Thursday, June 25, 2020

25/06 को सुबह -शाम के सतसंग के पाठ और वचन






*राधास्वामी!! 25-06-2020-

आज सुबह के सतसंग में पढे गये पाठ-

(1) यह आरत दासी रची, प्रेम सिंध की धार। धारा उमँगी प्रेम की, जा का वार न पार।। तुम भृंगी मैं कीट अधीना। मिल गये राधास्वामी अति परबीना।।-  (तुम मोती मै भी भई धागा। संग तुम्हारा कभी न त्यागा।।) (सारबचन-शब्द-पाँचवा-पृ.सं.120,121)

(2) सुरतिया रंग भरी। आज खेलत गुरू सँग फाग।। लाल हुई गुरु सँग खेल होली। छूट गये सब कल मल दाग।।-(प्रेम रंगीली आरत धारी। राधास्वामी चरन रही मैं लाग।।)

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**





**राधास्वामी!! 25-06-2020-

आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ- 
                       

  (1) आज सँग सतगुरू खेलूँगी होरी। मेरे हिये बिच उठत हिलौरी।।-(ऐसे समय राधास्वामी पाए। लाग रहूँ चरनन चित्त जोडी।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-3,पृ.सं.262)

 (2) क्या सोच करे मन मेरे ऋतु आई ।।टेक।।-(सहज सहज मेरी बुद्धि बदलानी श्रद्धा आस की धरी धरंत) (प्रेमबिलास-शब्द-137, पृ.सं.201)                         

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला

 कल से आगे।।   
        

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

**राधास्वामी!! 25-06-2020-

आज शाम के सतसंग में पढा गया बचन

-कल से आगे-(32)

पिछले दिनों मुझे सरदार बहादुर काहनसिँह साहब रचित " गुरूमत-सुधाकर" नाम की एक पुस्तक देखने का अवसर प्राप्त हुआ। मेरे आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब मैनें उसके पृ. 160 पर निम्नलिखित फुटनोट पढा। बारबार मन ने यही कहा- अवश्य भारतीयों का कोई दुर्भाग्य ही उदय हुआ है कि सरदार साहब सरीखे विद्वान अनहद शब्द के अस्तित्व को स्वीकार नही करते, हरचंद श्री ग्रंथसाहब के प्रत्येक पृष्ठ उसकी महिमा वर्णन की गई है।

फुकनोट यह है:-           

" 'शबद-सुरत' तों भाव शब्द दा विचार है, शबदाकार वृति है। कई प्रपंची कन्न बंद करके कल्पित अनहत-शब्द सुनन लई सुरत जोडनी दस्स के बुद्ध सि्कखाँ नूँ अपना सेवक बनाबँदे और धर्मों पतित करदे हन्"।

अर्थ-

 ' शब्द-सुरत' से मतलब शब्द का विचार है, शब्दाकार वृति है। कई पाखंडी कान बंद करके कल्पित अनहद शब्द सुनने के लिये सुरत जोडना सिखलाकर मूर्ख सिक्कों को अपना सेवक बनाते और धर्म से पतित करते है।

                                 

   यह फुटनोट आपनै भाई गुरदासजी के निम्नलिखित शब्द में आये हुए पद 'शब्द सुरत" की व्याख्या के संबंध में दिया है-



(340) गुरु सिक्खी गुरु सिक्ख सुण, अंदर स्याणा बाहर मेला भोला। शबद् सुरत सावधान हो, बिण गुरु शबद् न सुणाई बोला।।।   
                                      

  स्पष्टत: इस उपदेश का प्रकट अर्थ यह है- " हे गुरु के शिष्य! सुनो, गुरू के शिष्य को कैसे बर्तना चाहिये। उसे अंतर में जाग्रत अर्थात चैतन्य और बाहर में भोला अर्थात साधारण रहकर बर्तना चाहिये। उसे सुरत- शब्द अभ्यास सावधान होकर करना चाहिये और जो शब्द अंतर में सुनने के लिये गुरु महाराज उपदेश करते है उसके अतिरिक्त और किसी शब्द को न सुनना चाहिए" पर सरदार साहब 'शब्द-सुरत' का अभीप्राय शब्द का विचार और शब्द का अर्थ चित्तवृति लेते है।

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-

परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**




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