Thursday, April 16, 2020

धर्म कर्म प्रसंग में आस्था भक्ति




प्रस्तुति - कृष्ण मेहता: *⭕ 

परिवर्तन  ⭕*


♦️ एक राजा को राज भोगते हुए काफी समय हो गया था । बाल भी सफ़ेद होने लगे थे । एक दिन उसने अपने दरबार में एक उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया ।

♦️ राजा ने कुछ स्वर्ण मुद्रायें अपने गुरु जी को भी दीं, ताकि यदि वे चाहें तो नर्तकी के अच्छे गीत व नृत्य पर वे उसे पुरस्कृत कर सकें । सारी रात नृत्य चलता रहा । ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी । नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है, उसको जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा पढ़ा -
 *"बहु बीती, थोड़ी रही, पल पल गयी बिताय।*
*एक पलक के कारने, क्यों कलंक लग जाय ।"*

♦️ अब इस दोहे का अलग-अलग व्यक्तियों ने अपने अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला । तबले वाला सतर्क होकर बजाने लगा ।

♦️ जब यह बात गुरु जी ने सुनी तो  उन्होंने सारी मोहरें उस नर्तकी के सामने फैंक दीं ।

♦️ वही दोहा नर्तकी ने फिर पढ़ा तो राजा की लड़की ने अपना नवलखा हार नर्तकी को भेंट कर दिया ।

♦️ उसने फिर वही दोहा दोहराया तो राजा के पुत्र युवराज ने अपना मुकट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया ।

♦️ नर्तकी फिर वही दोहा दोहराने लगी तो राजा ने कहा - "बस कर, एक दोहे से तुमने वैश्या होकर भी सबको लूट लिया है ।"

♦️ जब यह बात राजा के गुरु ने सुनी तो गुरु के नेत्रों में आँसू आ गए और गुरु जी कहने लगे - "राजा ! इसको तू वैश्या मत कह, ये तो अब मेरी गुरु बन गयी है । इसने मेरी आँखें खोल दी हैं । यह कह रही है कि मैं सारी उम्र संयमपूर्वक भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ, भाई ! मैं तो चला ।" यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े ।

♦️ राजा की लड़की ने कहा - "पिता जी ! मैं जवान हो गयी हूँ । आप आँखें बन्द किए बैठे हैं, मेरी शादी नहीं कर रहे थे और आज रात मैंने आपके महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद कर लेना था । लेकिन इस नर्तकी ने मुझे सुमति दी है कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?"

♦️ युवराज ने कहा - "पिता जी ! आप वृद्ध हो चले हैं, फिर भी मुझे राज नहीं दे रहे थे । मैंने आज रात ही आपके सिपाहियों से मिलकर आपका कत्ल करवा देना था । लेकिन इस नर्तकी ने समझाया कि पगले ! आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है । धैर्य रख ।"

♦️ जब ये सब बातें राजा ने सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया । राजा के मन में वैराग्य आ गया । राजा ने तुरन्त फैसला लिया - "क्यों न मैं अभी युवराज का राजतिलक कर दूँ ।" फिर क्या था, उसी समय राजा ने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को कहा - "पुत्री ! दरबार में एक से एक राजकुमार आये हुए हैं । तुम अपनी इच्छा से किसी भी राजकुमार के गले में वरमाला डालकर पति रुप में चुन सकती हो ।" राजकुमारी ने ऐसा ही किया और राजा सब त्याग कर जंगल में गुरु की शरण में चला गया ।

♦️ यह सब देखकर नर्तकी ने सोचा - "मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं क्यूँ नहीं सुधर पायी ?" उसी समय नर्तकी में भी वैराग्य आ गया । उसने उसी समय निर्णय लिया कि आज से मैं अपना बुरा धंधा बन्द करती हूँ और कहा कि "हे प्रभु ! मेरे पापों से मुझे क्षमा करना । बस, आज से मैं सिर्फ तेरा नाम सुमिरन करुँगी "

♦️ समझ आने की बात है, दुनिया बदलते देर नहीं लगती । एक दोहे की दो लाईनों से भी हृदय परिवर्तन हो सकता है । बस, केवल थोड़ा धैर्य रखकर चिन्तन करने की आवश्यकता है ।

*_♦️ प्रशंसा से पिघलना नहीं चाहिए, आलोचना से उबलना नहीं चाहिए । नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते रहें । क्योंकि इस धरा का, इस धरा पर, सब धरा रह जायेगा_*

*सदैव प्रसन्न रहिये!!*
*जो प्राप्त है-पर्याप्त है!!*
🙏🙏🙏🌳🌳




🌷


*।।हनुमानजी की दिव्य उधारी।।*


सब पर कर्जा हनुमान जी का,सब ऋणी हनुमानजी महराज के।


रामजी लंका पर विजय प्राप्त करके आए तो,भगवान ने विभीषण जी,जामवंत जी,अंगद जी,सुग्रीव जी सब को अयोध्या से विदा किया। तो सब ने सोचा हनुमान जी को प्रभु बाद में बिदा करेंगे,लेकिन रामजी ने हनुमानजी को विदा ही नहीं किया,अब प्रजा बात बनाने लगी कि क्या बात सब गए हनुमानजी नहीं गए अयोध्या से!

अब दरबार में काना फूसी शुरू हुई कि हनुमानजी से कौन कहे जाने के लिए,तो सबसे पहले माता सीता की बारी आई कि आप ही बोलो कि हनुमानजी चले जाएं।

माता सीता बोलीं मै तो लंका में विकल पड़ी थी,मेरा तो एक एक दिन एक एक कल्प के समान बीत रहा था,वो तो हनुमानजी थे,जो प्रभु मुद्रिका लेके गए,और धीरज बंधवाया कि...!

कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

मै तो अपने बेटे से बिल्कुल भी नहीं बोलूंगी अयोध्या छोड़कर जाने के लिए,आप किसी और से बुलावा लो।

अब बारी आयी लखनजी की तो लक्ष्मण जी ने कहा,मै तो लंका के रणभूमि में वैसे ही मरणासन्न अवस्था में पड़ा था,पूरा रामदल विलाप कर रहा था।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।

ये तो जो खड़ा है,वो हनुमानजी का लक्ष्मण है। मै कैसे बोलूं,किस मुंह से बोलूं कि हनुमानजी अयोध्या से चले जाएं!

अब बारी आयी भरतजी की,अरे! भरतजी तो इतना रोए,कि रामजी को अयोध्या से निकलवाने का कलंक तो वैसे ही लगा है मुझपे,हनुमानजी का सब मिलके और लगवा दो!

और दूसरी बात ये कि...!

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना। अधम कवन जग मोहि समाना॥

मैंने तो नंदीग्राम में ही अपनी चिता लगा ली थी, वो तो हनुमानजी थे जिन्होंने आकर ये खबर दी कि...!

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥

मैं तो बिल्कुल न बोलूं हनुमानजी से अयोध्या छोड़कर चले जाओ,आप किसी और से बुलवा लो।

अब बचा कौन..? सिर्फ शत्रुहन भैया। जैसे ही सब ने उनकी तरफ देखा,तो शत्रुहन भैया बोल पड़े मैंने तो पूरी रामायण में कहीं नहीं बोला,तो आज ही क्यों बुलवा रहे हो,और वो भी हनुमानजी को अयोध्या से निकलने के लिए,जिन्होंने ने माता सीता, लखन भैया,भरत भैया सब के प्राणों को संकट से उबारा हो! किसी अच्छे काम के लिए कहते बोल भी देता। मै तो बिल्कुल भी न बोलूं।

अब बचे तो मेरे राघवेन्द्र सरकार,माता सीता ने कहा प्रभु! आप तो तीनों लोकों ये स्वामी है,और देखती हूं आप हनुमानजी से सकुचाते है।और आप खुद भी कहते हो कि...!

प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

आखिर आप के लिए क्या अदेय है प्रभु! राघवजी ने कहा देवी कर्जदार जो हूं,हनुमान जी का,इसीलिए तो

"सनमुख होइ न सकत मन मोरा"

देवी! हनुमानजी का कर्जा उतारना आसान नहीं है,इतनी सामर्थ राम में नहीं है,जो "राम नाम" में है। क्योंकि कर्जा उतारना भी तो बराबरी का ही पड़ेगा न...! यदि सुनना चाहती हो तो सुनो हनुमानजी का कर्जा कैसे उतारा जा सकता है।

पहले हनुमान विवाह करें,लंकेश हरें इनकी जब नारी।

मुदरी लै रघुनाथ चलै,निज पौरुष लांघि अगम्य जे वारी।

अायि कहें,सुधि सोच हरें,तन से,मन से होई जाएं उपकारी।

तब रघुनाथ चुकायि सकें,ऐसी हनुमान की दिव्य उधारी।।

देवी! इतना आसान नहीं है,हनुमान जी का कर्जा चुकाना। मैंने ऐसे ही नहीं कहा था कि...!

"सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं"

मैंने बहुत सोच विचार कर कहा था। लेकिन यदि आप कहती हो तो कल राज्य सभा में बोलूंगा कि हनुमानजी भी कुछ मांग लें।

दूसरे दिन राज्य सभा में सब एकत्र हुए,सब बड़े उत्सुक थे कि हनुमानजी क्या मांगेंगे,और रामजी क्या देंगे।
राघवजी ने कहा! हनुमान सब लोगों ने मेरी बहुत सहायता की और मैंने,सब को कोई न कोई पद दे दिया। विभीषण और सुग्रीव को क्रमशः लंका और किष्कन्धा का राजपद,अंगद को युवराज पद। तो तुम भी अपनी इच्छा बताओ...?

हनुमानजी बोले! प्रभु आप ने जितने नाम गिनाए,उन सब को एक एक पद मिला है,और आप कहते हो...!

"तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना"

तो फिर यदि मै दो पद मांगू तो..?
सब लोग सोचने लगे बात तो हनुमानजी भी ठीक ही कह रहे हैं। रामजी ने कहा! ठीक है,मांग लो,सब लोग बहुत खुश हुए कि आज हनुमानजी का कर्जा चुकता हुआ।

हनुमानजी ने कहा! प्रभु जो पद आप ने सबको दिए हैं,उनके पद में राजमद हो सकता है,तो मुझे उस तरह के पद नहीं चाहिए, जिसमे राजमद की शंका हो,तो फिर...! आप को कौन सा पद चाहिए...?

हनुमानजी ने रामजी के दोनों चरण पकड़ लिए, प्रभु ..! हनुमान को तो बस यही दो पद चाहिए।

हनुमत सम नहीं कोउ बड़भागी।
नहीं कोउ रामचरण अनुरागी।।

जानकी जी की तरफ देखकर मुस्कुराते हुए राघवजी बोले,लो उतर गया हनुमानजी का कर्जा!

और अभी तक जिसको बोलना था,सब बोल चुके है,अब जो मै बोलता हूं उसे सब सुनो,रामजी भरत भैया की तरफ देखते हुए बोले...!

"हे! भरत भैया' कपि से उऋण हम नाही"

हम चारों भाई चाहे जितनी बार जन्म लेेलें,हनुमानजी से उऋण नही हो सकती

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