Sunday, August 9, 2020

आज 09/08 को सुबह शाम का सतसंग औऱ वचन

 राधास्वामी!!09-08-2020-


आज सुबह के सतसंग में पढे गये पाठ- 

                          

  (1) अनामी प्यारे राधास्वामी।।टेक।। गत मत तुम्हरी कोई नहिं जाने। घट घट अंतरजामी।। (प्रेमबानी-2-पृ.सं.408)                                    u

   (2) मेहर होय कोइ प्रेमी जाने ऐसा गुरु हमारा।।टेक।। रुप रंग रेखा नहिं ताके नहिं गोरा नहिं कारा।।(प्रेमबिलास-भाग तीसरा-शब्द-97,पृ.सं.139) सतसंग के बाद:-                                                             

   (1) गुरु प्यारे का रँग चटकीला कभी उतरे नाहिं।।टेक) (प्रेमबानी-3-शब्द-5,पृ.सं.71)                                                   

(2) तुम अब ही गुरु सँग धाओ। बहुर पछताना पडे।।(प्रेमबानी-4-शब्द-2,पृ.सं,62)                                                         

  (3) तमन्ना यही है कि जब तक जिऊँ। चलेँ या फिरुँ या कि मेहनत करुँ।। पढूँ या लिखूँ मुहँ से बोलूँ कलाम। न बन आये मुझसे कोई ऐसा काम ।।जो मर्जी तेरी के मुवाफिक न हो। रजा के तेरी कुछ मुखालिफ जो हो।।।   

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

राधास्वामी!!     आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-                                                 

 (1) आया मास बैसाख चित्त में बाढा अनुरागा। अगम लोक के पार ध्यान राधास्वामी चरनन लागा। सुरत चली धीरे से पग धार। निरखा अजब प्रकाश, द्वार पर रबि शशि नहीं शुमार।। लखा जाय हैरत रुप अनाम। अकह अपार अनंत परम गुरु संतन का निज धाम।। (प्रेमबानी-3-शब्द-5वाँ,पृ.सं.334)                                                 

  (2) गुरु मोहि लेव आज अपनाई।।टेक।। तब मैं समझूँ मैं भई तुम्हरी। और तुम मुझको लिया अपनाई।।-(इस दासी की बिनती मानो। जल्दी लेव अपनाई।।)                          

(3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।।              

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

राधास्वामी!!                                         

आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन

- कल से आगे

-【 सतगुरु की आवश्यकता】 

-(71) 

रचना का विस्तार, उसके लोगों का शुमार, इस में स्थित सुरतो की गणना, इसके प्रबंध की वर्णना, और इसके मालिक और नियन्ता का तेज- ओज तथा विभव- विभूति का वृतांत सुनते ही हर विचारशील मनुष्य का चित्त नितांत विभ्रांत हो जाता है। वह सोचता है -हैं! 

मैं क्या और मेरी बिसात क्या?  कुल रचना के सामने यह पिंडदेश एक तिल के दाने से भी कम महत्व रखता है और पिण्डदेश के कुल लोको के सामने ये पृथ्वी एक राई के दाने से भी छोटी है और इस पृथ्वी पर जितने जीव बसते हैं उनकी संख्या के सामने मानव जाती मुट्ठी भर भी नहीं ठहरती । फिर इस तुच्छ मानव जाति में से मैं केवल एक हूँ- कुल पांच फीट सात इंच लंबा, हाड मास चाम के पिंजरे में बंद, पृथ्वी से बंधा वायुमंडल से दबा , प्रकृतिक नियमों के वशीभूत कामनाओं का किंकर, बे बाल और पर का पक्षी, केवल आँख, कान आदि की शक्तियों के सहारे तीन नापों में आबद्ध बुद्धि के भरोसे क्या कर सकता हूँ। क्या मैं और क्या मेरी बिसात?  


मुझे चादर ओढ़ कर चुपचाप एक कोने में लेट जाना चाहिये- आत्मदर्शन,सच्ची मुक्ती, अमर आनंद, अविनाशी जीवन ऐसी बातें हैं जिनका नाम तक लेना मेरे लिए छोटा मुँह बड़ी बात है। कुल मालिक के सामने, नहीं नहीं किसी लोक के धनी के सामने, नहीं नहीं, चंद्र और सूर्य तक के सामने मेरी स्थिति एक मच्छर या पिस्सू से अधिक नहीं है-..


कहाँ बुझा हुआ दीपक और कहाँ प्रज्जवलित सूर्य भगवान?  मुझे कभी अपने बंदी गृह में बंद रखने वाली शक्तियों पर विजय प्राप्त नहीं हो सकती।  मुझे कभी आँख ,नाक ,कान आदि शक्तियों की पहुंच से परे का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। कारागार में जन्मा , कारागार में पला, कारागार ही में मरूँगा।                        🙏🏻राधास्वामी 🙏🏻

यथार्थ प्रकाश -भाग पहला -परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**

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