Saturday, April 18, 2020

धार्मिक सांस्कृतिक प्रसंग लोककथाएं





प्रस्तुति - कृष्ण मेहता:


ओम (ॐ) असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥
ओम (ॐ) शान्ति शान्ति शान्तिः ॥
ओम (ॐ) शान्ति शान्ति शान्तिः ॥

यह श्लोक बृहदारण्यकोपनिषद् से लिया गया है. इसका अर्थ है कि मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो. मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो. मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो.
तमसो मा ज्योतिर्गमय का शाब्दिक अर्थ है अंधकार से प्रकाश यानी कि रौशनी की तरफ बढ़ो. कई बार लोग इस श्लोक में निहित गूढ़ अर्थ के मायने समझ पाने में असमर्थ होते हैं. पौराणिक ग्रंथों में इस बात को इस तरह से विस्तार से बताया गया है कि अंधकार यानी कि बुराई और बुरी आदतों को त्यागकर प्रकाश यानी कि सत्य के पथ पर उन्मुख होना ही वास्तविक साधना और आध्यात्म है. लेकिन सांसारिकता से भरा हुआ मनुष्य अक्सर भौतिकता और भौतिक चीजों को एकत्र करने की जोड़-तोड़ में ही जीवन जुजार देता है और इस बात के वास्तविक मर्म को समझ नहीं पाता है.
विस्तार से देखा जाए तो इसका अर्थ है कि जिस तरह प्रातः सूर्य की किरणों से रात का अंधकार गायब हो जाता है. ठीक उसी तरह मनुष्य रात के अंधेरे को अपने साधनों साधनों से दूर करने में लगा है. देखा तो यह श्लोक मनुष्य को इसी बात के लिए प्रेरित करता है कि अपने अंतस में व्याप्त अंधकार से बाहर निकलकर प्रकाश के मार्ग पर चलो.
[06/04, 08:02] Morni कृष्ण मेहता: एक गांव में कृष्णा बाई नाम की बुढ़िया रहती थी वह भगवान श्रीकृष्ण की परमभक्त थी। वह एक झोपड़ी में रहती थी। कृष्णा बाई का वास्तविक नाम सुखिया था पर कृष्ण भक्ति के कारण इनका नाम गांव वालों ने कृष्णा बाई रख दिया।
घर घर में झाड़ू पोछा बर्तन और खाना बनाना ही इनका काम था। कृष्णा बाई रोज फूलों का माला बनाकर दोनों समय श्री कृष्ण जी को पहनाती थी और घण्टों कान्हा से बात करती थी। गांव के लोग यहीं सोचते थे कि बुढ़िया पागल है।
एक रात श्री कृष्ण जी ने अपनी भक्त कृष्णा बाई से यह कहा कि कल बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है तुम यह गांव छोड़ कर दूसरे गांव चली जाओ।
अब क्या था मालिक का आदेश था कृष्णा बाई ने अपना सामान इकट्ठा करना शुरू किया और गांव वालों को बताया कि कल सपने में कान्हा आए थे और कहे कि बहुत प्रलय होगा पास के गाव में चली जा।
अब लोग कहाँ उस बूढ़ी पागल का बात मानने वाले जो सुनता वहीं जोर जोर ठहाके लगाता। इतने में बाई ने एक बैलगाड़ी मंगाई और अपने कान्हा की मूर्ति ली और सामान की गठरी बांध कर गाड़ी में बैठ गई। और लोग उसकी मूर्खता पर हंसते रहे।
बाई जाने लगी बिल्कुल अपने गांव की सीमा पार कर अगले गांव में प्रवेश करने ही वाली थी कि उसे कृष्ण की आवाज आई - अरे पगली जा अपनी झोपड़ी में से वह सुई ले आ जिससे तू माला बनाकर मुझे पहनाती है। यह सुनकर बाई बेचैन हो गई तड़प गई कि मुझसे भारी भूल कैसे हो गई अब मैं कान्हा का माला कैसे बनाऊंगी?
उसने गाड़ी वाले को वहाँ रोका और बदहवास अपने झोपड़ी की तरफ भागी। गांव वाले उसके पागलपन को देखते और खूब मजाक उडाते।
बाई ने झोपड़ी में तिनकों में फंसे सुई को निकाला और फिर पागलो की तरह दौडते हुए गाड़ी के पास आई। गाड़ी वाले ने कहा कि माई तू क्यों परेशान हैं कुछ नही होना। बाई ने कहा अच्छा चल अब अपने गांव की सीमा पार कर। गाड़ी वाले ने ठीक ऐसे ही किया।
अरे यह क्या? जैसे ही सीमा पार हुई पूरा गांव ही धरती में समा गया। सब कुछ जलमग्न हो गया।
गाड़ी वाला भी अटूट कृष्ण भक्त था।येन केन प्रकरेण भगवान ने उसकी भी रक्षा करने में कोई विलम्ब नहीं किया।
 इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रभु जब अपने भक्त की मात्र एक सुई तक की इतनी चिंता करते हैं तो वह भक्त की रक्षा के लिए कितना चिंतित होते होंगे। जब तक उस भक्त की एक सुई उस गांव में थी पूरा गांव बचा था
इसीलिए कहा जाता है कि
भरी बदरिया पाप की बरसन लगे अंगार
संत न होते जगत में जल जाता संसार।


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*आहारशुद्धि रखें*

*🔆कहावत है कि ’जैसा खाये अन्न वैसा बने मन । ’*
*🔆खुराक के स्थूल भाग से स्थूल शरीर और सूक्ष्म भाग से सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन का निर्माण होता है । इसलिए सदैव सत्त्वगुणी खुराक लीजिये।*
*🔆दारु-शराब, मांस-मछली, बीड़ी-तम्बाकू, अफीम-गाँजा, चाय आदि वस्तुओं से प्रयत्नपूर्वक दूर रहिये । रजोगुणी तथा तमोगुणी खुराक से मन अधिक मलिन तथा परिणाम में अधिक अशांत होता है । सत्त्वगुणी खुराक से मन शुद्ध और शांत होता है ।*

*🔆 🙋🏻‍♂️प्रदोष काल में किये गये आहार और मैथुन से मन मलिन होता है और आधि-व्याधियाँ बढ़ती हैं । मन की लोलुपता जिन पदार्थो पर हो वे पदार्थ उसे न दें । इससे मन के हठ का शनैः-शनैः शमन हो जायेगा ।*

*🔆भोजन के विषय में ऋषियों द्वारा बतायी हुई कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए :*

*🔅१.     हाथ-पैर-मुँह धोकर पूर्वाभिमुख बैठकर मौन भाव से भोजन करें । जिनके माता-पिता जीवित हों, वे दक्षिण दिशा की ओर् मुख करके भोजन न करें । भोजन करते समय बायें हाथ से अन्न् का स्पर्श न करें और चरण, मस्तक तथा अण्डकोष को भी न छूएँ ।केवल प्राणादि के लिए पाँच ग्रास अर्पण करते समय तक बाय़ें हाथ  से पात्र को पकड़े रहें, उसके बाद छोड़ दें ।*
 
*🔅२.    भोजन के समय हाथ घुटनों के बाहर न करें । भोजन-काल में बायें हाथ से जलपात्र उठाकर दाहिने हाथ की कलाई पर रखकर यदि पानी पियें तो वह पात्र भोजन समाप्त होने तक जूठा नहीं माना जाता, ऎसा मनु महाराज का कथन है । यदि भोजन करता हुआ द्विज किसी दूसरे भोजन करते हुए द्विज को छू ले तो दोनों को ही भोजन छोड़ देना चाहिए ।*

*🔅३.    रात्रि को भोजन करते समय यदि दीप बुझ जाय तो भोजन रोक दें और दायें हाथ से अन्न् को स्पर्श करते हुए मन-ही-मन गायत्री का स्मरण करें । पुनः दीप जलने के बाद ही भोजन शरु करें ।*
 
*🔅४.    अधिक मात्रा में भोजन करने से आयु तथा आरोग्यता का नाश होता है । उदर का आधा भाग अन्न से भरो, चौथाई भाग जल से भरो और चौथाई भाग वायु के आवागमन के लिए खाली रखो ।*

*🔅५.    भोजन के बाद थोड़ी देर तक बैठो । फिर् सौ कदम चलकर कुछ देर तक बाइँ करवट लेटे रहो तो अन्न ठीक ढंग से पचता है । भोजन के अन्त में भगवान को अर्पण किया हुआ तुलसीदल खाना चाहिए ।*
 
*🔆भोजन विषयक इन सब बातों को आचार में लाने से जीवन में सत्वगुण की वृद्धि होती है ।*

*🙏🌹निष्काम भाव से सेवा करें*
निष्काम भाव से यदि परोपकार के कार्य करते रहेंगे तो भी मन की मलिनता दूर हो जायेगी । यह प्रकृति का अटल नियम है । इसलिए परोपकार के कार्य निष्काम भाव से करने के लिये सदैव तत्पर रहें ।





*योगमाया की भविष्यवाणी काकासुर की
हार*

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इस बार मेरे काल ने जन्म लिया है यह सोचकर कंस घबराया हुआ था। उसने बंदीगृह में पहुंचते ही चिल्लाकर कहा- देवकी कहां है वह बालक? मै अभी अपनी तलवार से काटकर के टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

देवकी ने बड़े दु:ख और करूणा से कहा- मेरे प्यारे भाई, यह तो कन्या है और यह भी तुम्हारी पुत्री के समान है। भला ये तुम्हे क्या मारेगी। तुम्हें इसकी हत्या नहीं करनी चाहिए। तुमने एक एक करके मेरे छह पुत्रों को मार डाला। मैने तुमसे कुछ नहीं कहा। मै तुमसे इसके प्राणों की भीख मांगती हूं। मै तुम्हारी छोटी बहन हूं। मुझ पर दया करों। यह मेरी अंतिम संतान है। मै हाथ जोड़कर तुमसे विनती करती हूं। यह मेरी अंतिम निशानी है।

कन्या को गोद में छिपाकर बड़ी दीनता के साथ देवकी ने याचना की। किंतु कंस बड़ा ही दुष्ट था। उसके ऊपर देवकी की विनती का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और कन्या को देवकी की गोद से छीनकर ले गया। प्रकृति भी उसकी क्रूरता पर चीख उठी। उसने जैसे ही कन्या को चट्टान पर पटकने की कोशिश की- वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई।

वह कन्या कोई सधारण कन्या तो था नहीं, साक्षात श्रीकृष्ण की योगमाया थी। आकाश में जाते ही वह देवी के रूप में बदल गई। देवता, गन्धर्व, अप्सराएं उसकी स्तुति करने लगे।

उस देवी ने कंस से कहा- रे मूर्ख! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा। तुझे मारने वाला तेरा शत्रु कहीं और पैदा हो चुका है। अब तू निर्दोष बालको की हत्या मत कर। कंस से ऐसा कहकर ही भगवती योगमाया अंतर्धान हो गयीं और विन्ध्याचल की विन्ध्येश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुई।

कंस ने दूसरे दिन अपने दरबार में मंत्रियों को बुलवाया और योगमाया की सारी बातें उनसे बतायीं। कंस के मंत्री दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही क्रूर थे। वे सब देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर उन सबों ने कहा- ‘यदि आपके शत्रु विष्णु ने कहीं और जन्म ले लिया है तो इस दस दिन के भीतर जन्में सभी बच्चों को आज ही मार डालेंगे। हम आज ही बड़े-बड़े नगरों, छोटे-छोटे गावों, अहीरों की बस्तियों में और अन्य स्थानों में जितने भी बच्चे पैदा हुए हैं, उन्हें खोजकर मारना शुरू कर देते हैं। शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। इसलिए उसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए आप हम जैसे सेवकों को आदेश दीजिए’। एक तो कंस की बुद्धि वैसे ही बिगड़ी हुई थी, दूसरे उसके मंत्री उससे भी अधिक दुष्ट थे। कंस के आदेश से दुष्ट दैत्य नवजात बच्चों को जहां पाते, वहीं मार देते। गोकुल में भी उत्पात शुरू हो गए। अभी छठी के दिन भगवान का जात कर्म संस्कार ही हुआ था कि कंस के द्वारा भेजी गई पूतना श्रीकृष्ण को मारने के लिए नंद बाबा के घर पहुंची। उसने सुंदर गोपी का वेष बनाकर श्रीकृष्ण को गोद में उठा लिया और अपने विष लगे स्तनों का दूध पिलाने लगी। श्रीकृष्ण ने दूध के साथ उसके प्राणों को भी खींच लिया और उसे यमलोक भेज दिया। एक दिन की बात है, नन्हें-से कन्हाई पालने में लेटे हुए अकेले ही कुछ हूं-हां कर रहे थे और अपने हाथ, पैरों को हिला रहे थे। उसी समय कंस का भेजा हुआ एक दुष्ट राक्षस कौवे का वेष बनाकर उड़ता हुआ वहां आ पहुंचा। वह बहुत विकराल था और अपने पंखों को फड़फड़ा रहा था। वह पहले तो भयकंर रूप से बार-बार श्रीकृष्ण को डराने का प्रयास करने लगा, पर श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहे। फिर वह क्रोधित होकर बालकृष्ण को मारने के लिए झपटा। बालरूप भगवान श्रीकृष्ण ने बायें हाथ से कसकर उसके गले को पकड़ लिया। उसके प्राण छटपटाने लगे। भगवान ने उसे घुमाकर इतनी जोर से फेंका कि वह कंस के सभा मंडप में जा गिरा। बड़ी मुश्किल से उसे होश में लाया गया। कंस ने घबड़ाकर उससे पूछा- तुम्हारी ये दशा किसने की? काकासुर ने कहा – राजन जिसने मेरी गर्दन मरोड़कर यहां फेंक दिया, वे कोई साधारण बालक नहीं हो सकता। निश्चित ही भगवान श्रीहरि ने अवतार ले लिया है।



 अभिमान 🙏



श्रीकृष्ण भगवान द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। उनके पास ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे थे। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा, 'हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे वे ज्यादा सुंदर थीं?' कृष्ण समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है। तभी गरुड़ ने कहा कि भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है?

सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया और वह भी कह उठे कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा' हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ

और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए। इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं कृष्ण ने राम का रूप धारण कर लिया। मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेशद्वार पर पहरा दो। ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे। भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।
गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंच कर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा। हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ से कहा, आप चलिए, मैं आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े। पर यह क्या, महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया।

तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि पवन पुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं? हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था, इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें।

भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया, हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है। अब रानी सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। तीनों भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंख से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए।



शिवजी कहाँ से देते है....


एक गाँव में भगवान शिव का परमभक्त एक ब्राह्मण रहता था। पंडितजी जब तक रोज सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यकर्मो से निवृत होने के पश्चात् भगवान शंकर का पूजन नहीं कर लेते, तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता था। जो कुछ भी दान दक्षिणा में आ जाता उसी से पंडित जी अपना गुजारा करते थे और दयालु इतने थे कि जब भी कोई जरूरत मंद मिल जाता, अपनी क्षमता के अनुसार उसकी सेवा जरुर करते थे। इस कारण शिव के परमभक्त ब्राह्मण देवता ओढ़ी हुई गरीबी का जीवन व्यतीत कर रहे थे।
पंडितजी की इस दानी प्रवृति से उनकी पत्नी उनसे चिढ़ती तो थी, किन्तु उनकी भक्ति परायणता को देख उनसे अत्यधिक प्रेम करती थी। इसलिए वह कभी भी उनका अपमान नहीं करती थी। साथ ही अपनी जरूरत का धन वह आस – पड़ोस में मजदूरी करके जुटा लेती थी।

एक समय ऐसा आया जब मन्दिर में दान – दक्षिणा कम आने लगी, जिससे पंडित जी को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। घर की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होने के कारण ब्राह्मणी दुखी रहने लगी।
इसी तरह दिन बीतने लगे। एक दिन महाशिवरात्रि का दिन आया। उस दिन भी पंडित जी हमेशा की तरह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्यकर्मो से निवृत होने के लिए नदी की ओर चल दिए।
संयोग से उस समय उस राह से पार्वती और शिवजी गुजर रहे थे। अचानक से पार्वतीजी की नजर पंडितजी पर पड़ी। आज पंडितजी महाशिवरात्रि को लेकर उतने उत्साहित नहीं थे, जितने की अक्सर हुआ करते थे। पार्वतीजी को बात समझते देर नहीं लगी।

उन्होंने शिवजी से कहा – “भगवन् ! यह ब्राह्मण देवता ! प्रतिदिन आपकी उपासना करते है, फिर भी आपको इसकी चिंता नहीं है !”
पार्वतीजी की बात सुनकर शिवजी बोले – “देवी ! अपने भक्तों की चिंता मैं नहीं करूँगा तो कौन करेगा !”
पार्वतीजी – “ तो हे देव ! आपने अब तक उसकी सहायता क्यों नहीं की ?”
शिवजी – “ देवी ! आप निश्चिन्त रहिये, अब तक उसने जितने बिल्वपत्र शिवलिंग पर चढ़ाएं है, वही आजरात्रि में उसे बिल्वपत्र उसे धनपति बना देंगे।
यह बातचीत करके पार्वतीजी और शिवजी तो चल दिए। किन्तु संयोग तो देखिये ! उसी समय उस राह से एक व्यापारी गुजर रहा था। उसने छुप कर शिव – पार्वती का यह वार्तालाप सुन लिया।

व्यापारी ने अपना  दिमाग चलाया। अगर बिल्वपत्र से ब्राह्मण धनपति हो सकता है, तो फिर मैं क्यों नहीं हो सकता। यही सोच वह ब्राह्मण के घर पहुँच गया और ब्राह्मण से बोला – “ पंडितजी ! आपने अब तक जितने भी बिल्वपत्र शिवपूजन में चढ़ाये है, वह सब मुझे दे दीजिए, बदले में मैं आपको १०० स्वर्ण मुदार्यें दूंगा।
पंडित जी ने अपनी पत्नी से पूछा तो वह बोली – “ पूण्य का दान ठीक तो नहीं, किन्तु दे दीजिए, हमें धन जरूरत है, इसलिए दे दीजिए”
पंडितजी ने सारे बिल्वपत्र के बोरे में भरकर सेठजी को दे दिए।
बिल्वपत्रों का बोरा लेकर सेठजी पहुँच गये मन्दिर और शिवलिंग पर चढ़ाकर देखने लगे तमाशा कि कब शिवजी कृपा करे, और कब वह धनपति हो।
प्रतीक्षा करते – करते सेठजी को आधी रात हो गई। सेठजी चमत्कार देखने के लिए बहुत उतावले हो रहे थे। आखिर तीसरा पहर गुजरने के बाद सेठजी के सब्र का बांध टूट ही गया और क्रोध ने आकर सेठजी शिवलिंग को झकझोरने लगे।
अब हुआ चमत्कार ! सेठजी के हाथ शिवलिंग से ही चिपके रह गये। उन्होंने बहुत प्रयास किया किन्तु हाथ हिले तक नहीं। थक – हारकर सेठजी शिवजी से क्षमा – याचना करने लगे।
तो शिवजी बोले – “ लोभी सेठ ! जिस ब्राह्मण से तूने ये बिल्वपत्र ख़रीदे है उसे १००० स्वर्ण मुद्रए से तब जाकर तेरे हाथ खुलेंगे।

प्रातःकाल जब पंडित जी पूजन के लिए आये तो देखा कि सेठ शिवलिंग पर हाथ चिपकाकर रो रहा है। उन्होंने पूछा तो सेठ बोला – “ पंडितजी ! शीघ्रता से मेरे बेटे को १००० स्वर्ण मुद्राए लेकर मन्दिर आने को कहिये।
पंडितजी ने सेठ के बेटे को बुलाया और सेठ ने वह स्वर्ण मुद्राएँ ब्राहमण को दिलवा दी और सेठ मुक्त हो गया।
अब पार्वतीजी शिवजी से पूछती है, “हे नाथ ! आपने अब तक अपने भक्त को कोई धन नहीं दिया ?”
शिवजी बोले – “ देवी ! मेरे पास कहाँ धन है, जो दूंगा। किन्तु मेरा भक्त अब गरीब नहीं है।

*

निमित्त होने का घमंड कैसा ??*

*एक लकड़हारा रात-दिन लकड़ियां काटता, मगर कठोर परिश्रम के बावजूद उसे आधा पेट भोजन ही मिल पाता था।*
*एक दिन उसकी मुलाकात एक साधु से हुई। लकड़हारे ने साधु से कहा कि जब भी आपकी प्रभु से मुलाकात हो तो, मेरी एक फरियाद उनके सामने रखना और मेरे कष्ट का कारण पूछना।*
*कुछ दिनों बाद उसे वह साधु मिला।*
*लकड़हारे ने उसे अपनी फरियाद की याद दिलाई तो साधु ने कहा कि- "प्रभु ने बताया हैं कि लकड़हारे की आयु 60 वर्ष हैं और उसके भाग्य में पूरे जीवन के लिए सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं। इसलिए प्रभु उसे थोड़ा अनाज ही देते हैं ताकि वह 60 वर्ष तक जीवित रह सके।"*
*समय बीता। साधु उस लकड़हारे को फिर मिला तो लकड़हारे ने कहा ---*
*"ऋषिवर! अब जब भी आप की प्रभु से बात हो तो मेरी यह फरियाद उन तक पहुँचा देना कि वह मेरे जीवन का सारा अनाज एक साथ दे दें, ताकि कम से कम एक दिन तो मैं भरपेट भोजन कर सकूं।"*
*अगले दिन साधु ने कुछ ऐसा किया कि लकड़हारे के घर ढ़ेर सारा अनाज पहुँच गया।*
*लकड़हारे ने समझा कि प्रभु ने उसकी फरियाद कबूल कर उसे उसका सारा हिस्सा भेज दिया हैं।*
*उसने बिना कल की चिंता किए, सारे अनाज का भोजन बनाकर फकीरों और भूखों को खिला दिया और खुद भी भरपेट खाया।*
*लेकिन अगली सुबह उठने पर उसने देखा कि उतना ही अनाज उसके घर फिर पहुंच गया हैं। उसने फिर गरीबों को खिला दिया। फिर उसका भंडार भर गया।*
*यह सिलसिला रोज-रोज चल पड़ा और लकड़हारा लकड़ियां काटने की जगह गरीबों को खाना खिलाने में व्यस्त रहने लगा।*
*कुछ दिन बाद वह साधु फिर लकड़हारे को मिला तो लकड़हारे ने कहा -"ऋषिवर ! आप तो कहते थे कि मेरे जीवन में सिर्फ पाँच बोरी अनाज हैं, लेकिन अब तो हर दिन मेरे घर पाँच बोरी अनाज आ जाता हैं।"*
*साधु ने समझाया, "तुमने अपने जीवन की परवाह ना करते हुए अपने हिस्से का अनाज गरीब व भूखों को खिला दिया।*
*इसीलिए प्रभु अब उन गरीबों के हिस्से का अनाज तुम्हें दे रहे हैं।"*
*कथासार- किसी को भी कुछ भी देने की शक्ति हम में है ही नहीं, हम देते वक्त ये सोचते हैं, की जिसको कुछ दिया तो  ये मैंने दिया !*
*दान, वस्तु, ज्ञान, यहाँ तक की अपने बच्चों को भी कुछ देते दिलाते हैं, तो कहते हैं मैंने दिलाया ।*
*वास्तविकता ये है कि वो उनका अपना है आप को सिर्फ परमात्मा ने निमित्त मात्र बनाया हैं। ताकी उन तक उनकी जरूरते पहुचाने के लिये। तो निमित्त होने का घमंड कैसा ??*


Bolo jai shiri ram
राम राम ।

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