Tuesday, February 2, 2021

सतसंग DB शाम 02/02

 **राधास्वामी!! 02-02-2021- आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-                                    

 (1) सखी री मैं जाऊँगी घर। नहिं ठहरूँगी माया देश।।टेक।। घर तो मेरा उँच से ऊँचा। जहँ नहिं काल कलेश।।-(राधास्वामी प्यारे सतगुरु मेरे। सुफल करी मेरी अब के बैस।।) (प्रेमबानी-4-शब्द-12-पृ.सं.99)                                                                       

(2) मेरे हिरदे जगी है उमँग नई आज आई बहार बसंत।।-(चरन सरन निज उनकी गह कर सुख भोगो होय अभय अनंत।।) (प्रेमबिलास-शब्द-135-पृ.सं.200,201)                                                        

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।   

                       

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻



**राधास्वामी!! 02- 02- 2021

- आज शाम सत्संग में पढ़ा गया बचन-

 कल से आगे:

-[ स्त्रियों से सेवा]-( 141)-


प्रश्न- सारबचन- में लिखा है:- गुरु की आरत ठानूँगी। गुरु की सरन सम्हारूँगी।

गुरु की महिमा गाऊँगी। गुरु के चरन पखारूँगी।

गुरु पर मनुवाँ वारूँगी। गुरु सँग सदही धारूँगी।

 ध्यान गुरू हिरदे लाऊँगी। रूप रस छिन छिन पाऊँगी।

सुरत फिर गगन चढ़ाऊँगी। कुटुँब को अपने लाऊँगी।

 गुरु के चरण लगाऊँगी। सुरत नैनन जमाऊँगी।

 सुरत नैनन जमाऊँगी।। आरती राधास्वामी गाऊँगी।।                                          

इस बचन में आरती करना आँख मिलाकर, उनकी शरण में जाना, पैर धोना आदि सब बातें स्त्री के लिए लिखी है। आर्य अक्षेपक कहते हैं कि उपदेश स्त्रियों के लिए उचित नहीं है। कई राधास्वामी कह दिया करते हैं कि यहाँ आरती करना आदि स्त्रियों के लिए नहीं बल्कि सुरत के लिए है। पर इस वचन को ध्यान से पढ़िये। यहाँ लिखा है-" सुरत फिर गगन चुढाऊँगी- सुरत नैनन जमाऊँगी"।

यदि सुरत आरती करने वाली है तो यह कौन कहती है कि "सुरत फिर गगन चुढाऊँगी"?  इसलिए साफ है कि स्त्री आरती करती हैं और इसलिए वह कहती है -"सुरत फिर गगन चढ़ाऊँगी"।।                                                   

 उत्तर-क्या आक्षेपक को इतना भी ज्ञान नहीं है कि भक्ति मार्गों में साधारण प्रथा कि इष्ट अर्थात् भगवंत को चार भावों से संबोधन किया जाता है-

(१) स्वामी -सेवक- भाव से,(

२) पिता-पुत्र भाव से,

(३) प्रीतम- प्रेमी -भाव से

, और (४) मित्र- भाव से।

और इन सब भावों में प्रीतम- प्रेमी भाव सबसे उत्तम माना जाता है।

बहुत सी रोमन कैथोलिक परिव्रजिकाएँ (Nuns) खीष्ट-वधू(Brides of Christ)  का भाव हृदय में रखकर अपनी भक्ति करती है। श्री ग्रंथसाहब में सैकड़ों ऐसे शब्द विद्यमान हैं जिनमें गुरु साहिबान ने मालिक को कंत, प्रीतम, खसम आदि कहकर संबोधन किया है।

 और अपने को या प्रेमी को मालिक की पत्नी कहा है। और स्वयं वेदों में पति-पत्नी भाव का अलंकार बार-बार प्रयुक्त हुआ है बल्कि कहीं-कहीं तो ऐसी कच्ची बातें लिखी हैं जिन्हें पढ़कर लज्जा आने लगती है।

 उदाहरणार्थ  देखिये लिखा है-" जो शख्स मानी (अर्थ) के इल्म( ज्ञान) के साथ वेदों को पढता है उसके सामने इल्म इस तरह अपने हुस्न व जमाल (सौन्दर्य) का लुत्फ दिखाता है जिस तरह वफादार बीवी लिबास (वस्त्र) हुस्न अफरोज (सौन्दर्यवर्धक) जेबतन किये हुए (पहने हुए) खाबिन्द को अपने जिस्म की बहार दिखाती है"।  ऋग्वेद, मंडल १०, सूक्त ७१ मंत्र ४।( देखो ऋग्वेदआदि- भाष्य -भूमिका उर्दू एडिशन सफा १९७)।


और इसी पुस्तक के पृष्ठ १८६ पर लिखा है- " सूरज जो बमंजिलें बाप (बाप के समान ) है श़फ़क (उषा) में जो बमंजिलें उसकी दुख्तर (दुहिता) के हैं, किरण सूरत (किरणरूपी) नुत्फा से हमल कायम करता है जिससे दिन, जो उसके फरज़न्द( पुत्र) की मिसाल (समान) है, पैदा होता है"( ऋग्वेद, मंडल ३, सूक्त ३१ मंत्र १)। और पृष्ठ १७५ पर लिखा है-" बादल और जमीन का भी बाप बेटी का ताल्लुक है। क्योंकि बादल यानी पानी से जमीन की पैदाइश होती है इसलिए जमीन बमंजिले उसकी दुख्तर के (उसकी दुहिता के समान) है। बादल उसमें बारान सुरत (वर्षारुपी) नुतफा डालता है, वगैरह"( निरुक्त,अध्याय ४,खंड २१)।।                                                 

ऐसे ही शतपथ पत्र ब्राह्मण में आया है:-                                             

इयं पृथ्वियदितीः सेयं देवानां पत्नी १।३।१।१५।।   

                                                 

अर्थात यह है कि पृथ्वी देवों की स्त्री है। तो क्या अनेक मनुष्यों की एक पत्नी हो सकती है? अथवा आर्य लोगों में यह प्रथा थी कि पिता पुत्री में वीर्य-सिंचन करें?

 नहीं, नहीं; ये अलंकार है जो केवल विशेष भावों के प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं। अथर्व वेद के बारहवें  कांड के तीसरे सूक्त में चावल पकने का वर्णन करते समय कहा है-"तपे हुए वे (चावल) दौड़-धूप करते हैं, नाचते हैं, झाग और बहुत सी बूंदों को फेंकते हैं। हे जलो (पानियों)! तुम चावलों के साथ मिल जाओ जैसे स्त्री पति को देखकर ऋतुकालीन( मैथुन) के लिए" अब जरा आक्षेपक महाशय से पूछिये कि इन मंत्रों के बनाने वाले ईश्वर को और दूसरे ग्रंथों के बनाने वाले ऋषियों को वह क्या क्य दोष लगाते हैं ?

रहा प्रश्न आरती का-सन्देह  भक्ति मार्गो में यह प्रथा चली आती है और इसका कारण पीछे श्रुति के परमाण से बतला दिया गया है( देखो दफा ११४ और ११५)। पर सच तो यह है कि मुझे सत्संग में सम्मिलित हुए आज 32 वर्ष हो गये। इतने समय में न कभी किसी ने आरती की न किसी ने कराई। हाँ, सत्संग आम में सब पुरुष स्त्री सावधान होकर बैठते हैं और अपनी दृष्टि इधर-उधर घुमाने के बजाय सतगुरु की ओर रखते हैं।।                                          

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻 यथार्थ प्रकाश -भाग दूसरा-

परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!*


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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