Saturday, April 18, 2020

धार्मिक लोककथाएं धार्मिक प्रसंग




प्रस्तुति - कृष्ण मेहता:


\*🌺 भक्तमाल कथा भक्त नरवाहन जी 🌺👏🏻*

भगवान श्री कृष्ण के वंशी के अवतार श्री हितहरिवंश महाप्रभु जी को देवबंद मे स्वयं श्री राधाजी से निज मंत्र और उपासना पद्धति की प्राप्ति हुई । श्री राधा जी ने एक दिन महाप्रभु जी को स्वप्न मे वृन्दावन वास कीआज्ञा प्रदान की । उस समय श्री महाप्रभु जी की आयु ३२ वर्ष की थी । अपने पुत्रों और पत्नी से चलने के लिए पूछा परंतु उनकी रुचि किंचित संसार मे देखी । श्री महाप्रभु जी अकेले ही श्री वृन्दावन की ओर भजन करने के हेतु से चलने लगे । कुछ बाल्यकाल के संगी मित्र थे, उन्होंने कहा कि हमारी भी साथ चलने की इच्छा है – हम आपके बिना नही राह सकते । श्री महाप्रभु जी ने उनको भी साथ ले लिया । रास्ते मे चलते चलते सहारनपुर के निकट चिडथावल नामक एक गांव में विश्राम किया । स्वप्न में श्री राधारानी ने महाप्रभु जी से कहा – यहाँ आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण देवता विराजते है ।

उनके पास श्री राधावल्लभ लाल जी का बड़ा सुंदर श्रीविग्रह है – उस विग्रह को लेकर आपको श्री वृन्दावन पधारना है, परंतु उन ब्राह्मणदेव का प्रण है कि यह श्रीविग्रह वे उसी को प्रदान करेंगे जो उनकी २ कन्याओं से विवाह करेगा । उनकी कन्याओं से विवाह करने की आज्ञा श्री राधा रानी ने महाप्रभु जी को प्रदान की। महाप्रभु जी संसार छोड कर चले थे भजन करने परंतु श्री राधा जी ने विवाह करने की आज्ञा दी । महाप्रभु जी स्वामिनी जी की आज्ञा का कोई विरोध नही किया – वे सीधे आत्मदेव ब्राह्मण का घर ढूंढकर वहां पहुंचे । श्री राधारानी ने आत्मदेव ब्राह्मण को भी स्वप्न मे उनकी कन्याओं का विवाह श्री महाप्रभु जी से सम्पन्न करा देने की आज्ञा दी । आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह कहा से आया इसपर संतो ने लिखा है –

आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे , आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । उन पूर्वज ने कहा – हमे तो कुछ माँगना आता ही नही , आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही क्रिया कर के दीजिये । भगवान शिव ने कहा “तथास्तु “। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी है । कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे ।

भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व है , अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके है सो देना ही पड़ेगा । भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया । उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है । श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधा वल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये । कार्तिक मास में श्री वृन्दावन में महाप्रभु का पदार्पण हुआ, यमुना जी के किनारे मदन टेर नामक ऊंची ठौर पर एक सुंदर लाता कुंज मे कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को श्री राधावल्लभ जी को सविधि अभिषेक करके विराजमान किया और उनका पाटोत्सव मनाया ।

वृन्दावन में उस समय नरवाहन नाम के क्रूर भील राजा का आधिपत्य था। उसके पास कई सैनिक और डाकुओं की फौज थी, ये यमुना तटपर स्थित भैगाँव के निवासी थे । लोदी वंश का शासन सं १५८३ मे समाप्त हो जाने के बाद दिल्ली के आस पास कुछ समयतक अराजकता (केंद्र मे किसीका पक्का शासन न होना) की स्थिति रही थी । इस काल मे नरवाहन ने अपनी शक्ति बहुत बढा ली थी और सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था । आसपास के नरेश तो इनसे डरने ही लगे थे, दिल्लीपति बादशाह भी उससे भय खाते थे अतः इस क्षेत्र में कोई नही आता था । वृन्दावन उस समय एक घना जंगल था जहां हिंसक पशु रहते थे, जहां सूर्य की किरणें भी पृथ्वी पर नही आती थी।

दर्शन करने वाले भक्त दूर से ही उस वन को प्रणाम करते थे । श्रीचैतन्य महाप्रभु के कृपापात्र कुछ बंगाली सन्त यहाँ बसने की चेष्टा कर रहे थे, किन्तु डाकुओं के आतंक से यहाँ जम नही पा रहे थे । इसी काल मे सं १५९१ मे श्रीहित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभजी के विग्रह एवं अपने परिवार परिकरसहित वृन्दावन पधारे और ब्रजवासियों से भूमि लेकर श्रीवृन्दावन मे निवास करने लगे । नरवाहन के सेनापति ने एक दिन महाप्रभु जी को भगवान की सेवा करते देखा और सोचा कि कोई इस सघन वन में अपने परिवार सहित रहने वाला यह कौन व्यक्ति है ? ऐसे सघन वन मे कोई अपने परिवार सहित भजन करने क्यों आएगा? यहाँ क्या उसे प्राणों का भय नही है ? क्रोध में भरकर सेनापति उनके निकट गया परंतु निकट आने पर सेनापति का क्रोध शांत हो गया, उसने परम शांति का अनुभव किया । सेनापति ने जाकर यह बात नरवाहन को बताई ।

सेनापति ने कहा – महाराज ! एक सद्गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार ,धन संपत्ति और भगवान का श्रीविग्रह लेकर ऊंची ठौर पर बसने आया है । नरवाहन ने कहा – क्या तुम बुद्धिहीन हो, की तुम्हे इतना भी नही पता की ऐसे सघन वन मे कोई धन संपत्ति लेकर क्यो आएगा जहां हमारे सैनिको द्वारा उसके धन को छीना जा सकता है ? जिस वैन में हमको भी सशस्त्र जाना पड़ता है, उस वन मे क्या कोई भजन करने आएगा? वो कोई संत नही है , वो तो दिल्लीपति बादशाह का कोई गुप्तचर (जासूस) होगा । हमारे बल की थाह पाने आया होगा। तुमने उसे यहां से बाहर निकाला क्यो नही ? सेनापति ने कहा – मै सशस्त्र क्रोध मे भर कर गया तो था परंतु वह इतना सुंदर है कि उसके निकट जाते ही मेरा क्रोध चला गया , मै कुछ कहने सुनने की स्तिथि में नही रह पाया । नरवाहन क्रोध में भरकर सशस्त्र सैनिको के साथ मदन टेर पर पहुंचे , उस समय महाप्रभु जी मुख्य द्वार की ओर पीठ करके बैठे हुए थे और अपने परिकर के साथ दिव्य वृन्दावन के स्वरूप की चर्चा कर रहे थे ।

नरवाहन ने अभी महाप्रभु जी के मुख का दर्शन भी नही किया था, केवल महाप्रभु जी पीठ का दर्शन करते ही सम्मोहन से हो गया । हाथ से तलवार छूट गयी और उस दिव्य चर्चा को सुनता ही रह गया । आंखों से झरझर अश्रुओं की धार बह रही थी ।
महाप्रभु जी ने घूम कर नरवाहन को देखा और उस समय नरवाहन को ऐसा लग रहा था कि वे किसी घोर निद्रा से धीरेधीरे जाग रहे है और उनके चारो ओर एक अद्भुत प्रकाश फैलता जा रहा है, जौ अत्यन्त सुहावना और शक्तिदायक है । इनके हृदय मे निर्वेद का भाव उठने लगा और इनको आपने पिछले हिंसापूर्ण कृत्योंपर पश्चात्ताप होने लगा । महाप्रभु जी ने कहा – मूर्ख ! निरंतर कुत्सित क्रूर कर्म करने से तेरी बुद्धि लार आवरण पड़ा है । ये देख , वृन्दावन के राजा रानी तो यहाँ बैठे है । एक बार इस रूप सुधा का पान तो कर । श्री हिताचार्य ने इनकी ओर करुणार्द्र दृष्टि से देखा और महाप्रभु जी की कृपा से श्री राधा कृष्ण और दिव्य वृन्दावन के साक्षात दर्शन हो गए । इन्होने अपना मस्तक महाप्रभु जी के चरणों मे रख दिया ।

नरवाहन ने श्री हिताचार्यं से अपनी शरण मे लेने की प्रार्थना की । महाप्रभु ने इनको दीक्षा दे दो और भविष्य मे सम्पूर्ण क्रूर-कर्मो को छोड़कर वैष्णवजनोचित आचरण करने के आज्ञा दी । इसके बाद इनको उपासना का स्वरूप बताया और गुरु, इष्टधाम की महिमा समझायी । नरवाहनजी ने अपनी गढी मे वापस पहुँचकर वहाँ का सम्पूर्ण वातावरण बदल दिया और सेवा मे अपना सारा समय लगाने लगे । लूट-पाट बन्द कर देने से अब इनके तथा इनके आश्रित कर्मचारियों की जीविका का साधन खेती और कर वसूली ही रह गया था । उस समय यमुना जी के मार्ग से व्यापार होता था । वृंदावन क्षेत्र से गुजरने वाले जो मालवाहक नौका होते थे, ये लोग उनसे थोड़ा सा कर (टैक्स) लेकर जाने देते थे । लूटपाट बंद हो गयी थी । इनके आचरण-परिवर्तन कि सूचना चारों ओर फैल गयी थी ।

कुछ ही दिन बाद, एक जैन व्यापारी कई नावों मे बहुमूल्य सामान लादे हुए यमुनाजी मे दिल्ली से आगरा की ओर यात्रा कर रहा था । व्यापारी ने कई बजरों (बडी नावों ) में अपने साथ बन्दूकों से सुसज्जित सैनिक तैनात कर रखे थे जिस कारण किसी को कर ना देना पड़े । नरवाहन जी के कर्मचारियों को ऐसे लडाकू व्यापारी के आने की पूर्व सूचना मिल चुकी थी और उन्होंने भी अपने सैनिक बुला लिये थे । कर मांगने पर व्यापारी ने मना किया, नरवाहन जी के सैनिकों ने बहुत समझाया पर वह व्यापारी समझा नही और अंत मे व्यापारी ने बन्दूकों से लडाई छेड़ दी । इधर से भी बन्दूके चलने लगी और उसके सशस्त्र बज़रे डुबा दिये गये ।उसके नीच व्यवहार के कारण नरवाहन जी के सैनिकों ने नावों का माल लूटना पड़ा और व्यापारी को बन्दी बना लिया । इस युद्ध मे दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गये और यमुना जी का जल रक्त-रंजित हो गया ।

इनके सैनिकों ने बन्दी व्यापारी एवं उसके तीन लाख मुद्रा के सामान को ले जाकर नरवाहन जी के सामने प्रस्तुत किया । युद्ध का वृत्तान्त सुनकर नरवाहन का मन खिन्न हो उठा और उनको उस व्यापारीपर क्रोध आ गया । ब्रजवासियों की हत्या करने और यमुना जी को रक्त रंजित करने के कारण इन्होंने आज्ञा दी कि उसको हथकडी – बेडी में जकडकर कारागार (जेल) मे डाल दिया जाय और जबतक वह इतना ही धन घर से मंगाकर दंड की भरपाई न कर दे तबतक उसको छोडा न जाय । आब व्यापारी के पास जितना धन था वह सब लूट चुका था, उसके पास दंड की भरपाई करने के लिए धन बचा नही था । नरवाहन जी की एक दासी उस समय वही उपस्थित थी । व्यापारी तरुण और सुन्दर था ।

उस तरुण व्यापारी को देखकर दासी के मन मे करुणा आ गयी । वह उसकी मुक्ति का उपाय सोचने लगी । व्यापारी को कारागार मे बन्द हुए कई महीने हो गये, किंन्तु वह अपने घरसे धन न मँगा सका । नरवाहनजी के कर्मचारियों ने कुछ ही दिनों मे उसे फाँसीपर लटकाने की योजना बना रखी थी और नरवाहन जी के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे । दासी को जब इसकी सूचना मिली तो वह घबडा उठी । वह सोचने लगी कि इससे जो भूल होनी थी सो हो गयी, यदि इसकी मृत्यु हो गयी तो इसके परिवार वालो का क्या होगा? अभी तो यह जवान है और इसको जीवन का बहुत सारा भाग देखना बाकी है । एक दिन अर्द्धरात्रि के समय कारागार के द्वारपर जाकर उसने सोते हुए व्यापारी को जगाया । दासी ने उससे कहा कि तुमको शीघ्र ही फाँसीपर लटकाये जाने की बात चल रही है । व्यापारी घबड़ाकर दासी से अपनी जीबन-रक्षा का उपाय बताने की प्रार्थना करने लगा । दासी ने कहा – तुम्हारे बचने का एक मंत्र मै तुझको बताती हूँ ।उसने व्यापारी के गले मे तुलसी कंठी बांध दी औरे राधावल्लभी तिलक उसके मस्तक पर लागा दिया ।

दासी ने कहा कि “श्री राधावल्लभ -श्री हरिवंश, राधावल्लभ -श्री हरिवंश ” इस नाम की प्रात:काल ब्राह्म वेला मे धुन लगा देना । इस नाम को सुनकर नरवाहन जी स्वयं दौडे हुए तेरे पास आ जायेंगे । जब कुछ पूछेंगे तब तुम उनसे यह कहना मै श्री हरिवंश जी का शिष्य हूँ तब वे अपने हाथसे तेरी हथकडी खोल देंगे और तुझे तेरा सम्पूर्ण धन वापस देकर तुझे आदरपूर्वक विदा कर देंगे । दासी के जाने के कुछ देर बाद ही व्यापारी ने पूरी शक्ति से श्री राधा वल्लभ श्री हरिवंश नाम की धुन लगा दी । नरवाहन जी उस समय नित्य दैनिक कर्म कर रहे थे । वे श्रीहरिवंश नाम सुनते ही दौडे हुए कारागार मे आये और देखा कि व्यापारी दीन हीन अवस्था मे पड़ा है और रो रो कर” राधावल्लभ श्री हरिवंश” जप रहा है । व्यापारी से पूछा कि तुम कौन हो ?ये तुम किसका नाम लेते हो? उसने दासी के कहे अनुसार कह दिया कि मै श्री हरिवंश महाप्रभु का शिष्य हूं, कुछ दिन मे मृत्यु को प्राप्त होने वाला हूं । सोचा कि मरने से पहले अपने इष्टदेव और गुरुदेव का स्मरण कर लूं । यह सुनकर कि वह श्री हरिवंशजी का शिष्य है, नरवाहन कांप गए और उससे क्षमा माँगने लगे ।

प्रात: होते ही इन्होंने व्यापारी को स्नान कराकर उसको नवीन वस्त्र पहनाया तथा उसका पूरा धन वापस दे दिया । चलते समय इन्होंने व्यापारी को दण्डवत्-प्रणाम करके उसकी रक्षाके लिये अपने सेवक उसके साथ कर दिये । उस दासी से व्यापारी ने पूछा – आपने मुझे किसका नाम दिया था? केवल छल और लोभ से मैने जिनका नाम लिया , जिनका नाम लेने से मृत्यु टल गई – वे कौन है ? क्या उनके दर्शन हो सकते है ? दासी ने कहा की श्री हरिवंश महाप्रभु मदन टेर पर विराजते है। उसने जाकर श्री हरिवंश जी महाराज के दर्शन किये और अपना सारा द्रव्य उनके चरणों मे समर्पित कर दिया । उसने अत्यन्त दीनता पूर्वक महाप्रभुजी से प्रार्थना की कि आपका मंगलमय नाम कपटपूर्वक लेने से ही मेरी प्राण-रक्षा हो गयी । अब आप मुझे दीक्षा देकर मेरे इस नये जन्म को कृतार्थ कर दीजिये । महाप्रभुजी ने उसका आग्रह देखकर उसको दीक्षा तो दे दी, किंतु उसका धन स्वीकार नही किया तथा व्यापारी को श्रीहरि हरिजन की सेवा करने का आदेश देकर विदा कर दिया ।

नरवाहन जी का नियम था कि महाप्रभु जी का दर्शन करके ही अन्न जल ग्रहण करते थे । उस व्यापारी के जाने के ३ दिन बाद भी नरवाहन, महाप्रभुजी के दर्शन करने नही आये । नरवाहन बड़ी ग्लानि में था कि किस मुख से गुरुदेव के सन्मुख जाऊं? मैने गुरु चरणो की साक्षी मे प्रण लिया था कि कभी जीव हिंसा नही करूँगा । यदि मै अपने गुरु भ्राता को प्राण दंड दे दिया होता तो कैसा अनर्थ हो जाता ? निर्जल निराहार पश्चाताप करते हुए नरवाहन महल मे पडे थे । तीसरे सिन महाप्रभु जी ने नरवाहन को सामने उपस्थित होने की आज्ञा दी । नरवाहन कांपते हुए दृष्टि नीचे करके महाप्रभु जी के सामने उपस्थित हुआ । जैसे ही नरवाहन ने दंडवत करने झुके, आज महाप्रभु जी ने नरवाहन को झुकने नही दिया और उन्हे अपने हृदय से लगा लिया ।महाप्रभु जी ने कहा – नरवाहन ! तुमने बिना सत्य जाने इतना बड़ा निर्णय ले लिया । केवल उस व्यापारी के मुख से मेरा नाम सुनते ही उसको छोड दिया । तुम्हारे जैसी गुरुभक्ति किसमे होगी ? नरवाहन जी की अद्भुत गुरुनिष्ठा से प्रसन्न होकर श्री हिताचार्य ने अपनी वाणी मे उनके नामकी छाप दे दी । ये दोनों पद हित चौरासी मे संकलित है ।

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________सुन्दरकाण्ड_

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नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥

भावार्थ:-अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े॥4॥

 उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान्‌ की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥

 अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

भावार्थ:-वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥

श्रीहनुमानजी का लंका प्रवेश और उसकी शोभा... 🙏

प्रस्तुति - कृष्ण मेहता: *_🌴💫

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*_‼" #श्रीभरत_चरित्र_कथा  "  [ 05 ] ‼_*

#श्रीरामचरितमानसकार - गोस्वामी #श्रीतुलसीदासजी कहते हैं कि जिसकी भक्ति का एक अंश देकर मुनिगण और मिथिलाधिपति विदेहराज जनक प्रेममग्न हो गये , उन भरतलालजी की महिमा हम कैसे कहें ? भरतलाल की भक्ति को इससे अधिक महत्ता और कैसे मिल सकती थी । श्रेष्ठ मुनिगण उनके प्रभाव में हैं । ज्ञानी विदेहराज जनक उनकी भक्ति के सामने अपना सारा ज्ञान भूल बैठे हैं ।

गोस्वामी #श्रीतुलसीदासजी की बुद्धि स्वयं भरतलाल की भक्ति से भीग उठी है । इन सबसे जहाँ भरतलाल के भाव की पवित्रता का हमें पता चलता है , वहीं यह भी हम देखते हैं कि रामजी उनके प्रति कितने कृपालु हैं । भक्ति और कृपा का यह अनोखा संगम हम भरतलाल और श्रीरामजी के बीच पाते हैं । भरतलाल की भक्ति ऐसी है , जो अपने को हमेशा राम के चरणों में झुकाये रहना चाहती है । राम की कृपा ऐसी है , जो भरतलाल को हमेशा अपने हृदय में बिठाये रहना चाहती है । एक - दूसरे के प्रति दोनों का यह विमल भाव उनके सम्बन्धों का मूलाधार है ।

श्रीरामजी की आज्ञा को सिर - माथे धरकर जब भरतलाल अयोध्याजी चलने की तैयारी करते हैं तो राम से कहते हैं कि अब मैं आपको छोड़कर जा रहा हूँ , लेकिन  आपके बगैर नहीं रह सकता । भगवान् की छवि देखे बगैर भक्त कैसे जी सकता है ! भक्तों के प्रति करुणा प्रदर्शित करने के लिए ही निर्गुण प्रभु सगुण - साकार बनते हैं । इसीलिए भरतलाल कुछ ऐसा चाहते हैं कि जो रामजी का प्रतीक बनकर उनके पास रहे ।

_सो अवलंब देव मोह देई ।_
_अवधि पारु पावाँ जेहि सेई ॥_

-- आप मुझे सहारा दें , जिसकी सेवा कर मैं चौदह वर्ष का समय काट सकूँ।

 भक्त बिना अवलम्ब के नहीं जी सकता ; लेकिन सहारा प्रभुजी का होना चाहिए। उसे अपनी आँखों से जिसमें प्रभु की छवि दिखाई दे , ऐसी कोई चीज मिलनी चाहिए । भक्त जब प्रभु का कोई चिह्न पा जाता है तो वह अपने प्राणों को उनमें अटकाकर रखता है । जिनका जीवन प्रभु को समर्पित हो जाता है , वे अहंहीन हो जाते हैं। बिना किसी अहंभाव के आदमी जी नहीं सकता । यदि उसके भीतर कोई इच्छाभाव न रह जाये तो वह जी नहीं सकेगा ।
भरतलालजी में कोई अहंभाव नहीं था । वह केवल एक ही भाव अपने जीवन को बचाये रखने के लिए बनाकर रखे थे कि उन्हें 14 चौदह वर्ष बाद प्रभु का दर्शन करना है । इतने दिनों तक शरीर में प्राण को टाँग रखने के लिए उन्हें कोई सहारा चाहिए था । इसीलिए राम से वह  उसे माँग रहे थे । राम ने अपनी चरण - पादुका देकर भरतलाल को सर्वोत्तम सहारा दे दिया । भक्त के लिए भगवान् के चरण के प्रतीक से बढ़कर कुछ नहीं होता ।



_भरत राम गुन ग्राम सनेहू ।_
_पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू ॥_


-- भरत और राम के गुणों और प्रेमभाव को देखकर पुलकित होकर विदेह राजा जनक प्रशंसा कर रहे हैं ।

यहा राजा जनक को "विदेह" कहकर बड़ी ऊँची बात कही गयी है । वे देह में रहकर भी देह से ऊपर हैं । सांसारिक सम्बन्धों की तीव्रता उन्हें विकल नहीं करती है । ज्ञान में ही वे डूबे रहते हैं । जिसके पास देहभाव न हो तो वह भक्ति के भाव को कैसे समझ पायेगा ? भक्ति तो इन्द्रियों का पूर्ण जागरण है । प्रभु के प्रति उनकी संवेदना बड़ी प्रखर हो जाती है । ज्ञान में इन्द्रियाँ संकुचित रहती हैं । उनकी संवेदना आत्मतत्त्व को समर्पित होती है। उन्हें अनुभव उत्तेजित ही नहीं करे । राजा जनक ऐसे ही परम ज्ञानी थे । उन्हें इसीलिए विदेह कहा जाता था ।

राम और भरतलाल के सामने वे भी झुक गये । दोनों के गुण और एक - दूसरे के प्रति प्रेमभाव जनक की इन्द्रियों को छूने लगे । उनका स्वभाव वापस लौट आया । वे चटोरी हो गयीं । राजा ने  केवल सुख का अनुभव ही नहीं किया , उनका मुखर उल्लेख भी करने लगे । यदि विदेहराज जनक ढोंगी ज्ञानी होते तो इन्द्रियों की मनमानी के बावजूद चुपचाप अपने ज्ञान की गरिमा बचाने के लिए मुँह बन्द किये बैठे रहते । लेकिन उनका ज्ञान सत्यनिष्ठ था । वह सत्य को छिपाने में कोई गौरव नहीं देखते थे । उन्होंने पुलकित होकर राम और भरतलाल का गुण गाना आरम्भ कर दिया । जनक की यह उमंग हमें भक्तिभाव की गरिमा का बोध कराती है । यदि भक्त हृदय की गहराई से आवाज लगाये तो ज्ञानी - ध्यानी सभी उसकी ओर खिंचे चले आते हैं ।


_" कुण जाने रे श्याम धणी थारी लीला न्यारी रे,_
_तीन लोक रो नाथ साँवरों बन गयो हारी रे।_

_मैं तो हूँ भक्तन को दास भक्त मेरे मुकुट मणि,_
_मोको भजें भजूँ मैं उनकूँ हूँ दासन को दास।_
_सेवा करें करूँ मैं सेवा हो सच्चा विस्वास,_

_पग चापूँ और सेज बिछाऊँ नोकर बनूँ हजाम,_
_हाकूँ बैल बनूँ गड़वारौ बिनु तनख्वाह रथवान।_
_अपनो परन बिसार भगत को पूरो परन निभाऊँ,_
_साधु याचक बनुं कहे तो बेके तो बिक जाऊँ।_

_और का कहूँ धणी, मैं तो भक्तन का दास,_
_कुण जाने रे श्याम धणी थारी लीला न्यारी रे,_
_तीन लोक रो नाथ साँवरों बन गयो हारी रै।
।।।
"_

बृहस्पति इन्द्र से कहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि तो नही बिगड़ी? एक दिन जाकर प्रभु से बोलते थे प्रभु संकट दूर करो, तुम्हारे संकट का हरण करने प्रभु बन में आये है, तुम उनके भक्त के सामने संकट खड़े करते हो?

प्रभु के भक्त के साथ कोई अपराध करता है फिर प्रभु उसे स्वीकार नही करते "राम सदा सेवक रूचि राखी" बृहस्पति ने प्रमाण दिया है, भगवान अपने श्री मुख से स्वयं भरतजी को क्या प्रमाण दे रहे हैं? चित्रकूट की सीमा पर जब श्री भरतजी का प्रवेश हुआ हैं।

लक्ष्मणजी ने बहुत क्रोध में बोला है, भगवान सहन नही कर पाये, भगवान बोले लखन बस अब आगे कुछ भी मत बोलना, मुझे सहन नही होगा, तुम भरत के बारे मे बोलते हो कि कहीं राजमद तो नही हो गया? भगवान स्वयं प्रमाण पत्र दे रहे हैं।

*" भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।*
*कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीर सिंधु बिनसाइ।। "*

ब्रह्मा, विष्णु, महेश का भी पद अगर मेरे भरत को मिल जाये तो भी उसे राजमद नही होगा, ये अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है? लखन! एक काँजी की बूँद क्या क्षीर सागर को फाड़ सकती है? और सुनो! भरत जैसा भैया तो बड़े भाग्यशाली को मिलता हैं।

*" सुनह लखन भल भरत सरीसा, बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।*
*भरत हंस रबिबंस तड़ागा, जनमि कीन्ह गुन दोष विभागा।। "*

भगवान् कहते-कहते रो पड़े, लखन मेरा और तेरा अवतार तो हर युग में होगा लेकिन मेरा भरत जैसा भैया तो चारों युगों में केवल एक बार त्रेता में ही आया करता है, भरत तो हमारे सूर्यवंश के सरोवर का हंस है जो अपने विवेक से नीर और क्षीर को अलग-अलग करता है।

इसके आगे जब श्री भरतजी चित्रकूट में आ गये हैं उस समय भरी सभा के बीच में भगवान श्री भरतजी को और इसके आगे का प्रमाण पत्र दे रहे हैं, जिस समय सभा चल रही थी भगवान खड़े हो गये और भगवान ने दोनों हाथ उठाकर कहा भरत आज मैं स्वयं तुम्हें प्रमाण पत्र दे रहा हूँ।

_" तीनि काल त्रिभूवन मत मोरें, पुन्यसिलोक तात तर तोंरे।_
_उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई, जाई लोकु परलोकु नसाई।_
_दोसु देहि जननिहि जड़ तेई, जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई। "_

भरतजी के बार-बार अयोध्या लौट चलने के अनुनय विनय करने के कारण तथा उनके मन में उपजे आत्मग्लानि बोध को जानकर भगवान राम समस्त उपस्थित जन समूह के बीच घोषणा करते हैं।

_" कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी, भरत भूमि रह राउरि राखी। "_

भरी सभा में भगवान दोनों हाथ उठाकर बोले भरत! ये मैं प्रमाण पत्र दे रहा हूं कि तीनों कालों में, तीनों भवनों में जितने भी पुण्यात्मा हुये हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, ये मैं घोषणा करता हूँ कि वे सब तुमसे नीचे होंगे, तुम सबके सिरमौर होगे।

हे भरत! केकैयी माँ को तो वो ही दोष दे सकता है जिसने कभी साधु सभा का सेवन ना किया हो, और मैं भगवान् शिव को साक्षी मानकर कहता हूँ भरत! अगर तुम नही होते तो धरती की कोई रक्षा नहीं कर पाता।

अगर किसी के मन में भी तुम्हारे प्रति कुभाव आ जाए तो उसका इहलोक और परलोक भी नष्ट हो जायेगा, इतना जब भगवान बोले तो ये सुनते ही दो लोग घबरा गये एक थे लक्ष्मणजी और दुसरे गुह।

थर-थर काँपने लगे कि हम तो गये काम से चूंकि गुह ने भी बहुत सी कटु बातें भरतजी के काफिले के श्रंगवेरपुर में आने के समय कही थी।

केकैयी का बेटा है, विषबेल कभी अमृत नही दे सकती और मैं भरत को मार डालूंगा, गंगा पार तो तब करने दूंगा जब मैं जीवित न रहूंगा, लक्ष्मणजी ने तो बोला ही था, ये दोनों थर-थर कांपने लगे, पसीना छूटने लगा।

भरतजी साधु हैं, भरतजी संत हैं, भीतर से बहुत कोमल है, भरतजी ने जब गुह और लखनजी की दशा देखी तो करूणा आ गयी, सोच रहे है, मेरे कारण से ये दो लोगों की यह दशा हो रही है, इनका लोक भी जाये और परलोक भी जाये।

साधु तो एक ही काम करता है "जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा" भरतजी ने मन ही मन प्रभु से पूछा, प्रभु! आपने जो प्रमाण पत्र दिया है आपकी दृष्टि में ठीक हो या न हो मैं उसके विषय में कुछ नही बोलना चाहता, लेकिन अगर मान लीजिए किसी से जाने अनजाने में मेरे प्रति द्रोह हो जाये तो उसका कोई उपचार है क्या?

भगवान ने कहा हाँ, (ये भक्त और भगवान् की अन्तर हृदय  की वार्ता चल रही है, प्रकट में तो सब मौन खड़े है), भरतजी ने जब पूछा इसकी कोई औषधि है? भगवान ने कहा कि है,....... क्या है? तब प्रभु बोले हैं!


 प्रस्तुति- कृष्ण मेहता: *💖✨

 हरिनाम संकीर्तन सदैव मंगलकारी ✨💖🙌🏻*

नाम संकीर्तन से बढ़कर कोई और दूसरी सेवा नहीं है, नाम संकीर्तन सब प्रकार से मंगल करने वाला होता है।

यदि हम किसी अत्यावश्यक कार्य से बाहर जा रहे हैं और मार्ग में कहीं नाम संकीर्तन हो रहा हो तो हमें कुछ समय रूक उसमें शामिल होना चाहिए, अब प्रश्न यह कि यदि हम वहां रूक गये तो हमारे कार्य का क्या होगा,

कुछ अमंगल हो गया तो...नही यह चिंता मन से तत्काल ही निकाल देनी चाहिए क्योंकि श्री ठाकुरजी का नाम सभी प्रकार अमंगल को हरने वाला है।

"मंगल करण अमंगलहारी"
इस विषय में एक दृष्टांत हैं...

श्री चैतन्य महाप्रभु नित्य रात्रि में श्रीवास पंडित जी के यहां नाम संकीर्तन कराते थे, बहुत से वैष्णव उसमें सम्मलित होते थे, श्रीवास पंडित जी का पुत्र कीर्तन में झांझ बजाया करता था और खुब प्रेम से नाम संकीर्तन करता था।

एक सांयकाल के समय किसी भंयकर रोग के कारण उनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है, यह देख श्रीवास पंडित जी की पत्नी की आंखों से आंसू बहने लगते हैं तो श्रीवास पंडित कहते हैं..

 सावधान..!! बिल्कुल नहीं रोना, एक थोड़ी सी चित्कार भी नहीं करना। उनकी पत्नी कहती हैं मेरा पुत्र मर गया और आप ऐसा कह रहे हैं।

श्रीवास पंडित कहते हैं यदि तुम्हारा पुत्र था तो मेरा भी तो कुछ लगता है। किन्तु यदि तुम रोई तो आस पास मे सबको खबर हो जायेगी कि हमारे घर में शौक हुआ है

और यदि सब यहां एकत्रित हो गए तो रात्रि में महाप्रभु जी को कीर्तन कराने कही अन्यत्र जाना पड़ेगा उनको असुविधा होगी, तुम इस बालक को ले जाकर भीतर कक्ष में लेटा दो सुबह देखेंगे कि क्या करना है,

उनकी पत्नी वैसा ही करती है। रात्रि में महाप्रभु जी पधारे, कीर्तन प्रारंभ हुआ,

"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे  राम   राम राम   हरे हरे"

तभी महाप्रभु जी पंडित जी से पुछते है, अरे! श्रीवास तेरा बालक किधर है आज दिखाई नही देता वह, श्रीवास पंडित जी झुठ नही कह सकते थे और यदि सत्य कह दिया तो महाप्रभु जी को पीङा होगी इसलिए वह केवल इतना ही बोले..भगवन् होगा "

इतने में ही किसी वैष्णव का उस मृत बालक के कक्ष में जाना होता है वह तुरंत महाप्रभु जी को कहता है

 "महाप्रभु! पंडित जी का पुत्र कीर्तन मे कहां से आयेगा। उसकी तो संध्या को ही मृत्यु हो गई है। श्री चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "

ये हो ही नही सकता जिसके घर में नित्य प्रभु के नाम का ऐसा मंगलकीर्तन होता है वहाँ ऐसा अमंगल हो ही नहीं सकता।

श्री महाप्रभु जी गंभीर वाणी में पुकारते हैं, अरे! ओ श्रीवास पंडित के बालक कहां है तू, इधर आ, आज कीर्तन में झांझ कौन बजायेगा...

इधर महाप्रभु जी का बोलना हुआ उधर वह बालक कक्ष भीतर से दौड़ा दौङा बाहर आया और कीर्तन में झांझ बजाने लगा श्री वास पंडित जी और उनकी पत्नी के नेत्रों से आंसू बहने लगते हैं

वे महाप्रभु जी को बारंबार प्रणाम करते हैं। इसलिए भाई, नाम संकीर्तन से बढ़कर कोई पूंजी नही और इसके समान किसी भी समस्या की कोई कुंजी नहीं हैं।

भज गोविन्दं भज गोविन्दम गोविन्दं भज मूढ़मते
"अरे बोधिक मूर्खो, केवल श्री गोविन्द का भजन करो, केवल श्री गोविन्द का भजन करो, केवल श्री गोविन्द का भजन करो।

तुम्हारा व्याकरण का ज्ञान और शब्द चातूरी मृत्यु के वक्त तुम्हारी रक्षा नही कर पायेगी।।

सदैव जपते रहिये...जपने का सामर्थ्य नहीं तो
हरे राम हरे   राम राम   राम हरे हरे
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णाकृष्णा हरे हरे
🙏🌹श्री राधे राधे बोलना तो पड़ेगा जी🌹


🙏


    🙏🏻

महादेव-पार्वती संग झूमे
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रावण के वध के बाद अयोध्या पति श्री राम ने राजपाट संभाल लिया था और प्रजा राम राज्य से प्रसन्न थी. एक दिन भगवान महादेव की इच्छा श्री राम से मिलने की हुई.
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पार्वती जी को संग लेकर महादेव कैलाश पर्वत से अयोध्या नगरी के लिए चल पड़े. भगवान शिव और मां पार्वती को अयोध्या आया देखकर श्री सीता राम जी बहुत खुश हुए.
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माता जानकी ने उनका उचित आदर सत्कार किया और स्वयं भोजन बनाने के लिए रसोई में चली गईं. भगवान शिव ने श्री राम से पूछा- हनुमान जी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं, कहां हैं ?
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श्री राम बोले- वह बगीचे में होंगे. शिव जी ने श्री राम जी से बगीचे में जाने की अनुमति मांगी और पार्वती जी के साथ बगीचे में आ गए. बगीचे की खूबसूरती देखकर उनका मन मोहित हो गया.
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आम के एक घने वृक्ष के नीचे हनुमान जी दीन-दुनिया से बेखबर गहरी नींद में सोए थे और एक लय में खर्राटों से राम नाम की ध्वनि उठ रही थी. चकित होकर शिव जी और माता पार्वती एक दूसरे की ओर देखने लगे.
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माता पार्वती मुस्करा उठी और वृक्ष की डालियों की ओर इशारा किया. राम नाम सुनकर पेड़ की डालियां भी झूम रही थीं. उनके बीच से भी राम नाम उच्चारित हो रहा था.
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शिव जी इस राम नाम की धुन में मस्त मगन होकर खुद भी राम राम कहकर नाचने लगे. माता पार्वती जी ने भी अपने पति का अनुसरण किया. भक्ति में भरकर उनके पांव भी थिरकने लगे.
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शिव जी और पार्वती जी के नृत्य से ऐसी झनकार उठी कि स्वर्गलोक के देवतागण भी आकर्षित होकर बगीचे में आ गए और राम नाम की धुन में सभी मस्त हो गए.
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माता जानकी भोजन तैयार करके प्रतीक्षारत थीं परंतु संध्या घिरने तक भी अतिथि नहीं पधारे तब अपने देवर लक्ष्मण जी को बगीचे में भेजा.
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लक्ष्मण जी ने तो अवतार ही लिया था श्री राम की सेवा के लिए. अतः बगीचे में आकर जब उन्होंने धरती पर स्वर्ग का नजारा देखा तो खुद भी राम नाम की धुन में झूम उठे.
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महल में माता जानकी परेशान हो रही थीं कि अभी तक भोजन ग्रहण करने कोई भी क्यों नहीं आया. उन्होंने श्री राम से कहा भोजन ठंडा हो रहा है चलिए हम ही जाकर बगीचे में से सभी को बुला लाएं.
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जब सीता राम जी बगीचे में गए तो वहां राम नाम की धूम मची हुई थी. हुनमान जी गहरी नींद में सोए हुए थे और उनके खर्राटों से अभी तक राम नाम निकल रहा था.
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श्री सिया राम भाव विह्वल हो उठे. श्री राम जी ने हनुमान जी को नींद से जगाया और प्रेम से उनकी तरफ निहारने लगे. प्रभु को आया देख हनुमान जी शीघ्रता से उठ खड़े हुए. नृत्य का माहौल भंग हो गया.
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शिव जी खुले कंठ से हनुमान जी की राम भक्ति की सराहना करने लगे. हनुमान जी सकुचाए लेकिन मन ही मन खुश हो रहे थे. श्री सीया राम जी ने भोजन करने का आग्रह भगवान शिव से किया.
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सभी लोग महल में भोजन करने के लिए चल पड़े. माता जानकी भोजन परोसने लगीं. हुनमान जी को भी श्री राम जी ने पंक्ति में बैठने का आदेश दिया.
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हनुमान जी बैठ तो गए परंतु आदत ऐसी थी की श्री राम के भोजन के उपरांत ही सभी भोजन करते थे.
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आज श्री राम के आदेश से पहले भोजन करना पड़ रहा था. माता जानकी हनुमान जी को भोजन परोसती जा रही थी पर हनुमान का पेट ही नहीं भर रहा था. कुछ समय तक तो उन्हें भोजन परोसती रहीं फिर समझ गईं इस तरह से हनुमान जी का पेट नहीं भरने वाला.
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उन्होंने तुलसी के एक पत्ते पर राम नाम लिखा और भोजन के साथ हनुमान जी को परोस दिया. तुलसी पत्र खाते ही हनुमान जी को संतुष्टि मिली और वह भोजन पूर्ण मानकर उठ खड़े हुए.
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भगवान शिव शंकर ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को आशीर्वाद दिया कि आप की राम भक्ति युगों-युगों तक याद की जाएगी और आप संकट मोचन कहलाएंगे.
( आध्यात्म रामायण की कथा )



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जय। हो हनुमान जी महाराज जी की


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लालाजी की  की शरारते.....🌸💐👏🏼😊*

*एक गोपी* के घर *लाला* माखन खा रहे थे ।
उस समय गोपी ने *लाला* को पकड लिया ।
तब कन्हैया बोले- तेरे धनी की सौगंध खा कर कहता हूँ ।
अब फिर कभी भी तेरे घर में नहीं आऊंगा ।
गोपी ने कहा - मेरे धनी की सौगंध क्यों खाता है ?
कन्हैया ने कहा. तेरे बाप की सौगंध, बस गोपी और ज्यादा खीझ जाती है और लाला को धमकाती है ।
परन्तु तू मेरे घर आया ही क्यों ?
कन्हैया ने कहा - अरी सखी !
तू रोज कथा में जाती है, फिरभी तू मेरा तेरा छोडती नहीं - इस घर का मै धनी हूँ ।
यह घर मेरा है ।
गोपी को आनंद हुआ कि मेरे घर को कन्हैया अपना घर मानता है, कन्हैया तो सबका मालिक है,
सभी घर उसी के है ।
उसको किसी कि आज्ञा लेने कि जरूरत नहीं ।
गोपी कहती है - तुने माखन क्यों खाया ?
लाला ने कहा - माखन किसने खाया है ?
इस माखन में चींटी चढ़ गई थी तो उसे निकलने को हाथ डाला ।
इतने में ही तू टपक पड़ी ।
गोपी कहती है ! परन्तु लाला !
तेरे ओंठो के उपर भी तो माखन चिपका हुआ है ।
कन्हैया ने कहा - चींटी निकालता था,
तभी ओंठो के उपर भी मक्खी बैठ गई,
उसको उड़ाने लगा तो माखन ओंठो पर लग गया होगा ।
कन्हैया जैसे बोलतेहै, ऐसा बोलना किसी को आता नहीं. कन्हैया जैसे चलते है,
वैसे चलना भी किसी को आता नहीं.
गोपी ने पीछे लाला को घर में खम्भे के साथ डोरी से बाँध दिया,
कन्हैया का श्रीअंग बहुत ही कोमल है ।
गोपी ने जब डोरी कस कर बाँधी तो लाला कि आँखमें पानी आ गया. गोपी को दया आई,
उसने लाला से पूछा - लाला! तुझे कोई तकलीफ है क्या ?
लाला ने गर्दन हिला कर कहा - मुझे बहुत दुःख हो रहा है,
डोरी जरा ढीली करो ।
गोपी ने विचार किया कि लाला को डोरी से कस कर बाधना ठीक नहीं,
मेरे लाला को दुःख होगा ।
इसलिए गोपी ने डोरी थोड़ी ढीली रखी और सखियो को खबर देने गई के मैंने लाला को बांधा है ।
तुम लाला को बांधो परन्तु किसी से कहना नहीं, तुम खूब भक्ति करो,
परन्तु उसे प्रकाशित मत करो, भक्ति प्रकाशित हो जाएगी तो भगवान चले जायेंगे,
भक्ति का प्रकाश होने से भक्ति बढती नहीं , भक्ति में आनंद आता नहीं ।
बाल कृष्ण सूक्ष्म शरीर करके डोरी से बहार निकल गए और गोपी को अंगूठा दिखाकर कहा,
तुझे बांधना ही कहा आता है ?
गोपी कहती है - तो मुझे बता, किस तरह से बांधना चाहिए ।
गोपी को तो लाला के साथ खेल करना था ।
लाला गोपी को बांधते है...
योगीजन मन से....
श्री कृष्ण का स्पर्श करते है तो समाधि लग जाती है.
यहाँ तो गोपी को प्रत्यक्ष श्री कृष्ण का स्पर्श हुआ है.
गोपी लाला के दर्शन में तल्लीन हो जाती है. गोपी को ब्रह्म - सम्बन्ध हो जाता है.
लाला ने गोपी को बाँध दिया.
गोपी कहती है की लाला छोड़! छोड़!
लाला कहते है - मुझे बांधना आता है.
छोड़ना तो आता ही नहीं ।
यह जीव एक ऐसा है, जिसको छोड़ना आता है,
चाहे जितना प्रगाढ़ सम्बन्ध हो परन्तु स्वार्थ सिद्ध होने पर उसको भी छोड़ सकता है,
*परमात्मा एक बार बाँधने के बाद छोड़ते नहीं ।*☝🏼☺

*जय श्री कृष्ण....🌸💐*

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*🌼गृहस्थ बड़ा या सन्यासी–🌼*

🔰प्रेरणाप्रद कहानी🔰

प्राचीन समय की बात है । किसी नगर में एक विचित्र राजा रहता था । उस राजा की एक बड़ी ही अजीब आदत थी । जब भी नगर में कोई साधू या सन्यासी आता था तो वह उसे बुलाकर पूछता था कि – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”
🔰🌼🔰
जो भी बताता कि गृहस्थ बड़ा है। वह राजा उससे कहता था कि – “ तो फिर आप सन्यासी क्यों बने ?
🔰🌼🔰
चलिए गृहस्थ बनिए !” इस तरह वह उस सन्यासी को भी गृहस्थ बनने का आदेश देता था ।
🔰🌼🔰
जो बताता कि सन्यासी बड़ा है । वह उससे प्रमाण मांगता था । जो यदि वह प्रमाण न दे सके तो वह उसे भी गृहस्थ बना देता था । इस तरह कई संत आये और उन्हें सन्यासी से गृहस्थ बनना पड़ा ।
🔰🌼🔰
इसी बीच एक दिन नगर में एक महात्मा का आगमन हुआ । उसे भी राजा ने बुलाया और अपना वही पुराना प्रश्न पूछा – “ गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”
🔰🌼🔰
महात्मा बोले – “ राजन ! न तो गृहस्थ बड़ा है, न ही सन्यासी, जो अपने धर्म का पालन करें । वही बड़ा है ।”
🔰🌼🔰
राजा बोला – “ अच्छी बात है । क्या आप अपने कथन को सत्य सिद्ध कर सकते है ?”
🔰🌼🔰
महात्मा ने कहा – “ अवश्य ! इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा ।” राजा महात्मा के साथ चलने के लिए तैयार हो गया।
🔰🌼🔰
दुसरे ही दिन दोनों घूमते – घूमते दुसरे राज्य निकल गये । उस राज्य में राजकन्या का स्वयंवर हो रहा था ।
🔰🌼🔰
दूर – दूर के राजा – राजकुमार आये हुए थे । बड़े ही विशाल उत्सव का आयोजन किया हुआ था । राजा और महात्मा दोनों उस उत्सव में शामिल हो गये ।
🔰🌼🔰
स्वयंवर का शुभारम्भ हुआ । राजकन्या राजदरबार में उपस्थित हुई । वह बड़ी ही रूपवती और सुन्दर थी । सभी राजा और राजकुमार स्तब्ध होकर उसे देख रहे थे और मन ही मन उसे पाने की कामना कर रहे थे ।
🔰🌼🔰
राजकन्या के पिता का कोई वारिस नहीं था । इसलिए महाराज राजकन्या द्वारा स्वयंवरित राजकुमार को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने वाला था ।
🔰🌼🔰
राजकुमारी अपनी सखियों के साथ राजाओं के बीच घुमने लगी। वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को देखने के पश्चात भी उसे कोई पसंद नहीं आया ।
🔰🌼🔰
राजा निराश होने लगे । राजकुमारी के पिता भी सोचने लगे कि स्वयंवर व्यर्थ ही जायेगा, क्योंकि राजकुमारी को तो कोई वर पसंद ही नहीं आया ।
🔰🌼🔰
तभी वहाँ एक तेजस्वी सन्यासी का आगमन हुआ । सूर्य के समान उसका चेहरा कांति से चमक रहा था । तभी राजकुमारी की दृष्टि उस युवा सन्यासी पर पड़ी । देखते ही राजकुमारी ने अपनी वरमाला उसके गले में पहना दी ।
🔰🌼🔰
अचानक हुए इस स्वागत से वह युवा सन्यासी अचंभित हो गया । उसने तुरंत वस्तुस्थिति को समझा और तत्क्षण उस माला को अपने गले से निकालते हुए कहा – “ हे देवी ! क्या तुझे दीखता नहीं ! मैं एक सन्यासी हूँ । मुझसे विवाह के बारे में सोचना तेरी भूल है ।”
🔰🌼🔰
तभी राजा ने सोचा – “ लगता है यह कोई भिखारी है जो विवाह करने से डर रहा है ।” उन्होंने अपनी घोषणा दुबारा दोहराई – “ हे युवक ! क्या तुम्हें पता भी है । मेरी पुत्री से विवाह करने के बाद तुम इस सम्पूर्ण राज्य के मालिक हो जाओगे । क्या फिर भी तुम मेरी पुत्री का परित्याग करोगे ?”
🔰🌼🔰
सन्यासी बोला – “ राजन ! मैं सन्यासी हूँ और विवाह करना मेरा धर्म नहीं है । आप अपनी पुत्री के लिए कोई अन्य वर देखिये ।” इतना कहकर वह वहाँ से चल दिया ।
🔰🌼🔰
किन्तु वह युवक राजकुमारी के मन में बस चूका था । उसने भी प्रतिज्ञा की कि “ मैं विवाह करूंगी तो उसी से अन्यथा अपने प्राण त्याग दूंगी ।” इतना कहकर वह भी उसके पीछे – पीछे चली गई ।
🔰🌼🔰
वह राजा और महात्मा जो यह वृतांत देख रहे थे । उनमें से महात्मा ने कहा – “ चलो ! हम भी उनके पीछे चलकर देखते है, क्या परिणाम होता है ?”
🔰🌼🔰
वह दोनों भी राजकुमारी के पीछे – पीछे चलने लगे ।
🔰🌼🔰
चलते चलते वह एक घने जंगल में पहुँच गये । तभी वह युवा सन्यासी तो कहीं अदृश्य हो गया और राजकुमारी अकेली रह गई ।
🔰🌼🔰
घने जंगल में किसी को न देख राजकुमारी व्याकुल हो उठी । तभी यह राजा और महात्मा उसके पास पहुँच गये और उन्होंने राजकुमारी को समझाया । यह दोनों उसे उसके पिता के पास छोड़ने के लिए ले जाने लगे ।
🔰🌼🔰
वह जंगल से बाहर निकले ही थे कि अँधेरा हो गया । सर्दी की काली अंधियारी रात थी । भटकते – भटकते यह तीनो एक गाँव में पहुंचे ।
🔰🌼🔰
यह गाँव के चौपाल पर जाकर बैठ गये । बहुत सारे लोग वहाँ से गुजरे लेकिन किसी ने इन ठण्ड से ठिठुरते मुसाफिरों का हाल तक नहीं पूछा ।
🔰🌼🔰
तभी वहाँ से एक गाड़ीवान गुजरा। वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खेत से घर आ रहा था । उसने देखा कि वह तीनों ठण्ड से ठिठुर रहे है । वह उनके पास गया और पूछताछ कि तो महात्मा ने भटके हुए मुसाफ़िर बता दिया ।
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किसान बोला – “ हे अतिथिदेव ! अगर आप चाहे तो आज रात मेरे घर ठहर सकते है ।” वह उनको घर ले गया । भोजन की पूछी और भोजन करवाया ।
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उस दिन उनके घर में ज्यादा अनाज नहीं था । अतः किसान और उसकी पत्नी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथियों को करवा दिया और स्वयं भूखे ही सो गये ।
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सुबह हुई । राजकन्या को उसके पिता के पास छोड़कर राजा और सन्यासी दोनों वापस अपने नगर को चल दिए ।
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महात्मा ने राजा से कहा – “ देखा राजा ! राजकन्या और राज्य को छोड़ने वाला वह सन्यासी अपनी जगह बड़ा है और हमारे अतिथि सत्कार के लिए स्वयं भूखा सोने वाला वह गृहस्थ किसान अपनी जगह बड़ा है ।
🔰🌼🔰
एक तरफ सन्यासी ने राज, वैभव और रमणी का तनिक भी मोह न करके अपने धर्म का पालन किया है, इसलिए वह निश्चय ही महान है। दूसरी तरह उन दंपति ने अपना व्यक्तिगत स्वार्थ न देखकर अतिथिसेवा को प्रधानता दी, इसलिए वह दोनों भी निश्चय ही महान है ।”
🔰🌼🔰
“ किसी भी देश, काल और परिस्थिति में अपने धर्म – कर्तव्य का पालन करने वाला मनुष्य ही बड़ा होता है । फिर चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी, कोई फर्क नहीं पड़ता ।”
🔰🌼🔰
इस तरह महात्मा ने अपनी बात को सत्य सिद्ध कर दिया
🔰🌼🔰🌼🔰🌼🔰

🙏🏻जय सियाराम 🙏🏻।।।।।।।





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