Wednesday, April 29, 2020

भगवान लीला की तीन कहानियां




 प्रस्तुति- कृष्ण मेहता:

ठाकुर जी की मुरली
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किसी गांव में एक पुजारी अपने बेटे के साथ रहता था।
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पुजारी हर रोज ठाकुर जी और किशोरी जी की सेवा मन्दिर में बड़ी श्रद्धा भाव से किया करता था।
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उसका बेटा भी धोती कुर्ता डालकर सिर पर छोटी सी चोटी करके पुजारी जी के पास उनको सेवा करते देखता था।
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एक दिन वह बोला बाबा आप अकेले ही सेवा करते हो मुझे भी सेवा करनी है..
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परन्तु पुजारी जी बोले बेटा अभी तुम बहुत छोटे हो... परन्तु वह जिद पकड़ कर बैठ गया।
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पुजारी जी आखिर उसकी हठ के आगे झुक कर बोले अच्छा बेटा तुम ठाकुर जी की मुरली की सेवा किया करो...
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इसको रोज गंगाजल से स्नान कराकर इत्र लगाकर साफ किया करो।
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अब तो वह बालक बहुत खुशी से मुरली की सेवा करने लगा।
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इतनी लगन से मुरली की सेवा करते देखकर हर भक्त बहुत प्रसन्न होता तो ऐसे ही मुरली की सेवा करने से उसका नाम "मुरली" ही पड़ गया।
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अब तो पुजारी ठाकुर और ठकुरानी की सेवा करते और मुरली ठाकुर जी की मुरली की।
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ऐसे ही समय बहुत अच्छे से बीत रहा था कि एक दिन पुजारी जी बीमार पड़ गए.. मन्दिर के रखरखाव और ठाकुर जी की सेवा में बहुत ही मुश्किल आने लगी।
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अब उस पुजारी की जगह मन्दिर में नए पुजारी को रखा गया...
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वह पुजारी बहुत ही घमण्डी था, वह मुरली को मन्दिर के अंदर भी आने नहीं देता था
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अब मुरली के बाबा ठीक होने की बजाय और बीमार हो गए और एक दिन उनका लंबी बीमारी के बाद स्वर्गवास हो गया।
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अब तो मुरली पर मुसीबतों का पहाड़ टूट गया... नए पुजारी ने मुरली को धक्के मारकर मन्दिर से बाहर निकाल दिया।
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मुरली को अब अपने बाबा और ठाकुर जी की मुरली की बहुत याद आने लगी।
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मन्दिर से निकलकर वह शहर जाने वाली सड़क की ओर जाने लगा... थक हार कर वह एक सड़क के किनारे पड़े पत्थर पर बैठ गया।
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सर्दी के दिन ऊपर से रात पढ़ने वाली थी मुरली का भूख और ठंड के कारण बुरा हाल हो रहा था
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रात होने के कारण उसे थोड़ा डर भी लग रहा था।
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तभी ठाकुर जी की कृपा से वहाँ से एक सज्जन पुरुष "रामपाल" की गाड़ी निकली
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इतनी ठंड और रात को एक छोटे बालक को सड़क किनारे बैठा देखकर वह गाड़ी से नीचे उतर कर आए और बालक को वहाँ बैठने का कारण पूछा।
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मुरली रोता हुआ बोला कि उसका कोई नहीं है। बाबा भगवान् के पास चले गए।
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सज्जन पुरुष को मुरली पर बहुत दया आई क्योंकि उसका अपना बेटा भी मुरली की उम्र का ही था। वह उसको अपने साथ अपने घर ले गए।
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जब घर पहुँचा तो उसकी पत्नी जो की बहुत ही घमण्डी थी, उस बालक को देखकर अपने पति से बोली यह किस को ले आए हो
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वह व्यक्ति बोला कि आज से मुरली यही रहेगा उसकी पत्नी को बहुत गुस्सा आया लेकिन पति के आगे उसकी एक ना चली।
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मुरली उसे एक आँख भी नहीं भाता था। वह मौके की तलाश में रहती कि कब मुरली को नुकसान पहुँचाए
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एक दिन वह सुबह 4:00 बजे उठी और पांव की ठोकर से मुरली को मारते हुए बोली कि उठो कब तक मुफ्त में खाता रहेगा
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मुरली हड़बड़ा कर उठा और कहता मां जी क्या हुआ तो वह बोली कि आज से बाबूजी के उठने से पहले सारा घर का काम किया कर।
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मुरली ने हाँ में सिर हिलाता हुआ सब काम करने लगा अब तो हर रोज ही मां जी पाव की ठोकर से मुरली को उठाती और काम करवाती।
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मुरली जो कि उस घर के बने हुए मन्दिर के बाहर चटाई बिछाकर सोता था।
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रामपाल की पत्नी उसको घर के मन्दिर मे नही जाने देती थी... इसका कारण यह था कि मन्दिर मे रामपाल के पूर्वजो की बनवाई चांदी की मोटी सी ठाकुर जी की मुरली पड़ी हुई थी।
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मुरली ठाकुर जी की मुरली को देख कर बहुत खुश होता, उसको तो रामपाल की पत्नी जो ठोकर मारती थी दर्द का एहसास भी नहीं होता था।
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एक दिन रामपाल हरिद्वार गंगा स्नान को जाने लगा तो मुरली को भी साथ ले गया।
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वहाँ गंगा स्नान करते हुए अचानक रामपाल का ध्यान मुरली की कमर के पास पेट पर बने पंजो के निशान को देख कर तो वह हैरान हो गया
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उसने मुरली से इसके बारे में पूछा तो वह टाल गया।
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अब रामपाल गंगा स्नान करके घर पहुँचा तो घर में ठाकुर जी की और किशोरी जी को स्नान कराने लगा...
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बाद में अपने पूर्वजों की निशानी ठाकुर जी की मुरली को भी गंगा स्नान कराने लगा..
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तभी उसका ध्यान ठाकुर जी की मुरली के मध्य भाग पर पड़ा.. वहाँ पर पांव की चोट के निशान से पंजा बना था... जैसे मुरली की कमर पर बना था...
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तो वह देख कर हैरान हो गया कि एक जैसे निशान दोनों के कैसे हो सकते हैं.. वह कुछ नहीं समझ पा रहा था।
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रात को अचानक जब उसकी नींद खुली तो वह देखता है कि उसकी पत्नी मुरली को पांव की ठोकर से उसी जगह पर मार कर उठा रही है...
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उसको अब सब समझते देर न लगी...
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रामपाल को उसी रात कोई काम था। जिस कारण रामपाल ने मुरली को रात अपने कमरे मे ही सुला लिया !
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रामपाल रात को मन्दिर मे ठाकुर जी को विश्राम करवाने के बाद दरवाजा लगाने के लिए कांच का दरवाजा मन्दिर के बाहर की और खुला रख आए !
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उसकी पत्नी रोज की तरह आई और ठोकर मार कर मुरली को उठाने लगी...
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मुरली तो वहाँ था नहीं और उसका पांव मन्दिर के बाहर दरवाजे पर लगा.. और उसका पैर खून खून हो गया.. वह दर्द से कराहने लगी।
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उसके चीखने की आवाज सुनकर रामपाल उठ गया... और उसको देखकर बोला कि यह क्या हुआ...
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उसने कहा कि यह कांच के दरवाजे की ठोकर लग गयी...
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रामपाल बोला कि जो ठोकर तुम रोज मुरली को मारती रही ठाकुर जी की मुरली उस का सारा दर्द ले लेती थी...
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जो ठाकुर जी को प्यारे होते हैं भगवान् उनकी रक्षा करते हैं...
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देखो भगवान् की मुरली भी अपने सेवक की रक्षा करती है.. उसकी पीड़ा अपने ऊपर ले लेती है..
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रामपाल की पत्नी को उसकी सजा मिल गई.. जिससे मुरली को ठोकर मारती थी आज वह पंजा डाक्टर ने काट दिया..
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रामपाल की पत्नी को अपनी भूल का एहसास हो गया था और अब वह मुरली का अपने बेटे की तरह ही ध्यान रखती थी।


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भक्त दर्जी और सुदामा माली"

     


 मथुरा में एक भगवद्भक्त दर्जी रहता था। कपड़े सीकर अपना तथा अपने परिवार का पालन करता एवं यथासंभव दान करता था। भगवान का स्मरण, पूजन, ध्यान ही उसे सबसे प्रिय था। इसी प्रकार सुदामा नामक एक माली भी मथुरा में था। भगवान की पूजा के लिये सुन्दर-से-सुन्दर मालाएं, फूलों के गुच्छे वह बनाया करता था। दर्जी और माली दोनों ही अपना-अपना काम करते हुए बराबर भगवान के नाम जप करते रहते थे और उन श्यामसुन्दर के स्वरूप का ही चिन्तन करते थे।
       
भगवान न तो घर छोड़कर वन में जाने से प्रसन्न होते हैं और न तपस्या, उपवास या और किसी प्रकार शरीर को कष्ट देने से। उन सर्वेश्वर को न तो कोई अपनी बुद्धि से संतुष्ट कर सकता है और न विद्या से। बहुत-से ग्रंथों को पढ़ लेना या अद्भुत तर्क कर लेना, काव्य तथा अन्य कलाओं की शक्ति अथवा बहुत-सा धन परमात्मा को प्रसन्न करने में समर्थ नहीं है। दर्जी और माली दोनों में से कोई ऊंची जाति का नहीं था। किसी ने वेद-शास्त्र नहीं पढ़े थे, कोई उनमें तर्क करने में चतुर नहीं था और न ही उन लोगों ने कोई बड़ी तपस्या या अनुष्ठान ही किया था। दोनों गृहस्थ थे। दोनों अपने-अपने काम में लगे रहते थे। परंतु एक बात दोनों में थी, दोनों भगवान के भक्त थे। दोनों धर्मात्मा थे। अपने-अपने काम को बड़ी सच्चाई से दोनों करते थे। ईमानदारी से परिश्रम करके जो मिल जाता, उसी में दोनों को संतोष था। झूठ, छल, कपट, चोरी, कठोर वचन, दूसरों की निन्दा करना आदि दोष दोनों में नहीं थे। भगवान पर दोनों का पूरा विश्वास था। भगवान को ही दोनों ने अपना सर्वस्व मान रखा था और ‘राम, कृष्ण, गोविन्द‘ आदि पवित्र भगवननाम् उनकी जिह्वा पर निरन्तर नाचा करते थे। भगवान को तो यह निश्छल सरल भक्ति-भाव ही प्रसन्न करता है।
   
   जब अक्रूर जी के साथ बलराम और श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये तो अक्रूर को घर भेजकर भोजन तथा विश्राम करने के पश्चात दिन के चौथे पहर वे सखाओं से घिरे हुए मथुरा नगर देखने निकले। कंस के घमंडी धोबी को मारकर श्यामसुन्दर ने राजकीय बहुमूल्य वस्त्र छीन लिये। वस्त्रों को स्वयं पहना, बड़े भाई को पहनाया और सखाओं में बांट दिया। वे वस्त्र कुछ राम-श्याम तथा बालकों के नाप से तो बने नहीं थे, अत: ढीले-ढाले उनके शरीर में लग रहे थे। भक्त दर्जी ने यह देखा और दौड़ आया वह। त्रिभुवनसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र हंसते हुए उसके सम्मुख खड़े हो गये। जिनकी एक झांकी के लिये बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र तरसते रहते हैं, वे श्यामसुन्दर दर्जी के सम्मुख खड़े थे। महाभाग दर्जी ने उनके वस्त्रों को काट-छांटकर, सीकर ठीक कर दिया।
       
बलराम जी तथा सभी गोप बालकों के वस्त्र उसने उनके शरीर के अनुरूप बना दिये। प्रसन्न होकर भगवान ने दर्जी से कहा- "तुम्हें जो मांगना हो, मांगो।" दर्जी तो चुपचाप मुख देखता रह गया। श्रीकृष्णचन्द्र का। उसने किसी इच्छा से, किसी स्वार्थ से तो यह काम किया नहीं था। हाथ जोड़कर उसने प्रार्थना की- "प्रभो! मैं नीच कुल का ठहरा, मुझे आप लोगों की सेवा का यह सौभाग्य मिला, यही क्या कम हुआ।" भगवान ने दर्जी को वरदान दिया- "जब तक तुम इस लोक में रहोगे, तुम्हारा शरीर स्वस्थ, सबल, आरोग्य रहेगा। तुम्हारी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होगी। तुम्हें सदा मेरी स्मृति रहेगी। ऐश्वर्य तथा लक्ष्मी तुम्हारे पास भरपूर रहेंगी। इसके पश्चात मेरा रूप धारण करके तुम मेरे लोक में मेरे पास रहोगे। तुम्हें मेरा सारूप्य प्राप्त होगा।"
     

 इसके पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र सुदामा माली के घर गये। सुदामा तो राम-श्याम को देखते ही कीर्तन करते हुए आनन्द के मारे नाचने लगा। उसने भूमि में लोटकर दण्डवत प्रणाम किया। सब को आसन देकर बिठाया। सखाओं तथा बलराम जी के साथ श्यामसुन्दर के उसने चरण धोये। सब को चन्दन लगाया, मालाएं पहनायीं, विविधत सब की पूजा की। पूजा करके वह हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा। उसने कहा- "भगवन! मैंने ऋषि-मुनियों से सुना है कि आप दोनों ही इस जगत के परम कारण हैं। आप जगदीश्वर हैं। संसार के प्राणियों का कल्याण करने के लिये, जीवों के अभ्युदय के लिये आपने अवतार लिया है। आप तो सारे संसार के आत्मस्वरूप हैं। सभी प्राणियों के सुहृद हैं। आप में विषमदृष्टि नहीं है। सभी प्राणियों में समरूप से आप स्थित हैं। फिर भी जो आपका भजन करते हैं, उन पर आपका अनुग्रह होता है। मैं आपका दास हूँ, अत: मुझे कोई सेवा करने की आज्ञा अवश्य करें, क्योंकि आपकी सबसे बड़ी कृपा जीव पर यही होती है कि आप उसे अपनी सेवा का अधिकार दें। आपकी आज्ञा का पालन करना ही जीव का परम सौभाग्य है।"
     

 सुदामा ने सखाओं के साथ भगवान की पूजा कर ली थी, उन्हें मालाएं पहनायी थीं, फिर भी उसे प्रसन्न करने के लिये श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- "सुदामा! हम सबको तुम्हारी सुन्दर मालाएं और फूलों के गुच्छे चाहिये।" माली सुदामा ने बड़ी श्रद्धा से बहुत ही सुन्दर-सुन्दर मालाएं फिर भगवान को तथा सभी गोप बालकों को पहनायीं, उन्हें फूलों से सजाया और उनके हाथों में फूलों के सुन्दर गुच्छे बनाकर दिये। भगवान ने कहा- "सुदामा! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम वरदान मांगो।" सुदामा भगवान के चरणों में लोट गया। हाथ जोड़कर उसने फिर प्रार्थना की- "प्रभो! आप अखिलात्मा में मेरी अविचल भक्ति रहे, आपके भक्तों से मेरी मैत्री रहे और सभी प्राणियों के प्रति मेरे मन में दया-भाव रहे- मुझे यही वरदान दें।"
     

  भगवान ने 'एवमस्तु' कहकर फिर कहा- "तुमने जो मांगा, वह तो तुम्हें मिल ही गया। तुम्हें दीर्घायु प्राप्त होगी। तुम्हारे शरीर का बल तथा कान्ति कभी क्षीण नहीं होगी। लोक में तुम्हारा सुयश होगा और तुम्हारे पास पर्याप्त धन होगा। वह धन तुम्हारी सन्तान परम्परा में बढ़ता ही जायेगा।" माली को यह वरदान देकर श्रीकृष्णचन्द्र नगर दर्शन करने चले गये।
     
 वे दर्जी और माली जीवन भर भगवान का स्मरण-भजन करते रहे और अन्त में भगवान के लोक में उनके नित्य पार्षद हुए।
                   
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"भक्त नीलाम्बरदास"

       
 हरि हरि कहि पागल फिरैं, डोलैं हाल बेहाल।
       
 जिनके हिय मैं बसि गयो, हियहारी नँदलाल॥

     
  नीलाम्बर दास के हृदय में वह हृदयहारी नन्दलाल बस गया था। घर पर स्त्री थी, पुत्र थे, भरा-पूरा कुटुम्ब था, धन था, मान-प्रतिष्ठा थी; किंतु जब वह चितचोर किसी के चित्त को चुरा लेता है, तब ये ही संसार के सुख, जिनके लिये लोग दिन-रात हाय-हाय करते हैं, अनेक पाप करते भी नहीं हिचकते, उसे विष-जैसे लगते हैं। नीलाम्बर दास का भी भाग्योदय हुआ था। उनका हृदय भी उस हरि ने चुरा लिया था। घर-द्वार, धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, मान-प्रतिष्ठा, सबको तृण के समान त्यागकर, सबसे पिण्ड छुड़ाकर वे उत्तरप्रदेश से श्रीजगन्नाथ-पुरी को चल पड़े थे। नीलाचलनाथ के दर्शन की प्यास उनके प्राणों में जाग उठी थी। मुख से 'हरि-हरि' कहते, मन से हरि का ध्यान करते वे मतवाले की भाँति चले जा रहे थे।
       
अनेक पर्वत, नदी, नाले, वन, नगर पार करते नीलाम्बरदास गङ्गा-किनारे पहुँचे। वर्षा की ऋतु, बढ़ी हुई भगवती भागीरथी की धारा, न कोई ग्राम, न घाट। सन्ध्या हो चुकी थी। नीलाम्बरदास गङ्गा-तीर पर उस निर्जन स्थान में बैठकर भजन करने लगे। थोड़ी देर में उधर से एक मल्लाह जाल लिये, मछली मारता नौका पर निकला। नीलाम्बरदास ने उसे पुकारा - 'अरे भाई ! कृपा करके इस ब्राह्मण को उस पार उतार दो। तुम जो माँगोगे, वही दूँगा। भाड़े के लिये चिन्ता न करो।'
     
  मल्लाह को लगा कि यात्री के पास धन है। अच्छा शिकार फँसा समझकर वह नौका किनारे ले आया। नीलाम्बरदास प्रसन्न होकर भगवान् का स्मरण करते हुए नाव में बैठ गये। सूर्यदेव छिप चुके थे अन्धकार बढ़ता जा रहा था। नीलाम्बरदास नौका पार लगाने की शीघ्रता कर रहे थे; पर यह देखकर कि मल्लाह उनकी बात सुनता ही नहीं, वह धारा में नाव बहाये ले जा रहा है उन्हें सन्देह हो गया। वे बोले-' भाई! तेरा मतलब क्या है? तू मुझे मार डालना चाहता है क्या? अच्छा, मैं भी देखता हूँ कि श्रीजगन्नाथ के यात्री को तू कैसे मारता है।'
         मल्लाह ने कहा-' मेरा मतलब समझने में तुम्हें अब बहुत देर नहीं लगेगी। तुमको यदि किसी को याद करना हो तो कर लो। मैं तुम्हें अभी नीलाचल पहुँचाये देता हूँ।'
   
 
इस निर्जन प्रदेश में बढ़ी गङ्गा के बीच यात्री को मारकर फेंक देना और उसका धन छीन लेना बड़ा सरल काम था। मल्लाह पहले से इसीलिये नौका पर बैठाकर यात्री को ले आया था। अब नीलाम्बरदास ने घबराकर भगवान् को पुकारना प्रारम्भ किया- ' एक बार श्रीजगन्नाथ के दर्शन होने पर प्राण भले चले जायें, पर उन रथारूढ़ नीलाचलनाथ के दर्शन अवश्य हों। इस विपत्तिसे वे दयामय ही ब्राह्मण को बचा सकते हैं।'
     
  जब कोई सर्वथा असहाय होकर भगवान् को पुकारता है, तब भगवान् उसकी प्रार्थना का उत्तर अवश्य देते हैं। वे जगन्नाथ एक राजपूत का वेश धारण करके किनारे पहुँचे और उन्होंने पुकारा - 'अरे ओ मल्लाह ! नाव ले आ। यदि तुझे मरने की इच्छा न हो तो चल, आ इटपट इधर।' मल्लाह की तो नानी मर गयी। भय से थर- थर काँपने लगा वह लेकिन नाव को वह बहाव में बहाये ही जा रहा था जब उसने दूसरी पुकार पर भी ध्यान न दिया तो एक बाण खट से आकर नौका में घुस गया और किनारे से शब्द आया- अब की बार नाव पर बाण मारा है। अब यदि तू इधर नहीं आता तो सिर उड़ा दूँगा।' मल्लाह भय के कारण सफेद पड़ गया। उसने नौका किनारे की ओर मोड़ी।
     
 किनारे पहुँचने पर राजपूत ने उसे डाँटा और वे ब्राह्मण से बोले-'मैं लुटेरे, हत्यारों से यात्रियों की रक्षा करने के लिये इधर घूमा करता हूँ। मैंने यह वेश पीड़ितों की रक्षा के लिये ही धारण किया है।'
     
 ब्राह्मण ने धन्यवाद दिया, कृतज्ञता प्रकट की और श्रीजगन्नाथजी के दर्शनों के लिये शीघ्र गङ्गा-पार होने की इच्छा व्यक्त की। राजपूत ने मल्लाह को डाँटकर कहा - 'इन ब्राह्मण देवता को झटपट उस पार उतार दे। अभी मेरे सामने इन्हें उस पार उतार। तनिक भी इधर-उधर किया तो मेरा धनुष देखे रह।' मछुए को तो प्राणों के बचने की आशा ही नहीं थी। अब उसे कुछ धैर्य हुआ। वह अपने अपराध की बार-बार क्षमा माँगता हुआ उठा और नीलाम्बरदास को नौका में बैठाकर उसने तुरंत पार उतार दिया। मछुए का मन बदल गया था। उसे अपने कृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप था। वह ब्राह्मण के पैरों पर गिर पड़ा। उसे आशीर्वाद देकर नीलाम्बर दास पुरी को चल पड़े।
       
भगवान् जगन्नाथ बलरामजी तथा सुभद्रा के साथ रथ पर विराजमान हैं। लाखों भक्तों का समूह जय-जयकार कर रहा है। चारों ओर कीर्तन, जयघोष और आनन्द-ही-आनन्द है। पुरी पहुँचने पर नीलाम्बरदास को भगवान् की इस झाँकी के दर्शन हुए। वे बेसुध-से होकर भगवान् के रथ के सामने साष्टाङ्ग दण्डवत् करते गिर पड़े। लोगों ने दौड़कर उन्हें उठाना और मार्ग से हटाना चाहा, पर अब नीलाम्बरदास को कौन हटा सकता था। वे तो श्रीजगन्नाथ से एक हो गये थे मार्ग में तो उनका देह पड़ा धा, जिसे भक्तों ने कीर्तन करते हुए समुद्र में विसर्जित कर दिया। जगन्नाथपुरी में अब तक उनके इस दुर्लभ मरण की महिमा गायी जाती है।
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