर पल का शुकराना* 🙏
*हर स्वांस का शुकराना* 🙏
*हाथ थामने का शुकराना* 🙏
*अपना बनाने का शुकराना* 🙏
*अंग संग  रहने  का शुकराना* 🙏
*हर दुख से बचाने का शुकराना* 🙏
*सिर पर हाथ रखने का शुकराना* 🙏
*आपके हर रहमों कर्म का शुकराना*🙏🏻

राधास्वामी


अहो मेरे मालिक अहो मेरे दाता ।।  इस कोरोना  जगत में अब कुछ न सुहाता।।

नज़र मेहर  की मुझ पर अब कीजिये।
कोरोंना विपदा का निवारण कीजिये ।।

तडपते हैं दर्शन को सभी  प्रेमी जन ।   
 सहैं   नित दुख अतिकर  अंतर्मन ।।

आपको पर था हमारा पहले से ख्याल ।
तभी आपने  जारी किया ई सत्संग बेमिसाल ।।

आपकी मेहर से भंडारे में घर से भाग ले सकेंगे।
भेद भी अब सहजता से कर सकेंगे ।।

इस अनिश्तता की स्तिथि का कब होगा अंत ।।
उबारो हम सब को ,  हे प्रिय कंत ।।

विपदा में पड़ी अनेकों की जीविका ।
तुम बिन को कर सके निवारण  उनका। ।।

ख्वाइश ये पूरी करो अब हे, दाता । खेतो में जाकर चरणों  में बैठे ।।
पिए अमी रस और पना रस।बारिश या  तेज धूप में भी रहे  डटे  ।।

ऐसी मेहर की वृष्टि कीजे,भूले हम अपनी  सभी व्यथा ।।
शुक्राना करें हम पल छिन छिन, मिला है जो ,कुल मालिक का संरक्षण  व अपरम्पार दया ।।

Radhasoami 🙏🙏

राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय राधास्वामी



Tuesday, April 28, 2020

बहु बीती थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई.......






*एक पुरानी कथा इस समय के लिए आज भी बिल्कुल प्रसांगिक है*

एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।
 ...✍
राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है और तबले वाले को सावधान करना ज़रूरी है,वरना राजा का क्या भरोसा दंड दे दे । तो उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक *दोहा* पढ़ा -
...✍
*"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई ।*
*एक पल के कारने, ना कलंक लग जाए ।"*
...✍
अब इस *दोहे* का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।
...✍
जब यह दोहा  *गुरु जी* ने सुना और गुरु जी ने सारी मोहरें उस नर्तकी को  अर्पण कर  दीं ।
...✍
दोहा सुनते ही *राजा की लड़की* ने  भी अपना *नौलखा हार* नर्तकी को भेंट कर दिया ।
...✍
*दोहा* सुनते ही राजा के *पुत्र युवराज* ने भी अपना *मुकट* उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।
...
*राजा बहुत ही अचिम्भित हो गया ।*
सोचने लगा रात भर से नृत्य चल रहा है पर यह क्या! अचानक *एक दोहे* से सब  अपनी मूल्यवान वस्तु बहुत ही ख़ुश हो कर नर्तिकी को समर्पित कर रहें हैं ,
 *राजा* सिंहासन से उठा और नर्तकी को बोला *एक दोहे* द्वारा एक सामान्य नर्तिका  होकर तुमने सबको लूट लिया ।"*
...✍
जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको *नीच नर्तिकी  मत कह, ये अब मेरी गुरु बन गयी है क्योंकि इसने दोहे से मेरी आँखें खोल दी हैं* । दोहे से यह कह रही है कि *मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ,* भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।
...✍
*राजा की लड़की* ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस *नर्तकी के दोहे ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"*
...✍
*युवराज ने कहा -* "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस *नर्तकी के दोहे ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"*
...✍
जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैंसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।
...✍
*यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा -* "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा नृत्य  बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी ।"

*Same implements on us at this lockdown*
*"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताई ।*
*एक पल के कारने, ना कलंक लग जाए ।"*
 आज हम इस दोहे को यदि हम  कोरोना को लेकर अपनी समीक्षा करके देखे तो हमने पिछले 22 तारीख से जो संयम बरता, परेशानियां झेली ऐसा न हो हमारी कि अंतिम क्षण में एक छोटी सी भूल,हमारी लापरवाही,हमारे साथ पूरे समाज को न ले बैठे।
आओ हम सब मिलकर कोरोना से संघर्ष करे ,  *घर पर रह सुरक्षित रहे व सावधानियों का विशेष ध्यान रखें।

*👍
   🙏🙏🙏🙏


राधास्वामी








जिन  प्रेम  कियो, तिन  ही  प्रभ  पाओ।।
जिस  इंसान  मे  मालिक  से  मिलने  की  सच्ची  तड़प  होती है  प्रेम, सनेह और  प्यार  होता  है  मालिक  उसे  आप  दर्शन  देने  आते  हैं।




*अाती-जाती सासों से, जब सिमरन नाम का होता है।*
 *जन्म-जन्म के पाप हमारे, सतगुरू प्यारा धोता है!!*
*फिक्र मत कर बन्दे कलम सतगुरु के हाथ है*
*लिखने वाले ने लिख दिया तकदीर तेरे साथ है*
*फिक्र तूं करता है क्यों, फिक्र से होता है क्या*
*रख सतगुरु पे भरोसा, देख फिर होता है क्या....*


 RADHA SOAMI JI


🙏🙏🙏🙏🙏


[28/04, 15:26] +91 75260 74910:

परम पिता परम गुरु हुजूर साहब जी महाराज द्वारा फ़रमाया गया बचन कि दुःख व तकलीफ के वक्त निम्न कड़ी को बार बार दोहराएं, अवश्य दया व मेहर मिलेगी-
प्यारी क्यो सोच करे प्यारे राधास्वामी तेरे सहाई।

🙏🙏🙏🙏



राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय।
।।।।।।।।



आज शाम 28/04 को शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन




प्रस्तुति - कृति शरण /सृष्टि शरण

राधास्वामी!! 28-04 -2020       
              
  आज शाम के सत्संग में पढा गया बचन
- कल से आगे

 -(121 )

जैसे यह एक सृष्टिनियम है कि इस संसार में जन्म लेने के लिए हर आत्मा को , चाहे वह कितना भी महान क्यों ना हो, मां बाप की शरण लेनी पड़ती है ऐसे ही यह भी एक सृष्टिनियम है कि हर जीवआत्मा को चाहे वह कितना ही बुद्धिमान क्यों ना हो, इस संसार से पार होने के लिए सतगुरु की शरण लेनी पड़ती है ।

 जो लोग यह विचार करने का हौसला करते हैं कि बिला सतगुरु की मदद से काम चला लेंगे उनको यह मालूम नही है कि जिन रुकावटों ने उनकी आत्मा को मन व माया की कैद में रोक रक्खा है उनको फतह करने के लिए उनकी शारीरिक और मानसिक शक्तियां बिल्कुल असमर्थ है।

 उन रुटावटो को सिर्फ आत्मशक्ति जीत सकती है और यह तभी जाग सकती है जब कोई कामिल पुरुष अंतर व बाहर मदद दे।

🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻

सतसंग के उपदेश- भाग तीसरा।




राधास्वामी!!

  28-04-2020-     

          

  आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-               
(1)                                                         
 (1) चल री स्रुत गुरु के देस, धर हिये अनुरागा।।टेक।। (प्रेमबानी-3-शब्द-15,पृ.सं.237)                                                                         

  (2) साँई मोहि नाम लगा भल तेरा।जिन मन बस कीन्हा मेरा।।टेक।। हार गया अस सर्ब रीति से जोर लगा बहुतेरा। पर मन निर्मल हुआ न कुछ भी। निज घट नेक न ठैरा।।(प्रेमबिलास-शब्द-106,पृ.सं.153)                                                                             

(3) सतसंग के उपदेश भाग तीसरा-कल से आगे।                 

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


विख्यात पत्रकार त्रिलोक दीप की यादों मे दिनमान



प्रस्तुति - दर्शनलाल


लॉकडाउन डायरीः अज्ञेय की पारखी दृष्टि ने पहचान था त्रिलोक दीप को

दिनमान के चौबीस सालों की बेशुमार यादें त्रिलोक दीप के ज़ेहन में आज भी जगमगाती हैं. वह बताते हैं कि दिनमान के प्रति अज्ञेय के दिमाग में एक शिशु की भांति ममत्व का भाव था, जिसके चलते वह दिनमान को एक बेहतर समाचार विचार की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित कर एक इतिहास रचना चाहते थे.

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aajtak.in
राजेंद्र शर्मा27 April 2020
लॉकडाउन डायरीः अज्ञेय की पारखी दृष्टि ने पहचान था त्रिलोक दीप कोअज्ञेय और त्रिलोकदीप सिंह
लॉकडाउन डायरी/राजेन्‍द्र शर्मा
किस्‍सा पचपन साल पहले का है. टाइम्‍स समूह के साहू शांति प्रसाद जैन और रमा जैन का सपना कि टाइम और न्यूज़वीक के स्तर की हिंदी में भारतीय कलेवर की साप्ताहिक समाचार पत्रिका का प्रकाशन किया जाए. इस सपने को मूर्तरुप दिया था सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने. इससे पहले अज्ञेय बर्कले विश्विद्यालय में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर की हैसियत से अमेरिका में थे. जिन्‍हें बातचीत की एक लंबी प्रक्रिया और उनकी शर्तें मानने के बाद दिनमान में बतौर संपादक लाया गया था. वर्ष 1965 में दिनमान का प्रकाशन शुरू हुआ.
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के लिये यह प्रतिष्‍ठा का प्रश्‍न था कि टाइम और न्‍यूजवीक के स्‍तर से दिनमान का स्‍तर निम्‍न न हो. इसके लिए अज्ञेय उस दौर के दिग्‍गज मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा,जवाहर लाल कौल,सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना को दिनमान में ले आये और आगे खोज जारी थी.
लोकसभा के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह के यहां अज्ञेय का आना जाना था. वही उनकी मुलाकात लोकसभा सचिवालय में बतौर हिंदी टाइपिस्‍ट की नौकरी कर रहे तीस बरस के त्रिलोक दीप से हुई.
अज्ञेय की अनुभवी और पारखी दृष्टि ने त्रिलोक दीप के भीतर बैठे पत्रकार को पहचान लिया था. उन्होंने त्रिलोक दीप को प्रेरित किया. अज्ञेय जैसे विद्वान की छत्रछाया पाने का अवसर त्रिलोक छोड़ना नहीं चाहते थे. लोकसभा सचिवालय की सरकारी नौकरी को छोड़कर त्रिलोक दीप एक जनवरी 1966 को दिनमान की संपादकीय टीम में शामिल हो गए और 1966 से 1989 तक दिनमान के संपादकीय विभाग में विभिन्न पदों पर तथा 1989 से 1995 तक संडे मेल साप्ताहिक के कार्यकारी संपादक तक रहे.
अपने जीवन के तीस साल तक राष्‍ट्रीय पत्रकारिता में सक्रिय रहने वाले चौरासी बरस के त्रिलोक इन दिनों गाजियाबाद में कौशम्‍बी में रह रहे है. त्रिलोक दीप पत्रकारिता से भले ही सेवानिवृत्‍त हो गए हैं परन्‍तु आज भी खूब पढ़ते हैं.
इन दिनों विष्णु नागर द्वारा कवि, संपादक रघुवीर सहाय की लिखी गयी जीवनी " असहमति में उठा एक हाथ " पढ़ रहे है. इस पुस्तक को पढ़ना उनके लिये अपनी स्मृतियों में लौटने जैसा है. ज्ञातव्य है कि रघुवीर सहाय के चौदह वर्षों तक दिनमान के संपादक रहने की काल अवधि में त्रिलोक दीप उनकी टीम के अहम सदस्य रहे.
कम्प्यूटर सीख नहीं पाए , इसका कोई मलाल भी नहीं है पर किसी के मोहताज रहना भी उनकी फ़ितरत में नहीं है. कौशम्बी ग़ाज़ियाबाद स्थित अपने घर के अध्‍ययन कक्ष में उनकी टेबल पर हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों टाइपराइटर मौजूद है जिस पर वह आज भी इतनी कुशलता से टाईप करते है जितनी कुशलता से पचास बरस पहले दिनमान के दस दरियागंज स्थित कार्यालय में अपनी रिपोर्टों को टाइप किया करते थे. जो मिला वह भी सही,जो नहीं मिला, वह भी सही को जीवन का सूत्र वाक्य मानने वाले त्रिलोकदीप को जिंदगी से कोई गिला नही, कोई शिकवा नही.
अपने जीवन के तीस साल राष्‍ट्रीय पत्रकारिता के क्षितिज पर रहे त्रिलोक के शुरुआती तीस साल कडे संघर्ष के रहे. ग्यारह अगस्त उन्नीसो पैंतीस में अविभाजित भारत की तहसील फालिया,ज़िला गुजरात ( अब पाकिस्तान ) में कारोबारी अमर नाथ के घर में जन्मे त्रिलोक दीप ने ग्‍यारह बरस की उम्र में देश विभाजन का दंश झेला.
बतौर शरणार्थी बस्ती जनपद में रहने के बाद वर्ष 1949 में रायपुर में डेरा जमाया. तीन वर्ष बाद ही पिता का साया सर से उठने के बाद रायपुर के वन संरक्षण विभाग में नौकरी की. उधर वर्ष 1956 में लोकसभा सचिवालय में हिंदी टाइपिस्‍ट की वैकेंसी निकली. त्रिलोक दीप ने एप्लाई किया और बतौर हिंदी टाइपिस्ट उनका चयन हो गया. इस तरह अंतिम रूप से ज़िंदगी का पड़ाव दिल्ली साबित हुआ.
दिनमान के चौबीस सालों की बेशुमार यादें त्रिलोक दीप के ज़ेहन में आज भी जगमगाती हैं. वह बताते हैं कि दिनमान के प्रति अज्ञेय के दिमाग में एक शिशु की भांति ममत्व का भाव था, जिसके चलते वह दिनमान को एक बेहतर समाचार विचार की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित कर एक इतिहास रचना चाहते थे. उस दौर में पत्र पत्रिकाओं के पास आज जैसी तकनीक नहीं थी, कम्प्यूटर नहीं था, गूगल नहीं था , मोबाईल , बढ़िया कैमरे नहीं थे. हैंड कम्पोजिंग का जमाना था किंतु तमाम दुश्वारियों को ठेंगा दिखाते हुए संपादक अज्ञेय एक एक स्टोरी को स्वयं देखते थे , यह उनका पैशन था.
रिपोर्टर स्टोरी तैयार करता और स्टोरी संपादक के कक्ष में भेजी जाती. संपादक अज्ञेय स्टोरी पढ़ रहे हैं और बाहर बैठे रिपोर्टर की सांसें रूकी हैं कि उसकी स्टोरी में कितनी काट पीट अज्ञेय जी करते है. जिस स्टोरी में जितनी कम काट पीट होती , उससे पांच गुना खुशी रिपोर्टर को होती. वह स्वयं ही अपनी पीठ आज के दौर के इस जुमले से ठोंकता कि पप्पू पास हो गया.
ऐसा भी नहीं था कि अज्ञेय जी शाबाशी न दें. पीले रंग के काग़ज़ पर लिखने के शौक़ीन अज्ञेय जी ऐसे जीवन्त संपादक थे कि अधीनस्थो की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते और यदि कोई उनकी प्रशंसा करें तो बस मुस्करा दिया करते.
दिनमान से अज्ञेय का लगाव इस कदर था कि वह क्राइम की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर से कला और संगीत समारोह की और कला और संगीत की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर से रक्षा और विदेशी मामलों की रिपोर्टिंग करा लिये करते. इसमें अधीनस्थो के लिये यह संदेश छिपा था कि कोई इस ग़लतफ़हमी को अपने दिमाग़ में न पालें कि उसके बग़ैर कोई काम रूक जाएगा. यह थी उनकी प्रशासनिक क्षमता.
अज्ञेय के प्रति अपनी श्रद्धा का इज़हार करते हुए त्रिलोक दीप बताते कि अज्ञेय के मस्तिष्क में हर समय, हर पल कुछ न कुछ रचनात्मकता विराजती रहती. अपनी ही खींचीं गई लकीर से बड़ी लकीर खींचने की ज़िद्द उनकी धुन थी. ग़जब यह कि उनके शांत,सौम्य और मुस्कुराते मुख से कोई जान ही नहीं पाता कि भीतर क्रियेविटी का ज्वार भाटा किस वेग से उफान मार रहा है, इस उफान को मूर्तरूप देना है.इसके लिये चाहे जो करना पड़े,करेगें,यह खुद से संकल्प था संपादक अज्ञेय का । वह बताते हैं कि गोवा के आज़ाद होने पर आल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने गोवा में महा सम्मेलन कराया.
संपादक के नाते वह किसी रिपोर्टर को भेज सकते थे पर नहीं , इस सम्मेलन को उन्होनें बतौर रिपोर्टर कवर किया और ग़ज़ब की रिपोर्टिंग की ,जिसे पढ़कर फणीश्वर नाथ रेणु ने अचम्भित होते हुए कहा कि ''भाई , आप बड़े साहित्यकार हो, चित्रकार हो , फ़ोटोग्राफ़र हो, कवि हो , विचारक हो यह तो जानता था परंतु इतने ग़ज़ब के रिपोर्टर भी हो, यह अब जान पाया हूं.''अज्ञेय शांत , सिर्फ़ मंद मंद मुस्करा दिए.
ऐसे संपादक के निर्देशन में काम करने के मिले अवसर को त्रिलोक अपने जीवन की थाती मान खुश होते हैं. वह बताते हैं कि एक बार अज्ञेय ने उन्हें दो तीन प्वाइंट बताते हुए राजस्थान के उस समय के मुख्यमंत्री मोहन लाल सुखाडिया का इंटरव्यू करने के लिए कहा. प्रतिबंध यह रखा कि इंटरव्यू एक पेज में ही होना चाहिए.
बहरहाल इंटरव्यू किया गया ,एक एक शब्द से नक़्क़ाशी करते हुए इस तरहा ड्राफ़्ट किया कि एक पेज में ही आ जाएं. टाईप कर संपादक अज्ञेय की टेबुल पर भेज बाहर बैठ गए. सांसें रूकी थीं, प्यास लगी थी पर पानी पीने की इजाज़त मन की यह दुविधा नहीं दे रही थी कि पता नहीं संपादक जी कितना पोस्टमार्टम करेंगे. थोड़ी देर बाद संपादक की स्वीकृति सहित इंटरव्यू की प्रति बाहर भेजी गई. जिसमें मात्र एक शब्द को सही किया गया था. मन बाग बाग हो गया ,बिना पानी पिए ही गला संतोष से तर हो गया. यह थी उस दौर के संपादक और रिपोर्टर की प्रतिबद्धता.
1965 में प्रारंभ हुआ दिनमान अज्ञेय के संपादन में 1969 तक आते आते एक समाचार विचार की पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुका था. 1969 में अज्ञेय ने दिनमान से विदा ली और अशेष बड़ी लकीर खींचने विदेश चले गए. उस समय नवभारत टाइम्स के विशेष संवाददाता के पद पर काम कर रहे कवि रघुवीर सहाय को दिनमान के संपादक का कार्यभार सौंपा गया.
उधर हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक रामानन्द दोषी का निधन हो गया. मनोहर श्याम जोशी दिनमान छोड़ साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक हो गए. त्रिलोक दीप बताते हैं कि सहाय भी अपने पूर्वाधिकारी की तरह तटस्थ रिपोर्टिंग के पैरोकार, अंतर बस इतना कि रघुवीर सहाय समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध.
इसके अलावा एक बात यह भी कि कवि के साथ साथ उनका फ़ील्ड रिपोर्टिंग का अनुभव गहन था. वह चाहते थे कि मंगलवार को दिनमान का जो अंक आयें ,उसमें राष्ट्रीय , अंतराष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर की कम से कम रविवार तक हुई घटनाओं की रिपोर्टिंग ज़रूर होनी चाहिए. चौदह साल तक रघुवीर सहाय दिनमान के संपादक रहे और दिनमान को उस मुक़ाम तक ले गए कि सातवें दशक के अनेकों आई.ए.एस /आई.पी.एस ऐसे मिल जाएंगे जो आज भी स्वीकार करते हैं कि करेंट अफ़ेयर की तैयारी उस समय उन्होंने दिनमान से ही की थी.
किसी साप्ताहिक पत्रिका को शिखर पर ले जाने का काम आसान नहीं था. दिनमान को दिनमान बनाने में संपादक के साथ साथ संपादकीय टीम के सदस्यों के सरोकार , उन सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, हर समय कुछ नया करने की कोशिश और इस कोशिश को धरातल पर उतारने का जज़्बे की बड़ी भूमिका थी.
इस टीम में राम सेवक श्रीवास्तव जो कवि थे किंतु प्रादेशिक खबरो पर उनकी खासी पकड़ थी. राजनैतिक मामलों पर जवाहर लाल कौल जैसी राजनैतिक समझ विरले पत्रकारों की हुआ करती है. योगराज थानी खेल कूद की दुनिया में बेताज बादशाह माने जाते थे और उनके कॉलम को उनके प्रशंसक उसी चाव से पढ़ते थे जैसे सर्वेश्वर जी के चरचे और चरखे को. नारी जगत और दुनिया भर की कॉलम पर शुक्ला रुद्र की पैनी दृष्टि की भी काफी चर्चा हुआ करती थी.
हैदराबाद से कल्पना की संपादकी के दौरान ही प्रयाग शुक्ल कला मर्मज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके थे , जो दिनमान के शुरुआत से टीम के महत्वपूर्ण सदस्य थे. प्रयाग शुक्ल को न केवल पेंटर्स अपितु आर्ट गैलरियों के संचालक, आयोजक बहुत सम्मान देते.
त्रिलोक दीप अपनी स्मृतियों को टटोलते हुए बताते हैं कि उस समय प्रयाग जी के साथ नाटकों को देखने , कला गैलरी में पैंटर्स द्वारा पेंटिंग करने और विदेशी दूतावासों की पार्टियों का लुत्फ़ उनके भाग्य में रहा है. रघुवीर सहाय के समय में कवि, चित्रकार विनोद भारद्वाज और नेत्र सिंह रावत के दिनमान में आने पर यह तिकड़ी बन गयी, जिनकी कला संस्कृति , अंतराष्ट्रीय सिनेमा पर ग़ज़ब की पकड़ थी.
अठारह साल की उम्र में लखनऊ में ''आरंभ'' पत्रिका का प्रकाशन कर विनोद भारद्वाज ने इतिहास रच दिया था. प्रयाग जी की तरह ही विनोद भारद्वाज की भी कला व साहित्यिक जगत में गहरी पैठ थी. आधुनिक विचार के कॉलम पर उनका एकाधिकार था. त्रिलोकदीप बताते हैं कि वह पढ़ाकू तबियत के गंभीर व्यक्ति हैं लेकिन मुझ से तभी खुलते थे जब मैं उनसे पंजाबी में बात करता था.
मैं जानता था कि वह पंजाबी ब्राह्मण हैं. फिल्मों पर भी विनोद भारदवाज की अच्छी पकड़ थी और फिल्म फेस्टिवल वह और नेत्रसिंह रावत कवर किया करते थे. रावत के दूरदर्शन चले जाने के बाद विनोद भारदवाज इस काम को पूरी तरह से अंजाम देने लगे. इस सिलसिले में रूस के पिट्सबर्ग भी गए थे और अपनी अलग पहचान स्थापित की.
विदेशी सिनेमा पर जब वह वहां के फिल्म निर्देशकों से घंटो बात करते तो वह चकित हो जाते. जब रघुवीर सहाय ने दिनमान की संपादकी संभाली तो वह अनुपम मिश्र को लाना चाहते थे लेकिन अनुपम जी उन्हें सुझाव दिया कि उनकी राजनीति में कोई रुचि नहीं बेहतर हो आप बनवारी जी को राज़ी कर लें.
कभी अनुपम मिश्र और बनवारी मिलकर दिनमान के लिए लिखा करते थे. बनवारी तब तक दिनमान में रहे जब तक रघुवीर जी रहे. उन्होंने दिनमान के लिए कई खोजपूर्ण और एक्सक्लूसिव संवाद लिखे थे जिनकी खूब चर्चा हुआ करती थी.
दिनमान के मालिकों से एक सैद्धांतिक विवाद के कारण 1983 में रघुवीर सहाय को दिनमान की संपादकी से हटाकर नवभारत टाईम्स की संडे मैगजीन का प्रभारी बनाया जिसकी परिणति रघुवीर सहाय के टाइम्स समूह से इस्तीफ़े के रूप में हुई.
दिनमान की संपादकी कवि , लेखक कन्हैया लाल नंदन को सौंपी गई. दिनमान जैसी समाचार पत्रिका का बेहतर संपादन नंदन के लिए दुरूह कार्य था. वह भी ऐसे हालात में जब पंजाब में आंतकवाद सर चढ़ रहा था. जवाहर लाल कौल , महेश्वर दयालु गंगवार. त्रिलोक दीप जैसे लोग जो दिनमान की पुरानी टीम के सदस्य थे ही के अलावा आलोक मेहता ,उदय प्रकाश ,संतोष तिवारी ,धीरेंद्र अस्थाना, जसविंदर को टीम में लाया गया.
पंजाब के आंतकवाद को कवर करने का सारा ज़िम्मा त्रिलोक दीप को इस गरज से सौंपा गया कि सिख हैं , आंतक के भयावह माहौल में अपने आप को सुरक्षित रखते हुए जितने भीतर तक जाकर त्रिलोक दीप कवर कर सकते हैं दूसरा कोई नहीं कर पाएगा. त्रिलोक दीप के लिए अनुभवी होने के बावजूद चुनौती थी जिसे त्रिलोक दीप ने शानदार ढंग से निभाया भी.
दिनमान के उस दौर के अंकों में पंजाब की रिपोर्टिंग एक ऐतिहासिक महत्व रखती है. उन दिनों त्रिलोक दीप सूत्रों से ज़रा सा भी सुराग मिलने पर संपादक को बिना बताये पंजाब चले ज़ाया करते थे , इसकी छूट नंदन जी ने ही उन्हें दी हुई थी. अमृतसर में संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और संत जनरैल सिंह भिंडरावाले और लंदन के पास रेंडिग में जगजीत सिंह चौहान का इंटरव्यू दिनमान में विशेष प्रचार के साथ छपे थे, जो त्रिलोक दीप ने ही किये थे. पंजाब के आंतकवाद की रिपोर्टिंग करने के क्रम में त्रिलोक दीप को जान की परवाह किये बिना रिपोर्टिंग करने का लगभग नशा सा हो गया था.
यह उनकी दीवानगी ही थी कि 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की हत्या होने पर दिल्ली पुलिस हैड क्वार्टर तथा तीनमूर्ति भवन , जहां श्रीमती का पार्थिव शरीर रखा गया था, वहां पहुंचने वाले वह एक मात्र सिख पत्रकार थे. एक नवम्बर को भी सुबह ही त्रिलोक रिपोर्टिंग के लिए निकल पड़े. दिन में जब वह तीनमूर्ति भवन पहुँचें तो अमिताभ बच्चन, राजीव गांधी के एक दम क़रीब खड़े थे. उस समय तक माहौल ख़राब हो चुका था.

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