Wednesday, April 15, 2020

ई प्रेम प्रचारक दयालबाग आगरा का नया अंक




🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺.                       *【 ई-प्रेम प्रचारक】-(दैनिक)** **अंक-18:-              .                            "संदेश" (प्रेमसमाचार):-                                                       सतगुरु संत परम पद बासी आदि  अनादि रक्षक । दया धार वे सबको पोषे  जीत काल जिवभक्षक।।18।।                                                 बिन स्वारथ निज सरन में लावे  गावें भेद अपारा। मरम गाय मारग दरसाई करें जीव निस्तारा।। 19।।                                       ऐसे समय जब जग आवे  धर सतगुरु औतारा। तबही  प्रगटे जोति मर्म की  होय अनन्त उजारा ।।20।।                         अचरज भाग जगा जग जीवन बरनन बने न वारा। को कहि सके मर्म या गति की जाका वार न पारा ।।24।।         
 *********************   परम गुरु हुजूर सरकार साहब के पावन भंडारे के अवसर पर -प्रेम प्रचारक विशेषांक- उनके चरण कमलों में सादर समर्पित।                                                      *********************         
                     21 जनवरी 1911 - मन को जितनी ही बेचैनी हो, उतना ही प्रमार्थी फायदा है, क्योंकि जो परमार्थ में दिल न लगे और कुछ बनता नजर न आवे  और उधर स्वार्थ भी खराब मालूम होवे, तो बहुत ही बेचैन होता है और कई जतन करता है । सब व्यर्थ होते हुए मालूम होते हैं।  उस वक्त एक तरह की थकान मालूम करता है और हार जाता है। और जब यह हालत हुई , तो खुद ही दीन हुआ और जब दिन हुआ , तो जरूर मालिक  दया फरमाता है। तो जिनका मन हर दम उदास रहे , उनके अंदर हर वक्त दया की धार बरसती रहती है, यहां तक कि तन और मन की कुछ  परवाह नहीं होती  यह तरह इनको मालिक पर निछावर कर देते हैं ।                                                                                   (परम गुरु सरकार साहब -भाग 1  न. 31)                                                      🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**🌼 🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼

🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺 🌼🌼🌺.                    **परम गुरु हुजूर सरकार साहब-भाग-1-( 33)               23जनवरी 1911:- आज उन वकील साहब ने कल के बचन में से एक दो बातें फिर दरयाफ्त कीं।  एक तो यह कि मालिक कैसे नर शरीर में आ सकता है और जब से उसका अवतार होता है, आदि से अंत तक क्या वही ताकत उसको होती है । फरमाया कि जैसे कल बयान किया गया, मालिक लहर रूप होकर खुद नर चोला धारण करके अवतार लेता है, क्योंकि नर शरीर सबसे उत्तम है। और सब मत वालों ने भी लिखा है, मसलन लिखा है Man was made after the image of God ( मनुष्य का रूप परमात्मा के रूप की नक्ल है ) । जब से मालिक गर्भ में जन्म लेता है, तब से सर्व समर्थ होता है। वह अपने बनाए हुए कानून का तोड़ने वाला नहीं होता ,बल्कि उनका ज्यादा पालन करता है।  इस वास्ते जैसे संसार में आम जीव पैदा होते हैं, उसी तरह वह भी जन्म धारण करता है। उसी तरह बचपन का जमाना, फिर जवानी का जमाना गुजरता है। फिर वह अंदर के भेद खोल कर और जीवो को उपदेश कर के अभ्यास करवा कर उस रास्ते पर संग संग ले जाता है । ज्यादा परख और संभाल आखिर वक्त मालूम होती है जो कि एक प्रत्यक्ष सबूत है ।बाज मामूली सतसंगियों का हाल सुना गया है कि आखिर वक्त पर कैसे उनकी संभाल होती है और वह होश में रहते हुए बड़ी खुशी के साथ मरते दिखाई देते हैं। और बाकी चाहे जितना आलिम फाजिल ,ज्ञानी हो , बस सुना जाता है कि 15 दिन पहले से ही बेहोश है, कुछ पता या होश नहीं । तो गुरु अपना मिशन पूरा करने आते हैं। और जो सेकंड सेकंड पर सख्त बिछोहा मौत के होने पर होता है, उसमें वही संगी होते हैं । उस वक्त का ख्याल करना चाहिए कि किसके साथ वह रास्ता चलता है। बड़े-बड़े जोधा ,ऋषि मुनि ,उस रास्ते पर चलने से कांपते हैं।।                        इतना समझाने के बाद उन वकील साहब ने पूछा तो क्या गुरु ईश्वर से बड़े होते हैं। इस पर सब हंस पड़े और सरकार साहब ने फरमाया कि बड़े क्या, बहुत बड़े । यह ईश्वर ही तो फसाद की जड़ है । यह सब पसारा उसी का है । बड़ा भारी शैतान है। हर तरह के और पाप तो वही करवाता है । बगैर परम गुरु के और किसी को मालिक कहना नास्तिकता का बचन है । अजी, गुरु की महिमा सब ने कही है । गीता में भी लिखा है।  मौलाना रूम ने साफ लिखा है । ऐसे गुरु बड़े भाग से मिलते हैं।  स्वामीजी महाराज जब सिर्फ 5 साल के थे, तो तुलसी साहब जो कि संत थे और कभी-कभी उनके घर आया करते थे , आए और स्वामीजी महाराज की माता को कहा कि माई, अब हमारा यहां आने का काम नहीं । तुम्हारे घर में परम संत अब आ गए हैं ।इसके बाद वे चले गए और थोड़े ही दिनों के बाद छोला छोड़ दिया । तो जिनको पहचान होती है , वह परख लेते हैं।  हम तुम तो सिर्फ उसूल ही पहले समझते हैं । फिर उनसे जुगती लेकर अभ्यास करें , तब कुछ पहचान होती है और वह भी अगर गुरु आप बख्शें। (प्रेमप्रचारक विशेषांक)                                🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**🌺🌼🌺

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🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌼🌺🌺🌼🌺.        *(36)  2 फरवरी 1912- संतो के दरबार में कसूर को कसूर मानना ही नहीं बल्कि कसूर को कसूर समझकर दरबार में माफी मांग लेना चाहिए और माफी लेना सिर्फ मुंह से अर्ज करना ही नहीं बल्कि सच्चे दिल से अंतर में प्रार्थना करना चाहिए । और बड़ा गहरा पछतावा हो गया हो , तो ख्वाह वह मुंह से कहे ख्वाह न कहे , फौरन मालिक की जानिब से माफी होगी । दर असल यह जीव लाचार है और कसूर का होना जरूरी है। इसलिए उससे कसूर होता है। इसको इतना जरूर करना चाहिए कि वह अपने मन की चौकीदारी करता रहे। और सत्संगियों को जरूर ही यह बात मालूम पड़ जाती है कि हमसे यह कसूर हुआ। सो फौरन ही सच्चे दिल से माफी ले । फिर फौरन ही उसकी माफी हो जाएगी । जैसे कहां है --                  "
 जो नजर अपने कसूरों पर करें, जल्द पूरा होवे रास्ता तै करें ।"                            दरअसल इस अंग का आना परमार्थ में बड़ी भारी मदद देता है बल्कि परमार्थ का दारोमदार ( निर्भरता ) इसी पर है।  अगर कोई यह कहे कि यह कसूर मेरे कर्मों के कारण हुआ तो, कर्म जो हुआ, जरूर उसका ही कसूर है अगर वह कसूर के होने पर सच्चे दिल से पछतावा करें।।                                   
 एक सत्संगी ने सरकार दाता से अर्ज की कि मन जबरदस्ती कर्म कराये बगैर रहता ही नहीं। और फिर वह समझोती लेकर चुप हो जाता है कि कर्मों के चक्कर में ऐसा हुआ, इसमें लाचारी है । तब सरकार दाता ने फरमाया कि यह मन की बदमाशी है और इससे हरगिज वह माफी के काबिल नहीं हो सकता , बल्कि मन एक कर्म की आड़ लेकर अपने आप को बरी करना चाहता है। देखो कोई आदमी अपने ख्याल में किसी रास्ते से जा रहा है और चलते चलते उसका पैर अचानक आग में पड़ गया, तो उसका नतीजा यह होगा कि जरूर जल जाएगा। ऐसा ही इन कर्मों को समझ लो कि उनका फल जरूर होगा। अगर यह कसूर को कसूर समझकर दरबार में माफी नहीं लेता, तो उसके एवज में बड़ा भारी दुख व दंड उठाना पड़ेगा ।दरबार से मतलब यह नहीं है कि संतों के सम्मुख ही आकर माफी लें, बल्कि अंतर में मालिक से ही माफी लें और गहरा पछतावा हो, तब मालिक माफ करेगा। और जिसकी हालत ऐसी है कि वह हमेशा दूसरों पर नजर रख कर चलता है, उसको मालिक कभी भी भारी दुख ना देगा, बल्कि अगर कोई दुखी या दंड उसको मिलने हैं, वह भी न आवेंगे और उसका रास्ता और वह सुखाले चलेंगे और उसको दुनिया में कोई तकलीफ न होगी।।                                           
   परमार्थी को चाहिए कि बीमारी की हालत में दूसरे शख्स के जरूर मदद करें , मगर उसका रूप ना हो जाए, यानी उसकी दवा और मुनासिब इलाज जरूर करें मगर उसमें गहरा बंधन पैदा ना करें। और यह ऐसा गहरा बंधन पडते हुए जब देख लेगा तो खुद ब खुद अलग हो जाएगा, क्योंकि उसको यह मालूम हो जाता है कि बाद में उससे तकलीफ मिलेगी।  सो यह उसमें खुद ही नहीं फँसता। परमार्थिक का दिल संसारी से निहायत कोमल होता है और उसको फौरन मालूम पड़ जाता है कि आयंदा क्या होगा । इसलिए यह ऐसे कामों में दखल नहीं देगा। जो काम संसार में बड़ा उत्तम समझा गया है,  वह प्रमार्थ में उलट है । जैसे भूखे प्यासे को खिलाना पिलाना और अपनी हैसियत के मुआफिक मदद करना, यह बडा भारी उपकार है। मगर परमार्थ में यह काम विघ्नकारक है ,क्योंकि मामूली तौर पर मदद करना अच्छा है मगर उसमें गहरा लिपटना विघ्न ही है । (प्रेम प्रचारक विशेषांक )                       

🙏🏻राधास्वामी**. 

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राधास्वामी
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