Tuesday, August 25, 2020

25/08 को सतसंग के पाठ औऱ वचन

 राधास्वामी!! 25-08-2020- 

आज.सुबह के सतसंग में पढे गये पाठ-                            


  (1) गुरुमुख प्यारा गुरु अधारा। आरत धारा री।। तन अहंकारा काम लबारा। पडा उजाडा री।।-( सुन्न परे महासुन्न अँधारा।देखा भँवर उजारा री।। ) (सारबचन-शब्द-21वाँ,पृ.सं.157)                                                                     

(2) आज बाजे सुन्न में साँरग सार।।टेक।। उठत मधुर धुन अमीरस भीनी। सुनत पिरेमी कोई धर प्यार।।-(कर आरत उन हुई मगन मैं। बैठी राधास्वामी सरन सम्हार।।) (प्रेमबानी-2-शब्द-22,पृ.सं.294)                                

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


 राधास्वामी!! 25-08-2020

- आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-     

                           

(1) उमर सारी बीत गई जग में। भरम मेरे धस रहे रग रग में।।-(रहूँ नित गुरु चरनन दासा। चरन में राधास्वामी पाऊँ बासा।।) (प्रेमबानी-3- शब्द-10 ,पृ.सं.351)                    

(2) मेरे सतगुरु दीन दयालः अरज इक सुन लीजे। मेरे समरथ पुरुष सुजान। चरन में मोहि लीजे।।-(राधास्वामी गुरु दयाल। दरद मेरा लेव बूझे। तुम बिन और दुवार। कोई नहिं मोहिं सूझे।।) (प्रेमबिलास-शब्द-38,पृ.सं.51)                                                     

  (3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला - कल से आगे।                 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻


राधास्वामी 25- 08 -2020 

-आज शाम के सतसंग में पढ़ा गया बचन -कल से आगे-( 89) 

मन की दशा घड़ी के लटकन की सी है । यह एक बार प्रेरित होकर घंटों आप से आप चलायमान रहता है, और उसके चलायमान रहने से मनुष्य के अंतर में भाँति भाँति के संकल्प और विकार उत्पन्न होते रहते हैं।

और जोकि परमार्थ के प्रेमी का मुख्य कर्तव्य मन को संकल्पों और विकारों से मुक्त रखना है इसलिए उसकी वह प्रत्येक क्रिया, जिससे मन धक्का खा कर चलायमान होता है, कठिनाई और संकट की दशा उत्पन्न करती है। एवंम विकारी अंगों में बर्तने वालों का स्पर्श किया हुआ या उनसे दिया हो भोजन अंगीकार करने , और मन के विकारी अंगों में निरंकुश बर्तने वालों की चेष्टाओ में सम्मिलित होने से भी मन में प्रबल क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। 

इसलिए राधास्वामी -मत में प्रत्येक प्रेमी परमार्थी को आदेश है जहाँ कि तक संभव हो गाढे पसीने और धर्म की कमाई में निर्वाह करें और संसारी जनों के संग कम से कम संसर्ग रक्खें और जीविकोपार्जन के संबंध में जब संसारी जनों के संसर्ग में आना पड़े तो अपनी चित्तवृती को बारंबार अंतर्मुख करके संभालता रहे। 

क्योंकि जैसे किसी वस्त्र को बारंबार झाड़ते रहने से उस पर वायुमंडल की धूल जमने नहीं पाती ऐसे ही बारंबार चित्तवृति को  अंतर्मुख करने के अभ्यास से परमार्थी के मन पर सांसारिक कामकाज और संग-साथ का प्रभाव दृढ होने नहीं पाता । और संभवतः यही नियम दृष्टि में रखकर प्राचीन काल के ब्राह्मण हर किसी के हाथ और घर का भोजन और हर किसी का संसर्ग अंगीकार नहीं करते थे। 

🙏🏻राधास्वामी 🙏🏻

                                

यथार्थ प्रकाश- भाग पहला -

परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!


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