Friday, April 17, 2020

दिनेश श्रीवास्तव की कविताएं





 दिनेश श्रीवास्तव: दिनेश कुण्डलिया
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        विषय- "योद्धा''

                        (१)


कहलाता योद्धा वही,तरकस में हों तीर।
धीर वीर गंभीर हो,जैसे थे रघुबीर।।
जैसे थे रघुबीर,राक्षसी वंश विनाशा।
उनसे ही तो आज,देश ने की है आशा।।
कहता सत्य दिनेश,न्याय का पाठ पढ़ाता।
सद्गुण से हो युक्त,वही योद्धा कहलाता।।

                         (२)

आओ अब तो राम तुम,योद्धा बनकर आज।
यहाँ'कॅरोना'शत्रु को,मार बचाओ लाज।।
मार बचाओ लाज,किए संग्राम बहुत हो।
वीरों के हो वीर,किए तुम नाम बहुत हो।।
करता विनय दिनेश,शत्रु से हमे बचाओ।
मेरे योद्धा राम!आज धरती पर आओ।।

                         (३)

करना होगा आपको,बनकर योद्धा वीर।
एक 'वायरस' शत्रु से,युद्ध यहाँ गंभीर।।
युद्ध यहाँ गंभीर,हराना होगा उसको।
एक विदेशी शत्रु,यहाँ भेजा है जिसको।।
'घरबंदी' का शस्त्र, हाथ मे होगा धरना।
लेकर मुँह पर मास्क,युद्ध को होगा करना।।

                       (४)


बनकर योद्धा राम ने,रावण का संहार।
जनक नंदिनी का किया,लंका से उद्धार।
लंका से उद्धार, युद्ध मे योद्धा बनकर।
हुई वहाँ पर लाल,रक्त से लंका सनकर।।
खड़े हुए थे राम,न्याय के पथ पर तनकर। 
और किया था प्राप्त,साध्य को साधक बनकर।।

                          (५)


 बैठे हैं जो आपके,मन में बने विकार।
योद्धा बनकर कीजिये, इनपर पहले वार।।
इनपर पहले वार,बड़े घातक होते हैं।
मन शरीर को नष्ट,करें,पातक होते हैं।।
 ये जो मनः विकार,आपके मन पैठे हैं।
 देना इनको मार,छुपे जो तन बैठे हैं।।

                       (  6)

               "तालाबंदी का विस्तार"

तालाबंदी का हुआ,कुछ दिन का विस्तार।
टूटेगा निश्चित यहाँ, जटिल संक्रमण तार।।
जटिल संक्रमण तार,तोड़कर दूर भगाना।
'सप्तपदी' की शर्त,हमे है यहाँ निभाना।।
कहता सत्य दिनेश,देश में छाई मंदी।
कितना मुश्किल काम,यहाँ पर तालाबंदी।।


                   
 
                 

एक गीत-

विषय-     "हिंद"

दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।

बना हिमालय रक्षक जिसका,
सागर है संरक्षक जिसका।
आओ इसका मान बढ़ाएँ,
इस पर अपना शीश झुकाएँ।

दो दो मेरे अपने नाम,इस पर हो जाएँ कुर्बान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-१

सतरंगा है देश हमारा,
जो मेरा है वही तुम्हारा।
घाटी घाटी पुष्प खिले हैं,
टूटे दिल भी यहाँ मिले हैं।

काश्मीर की घाटी तक है,फैला अपना यहाँ वितान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-२

कल कल करती नदियाँ बहतीं,
झंझावातों को हैं सहतीं।
झरनों के संगीत सुहाने,
मन करता है वहाँ नहाने।

सुंदरता का ताना बाना,कुदरत का है कार्य महान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-३

भिन्न भिन्न भाषा का देश,
इससे मिलता हमको क्लेश।
भाषा एक राष्ट्र की बिंदी,
वही हमारी प्यारी हिंदी।

भाषा एक राष्ट्र की अपनी,हिंदी का भी होता मान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिंद कहो या हिंदुस्तान।।-४

यहाँ देश में रंग अनेक,
रंग 'तिरंगा' केवल एक।
यहाँ एक है 'गान' हमारा,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।

सभी यहाँ पर मिलकर गाएँ, जन गण मन अधिनायक गान।
दोनो मेरे प्यारे नाम, हिंद कहो या हिंदुस्तान।।

                   

                      १५ अप्रैल १.१५ अपराह्न



एक गीत -

    "नीचे से मैं मरा हुआ"(मध्यम वर्ग)
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जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।
देता हूँ निर्भीक दिखाई,
अंदर से मैं डरा हुआ ।।

आगत और अनागत का डर,
हमको बहुत सताता है।
सपने बनकर नींद निशा में,
हमको बहुत रुलाता है।
बुझा हुआ अंदर से लेकिन,
ऊपर से मैं जला हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।



कुछ भी नहीं पास है मेरे,
कैसे अपना कर्ज चुकाऊँ।
जिम्मेदारी बोझ बड़ी है,
कैसे अपना फर्ज निभाऊँ।
नीचे से मैं बिल्कुल खाली,
लगता ऊपर भरा हुआ ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।


दिखने और दिखाने में ही,
जीवन मेरा बीत गया।
बाँट बाँट कर खुशियाँ अपनी,
बिल्कुल ही मैं रीत गया।
नीचे से  सूखा सूखा सा,
लगता ऊपर हरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।

सबसे पहले कठिन समय तो,
मेरे ही जिम्मे आता।
अधिकारों से वंचित होकर
ठोकर भी पहले खाता।
ऊपर से मैं संभला लगता
नीचे से मैं गिरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।


एक छंद

     विषय -" वात्सल्य"


           "बाल रूप प्रभु राम"

प्रेम और वात्सल्य का,ऐसा अद्भुत रूप।
दिखा अवध में जब वहाँ, प्रगट हुए जग भूप।।-१

शिव भी मोहित हो गए,देखा राम स्वरूप।
धूल धूसरित गात को,किलकत बालक रूप।।-२

धुटनों के बल रेंगते,गिरते- पड़ते राम।
हुआ तिरोहित शोक तब,देखा छवि अभिराम।।-३

कभी गोंद दशरथ चढ़े,कभी मातु के अंक।
कभी खेलते धूल में,कभी लगाते पंक।।-४

उठत गिरत सँभलत कभी,देखत छवि जब मात।
पोंछत आँचल से तभी,रेणु लगी जो गात।।-५

नज़र उतारत हैं सभी,दे काज़ल की दीठ।
मातु सुलाती गोंद में,थपकी देती पीठ।।-६

माँ की ममता का यहाँ, कौन लगाए बोल।?
कौन बणिक इस धरा पर,सकता  उसको तोल।।?-७

बोल तोतली देखकर,नन्हीं सी मुस्कान।
फीके सारे मंत्र हैं,व्यर्थ वेद के ज्ञान।।-८


कुण्डलिया छंद ---

विषय- नटखट


           "मेरे नटखट लाल"
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                      (१)

नटखट माखन लाल ने,फिर चोरी की आज।
सुनकर यशुमति को लगी,फिर से थोड़ी लाज।।
फिर से थोड़ी लाज,मातु को गुस्सा आया।
बाँध लला को आज,छड़ी को उन्हें दिखया।।
कहता सत्य दिनेश,बाँध दे जग को चटपट।
बँधे स्वयं भगवान,आज वो कैसे नटखट।।

                       (२)

जागो नटखट लाल अब,देखो!हो गई भोर।
गायें भी करने लगीं,तुम बिन अब तो शोर।।
तुम बिन अब तो शोर,बड़ी व्याकुल लगती हैं।
सुनकर मुरली तान,सदा सोती जगती हैं।।
कहता सत्य दिनेश, कर्म-पथ पर तुम भागो।
आलस को तुम छोड़,नींद से अब तो जागो।।

                    (  ३)

राधा ने चोरी किया,मुरली नटखट लाल।
बतियाने की लालसा,समझ गए वह चाल।।
समझ गए वह चाल,माँगते कृष्ण-कन्हैया।
मुस्काती यह देख,लला की यशुमति मैया।।
कहता सत्य दिनेश,कृष्ण तो केवल आधा।
तभी बनेंगे पूर्ण,मिलेंगी उनको राधा।।

                      (४)

आए नटखट लाल जब,यमुना जी के तीर।
चढ़े पेड़ ले वस्त्र को,गोपी भईं अधीर।।
गोपी भईं अधीर,किए नटखट तब लीला।
मन ही मन मुस्कात, गात जब देखें गीला।।
निःवस्त्र न हो स्नान,यही संकल्प कराए।
मेरे नटखट लाल,वस्त्र वापस दे आए।।

         

         वन अमूल्य
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 कुछ कुछ आज,
अहसास होने लगा है मुझे
जीवन-मूल्य का।
उन्हें देखकर
जो जेलों में बंद हैं,
पिंजड़े में बंद अपने तोते को देखकर,
उन शेरों को देखकर जो
चिड़िया घरों में कैद हैं।
सबको तो भोजन मिलता है,
मिलता है पानी और हवा भी,
उन्हें डॉक्टर भी और दवा भी,
फिर क्यों वो छटपटाते हैं
बाहर निकलने को-
अपने पिंजड़े और चिड़िया घरों से।
क्या स्वच्छंदता इतनी बहुमूल्य है?
क्या यह अतुल्य है?
फिर इसका क्या मूल्य है?
आज समझ आ गया और
जीवन  भा गया।
 जीवन और स्वच्छंदता का अंतर
आया समझ में।
 सत्य यही है कि-
जीवन का मूल्य
स्वच्छंदता के मूल्य से है
 अधिक मूल्यवान।
 क्योंकि-
  जीवन का अस्तित्व ही
होता है आधार
 समस्त पुरुषार्थों का।
आधार है वही-
सभी परमार्थों का।
बिना जीवन नहीं है
इनका कोई अर्थ।
सब कुछ है व्यर्थ।

फिर-
आइए!जीवन बचाएँ
जीवन देय नियमो को
अपनाएँ क्योंकि-
जीवन है अमूल्य।
इसका नहीं है-
कोई मूल्य।।


                 दिनेश श्रीवास्तव

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