Wednesday, November 18, 2020

श्री कृष्ण कहते हैँ.....

 अध्याय १२     


भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं " जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है। "


भगवान ने संसार की जंजाल से अपने आप को ऊपर उठा ने को कहा है। हमे धर्म सम्मत कर्म कोई स्वार्थ बिना करना है, तभी भक्ति संभव है। 


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।

 शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥


जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है

 ॥17॥


समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

 शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥


जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है

 ॥18॥


तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।

 अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥


जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है

 ॥19॥


ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

 श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥


परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं

 ॥20॥ 

 

 ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः

 ॥12॥

भगवान हमे हर्ष रहित और निष्काम भाव से कर्म करने को कहा है।  हर्ष रहित यानी जो कर्म हम आनंद प्रमोद के लिए करते है वह हर्ष और अहंकार उत्पन्न करता है। जो ज्ञान के वेरी है। 


अस्तु। 


सद्गुरु नाथ महाराज की जय।

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