Thursday, August 13, 2020

कबीर वाणी

 कबिरा  सूता  क्या  करे , बैठा  हो  तो  जाग ।

जाके   संग   ते  बीछड़ा ,  ताही  के  संग  लाग ।।


बस्तु  कहीं  ढूंढ़त  कहीं  , कै  विद  आवै  हाथ ।

कह   कबीर  तब  पाइये ,  जब  भेदी  लीजै  साथ ।। 


      मेरे  प्रेमी  भाईयों !  कहने  से  बात  बनती  तो  बन गई  होती , सुनने  से  बनती  तो  बन  गई  होती  और  पढ़ने   से  बनती , तो  भी  बन  गई  होती । बात  तो  बनती  है  चलने  से  और  अमल  करने  से । परमात्मा  की  राह  अपने  भीतर की  तरफ  मुड़  जाने  की  राह है और हमारी  सारी  खोज  और  सारी  तलाश  बाहर  की खोज  है । परमात्मा  के  रास्ते  में  खयाल  या  विचारों  को  इकट्ठा  करना  है , उन्हें  समेट लेना है और सब कुछ छोड़कर  खाली  हो रहना है । 


      यह छोड़ना  और  पकड़ना  खयाली  ही  होता  है । मान लीजिए हम कहीं घर से बाहर हैं आफिस , बाजार या दूसरे शहर लेकिन खयाल है कि घर में क्या हो रहा होगा , बच्चे  कैसे  होंगे ? अब तो सुविधा है , पहली फुरसत में  लोग फोन  कर  लेते  हैं । उस समय की कल्पना कीजिए , जब दुनिया में  सड़कें कम थीं , साधन कम थे , चिट्ठियों से ही समाचार मिल पाते थे । यकीन मानिए  उस दौर का  आदमी  आज  के  आदमी  से  ज्यादा  संतोषी  था । उसमें धीरज और साहस अधिक था । उसमें परमात्मा के प्रति विश्वास अधिक था । अच्छा ! क्या हुआ जो मैं  घर पर नहीं हूँ , भगवान  हैं न ! वह सब  ठीक  रखेंगे ।


      सुविधाओं  ने  जीवन  को  आसान  कर दिया  है लेकिन  इन्सान  को  भीतर - बाहर  दोनों  तरफ से  कमजोर  कर  दिया  है ।


     हम किसी वस्तु या शय को साथ लिये  या  हाथ  में  लिये  नहीं  फिरतें  हैं  लेकिन  खयालों  में  लिये  फिरते  हैं । यह विचारों  में  पकड़े  रहना  ही  मोह या  लगाव  है । कभी  अनजानी  दु:ख  के  अन्देशे  परेशान  करते  हैं तो  कभी  अनजानी  कल्पनायें  दु:ख  देती हैं और हमारा  प्रभु पर विश्वास या भरोसा  दिन ब दिन  कमजोर  पड़ता  जाता है । 


      ऐसे  बेविश्वासी को कहीं परमात्मा मिलता है । खयाल से सारी चिन्ताओं को धोकर निकाल फेंको और मुकम्मल उसके भरोसे हो रहो । उसके किए पर उसके फैसले पर उसकी  देनी  पर  राजी  रहो । छोड दो  उसके  ऊपर  जैसा छोड़ने  का  हक़ है ।


 रामनाम रस पीजै मनुआं , राम  नाम  रस  पीजै ।

 तज कुसंग सतसंग बैठ नित , हरि चरचा सुनि लीजै ।

 काम  क्रोध  मद  लोभ  मोह कूँ , बहा  चित्त से  दीजै ।

 मीरा  के  प्रभु  गिरिधर नागर  तेहि  के  रंग  में  भीजै ।।


      सारी  महिमा  खयाल  की  है । खयाल में  ही  दुनिया है । खयाल में  ही  एत्साल है , खयाल में  ही  विसाल  है । इस  खयाल  को  ही  मकरूहात  से  पाक़ नेक और  दुरुस्त  करना  है । मतलब यह  कि  बुराइयों  के  लिए  प्रेरित  करने  वाले  विचारों  को  दूर  फेंक  देना  है  और  सद् विचारों  को  पकड़  लेना  है ।


     फिर एक दौर ऐसा भी  आता है कि सारे खयालों से पीछा छूट जाता है  और इन्सान  अपने  असल की ओर लौटना  शुरू कर देता है । यही जीवन में सबसे  बड़ी  और अनमोल  कमाई  होती  है । 


 पौ  फाटी  पगरा  भया  जागा  जीवा  जून ।

 सब  काहू  को  देत  है  चोंच  समाता  चून ।।

 मन  के  हारे  हार  है , मन  के  जीते  जीत ।

 कह  कबीर  पिउ  पाइए , मन  ही  की  परतीति ।।


     ऐ लोगों ! बहुत पढ़े - लिखे होने का कोई  फायदा नहीं , यदि  करनी  ऊंची  नही है । उसे गरीब और मिस्कीन बहुत  प्यारे हैं । तुम्हारी  दौलतों और ज़ाह से  उसे  क्या  गरज़ ? 

       उसे  अपनाना  चाहते  हो  तो  सबको  अपनाना  सीखो । वह छोटे - बड़े , पढ़े - बेपढ़े , जाति - पांति और   गरीब  - अमीर के नाम पर भेद नहीं  करता । सब  उसी के बच्चे हैं और वही सबका पालनहार और रखवाला है । 


      मैं  फूल  चुनने  आया था  बागे  हयात  में 

      दामन  को  ख़ार ज़ार  में  उलझा  के  रह गया 


     मेरे प्रेमी  भाईयों !  

दरिया  भव जल  अगम  अति  सतगुरु  करहु  जहाज ।

तेहि  पै  हंस  चढ़ाइ  कै  जाइ   करहु  सुख    राज ।।

   --दरिया साहब बिहार वाले 

( घर का नाम पीरनशाह था )


      बिना  गुरु  कल्याण होता नहीं है । वैसे आजकल  तो इनकी फौज ही खड़ी हो  गई  है । अब मालिक की मर्जी जिसको  जो  मिले ।


    ज़िन्दगी  आमद  बराये  वन्दगी 

    ज़िन्दगी  बे  वन्दगी   शर्मिन्दगी 

    ---मौलाना रूम रहम ०


       यह जीवन तो भक्ति  के लिए  , अपनी  आकबत या परलोक सुधारने के लिए ही मिला है । उसमें  भी  सबसे  अच्छी  बात  है  परमात्मा से  प्रेम तथा  उसकी  दया  से  मुक्ति  हासिल करना । मुक्ति या मोक्ष या दूसरे  शब्दों में  कहें  तो  प्रभु  की  समीपता  हासिल  करना यानी क़ुरबत । 

     गुरू  खोजो  री  कि  जग  में  दुर्लभ  रत्न  यही  है ।


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      मालिक  दयालु  दया  करे 


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     अदना गुलाम  गुलाब  शाह  क़ादरी 


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