Tuesday, March 17, 2020

मनभावन मोहक धार्मिक प्रसंग /लोक कथाएं




प्रस्तुति - कृष्ण मेहता: (मोरनी)

जो सुख साधु- संग में, सो बैकुण्ठ न होय

अर्थात् जो सुख, जो आनंद एक साधु की संगति में हैं, वह बैकुण्ठ या परमधाम नहीं।
कहने का आशय हैं कि जिस आनंद और शांति को पाने के लिए हमारी आत्मा लालायित हैं, वह न चिरायु होने पर मिलेगी, न स्वर्ग के भोग- ऐश्वर्यो से। वह तो मिलेगी, मात्र हरि- चर्चा से, ईश्वर की स्तुति में! और यह हरि- चर्चा कहाँ पर होती हैं- साधु- संतो के समागम में। इसलिए कबीरदास जी ने कहा कि मैं साधु- संग छोड़कर बैकुण्ठ भी नहीं जाना चाहता। कारण कि वे भी यह जानते थे कि वास्तव में बैकुण्ठ से भी अधिक प्रभु की उपस्थिति साधु- संगति में हैं।
एक बार नारद जी ने भगवान विष्णु से प्रश्न किया- 'प्रभु, आप सदा कहाँ वास करते हैं?' प्रभु बोले- 'नाहं वसामि वैकुण्ठे... ' हे नारद, न तो मैं बैकुण्ठ में वास करता हूँ, जहाँ मेरे भजन- कीर्तन करते हैं, प्रभु की महिमा गाते हैं।'
परन्तु यहाँ जानना भी बहुत जरुरी हैं कि भजन गाना कब सार्थक हैं। ईश्वर का महिमागान कब आनंद देता हैं?
उतरस्वरुप नामदेव जी ने कहा- 'जब देखा, तब गावा तो मन धीरज पावा... अर्थात् जब मैने उस प्रभु का अपने अंतर्घट में दर्शन किया, तभी उसका महिमागान करने में मेरे मन को धीरज व आनंद मिला।'
कहने का भाव कि प्रभु- दर्शन प्रथम अनिवार्यता हैं। इसलिए सबसे पहले खोज करे, एक ऐसे ब्रह्मनिष्ठ गुरु की जो आपको अंतःकरण में ईश्वर का दर्शन करा दे। ईश्वर को देख लेने के बाद जब आप उसका गुणगान करेंगे, तभी आनंद की अनुभूति हो पाएगी। ऐसे दिव्यानंद की, जिसके आगे आपको फिर अन्य हर रस फीका लगेगा। आप उसी में सराबोर रहना चाहेंगे। उसी अवस्था को कबीरदास जी भी प्राप्त कर चुके थे और अपने दोहे के माध्यम से हमें भी इसी अवस्था की ओर प्रेरित करना चाहते थे। तभी तो उन्होने कहा-
जो सुख साधु- संग मे, सो बैकुण्ठ न होये।
     
2
     
एक बार भगवान नारायण लक्ष्मी जी से बोले, “लोगो में कितनी भक्ति बढ़ गयी है …. सब “नारायण नारायण” करते हैं !”
..
तो लक्ष्मी जी बोली, “आप को पाने के लिए नहीं!, मुझे पाने के लिए भक्ति बढ़ गयी है!”
..
तो भगवान बोले, “लोग “लक्ष्मी लक्ष्मी” ऐसा जाप थोड़े ही ना करते हैं !”
..
तो माता लक्ष्मी बोली
कि , “विश्वास ना हो तो परीक्षा हो जाए!”
..भगवान नारायण एक गाँव में ब्राह्मण का रूप लेकर गए…एक घर का दरवाजा खटखटाया…घर के यजमान ने दरवाजा खोल कर पूछा , “क्या काम है भाई ?”
तो …भगवान बोले, “हम तुम्हारे नगर में भगवान की कथा-कीर्तन करना चाहते है…”
..
यजमान बोला, “ठीक है महाराज, जब तक कथा होगी आप मेरे घर में रहना…”

गाँव के कुछ लोग इकट्ठा हो गये और सब तैयारी कर दी….पहले दिन कुछ लोग आये…अब भगवान स्वयं कथा कर रहे थे तो संगत बढ़ी ! दूसरे और तीसरे दिन और भी भीड़ हो गयी….भगवान खुश हो गए..कि कितनी भक्ति है लोगो में….!
लक्ष्मी माता ने सोचा अब देखा जाये कि क्या चल रहा है।
..
लक्ष्मी माता ने बुढ्ढी माता का रूप लिया….और उस नगर में पहुंची…. एक महिला ताला बंद कर के कथा में जा रही थी कि माता उसके द्वार पर पहुंची ! बोली, “बेटी ज़रा पानी पिला दे!”
तो वो महिला बोली,”माताजी ,
साढ़े 3 बजे है…मेरे को प्रवचन में जाना है!”
..
लक्ष्मी माता बोली..”पिला दे बेटी थोडा पानी…बहुत प्यास लगी है..”
तो वो महिला लौटा भर के पानी लायी….माता ने पानी पिया और लौटा वापिस लौटाया तो सोने का हो गया था!!
..
यह देख कर महिला अचंभित हो गयी कि लौटा दिया था तो स्टील का और वापस लिया तो
सोने का ! कैसी चमत्कारिक माता जी हैं !..अब तो वो महिला हाथ-जोड़ कर कहने लगी कि, “माताजी आप को भूख भी लगी होगी ..खाना खा लीजिये..!” ये सोचा कि खाना खाएगी तो थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास आदि भी सोने के हो जायेंगे।
माता लक्ष्मी बोली, “तुम जाओ बेटी, तुम्हारा प्रवचन का टाइम हो गया!”
..
वह महिला प्रवचन में आई तो सही …
लेकिन आस-पास की महिलाओं को सारी बात बतायी….
..
अब महिलायें यह बात सुनकर चालू सत्संग में से उठ कर चली गयी !!
अगले दिन से कथा में लोगों की संख्या कम हो गयी….तो भगवान ने पूछा कि, “लोगो की संख्या कैसे कम हो गयी ?”
….
किसी ने कहा, ‘एक चमत्कारिक माताजी आई हैं नगर में… जिस के घर दूध पीती हैं तो गिलास सोने का हो जाता है,…. थाली में रोटी सब्जी खाती हैं तो थाली सोने की हो जाती है !… उस के कारण लोग प्रवचन में नहीं आते..”
..
भगवान नारायण समझ गए कि लक्ष्मी जी का आगमन हो चुका है!
इतनी बात सुनते ही देखा कि जो यजमान सेठ जी थे, वो भी उठ खड़े हो गए….. खिसक गए!
..
पहुंचे माता लक्ष्मी जी के पास ! बोले, “ माता, मैं तो भगवान की कथा का आयोजन कर रहा था और आप ने मेरे घर को ही छोड़ दिया !”
माता लक्ष्मी बोली, “तुम्हारे घर तो मैं सब से पहले आनेवाली थी ! लेकिन तुमने अपने घर में जिस कथा कार को ठहराया है ना , वो चला जाए तभी तो मैं आऊं !”
सेठ जी बोले, “बस इतनी सी बात !…
अभी उनको धर्मशाला में कमरा दिलवा देता हूँ !”
..
जैसे ही महाराज (भगवान्) कथा कर के घर आये तो सेठ जी बोले, “
"
महाराज आप अपना बिस्तर बांधो ! आपकी व्यवस्था अबसे धर्मशाला में कर दी है !!”
महाराज बोले, “ अभी तो 2/3 दिन बचे है कथा के…..यहीं रहने दो”
सेठ बोले, “नहीं नहीं, जल्दी जाओ ! मैं कुछ नहीं सुनने वाला ! किसी और मेहमान को ठहराना है। ”
..
इतने में लक्ष्मी जी आई , कहा कि, “सेठ जी , आप थोड़ा बाहर जाओ… मैं इन से निबट लूँ!”
माता लक्ष्मी जी भगवान् से बोली, “
"
प्रभु , अब तो मान गए?”
भगवान नारायण बोले, “हां लक्ष्मी तुम्हारा प्रभाव तो है, लेकिन एक बात तुम को भी मेरी माननी पड़ेगी कि तुम तब आई, जब संत के रूप में मैं यहाँ आया!!
संत जहां कथा करेंगे वहाँ लक्ष्मी तुम्हारा निवास जरुर होगा…!!”
यह कह कर नारायण भगवान् ने वहां से बैकुंठ के लिए विदाई ली। अब प्रभु के जाने के बाद अगले दिन सेठ के घर सभी गाँव वालों की भीड़ हो गयी। सभी चाहते थे कि यह माता सभी के घरों में बारी बारी आये। पर यह क्या ? लक्ष्मी माता ने सेठ और बाकी सभी गाँव वालों को कहा कि, अब मैं भी जा रही हूँ। सभी कहने लगे कि, माता, ऐसा क्यों, क्या हमसे कोई भूल हुई है ? माता ने कहा, मैं वही रहती हूँ जहाँ नारायण का वास होता है।

आपने नारायण को तो निकाल दिया, फिर मैं कैसे रह सकती हूँ ?’ और वे चली गयी।
शिक्षा : जो लोग केवल माता लक्ष्मी को पूजते हैं, वे भगवान् नारायण से दूर हो जाते हैं। अगर हम नारायण की पूजा करें तो लक्ष्मी तो वैसे ही पीछे पीछे आ जाएँगी, क्योंकि वो उनके बिना रह ही नही सकती । ✅

🅾जहाँ परमात्मा की याद है।
वहाँ लक्ष्मी का वास होता है।
केवल लक्ष्मी के पीछे भागने वालों को न माया मिलती ना ही राम।🅾

[13/03, 20:30] Morni कृष्ण मेहता: *

🌸 तीन मुट्ठी चावल का फल 🌸*


जब भगवान श्री कृष्ण ने सुदामा जी को तीनों लोको का स्वामी बना दिया तो सुदामा जी की संपत्ति देखकर यमराज से रहा न गया !

यम भगवान को नियम कानूनों का पाठ पढ़ाने के लिए अपने बहीखाते लेकर द्वारिका पहुंच गये !

भगवान से कहने लगे कि - अपराध क्षमा करें भगवन लेकिन सत्य तो ये है कि यमपुरी में शायद अब मेरी कोई आवश्यकता नही रह गयी है इसलिए में पृथ्वी लोक के प्राणियों के कर्मों का बहीखाता आपको सौंपने आया हूँ !

इस प्रकार यमराज ने सारे बहीखाते भगवान के सामने रख दिये भगवान मुस्कुराए बोले - यमराज जी आखिर ऐसी क्या बात है जो इतना चिंतित लग रहे हो ?

यमराज कहने लगे - प्रभु आपके क्षमा कर देने से अनेक पापी एक तो यमपुरी आते ही नही है वे सीधे ही आपके धाम को चले जाते हैं और फिर आपने अभी अभी सुदामा जी को तीनों लोक दान दे दिए हैं । सो अब हम कहाँ जाएं?

यमराज भगवान से कहने लगे - प्रभु ! सुदामा जी के प्रारब्ध में तो जीवन भर दरिद्रता ही लिखी हुई थी लेकिन आपने उन्हें तीनों लोकों की संपत्ति देकर विधि के बनाये हुए विधान को ही बदलकर रख दिया है !

अब कर्मों की प्रधानता तो लगभग समाप्त ही हो गयी है !

भगवान बोले - यम तुमने कैसे जाना कि सुदामा के भाग्य में आजीवन दरिद्रता का योग है ?

यमराज ने अपना बही खाता खोला तो सुदामा जी के भाग्य वाले स्थान पर देखा तो चकित रह गए देखते हैं कि जहां श्रीक्षय’ सम्पत्ति का क्षय लिखा हुआ था !

वहां स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्ही अक्षरों को उलटकर ‘उनके स्थान पर यक्षश्री’ लिख दिया अर्थात कुबेर की संपत्ति !

भगवान बोले - यमराज जी ! शायद आपकी जानकारी पूरी नही है क्या आप जानते हैं कि सुदामा ने मुझे अपना सर्वस्व अपर्ण कर दिया था ! मैने तो सुदामा के केवल उसी उपकार का प्रतिफल उसे दिया है !

यमराज बोले - भगवन ऐसी कौनसी सम्पत्ति सुदामा ने आपको अर्पण कर दी उसके पास तो कुछ भी नही !

भगवान बोले - सुदामा ने अपनी कुल पूंजी के रूप में बड़े ही प्रेम से मुझे चावल अर्पण किये थे जो मैंने और देवी लक्ष्मी ने बड़े प्रेम से खाये थे !

जो मुझे प्रेम से कुछ खिलाता है उसे सम्पूर्ण विश्व को भोजन कराने जितना पुण्य प्राप्त होता है.बस उसी का प्रतिफल सुदामा को मैंने दिया है !

हरे कृष्ण।।
    साधु- संग में, सो बैकुण्ठ न होय

अर्थात् जो सुख, जो आनंद एक साधु की संगति में हैं, वह बैकुण्ठ या परमधाम नहीं।
कहने का आशय हैं कि जिस आनंद और शांति को पाने के लिए हमारी आत्मा लालायित हैं, वह न चिरायु होने पर मिलेगी, न स्वर्ग के भोग- ऐश्वर्यो से। वह तो मिलेगी, मात्र हरि- चर्चा से, ईश्वर की स्तुति में! और यह हरि- चर्चा कहाँ पर होती हैं- साधु- संतो के समागम में। इसलिए कबीरदास जी ने कहा कि मैं साधु- संग छोड़कर बैकुण्ठ भी नहीं जाना चाहता। कारण कि वे भी यह जानते थे कि वास्तव में बैकुण्ठ से भी अधिक प्रभु की उपस्थिति साधु- संगति में हैं।
एक बार नारद जी ने भगवान विष्णु से प्रश्न किया- 'प्रभु, आप सदा कहाँ वास करते हैं?' प्रभु बोले- 'नाहं वसामि वैकुण्ठे... ' हे नारद, न तो मैं बैकुण्ठ में वास करता हूँ, जहाँ मेरे भजन- कीर्तन करते हैं, प्रभु की महिमा गाते हैं।'
परन्तु यहाँ जानना भी बहुत जरुरी हैं कि भजन गाना कब सार्थक हैं। ईश्वर का महिमागान कब आनंद देता हैं?
उतरस्वरुप नामदेव जी ने कहा- 'जब देखा, तब गावा तो मन धीरज पावा... अर्थात् जब मैने उस प्रभु का अपने अंतर्घट में दर्शन किया, तभी उसका महिमागान करने में मेरे मन को धीरज व आनंद मिला।'
कहने का भाव कि प्रभु- दर्शन प्रथम अनिवार्यता हैं। इसलिए सबसे पहले खोज करे, एक ऐसे ब्रह्मनिष्ठ गुरु की जो आपको अंतःकरण में ईश्वर का दर्शन करा दे। ईश्वर को देख लेने के बाद जब आप उसका गुणगान करेंगे, तभी आनंद की अनुभूति हो पाएगी। ऐसे दिव्यानंद की, जिसके आगे आपको फिर अन्य हर रस फीका लगेगा। आप उसी में सराबोर रहना चाहेंगे। उसी अवस्था को कबीरदास जी भी प्राप्त कर चुके थे और अपने दोहे के माध्यम से हमें भी इसी अवस्था की ओर प्रेरित करना चाहते थे। तभी तो उन्होने कहा-
जो सुख साधु- संग मे, सो बैकुण्ठ न होये।
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(((( द्वारिकादीश का तुलादान ))))

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एक बार देवर्षि नारद के मन में आया कि भगवान् के पास बहुत महल आदि है है, एक- आध हमको भी दे दें तो यहीं आराम से टिक जायें, नहीं तो इधर -उधर घूमते रहना पड़ता है ।
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भगवान् के द्वारिका में बहुत महल थे ।
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नारद जी ने भगवान् से कहा - " भगवन ! " आपके बहुत महल हैं, एक हमको दो तो हम भी आराम से रहें। आपके यहाँ खाने - पीने का इंतजाम अच्छा ही है ।
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भगवान् ने सोचा कि यह मेरा भक्त है , विरक्त संन्यासी है। अगर यह कहीं राजसी ठाठ में रहने लगा तो थोड़े दिन में ही इसकी सारी विरक्ति भक्ति निकल जायेगी ।
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हम अगर सीधा ना करेंगे तो यह बुरा मान जायेगा , लड़ाई झगड़ा करेगा कि इतने महल हैं और एकमहल नहीं दे रहे हैं ।
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भगवान् ने चतुराई से काम लिया , नारद से कहा " जाकर देख ले , जिस मकान में जगह खाली मिले वही तेरे नाम कर देंगे ।" नारद जी वहाँ चले ।
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भगवान् की तो १६१०८रानियाँ और प्रत्येक के११- ११बच्चे भी थे । यह द्वापर युग की बात है ।
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सब जगह नारद जी घूम आये लेकिन कहीं एक कमरा भी खाली नहीं मिला , सब भरे हुए थे ।
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आकर भगवान् से कहा " वहाँ कोई जगह खाली नहीं मिली ।"
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भगवान् ने कहा फिर क्या करूँ , होता तो तेरे को दे देता। "
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नारद जी के मन में आया कि यह तो भगवान् ने मेरे साथ धोखाधड़ी की है , नहीं तो कुछ न कुछ करके, किसी को इधर उधर शिफ्ट कराकर , खिसकाकर एक कमरा तो दे ही सकते थे ।
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इन्होंने मेरे साथ धोखा किया है तो अब मैं भी इन्हे मजा चखाकर छोडूँगा ।
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नारद जी रुक्मिणी जी के पास पहुँचे , रुक्मिणी जी ने नारद जी की आवभगत की , बड़े प्रेम से रखा ।
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उन दिनों भगवान् सत्यभामा जी के यहाँ रहते थे ।
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एक आध दिन बीता तो नारद जी ने उनको दान की कथा सुनाई , सुनाने वाले स्वयं नारद जी।
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दान का महत्त्व सुनाने लगे कि जिस चीज़ का दान करोगे वही चीज़ आगे तुम्हारे को मिलती है।
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जब नारद जी ने देखा कि यह बात रुक्मिणी जी को जम गई है तो उनसे पूछा " आपको सबसे ज्यादा प्यार किससे है ?
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रुक्मिणी जी ने कहा " यह भी कोई पूछने की बात है , भगवान् हरि से ही मेरा प्यार है ।"
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कहने लगे " फिर आपकी यही इच्छा होगी कि अगले जन्म में तुम्हें वे ही मिलें ।"
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रुक्मिणी जी बोली " इच्छा तो यही है ।"
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नारद जी ने कहा " इच्छा है तो फिर दान करदो, नहीं तो नहीं मिलेँगे । आपकी सौतें भी बहुत है और उनमें से किसी ने पहले दान कर दिया उन्हें मिल जायेंगे।
इसलिये दूसरे करें इसके पहले आप ही करदे ।
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रुक्मिणी जी को बात जँच गई कि जन्म जन्म में भगवान् मिले तो दान कर देना चाहियें।
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रुक्मिणी से नारद जी ने संकल्प करा लिया ।
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अब क्या था , नारद जी का काम बन गया ।
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वहाँ से सीधे सत्यभामा जी के महल में पहुँच गये और भगवान् से कहा कि " उठाओ कमण्डलु , और चलो मेरे साथ ।"
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भगवान् ने कहा " कहाँ चलना है , बात क्या हुई ? "
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नारद जी ने कहा " बात कुछ नहीं , आपको मैंने दान में ले लिया है । आपने एक कोठरी भी नहीं दी तो मैं अब आपको भी बाबा बनाकर पेड़ के नीचे सुलाउँगा ।" सारी बात कह सुनाई ।
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भगवान् ने कहा " रुक्मिणी ने दान कर दिया है तो ठीक है । वह पटरानी है , उससे मिल तो आयें ।"
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भगवान् ने अपने सारे गहने गाँठे , रेशम के कपड़े सब खोलकर सत्यभामा जी को दे दिये और बल्कल वस्त्र पहनकर, भस्मी लगाकर और कमण्डलु लेकर वहाँ से चल दिये ।
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उन्हें देखते ही रुक्मिणी के होश उड़ गये । पूछा " हुआ क्या ? "
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भगवान् ने कहा " पता नहीं , नारद कहता है कि तूने मेरे को दान में दे दिया । "
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रुक्मिणी ने कहा " लेकिन वे कपड़े , गहने कहाँ गये, उत्तम केसर को छोड़कर यह भस्मी क्यों लगा ली ? "
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भगवान् ने कहा " जब दान दे दिया तो अब मैं उसका हो गया। इसलिये अब वे ठाठबाट नहीं चलेंगे । अब तो अपने भी बाबा जी होकर जा रहे हैं ।"
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रुक्मिणी ने कहा " मैंने इसलिये थोड़े ही दिया था कि ये ले जायें।"
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भगवान् ने कहा " और काहे के लिये दिया जाता है ? इसीलिये दिया जाता है कि जिसको दो वह ले जाये ।"
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अब रुक्मिणी को होश आया कि यह तो गड़बड़ मामला हो गया।
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रुक्मिणी ने कहा " नारद जी यह आपने मेरे से पहले नहीं कहा , अगले जन्म में तो मिलेंगे सो मिलेंगे , अब तो हाथ से ही खो रहे हैं । "
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नारद जी ने कहा " अब तो जो हो गया सो हो गया , अब मैं ले जाऊँगा ।" रुक्मिणी जी बहुत रोने लगी।
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तब तक हल्ला गुल्ला मचा तो और सब रानियाँ भी वहा इकठ्ठी हो गई। सत्यभामा , जाम्बवती सब समझदार थीं ।
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उन्होंने कहा " भगवान् एक रुक्मिणी के पति थोड़े ही हैं, इसलिये रुक्मिणी को सर्वथा दान करने का अधिकार नहीं हो सकता, हम लोगों का भी अधिकार है।"
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नारद जी ने सोचा यह तो घपला हो गया । कहने लगे " क्या भगवान् के टुकड़े कराओगे ? तब तो 16108 हिस्से होंगे ।"
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रानियों ने कहा " नारद जी कुछ ढंग की बात करो । " नारद जी ने विचार किया कि अपने को तो महल ही चाहिये था और यही यह दे नहीं रहे थे , अब मौका ठीक है , समझौते पर बात आ रही है ।
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नारद जी ने कहा भगवान् का जितना वजन है , उतने का तुला दान कर देने से भी दान मान लिया जाता है । तुलादान से देह का दान माना जाता है ।
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इसलिये भगवान् के वजन का सोना , हीरा , पन्ना दे दो ।" इस पर सब रानियाँ राजी हो गई।
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बाकी तो सब राजी हो गये लेकिन भगवान् ने सोचा कि यह फिर मोह में पड़ रहा है । इसका महल का शौक नहीं गया।
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भगवान् ने कहा " तुलादान कर देना चाहिये , यह बात तो ठीक हे ।"
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भगवान् तराजु के एक पलड़े के अन्दर बैठ गये । दूसरे पलड़े में सारे गहने, हीरे, पन्ने रखे जाने लगे ।
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लेकिन जो ब्रह्माण्ड को पेट में लेकर बैठा हो , उसे द्वारिका के धन से कहाँ पूरा होना है ।
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सारा का सारा धन दूसरे पलड़े पर रख दिया लेकिन जिस पलड़े पर भगवान बैठे थे वह वैसा का वैसा नीचे लगा रहा , ऊपर नहीं हुआ ।
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नारद जी ने कहा " देख लो , तुला तो बराबर हो नहीं रहा है , अब मैं भगवान् को ले जाऊँगा ।"
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सब कहने लगे " अरे कोई उपाय बताओ ।"
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नारद जी ने कहा " और कोई उपाय नहीं है ।"
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अन्य सब लोगों ने भी अपने अपने हीरे पन्ने लाकर डाल दिये लेकिन उनसे क्या होना था । वे तो त्रिलोकी का भार लेकर बैठे थे ।
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नारद जी ने सोचा अपने को अच्छा चेला मिल गया , बढ़िया काम हो गया । उधर औरते सब चीख रही थी।
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नारद जी प्रसन्नता के मारे इधर ऊधर टहलने लगे । भगवान् ने धीरे से रुक्मिणी को बुलाया ।
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रुक्मिणी ने कहा " कुछ तो ढंग निकालिये , आप इतना भार लेकर बैठ गये , हम लोगों का क्या हाल होगा ? "
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भगवान् ने कहा " ये सब हीरे पन्ने निकाल लो , नहीं तो बाबा जी मान नहीं रहे हैं ।
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यह सब निकालकर तुलसी का एक पत्ता और सोने का एक छोटा सा टुकड़ा रख दो तो तुम लोगों का काम हो जायगा ।"
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रुक्मिणी ने सबसे कहा कि यह नहीं हो रहा है तो सब सामान हटाओ ।
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सारा सामान हटा दिया गया और एक छोटे से सोने के पतरे पर तुलसी का पता रखा गया तो भगवान् के वजन के बराबर हो गया ।
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सबने नारद जी से कहा ले जाओ " तूला दान ।"
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नारद जी ने खुब हिलाडुलाकर देखा कि कहीं कोई डण्डी तो नहीं मार रहा है । नारद जी ने कहा इन्होंने फिर धोखा दिया । फिर जहाँ के तहाँ यह लेकर क्या करूँगा ?
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उन्होंने कहा " भगवन् । यह आप अच्छा नहीं कर रहे हैं , केवल घरवालियों की बात सुनते हैं , मेरी तरफ देखो ।"
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भगवान् ने कहा " तेरी तरफ क्या देखूँ ? तू सारे संसार के स्वरूप को समझ कर फिर मोह के रास्ते जाना चाह रहा है तो तेरी क्या बात सुनूँ।"
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तब नारद जी ने समझ लिया कि भगवान् ने जो किया सो ठीक किया । नारद जी ने कहा " एक बात मेरी मान लो ।
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आपने मेरे को तरह तरह के नाच अनादि काल से नचाये और मैंने तरह तरह के खेल आपको दिखाये।
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कभी मनुष्य , कभी गाय इत्यादि पशु , कभी इन्द्र , वरुण आदि संसार में कोई ऐसा स्वरूप नहीं जो चौरासी के चक्कर में किसी न किसी समय में हर प्राणी ने नहीं भोग लिया ।
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अनादि काल से यह चक्कर चल रहा है , सब तरह से आपको खेल दिखाया ।
आप मेरे को ले जाते रहे और मैं खेल करता रहा ।
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अगर आपको मेरा कोई खेल पसंद आगया हो तो आप राजा की जगह पर हैं और मैं ब्राह्मण हूँ तो मेरे को कुछ इनाम देना चाहिये ।
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वह इनाम यही चाहता हूँ कि मेरे शोक मोह की भावना निवृत्त होकर मैं आपके परम धाम में पहुँच जाऊँ । और यदि कहो कि " तूने जितने खेल किये सब बेकार है " , तो भी आप राजा हैं ।
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जब कोई बार बार खराब खेल करता है तो राजा हुक्म देता है कि " इसे निकाल दो ।"
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इसी प्रकार यदि मेरा खेल आपको पसन्द नहीं आया है तो फिर आप कहो कि इसको कभी संसार की नृत्यशाला में नहीं लाना है । तो भी मेरी मुक्ति है ।"
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भगवान् बड़े प्रसन्न होकर तराजू से उठे और नारद जी को छाती से लगाया और कहा " तेरी मुक्ति तो निश्चित है।
        ।। जय सिया राम जी ।।
         ।। ॐ नमह शिवाय ।।


चंचल मन

*मन भागता है--यह मन से दीखता है कि नहीं?* अगर नहीं दीखता है तो कैसे कहते हो कि मन भागता है ? जिस प्रकाश (ज्ञान) में मन भागता हुआ दीखता है,वह प्रकाश आप हो।  मन आप नहीं हो।

आदमी दीखते हैं तो प्रकाश में दीखते हैं। आदमी रहे अथवा चले जाएँ, उस प्रकाश में कोई फर्क नहीं पड़ता। पण्डाल आदमियों से भर जाए अथवा एक भी आदमी न रहे, प्रकाश में क्या फर्क पड़ता है ? आदमी  तो आते-जाते रहते हैं, पर प्रकाश ज्यों का त्यों रहता है।

मन लगा और मन नहीं लगा--यह दोनों बातें आप जानते हो। यह जानना आपका स्वरूप है।  मन आप का स्वरूप नहीं है ।

*आप मन को लगाने की चेष्टा मत करो, प्रत्युत केवल मन को देखो। आप मन को रोकने की चेष्टा करोगे तो वर्षों तक चेष्टा करने पर भी नहीं रुकेगा, और देखते रहो तो तक रुक जाएगा।*

जैसे आप कहते हो 'हमारी घड़ी' तो आप घड़ी से अलग हुए, ऐसे ही आप कहते हो 'हमारा मन' तो आप मन से अलग हुए। अतः मन आपका है ही नहीं, भागे तो क्या, नहीं भागे तो क्या !

अगर उपर्युक्त बातें भी समझ में नहीं आए तो भगवान को 'हे नाथ ! हे नाथ !' पुकारो। भगवान से प्रार्थना करो कि 'हे नाथ !हे नाथ!
       ।। जय सिया राम जी ।।
        ।। ॐ नमह शिवाय ।।

*वृंदावन लीला

वृन्दावन में एक संत हुए मनसुखा बाबा........

       *वो सदा चलते फिरते ठाकुर जी की लीलाओं में खोये रहते थे ।ठाकुर जी की सखा भाव से सेवा करते थे।सब संतो के प्रिय थे इसलिए जहां जाते वहा प्रसाद की व्यवस्था हो जाती। और बाकी समय नाम जप और लीला चिंतन करते रहते थे।*
          *एक दिन उनके जांघ पे फोड़ा हो गया असहनीय पीड़ा हो रही थी। बहुत उपचार के बाद भी कोई आराम नहीं मिला।तो एक व्यक्ति ने उस फोड़े का नमूना लेके आगरा के किसी अच्छे अस्पताल में भेज दिया,वहां के डॉक्टर ने बताया की इस फोड़े में तो कैंसर बन गया है*
       *तुरंत इलाज़ करना पड़ेगा नहीं तो बाबा का बचना मुश्किल है।जैसे ही ये बात बाबा को पता चली की उनको आगरा लेके जा रहे हैं तो बाबा लगेे रोने और बोले "हमहूँ कहीं नहीं जानो"हम ब्रज से बहार जाके नहीं मरना चाहते।*
       *हमें यहीं छोड़ दो अपने यार के पास हम जियेंगे तो अपने यार के पास और मरेंगे तो अपने यार की गोद में। हमें नहीं करवानो इलाज़।*
      *और बाबा नहीं गए इलाज़ करवाने। बाबा चले गए बरसाने। बहुत असहनीय पीड़ा हो रही थी। उस रात बाबा दर्द से कराह रहे थे। पीड़ा में बाबा की आंख लग गयी ओर बाबा इतने में क्या देखते हैं वृषभानु दुलारी श्री किशोरी जू अपनी अष्ट सखियों के साथ आ रही हैं।और बाबा के समीप आके ललिता सखी से बोली अरे ललिते जे तो मनसुखा बाबा हैं ना।*
       *तो ललिता जी बोली हाँ श्री जी ये मनसुखा बाबा हैं और डॉक्टर ने बताया की इनको कैंसर है देखो कितना दर्द से कराह रहे हैं।*
       *परम दयालु करुनामई सरकार श्री लाडली जी से उनका दर्द सहा नहीं गया और बोली ललिता बाबा को कोई कैंसर नहीं हैं ।ये तो एक दम स्वस्थ हैं।*
     *जब बाबा इस लीला से बाहर आये तो उन्होंने देखा की उनका दर्द एक दम समाप्त हो गया।और जांघ पर यहाँ तक की किसी फोड़े का निशान भी नहीं रहा।*
    *देखो कैसी करुनामई सरकार हैं श्री लाडली जी हमारी*

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असली स्वर्ग

गोपाल बहुत आलसी व्यक्ति था। घरवाले भी उसकी इस आदत से परेशान थे। वह हमेशा से ही चाहता था कि उसे एक ऐसा जीवन मिले, जिसमें वह दिनभर सोए और जो चीज चाहे उसे बिस्तर में ही मिल जाए। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। एक दिन उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद वह स्वर्ग में पहुंच गया, जो उसकी कल्पना से भी सुंदर था। गोपाल सोचने लगा काश! मैं इस सुंदर स्थान पर पहले आ गया होता। बेकार में धरती पर रहकर काम करना पड़ता था। खैर, अब मैं आराम की ज़िंदगी जिऊंगा वह यह सब सोच ही रहा था कि एक देवदूत उसके पास आया और हीरे-जवाहरात जड़े बिस्तर की ओर इशारा करते हुए बोला- आप इस पर आराम करें। आपको जो कुछ भी चाहिए होगा, बिस्तर पर ही मिल जाएगा। यह सुनकर गोपाल बहुत खुश हुआ।

अब वह दिन-रात खूब सोता। उसे जो चाहिए होता, बिस्तर पर मंगवा लेता। कुछ दिन इसी तरह चलता रहा। लेकिन अब वह उकताने लगा था। उसे न दिन में चैन था न रात में नींद। जैसे ही वह बिस्तर से उठने लगता दास-दासी उसे रोक देते। इस तरह कई महीने बीत गए। गोपाल को आराम की ज़िंदगी बोझ लगने लगी। स्वर्ग उसे बेचैन करने लगा था। वह कुछ काम करके अपना दिन बिताना चाहता था। एक दिन वह देवदूत के पास गया और उससे बोला- मैं जो कुछ करना चाहता था, वह सब करके देख चुका हूं। अब तो मुझे नींद भी नहीं आती। मैं कुछ काम करना चाहता हूं। क्या मुझे कुछ काम मिलेगा? आपको यहां आराम करने के लिए लाया गया है। यही तो आपके जीवन का सपना था। माफ कीजिए, मैं आपको कोई काम नहीं दे सकता। देवदूत बोला। गोपाल ने चिढकर कहा-अजीब बात है। मैं इस ज़िंदगी से परेशान हो चुका हूं। मैं इस तरह अपना वक़्त नहीं बिता सकता। इससे अच्छा तो आप मुझे नर्क में भेज दीजिए।

देवदूत ने धीमे स्वर में कहा- आपको क्या लगता है आप कहा हैं? स्वर्ग में या नर्क में? मैं कुछ समझा नहीं-गोपाल ने कहा। देवदूत बोला- असली स्वर्ग वहीं होता है, जहां मनुष्य दिन-रात मेहनत करके अपने परिवार का पालन पोषण करता है। उनके साथ आनंद के पल बिताता है और जो सुख-सुविधांए मिलती है उन्हीं में खुश रहता है। लेकिन आपने कभी ऐसा नहीं किया। आप तो हमेशा आराम करने की ही सोचते रहे। जब आप धरती पर थे तब आराम करना चाहते थे। अब आपको आराम मिल रहा है, तो काम करना चाहते हैं। स्वर्ग के आनंद से उकताने लगे हैं। गोपाल बोला- शायद अब मुझे समझ आ गया है कि मनुष्य को काम के समय काम और आराम के समय आराम करना चाहिए। दोनों में से एक भी चीज ज्यादा हो जाए, तो जीवन में नीरसता आ जाती है।

सच है, मेरे जैसे आलसी व्यक्तियों के लिए तो एक दिन स्वर्ग भी नर्क बन जाता है।
   

   गवान को क्या पसंद है .......????🔥*

*हम लोग हमेशा वही चीज चाहते हैं जो हमे पसंद होती है। चाहे वो संसार की वस्तु हो या व्यक्ति हो। जो चीज हमें पसंद नहीं है हम उसके बारे में न सोचते हैं न देखते हैं और न जानना चाहते हैं।*
*लेकिन धन्य है वो भक्त जो ये जानना चाहते हैं की हमारे भगवान को क्या पसंद है? ध्यान रखना कि भगवान हमारी किसी वस्तु के भूखे नहीं हैं, वो हमारे किसी 56 भोग के भूखे नहीं हैं। वो तो केवल भाव के भूखे हैं। केवल प्रेम के भूखे हैं।*
*अब संत जन जो कहते हैं वो सुनिये। भगवान को भक्त का प्रेम पसंद है, उसका भाव पसंद है और भगवान भक्त से उसका मन चाहते हैं। अगर आप सच में कुछ देना चाहते हो और भगवान की पसंद का ख्याल रखना चाहते हों तो खुद को भगवान को दे दो।*
*क्योकि याद रखना केवल वो ही हमारे हैं। भगवान से एक ही बात कहो-प्रभु! मैं आपका और आप मेरे।*
*आप भगवान को प्रेम से भोग लगाइये वो खा लेंगे। भगवान को आप प्रेम से सुलाये वो सो जायेंगे। भगवान को आप प्रेम से नहलाये वो नहा लेंगे।*
*जो भी काम करें बस मन लगा कर करें। भगवान को दिखावा पसंद नही है। वो तो केवल निष्कपट प्रेम ही पसंद करते हैं।*
*भगवान ने कहा है कि — ‘निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा’*
*भगवान कहते हैं जिसका मन गंगा जी की तरह निर्मल है , जो छल-छिद्र और कपट से रहित है वो मुझे अत्यंत प्रिय है।*
*श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं —मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥ गीता 12.8 ||*
*हे अर्जुन! मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि का निवेश कर, इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।भगवान कहते हैं कि जो भक्त किसी प्रकार की इच्छा नही रखता, शुद्ध मन से मेरी भक्ति करता है और सभी कर्मो को मुझे अर्पित करता है ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।*                                                                   
       *।। जय सिया राम जी ।।*
          *।। ॐ नमह शिवाय ।।*।।।।।।



*हरि गुरु भजु नित गोविन्द राधे।*
*भाव निष्काम अनन्य बना दे॥*

देखिये इस दोहे में मैंने अपना पूरा सिद्धान्त सब रख दिया है। इसमें कुल चार बातें हैं -
एक तो 'हरि गुरु भजु' खाली हरि को नहीं भजो।
यस्य देवे पर भक्तिर्यथा देवे तथा गुरु।
तस्यैते कथिता हाथ: प्रकाशन्ते महात्मन:। (श्वेता: उप, ६.२३)
हरि-गुरु दोनों को समान रूप से भजो। नम्बर दो 'भज नित' निरंतर। पाँच मिनट भज लेने से, एक घंटा भज लेने से और बाकी टाईम में संसार के भजने से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी। वेद से लेकर रामायण तक सबका बार-बार यह उद्योग है -
यो मां स्मरति नित्यशः। (गीता ८.१४)
तेषां नित्याभियुक्तानां॥ (गीता २.२२)
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च। (गीता ८.७)
निरंतर! तो हरि-गुरु की भक्ति नम्बर एक और निरंतर भक्ति, मन का अटैचमेन्ट निरंतर करने का अभ्यास करो, संसार फिर न आये मन में। नहीं तो थोड़ी सफाई होगी मन की, फिर गन्दगी भर जायेगी। यह संसार
का सात्विक, राजस, तामस विषय गन्दा कर देता है अन्त:करण को, ऐसे ही अनादिकाल का गन्दा है। यह दो बातें। नम्बर तीन 'भाव निष्काम' संसारी कामना से भक्ति न करो यानि भुक्ति-मुक्ति बैकुण्ठ, कोई कामना नहीं। उनको सुख देने की कामना, उनकी इच्छा में इच्छा रखने की कामना, उनकी सेवा की कामना, यह निष्काम है। यह नम्बर तीन और 'अनन्य बना दे' अनन्य भाव से भक्ति करो। भगवान् की भी किया, देवी-देवता की भी किया, मनुष्यों की भी किया, यह घपड़-सपड़ नहीं चलेगा।
तमेव विदित्वाति (श्वेता.उप. ३.८)
रसः होवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैतिरीय उप, २७)
मामेकं शरण व्रज। (गीता १८६६)
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। (गीता ७.१४)
'एव' शब्द का प्रयोग है। 'ही', केवल भगवान उसका नाम, रूप, लीला, गुण, धाम, संत, यह भगवान हैं इतने। इनमें ही मन का अटैचमेन्ट हो, ये शुद्ध हैं तो मन शुद्ध होगा। तो हरि गुरु की भक्ति नम्बर एक और नित्य भक्ति नम्बर दो और निष्काम भक्ति नम्बर तीन
और अनन्य भक्ति नम्बर चार। कुल चार बात मस्तिष्क में सदा रखो प्लस उसके पालन करने का अभ्यास करो। साे शास्त्र-वेद सब मैंने एक दोहे में रख दिये।

राधे राधे गोविंद गोविंद राधे राधे राधे गोविंद गोविन्द राधे...
     


((((( संगति, परिवेश और भाव )))))*
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एक राजा अपनी प्रजा का भरपूर ख्याल रखता था. राज्य में अचानक चोरी की शिकायतें बहुत आने लगीं. कोशिश करने से भी चोर पकड़ा नहीं गया.
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हारकर राजा ने ढींढोरा पिटवा दिया कि जो चोरी करते पकडा जाएगा उसे मृत्युदंड दिया जाएगा. सभी स्थानों पर सैनिक तैनात कर दिए गए. घोषणा के बाद तीन-चार दिनों तक चोरी की कोई शिकायत नही आई.
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उस राज्य में एक चोर था जिसे चोरी के सिवा कोई काम आता ही नहीं था. उसने सोचा मेरा तो काम ही चोरी करना है. मैं अगर ऐसे डरता रहा तो भूखा मर जाउंगा. चोरी करते पकडा गया तो भी मरुंगा, भूखे मरने से बेहतर है चोरी की जाए.
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वह उस रात को एक घर में चोरी करने घुसा. घर के लोग जाग गए. शोर मचाने लगे तो चोर भागा. पहरे पर तैनात सैनिकों ने उसका पीछा किया. चोर जान बचाने के लिए नगर के बाहर भागा.
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उसने मुडके देखा तो पाया कि कई सैनिक उसका पीछा कर रहे हैं. उन सबको चमका देकर भाग पाना संभव नहीं होगा. भागने से तो जान नहीं बचने वाली, युक्ति सोचनी होगी.
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चोर नगर से बाहर एक तालाब किनारे पहुंचा. सारे कपडे उतारकर तालाब मे फेंक दिया और अंधेरे का फायदा उठाकर एक बरगद के पेड के नीचे पहुंचा.
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बरगद पर बगुलों का वास था. बरगद की जड़ों के पास बगुलों की बीट पड़ी थी. चोर ने बीट उठाकर उसका तिलक लगा लिया ओर आंख मूंदकर ऐसे स्वांग करने बैठा जैसे साधना में लीन हो.
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खोजते-खोजते थोडी देर मे सैनिक भी वहां पहुंच गए पर उनको चोर कहीं नजर नहीं आ रहा था. खोजते खोजते उजाला हो रहा था ओर उनकी नजर बाबा बने चोर पर पडी.
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सैनिकों ने पूछा- बाबा इधर किसी को आते देखा है. पर ढोंगी बाबा तो समाधि लगाए बैठा था. वह जानता था कि बोलूंगा तो पकडा जाउंगा सो मौनी बाबा बन गया और समाधि का स्वांग करता रहा.
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सैनिकों को कुछ शंका तो हुई पर क्या करें. कही सही में कोई संत निकला तो ? आखिरकार उन्होंने छुपकर उसपर नजर रखना जारी रखा. यह बात चोर भांप गया. जान बचाने के लिए वह भी चुपचाप बैठा रहा.
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एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीत गए बाबा बैठा रहा. नगर में चर्चा शुरू हो गई की कोई सिद्ध संत पता नही कितने समय से बिना खाए-पीए समाधि लगाए बैठै हैं. सैनिकों को तो उनके अचानक दर्शऩ हुए हैं.
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नगर से लोग उस बाबा के दर्शन को पहुंचने लगे. भक्तों की अच्छी खासी भीड़ जमा होने लगी. राजा तक यह बात पहुंच गई. राजा स्वयं दर्शन करने पहुंचे. राजा ने विनती की आप नगर मे पधारें और हमें सेवा का सौभाग्य दें.
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चोर ने सोचा बचने का यही मौका है. वह राजकीय अतिथि बनने को तैयार हो गया. सब लोग जयघोष करते हुए नगर में लेजा कर उसकी सेवा सत्कार करने लगे.
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लोगों का प्रेम और श्रद्धा भाव देखकर ढोंगी का मन परिवर्तित हुआ. उसे आभास हुआ कि यदि नकली में इतना मान-संम्मान है तो सही में संत होने पर कितना सम्मान होगा. उसका मन पूरी तरह परिवर्तित हो गया और चोरी त्यागकर संन्यासी हो गया.
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संगति, परिवेश और भाव इंसान में अभूतपूर्व बदलाव ला सकता है. रत्नाकर डाकू को गुरू मिल गए तो प्रेरणा मिली और वह आदिकवि हो गए. असंत भी संत बन सकता है, यदि उसे राह दिखाने वाला मिल जाए.
.अपनी संगति को शुद्ध रखिए, विकारों का स्वतः पलायन आरंभ हो जाएगा..!!


       संतवाणी*



*जो मनुष्य शान्तिमें भी रमण नहीं करता और स्वाधीनतामें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसीको प्रेमकी प्राप्ति होती है । इसलिए सही मायनोंमें तो जीवन्मुक्त होनेके बाद मनुष्य प्रेम प्राप्तिका अधिकारी होता है ।*

*जिसके हृदयमें भोग-सुखोंका लालच और काम-क्रोधादि विकार मौजूद हैं वह प्रेमकी प्राप्ति तो क्या, प्रेमकी चर्चा करने तथा सुननेका भी अधिकारी नहीं है । वास्तवमें तो जिसके हृदयमें ममता, आसक्ति, कामना और स्वार्थकी गन्ध भी न हो, वहीं प्रेमी हो सकता है ।*

*इन दोषोंका सर्वथा अभाव होनेपर ही प्रेमका प्रादुर्भाव होता है । इन दोषोंके रहते हुए अपनेको प्रेमी मानना, अपनेको और दूसरोंको धोखा देना है । इसलिए यदि सच्चा प्रेमी होना है, तो सभी दोषोंका त्याग करो, प्रेम अवश्य मिलेगा ।*

         ।। कबीर।।


*कबीर परमेश्वर जी अपने विधानानुसार एक नगर के बाहर जंगल में आश्रम बनाकर रहते थे। कुछ दिन आश्रम में रहते थे, सत्संग करते थे। फिर भ्रमण के लिए निकल जाते थे। उनका एक जाट किसान शिष्य था जो कुछ ही महीनों से शिष्य बना था। किसान निर्धन था। उसके पास एक बैल था। उसी से किसी अन्य किसान के साथ मेल-जोल करके खेती करता था। दो दिन अन्य का बैल स्वयं लेकर दोनों बैलों से हल चलाता था। फिर दो दिन दूसरा किसान उसका बैल लेकर अपने बैल के साथ जोड़कर हल जोतता था। किसान अपने कच्चे मकान के आँगन में बैल को बाँधता था। एक रात्रि में चोर ने उस किसान के बैल को चुरा लिया।*

*किसान ने देखा कि बैल चोरी हो गया तो सुबह वह आश्रम में गया। गुरूदेव जी से अपना दुःख सांझा किया। गुरूदेव जी ने कहा कि बेटा! विश्वास रख परमात्मा पर, दान-धर्म-भक्ति करता रह, आपको परमात्मा दो बैल देगा। जो चुराकर ले गया है, वह पाप का भागी बना है।*

*परमेश्वर की कृपा से बारिश अच्छी हुई। किसान भक्त की फसल चैगुनी हुई। भक्त किसान ने दो बैल मोल लिये और उनको अच्छी खुराक खिलाई। बैल खागड़ों (सांडों) जैसे ताकतवर हो गए। गाँव में उसके बैलों की चर्चा होती थी।*

*एक वर्ष पश्चात् वही चोर उसी क्षेत्रा में चोरी करने आया। कहीं दाँव नहीं लगा। उसने विचार किया कि जिसका बैल चुराया था, उसके घर देखता हूँ, हो सकता है कोई बैल ले आया हो। देखा तो दो बैल खागड़ों जैसे बँधे थे। चोर ने दोनों चुरा लिए।*

*किसान जागा तो बैल चोरी हो चुके थे। गुरू जी से बताया तो गुरू जी ने कहा कि बेटा! तेरे घर चार बैल देगा भगवान। चोर कभी सेठ नहीं हो सकता। पाप-पाप इकट्ठे करता है।*

*रजा परमात्मा की, आशीर्वाद गुरूदेव का, बारिश ने किसानों की मौज कर दी। भक्त किसान के पास जमीन पर्याप्त थी, परंतु बारिश के अभाव से खेती थोड़े क्षेत्रा में करता था। बारिश अच्छी हो गई। दो बैल मोल लिए, दो कर्जे पर लिए, खेती अधिक जमीन में की। एक नौकर हाली रखा। एक वर्ष में सब कर्ज भी उतर गया। बैल चार हो गए खागड़ों जैसे मोटे-मोटे, तगड़े-तगड़े। मकान भी पक्का बना लिया।*

*चोर दो वर्ष के पश्चात् उधर गया और पहले उसी किसान की स्थिति देखने गया। चोर ने देखा कि चार बैल सांडों जैसे बैठे थे और चोर के पास दो दिन का आटा शेष था। अधिक निर्धन हो गया था।*

*चोर ने किसान को रात्रि में नींद से उठाया तो किसान बोला, कौन हो आप? चोर ने कहा कि मैं चोर हूँ जिसने तेरे तीन बैल चुराए थे। किसान बोला, भाई! मेरी नींद खराब ना कर, तू अपना काम कर। परमात्मा अपना कर रहा है, मुझे सोने दे। चोर ने पैर पकड़ लिए और बोला, हे देवता! मेरे से अब चोरी नहीं हो रही। एक बात बता, आपका चोर आपके सामने खड़ा है, आप पकड़ भी नहीं रहे हो। हे भाई! तेरा एक बैल मैंने चुराया, तेरे घर अगले वर्ष दो बैल खागड़ों जैसे बँधे थे, वे दोनों भी मैं चुरा ले गया। आज दो वर्ष पश्चात् आपके आँगन में चार बैल खागड़ों जैसे बँधे हैं। मेरा सर्वनाश हो चुका है। बालक भी भूखे रहते हैं। मुझे मार चाहे छोड़, मुझे तेरे विकास का राज बता। मैं भी जाट किसान हूँ, जमीन भी है। निर्धनता बेअन्त है।*

*भक्त किसान ने उसको कहा कि आप स्नान करो, खाना खाओ। चोर ने वैसा ही किया। फिर भक्त उस चोर को आश्रम में लेकर गया। गुरूदेव से सब घटना बताई। गुरू देव ने चोर को समझाया। सात-आठ दिन भक्त किसान ने अपने घर पर रखा और प्रतिदिन गुरू जी से मिलाकर सत्संग सुनाया। चोर ने दीक्षा ली।*

*गुरू जी ने कहा कि भक्त बेटा! नए भक्त को एक बैल दे दे उधारा। खेती करेगा, तेरे पैसे लौटा देगा। भक्त ने कहा, गुरूजी! ठीक है। भक्त किसान ने नए भक्त को एक बैल दे दिया। नया भक्त प्रति महीना सत्संग में आता था। पूरे परिवार को नाम (दीक्षा) दिला दिया। दो वर्ष में वित्तीय स्थिति अच्छी हो गई। एक बैल और तीन पहले वाले (चोरी वाले) बैलों के रूपये लेकर चोर भक्त उस किसान भक्त के घर आया। उसके बच्चे भी साथ थे। किसान भक्त से उस चोर भक्त ने सब पैसे देकर कहा कि मुझे क्षमा करना। आपका उपकार मेरी सात पीढ़ी भी नहीं उतार पाएगी।*

*पुराना भक्त बोला कि हे भाई! यह सब गुरूदेव जी की कृपा है। उनका वचन फला है। आप यह सब रूपये गुरू जी को दान रूप में दो। मेरे को तो उन्होंने पहले ही कई गुणा बैलों की पूंजी दे दी थी। मेरे काम की नहीं। दोनों भक्त गुरू जी के पास गए और सर्व दान राशि चरणों में दख दी। गुरू जी ने भोजन-भण्डारा (लंगर) में लगा दी, सत्संग किया।*

*जय श्री राम*
*सदैव प्रसन्न रहिये*
*जो प्राप्त है-पर्याप्त है*


      *जीवन का शूल : मूल की भूल* 😴

    एक व्यक्ति अपने गुरु के पास गया और बोला- गुरुदेव, दुख से छूटने का कोई उपाय बताइए। शिष्य ने थोड़े शब्दों में बहुत बड़ा प्रश्न किया था। दुखों की दुनिया में जीना लेकिन उसी से मुक्ति का उपाय भी ढूंढना! बहुत मुश्किल प्रश्न था।

 गुरु ने कहा, एक काम करो, जो आदमी सबसे सुखी है, उसके पहने हुए जूते लेकर आओ। फिर मैं तुझे दुख से छूटने का उपाय बता दूंगा।

शिष्य चला गया। एक घर में जाकर पूछा, भाई, तुम तो बहुत सुखी  लगते हो। अपने जूते सिर्फ आज के लिए मुझे दे दो।

उसने कहा, कमाल करते हो भाई! मेरा पड़ोसी इतना बदमाश है कि क्या कहूं? ऐसी स्थिति में मैं सुखी कैसे रह सकता हूं?  मैं तो बहुत दुखी इंसान हूं।

वह दूसरे घर गया। दूसरा बोला, अब क्या कहूँ भाई? सुख की तो बात ही मत करो। मैं तो  पत्नी की वजह से बहुत परेशान हूँ । ऐसी जिंदगी बिताने से तो अच्छा है कि कहीं जाकर साधु बन जाऊँ । सुखी आदमी देखना चाहते हो तो किसी और घर जाओ।

वह तीसरे घर गया, चौथे घर गया। किसी की पत्नी के पास गया तो वह पति को क्रूर  बताती, पति के पास गया तो वह पत्नी को दोषी कहता।
पिता के पास गया तो वह पुत्र को बदमाश बताता। पुत्र के पास गया तो पिता की वजह से खुद को दुखी बताता। सैकड़ों-हजारों घरों के चक्कर लगा आया। सुखी आदमी के जूते मिलना तो दूर खुद के ही जूते घिस गए।

शाम को वह गुरु के पास आया और बोला, मैं तो घूमते-घूमते परेशान हो गया। न तो कोई सुखी मिला और न सुखी आदमी के  जूते।

गुरु ने पूछा, लोग क्यों दुखी हैं? उन्हें किस बात का दुख है?

उसने कहा, किसी का पड़ोसी खराब है। कोई पत्नी से परेशान, कोई पति से दुखी तो कोई पुत्र से परेशान है। आज हर आदमी दूसरे आदमी के कारण दुख भोग रहा है।

गुरु ने बताया, सुख का सूत्र है - दूसरे की ओर नहीं, बल्कि अपनी ओर देखो। खुद में झांको। खुद की काबिलियत पर गौर करो। प्रतिस्पर्द्धा करनी है तो खुद से करो, दूसरों से नहीं।
 जीवन तुम्हारी यात्रा है। दूसरों को देखकर अपने रास्ते मत बदलो। खुद को सुनो, खुद को देखो। यही सुख का सूत्र है।

शिष्य बोला, महाराज, बात तो आपकी सत्य है, लेकिन यही आप मुझे सुबह भी बता सकते थे। फिर इतनी परिक्रमा क्यों करवाई?

गुरु ने कहा, वत्स, सत्य दुष्पाच्य होता है। वह सीधा नहीं पचता। अगर यह बात मैं सुबह बता देता तो तू हर्गिज नहीं मानता।
 जब स्वयं अनुभव कर लिया, सबकी परिक्रमा कर ली, सबके चक्कर लगा लिए, तो बात समझ में आ गई। अब ये बात तुम पूरे जीवन में नहीं भूलोगे।
_(जीवन तुम्हारी यात्रा है। दूसरों को देखकर अपने रास्ते मत बदलो।)_


       सेवा का अपना तरीका*


मैं ऑफिस बस से ही आती जाती हूँ । ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा हैं । उस दिन भी बस काफ़ी देर से आई, लगभग आधे-पौन घंटे बाद । खड़े-खड़े पैर दुखने लगे थे । पर चलो शुक्र था कि बस मिल गई । देर से आने के कारण भी और पहले से ही बस काफी भरी हुई थी ।

बस में चढ़ कर मैंनें चारों तरफ नज़र दौडाई तो पाया कि सभी सीटें भर चुकी थी । उम्मीद की कोई किरण नज़र नही आई ।

 तभी एक मजदूरन ने मुझे आवाज़ लगाकर अपनी सीट देते हुए कहा, "मैडम आप यहां बैठ जाये ।" मैंनें उसे धन्यवाद देते हुए उस सीट पर बैठकर राहत को सांस ली । वो महिला मेरे साथ बस स्टांप पर खड़ी थी तब मैंने उस पर ध्यान नही दिया था ।

कुछ देर बाद मेरे पास वाली सीट खाली हुई, तो मैंने उसे बैठने का इशारा किया । तब उसने एक महिला को उस सीट पर बिठा दिया जिसकी गोद में एक छोटा बच्चा था ।

वो मजदूरन भीड़ की धक्का-मुक्की सहते हुए एक पोल को पकड़कर खड़ी थी । थोड़ी देर बाद बच्चे वाली औरत अपने गन्तव्य पर उतर गई ।

इस बार वही सीट एक बुजुर्ग को दे दी, जो लम्बे समय से बस में खड़े थे । मुझे आश्चर्य हुआ कि हम दिन-रात बस की सीट के लिये लड़ते है और ये सीट मिलती है और दूसरे को दे देती हैं ।

कुछ देर बाद वो बुजुर्ग भी अपने स्टांप पर उतर गए, तब वो सीट पर बैठी । मुझसे रहा नही गया, तो उससे पूछ बैठी,

 "तुम्हें तो सीट मिल गई थी एक या दो बार नही, बल्कि तीन बार, फिर भी तुमने सीट क्यों छोड़ी ? तुम दिन भर ईट-गारा ढोती हो, आराम की जरूरत तो तुम्हें भी होगी, फिर क्यो नही बैठी ?

मेरी इस बात का जवाब उसने दिया उसकी उम्मीद मैंने कभी नही की थी । उसने कहा, *"मैं भी थकती हूँ । आप से पहले से स्टांप पर खड़ी थी, मेरे भी पैरों में दर्द होने लगा था । जब मैं बस में चढ़ी थी तब यही सीट खाली थी । मैंने देखा आपके पैरों में तकलीफ होने के कारण आप धीरे-धीरे बस में चढ़ी । ऐसे में आप कैसे खड़ी रहती इसलिये मैंने आपको सीट दी । उस बच्चे वाली महिला को सीट इसलिये दी उसकी गोद में छोटा बच्चा था जो बहुत देर से रो रहा था । उसने सीट पर बैठते ही सुकून महसूस किया । बुजुर्ग के खड़े रहते मैं कैसे बैठती, सो उन्हें दे दी । मैंने उन्हें सीट देकर ढेरों आशर्वाद पाए । कुछ देर का सफर है मैडम जी, सीट के लिये क्या लड़ना । वैसे भी सीट को बस में ही छोड़ कर जाना हैं, घर तो नहीं ले जाना ना । मैं ठहरी ईट-गारा ढोने वाली, मेरे पास क्या हैं, न दान करने लायक धन हैं, न कोई पुण्य कमाने लायक करने को कुछ । रास्ते से कचरा हटा देती हूं, रास्ते के पत्थर बटोर देती हूं, कभी कोई पौधा लगा देती हूं । यहां बस में अपनी सीट दे देती हूं । यही है मेंरे पास, यही करना मुझे आता है ।"* वो तो मुस्करा कर चली गई पर मुझे आत्ममंथन करने को मजबूर कर गई ।

मुझे उसकी बातों से एक सीख मिली कि *हम बड़ा कुछ नही कर सकते  तो समाज में एक छोटा सा, नगण्य दिखने वाला कार्य तो कर सकते हैं ।*

मुझे लगा ये मज़दूर महिला उन लोगों के लिये सबक हैं जो आयकर बचाने के लिए अपनी काली कमाई को दान के नाम पर खपाते हैं, या फिर वो लोग जिनके पास पर्याप्त पैसा होते हुए भी गरीबी का रोना रोते हैं । इस समाजसेवा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं परन्तु इन छोटी-छोटी बातों पर कभी ध्यान नहीं देते ।

 मैंने मन ही मन उस महिला को नमन किया तथा उससे सीख ली *यदि हमें समाज के लिए कुछ करना हो, तो वो दिखावे के लिए न किया जाए बल्कि खुद की संतुष्टि के लिए हो ।*

सदैव प्रसन्न रहिये.....।।।।।।।।।।।।

       
 ईश्वर से बड़ा कोई हुआ नहीं, है नहीं, हो सकता नहीं, होना संभव ही नहीं । वह ईश्वर हमारे परम पिता है । ईश्वर अंश जीव अविनाशी। और चेतन है,  अमल है,  सहज सुख राशि ।  तो हमारे पिता का राज्य है, सब जगह । सदा ही उनके राज्य में रहते हैं । उनका ही प्रसाद पाते हैं।  उनके दिए प्रसाद से  पालन करते हैं ।  सब हृदय में यह भाव रख लें कि हम भगवान के हैं ।  भगवान के ही बने रहे । शक्तिमान का आश्रय लेने से शक्तिमान का सहारा आता है । उनका महत्व समझें ।  गीता रामायण आदि में उनका महत्व है, उसको समझे ।  खूब उत्साह से भगवान के भजन में लग जाए  ।

हम भगवान के हैं । भगवान के दरबार में रहते हैं ।  भगवान का काम करते हैं । भगवान  का प्रसाद पाते हैं और भगवान के प्रसाद से ही भगवान के जनों की सेवा करते हैं । उनके भजन में, उनके भाव के प्रचार में खूब उत्साह से लगना चाहिए । यहां का सत्संग का आश्रय लेने का तात्पर्य है कि भगवान की तरफ चलना है । भगवान के यहां साधन और साध्य एक ही है । भगवान का आश्रय लेकर ही चलें । प्रापनीय  परमात्मा है और साधन भी परमात्मा है ।  भगवान का आश्रय । एक आसरो, एक बल, एक आश, विश्वास । एक रामजी के ही हैं हम । एक विश्वास रखो ।  एक भगवान के हैं हम । उसका आश्रय । उसी का विश्वास । आश्रय उसी का ही । उसकी तरफ चलना है  । हमारे बहुत बढ़िया दिन आ गया । एक भगवान की तरफ चलना है ।

एक आसरो, एक बल, एक आश, विश्वास ।
 एक राम घनश्याम हित, चातक तुलसीदास ।

हे नाथ आपको भूलूं नहीं बस । भगवान की स्मृति संपूर्ण विपत्तियों का नाश करने वाली है । शरणागति को भगवान ने सर्व गुह्यतम कहा है । सबसे गुप्त कहा है । मामेकं शरणं व्रज । एक प्रभु के चरणों के शरण हो जाए । उनका आश्रम लेकर ही चलना है । हे नाथ !  हे नाथ ! भगवान का आश्रय लेने वाले सब जान जाते हैं । इस वास्ते भगवान के चरणों का आश्रय । बुद्धि योग मैं देता हूं । ज्ञान भी देता हूं । ज्ञान रूपी दीपक से अज्ञान दूर हो जाता है । और भक्ति आ जाती है । भक्ति आलौकिक है।  सबसे बढ़िया बात, धर्मों का त्याग नहीं है, धर्म के आश्रय का त्याग।  भगवान के चरणों से कल्याण होगा । आश्रय केवल भगवान की कृपा का है ।  आश्रय केवल भगवान का है ।बड़े उत्साह से भगवान की तरफ चलो।  परमात्मा के चरणों का आश्रय लेकर चलो।  उनसे बड़ा कोई है नहीं, हुआ नहीं, होना संभव नहीं । और भगवान से एक चीज मांगो,  हे नाथ ! मैं आपको भूलूं नहीं । वो अपार शक्ति, अनंत शक्ति, अपने आप आ जाएगी । वो अनंत शक्ति है, भगवान की । इस वास्ते भगवान के चरणों का आश्रय लेकर चलो  । भगवान का आश्रम लेकर चलना । कुंती ने पूछा युधिष्ठिर आदि तेरे भाई दुख पा रहे हैं, तुझे दया नहीं आती । (भगवान कहते हैं) युधिष्ठिर ने सब को दाव पर लगाया, खुद को भी दाव पर लगा दिया, द्रोपदी को भी दाव पर लगा दिया, पर मेरे को याद ही नहीं किया । हे नाथ !  हे नाथ !  हरदम ये पुकारो ।

सब मम प्रिय, सब मम उपजाए ।

 भगवान के चरणों का आश्रय है ।  उससे बढ़कर कोई आश्रय नहीं है । मानो कर्म मार्ग भी पूरा हो जाता है,  ज्ञान मार्ग भी पूरा हो जाता है,  भगवान की कृपा से।  सीता जी की खोज की बात कह रहे है। हनुमान जी को याद दिलाया तो याद आ गई । और कहते कहते गदगद हो रहे है । सब काम हो गए । सब काम भगवान की कृपा से । ऐसे भगवान के चरणों का आश्रय लो भाई,  सब काम ठीक हो जाएगा ।

*नारायण नारायण नारायण नारायण*।।।।।


      -घमंड और साधना ----*



*कबीर जी गांव के बाहर झोंपड़ी बनाकर अपने पुत्र कमाल के साथ रहते थे। कबीर जी का रोज का नियम था, कि वे नदी में स्नान करने के बाद गांव के सभी मंदिरों में जल चढ़ाकर दोपहर बाद भजन को बैठते और फिर शाम को देर से घर लौटते।*

*कबीर जी अपने नित्य नियम से गांव में निकले थे। इधर पास के गांव के जमींदार का एक ही जवान लड़का था जो रात को अचानक मर गया। रात भर रोना-धोना चला। आखिर में किसी ने सुझाया कि गांव के बाहर जो बाबा (कबीर जी) रहते हैं उनके पास ले चलो, शायद वे कुछ कर दें।*
*सब तैयार हो गए और लाश को लेकर कुटिया पर पहुंचे, तो देखा कि बाबा तो हैं नहीं, अब क्या करें?*
*तभी कमाल आ गए। उनसे पूछा- बाबा कब तक आएंगे?*

*कमाल ने बताया- अब उनकी उम्र हो गई है, और सब मंदिरों के दर्शन करके लौटते-लौटते उन्हें रात हो जाती है। आप काम बोलो, क्या है?*

*लोगों ने लड़के के मरने की बात बता दी। कमाल ने सोचा, यदि कोई बीमारी होती तो ठीक था पर ये तो मर गया है। अब क्या करें? फिर भी सोचकर बोला- लाओ! कुछ करके देखते हैं, शायद बात बन जाए।*
*फिर कमाल ने कमंडल उठाया, लाश की तीन परिक्रमा की, फिर कमंडल में से तीन बार गंगा जल का छींटा मारा और तीनों बार राम नाम का उच्चारण किया, और वो लड़का देखते ही देखते उठकर खड़ा हो गया।*
*लोगों की खुशी की सीमा न रही।*

*इधर कबीर जी को किसी ने बताया कि आपकी कुटिया की ओर पास के गांव के जमींदार और बहुत सारे लोग गए हैं।* *कबीर जी झटकते कदमों से बढ़ने लगे। उन्हें रास्ते में ही लोग नाचते-कूदते मिले, मगर कबीर जी कुछ भी समझ नहीं पाए। घर आकर कमाल से पूछा- क्या बात हुई है?*

*तो कमाल तो कुछ और ही बताने लगा, वो बोला- पिता जी! बहुत दिनों से आप बोल रहे थे ना कि तीर्थ यात्रा पर जाना है, तो अब आप जाओ और यहां पर मैं सब कुछ संभाल लूंगा।*

*कबीर जी ने पूछा- क्या संभाल लेगा?*

*कमाल बोला- बस यही, मरे को जिंदा करना और बीमार को ठीक करना, ये सब तो अब मैं ही कर लूंगा। अब आप जब तक आपकी इच्छा हो, यात्रा पर जाओ।*

*कबीर जी ने मन ही मन सोचा कि कमाल को सिद्धि तो प्राप्त हो गई है, पर सिद्धि के साथ-साथ इसे घमंड भी आ गया है। पहले तो इसका ही इलाज करना पड़ेगा और फिर बाद में तीर्थ यात्रा होगी, क्योंकी साधक में घमंड आया तो साधना समाप्त हो जाती है।*
*फिर कबीर जी ने कहा- ठीक है, आने वाली पूर्णमासी को एक भजन का आयोजन करके फिर निकल जाऊंगा यात्रा पर और तब तक तुम आस-पास के दो-चार संतों को मेरी चिट्ठी जाकर दे आओ और भजन में आने का निमंत्रण भी दे देना।*
*कबीर जी ने चिट्ठी मे लिखा था-*
*---कमाल भयो कपूत ---*
*---कबीर को कुल गयो डूब ---*

*कमाल चिट्ठी लेकर एक संत के पास गया और उनको चिट्ठी दी। चिट्ठी पढ़कर वे संत समझ गए और फिर उन्होंने कमाल का मन टटोला और पूछा- अचानक ये भजन के आयोजन का विचार कैसे हुआ?*

*कमाल ने अहंकार के साथ बताया- कुछ नहीं, पिता जी की लंबे समय से तीर्थ पर जाने की इच्छा थी और अब मैं सब कुछ कर ही लेता हूं तो मैंने उन्हें कहा कि अब आप जाओ और यात्रा कर आओ, तो वे जा रहे हैं और जाने से पहले भजन का आयोजन है।*

*संत चिट्ठी में लिखे उस दोहे का अर्थ समझ गए और फिर उन्होंने कमाल से पूछा- तुम क्या-क्या कर लेते हो?*

*तो कमाल बोला- वही, मरे को जिंदा करना और बीमार को ठीक करना आदि जैसे काम।*

*संत ने कहा- आज रूको, और शाम को यहां भी थोड़ा-बहुत चमत्कार दिखा दो।*
*फिर उन्होंने गांव में खबर करवा दी और थोड़ी देर में ही अलग-अलग प्रकार की बिमारियों वाले दो-तीन सौ लोगों की लाईन लग गई। संत ने कमाल से कहा- चलो! इन सबकी बीमारी को ठीक कर दो।*

*कमाल तो ये सब देखकर चौंक गया और बोला- अरे! इतने सारे लोग हैं और इतने लोगों को मैं ‍कैसे ठीक करूं, ये तो मेरे बस का नहीं है।*

*संत ने कहा- कोई बात नहीं! अब ये सब आए हैं तो निराश लौटाना ठीक नहीं है। तुम बैठो।और फिर संत ने लोटे में जल लिया और राम नाम का एक बार उच्चारण करके छींट दिया, और फिर एक लाईन में खड़े सभी लोग ठीक हो गए। फिर दूसरी लाइन पर छींटा मारा, वे सब भी ठीक हो गए।*
*उन्होंने सिर्फ दो बार जल के छींटे मारे और दो बार राम बोला तो सभी ठीक होकर चले गए। फिर संत ने कहा- अच्छी बात है कमाल! हम भजन में आएंगे। पास के गांव में एक सूरदास जी रहते हैं, उनको भी जाकर बुला लाओ फिर सभी इकट्ठे होकर चलते हैं भजन में।*

*कमाल चल दिया सूरदास जी को बुलाने और सारे रास्ते सोचता रहा, कि ये कैसे हुआ कि एक बार राम कहते ही इतने सारे बीमार लोग ठीक हो गए। मैंने तो तीन बार परिक्रमा की, तीन बार गंगाजल छिड़ककर तीन बार राम नाम लिया था, तब जाकर बात बनी। और यही सब सोचते-सोचते कमाल, सूरदास जी की कुटिया पर पहुंच गया। जाकर सब बात बताई कि क्यों आना हुआ।*

*कमाल सुना ही रहा था कि इतने में सूरदास जी बोले- बेटा! जल्दी से दौड़ के जा, उस टेकड़ी के पीछे नदी में कोई बहा जा रहा है, जल्दी से उसे बचा ले।*

*कमाल दौड़कर गया। टेकड़ी के ऊपर से देखा कि नदी में एक लड़का बहा आ रहा है, तो कमाल नदी में कूद गया और उस लड़के को बाहर निकालकर अपनी पीठ के ऊपर लादकर सूरदास जी की कुटिया की तरफ चलने लगा। चलते- चलते उसे विचार आया, कि अरे! सूरदास जी तो अंधे हैं, फिर उन्हें नदी और उसमें बहता लड़का कैसे दिख गया? उसका दिमाग सुन्न हो गया था। लड़के को भूमि पर रखा तो देखा कि वो लड़का मर चुका था।*
*कुटिया पहुंचकर जैसे ही सूरदास जी ने जल का छींटा मारा और कहा- रा, तब तक वो लड़का उठकर चल दिया।*
*अब तो कमाल अचंभित, कि अरे! इन्होंने तो पूरा राम भी नहीं बोला, और सिर्फ रा बोलते ही वो लड़का जिंदा हो गया।*
*तब कमाल ने वो चिट्ठी खोलकर खुद पढ़ी, कि इसमें क्या लिखा है। और जब उसने पढ़ा तो सब कुछ उसकी समझ में आ गया।*
*वापस आकर कबीर जी से बोला- पिता जी! संसार में एक से एक सिद्ध हैं और उनके आगे तो मैं कुछ भी नहीं हूं। आप तो यहीं रहिए और अभी मुझे जाकर भ्रमण करके बहुत कुछ सीखने-समझने की जरूरत है।*

*------ तात्पर्य ------*
*हमें गुरू की कृपा से सिद्धियां मिलती हैं, और उनका आशीर्वाद होता है तो साक्षात ईश्वर भी हमारे साथ खड़े होते हैं।*
*गुरू, गुरू ही रहेंगे, वो शिष्य के मन के सारे भाव पढ़ लेते हैं और फिर मार्गदर्शक बनकर उन्हें पतन से बचाते हैं।*


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 ।। 99 का चक्कर।।

प्राचीनकाल की बात है । एक गांव में तीरथ नाम का कुम्हार रहता था । वह जितना कमाता था, उससे उसका घर खर्च आसानी से चल जाता था । उसे अधिक धन की चाह नहीं थी । वह सोचता था कि उसे अधिक कमा कर क्या करना है । दोनों वक्त वह पेट भर खाता था, उसी से संतुष्ट था ।

वह दिन भर में ढेरों में बर्तन बनाता, जिन पर उसकी लागत सात-आठ रुपये आती थी । अगले दिन वह उन बर्तनों को बाजार में बेच आता था । जिस पर उसे डेढ़ या दो रुपये बचते थे । इतनी कमाई से ही उसकी रोटी का गुजारा हो जाता था, इस कारण वह मस्त रहता था ।

रोज शाम को तीरथ अपनी बांसुरी लेकर बैठ जाता और घंटों उसे बजाता रहता । इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे । धीरे-धीरे एक दिन आया कि उसका विवाह भी हो गया । उसकी पत्नी का नाम कल्याणी था ।

कल्याणी एक अत्यंत सुघड़ और सुशील लड़की थी । वह पति के साथ पति के काम में खूब हाथ बंटाने लगी । वह घर का काम भी खूब मन लगाकर करती थी । अब तीरथ की कमाई पहले से बढ़ गई । इस कारण दो लोगों का खर्च आसानी से चल जाता था ।

तीरथ और कल्याणी के पड़ोसी यह देखकर जलते थे कि वे दोनों इतने खुश रहते थे । दोनों दिन भर मिलकर काम करते थे । तीरथ पहले की तरह शाम को बांसुरी बजाता रहता था । कल्याणी घर के भीतर बैठी कुछ गाती गुनगुनाती रहती थी ।

एक दिन कल्याणी तीरथ से बोली कि तुम जितना भी कमाते हो वह रोज खर्च हो जाता है । हमें अपनी कमाई से कुछ न कुछ बचाना अवश्य है ।

इस पर तीरथ बोला - "हमें ज्यादा कमा कर क्या करना है ? ईश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं । चाहे छोटी ही सही, हमारा अपना घर है । दोनों वक्त हम पेट भर कर खाते हैं, और हमें क्या चाहिए ?"

इस पर कल्याणी बोली - "मैं जानती हूं कि ईश्वर का दिया हमारे पास सब कुछ है और मैं इसमें खूब खुश भी हूं । परन्तु आड़े वक्त के लिए भी हमें कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहिए ।"

तीरथ को कल्याणी की बात ठीक लगी और दोनों पहले से अधिक मेहनत करने लगे । कल्याणी सुबह 4 बजे उठकर काम में लग जाती । तीरथ भी रात देर तक काम करता रहता । लेकिन फिर भी दोनों अधिक बचत न कर पाते । अत: दोनों ने फैसला किया कि इस तरह अपना सुख-चैन खोना उचित नहीं है और वे पहले की तरह मस्त रहने लगे ।

एक दिन तीरथ बर्तन बेचकर बाजार से घर लौट रहा था । शाम ढल चुकी थी । वह थके पैरों खेतों से गुजर रहा था कि अचानक उसकी निगाह एक लाल मखमली थैली पर गई । उसने उसे उठाकर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । थैली में चांदी के सिक्के भरे थे ।

तीरथ ने सोचा कि यह थैली जरूर किसी की गिर गई है, जिसकी थैली हो उसी को दे देनी चाहिए । उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई । दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दिया । उसने ईश्वर का दिया इनाम समझकर उस थैली को उठा लिया और घर ले आया ।
घर आकर तीरथ ने सारा किस्सा कल्याणी को कह सुनाया । कल्याणी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया ।
तीरथ बोला - "तुम कहती थीं कि हमें आड़े समय के लिए कुछ बचाकर रखना चाहिए । सो ईश्वर ने ऐसे आड़े समय के लिए हमें उपहार दिया है ।"
"ऐसा ही लगता है ।" कल्याणी बोली - "हमें गिनकर देखना चाहिए कि ये चांदी के रुपये कितने हैं ।"

दोनों बैठकर रुपये गिनने लगे । पूरे निन्यानवे रुपये थे । दोनों खुश होकर विचार-विमर्श करने लगे । कल्याणी बोली - "इन्हें हमें आड़े समय के लिए उठा कर रख देना चाहिए, फिर कल को हमारा परिवार बढ़ेगा तो खर्चे भी बढ़ेंगे ।"
तीरथ बोला - "पर निन्यानवे की गिनती गलत है, हमें सौ पूरा करना होगा, फिर हम इन्हें बचा कर रखेंगे ।"

कल्याणी ने हां में हां मिलाई । दोनों जानते थे कि चांदी के निन्यानवे रुपये को सौ रुपये करना बहुत कठिन काम है, परंतु फिर भी दोनों ने दृढ़ निश्चय किया कि इसे पूरा करके ही रहेंगे । अब तीरथ और कल्याणी ने दुगुनी-चौगुनी मेहनत से काम करना शुरू कर दिया । तीरथ भी बर्तन बेचने सुबह ही निकल जाता, फिर देर रात तक घर लौटता ।

इस तरह दोनों लोग थक कर चूर हो जाते थे । अब तीरथ थका होने के कारण बांसुरी नहीं बजाता था, न ही कल्याणी खुशी के गीत गाती गुनगुनाती थी । उसे गुनगुनाने की फुरसत ही नहीं थी। न ही वह अड़ोस-पड़ोस या मोहल्ले में कहीं जा पाती थी ।

दिन-रात एक करके दोनों लोग एक-एक पैसा जोड़ रहे थे । इसके लिए उन्होंने दो वक्त के स्थान पर एक भक्त भोजन करना शुरू कर दिया, लेकिन चांदी के सौ रुपये पूरे नहीं हो रहे थे ।

यूं ही तीन महीने बीत गए । तीरथ के पड़ोसी खुसर-फुसर करने लगे कि इनके यहां जरूर कोई परेशानी है, जिसकी वजह से ये दिन-रात काम करते हैं और थके-थके रहते हैं ।

किसी तरह छ: महीने बीतने पर उन्होंने सौ रुपये पूरे कर लिए । अब तक तीरथ और कल्याणी को पैसे जोड़ने का लालच पड़ चुका था । दोनों सोचने लगे कि एक सौ से क्या भला होगा । हमें सौ और जोड़ने चाहिए । अगर सौ रुपये और जुड़ गए तो हम कोई व्यापार शुरू कर देंगे और फिर हमारे दिन सुख से बीतेंगे ।

उन्होंने आगे भी उसी तरह मेहनत जारी रखी । इधर, पड़ोसियों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । एक दिन पड़ोस की रम्मो ने फैसला किया कि वह कल्याणी की परेशानी का कारण जानकर ही रहेगी । वह दोपहर को कल्याणी के घर जा पहुंची । कल्याणी बर्तन बनाने में व्यस्त थी ।

रम्मो ने इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् कल्याणी से पूछ ही लिया - "बहन ! पहले जो तुम रोज शाम को मधुर गीत गुनगुनाती थीं, आजकल तुम्हारा गीत सुनाई नहीं देता ।"

कल्याणी ने 'यूं ही' कहकर बात टालने की कोशिश की और अपने काम में लगी रही । परंतु रम्मो कब मानने वाली थी । वह बात को घुमाकर बोली - "आजकल बहुत थक जाती हो न ? कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर दूं ।"

कल्याणी थकी तो थी ही, प्यार भरे शब्द सुनकर पिघल गई और बोली - "हां बहन, मैं सचमुच बहुत थक जाती हूं, पर क्या करूं हम बड़ी मुश्किल से सौ पूरे कर पाए हैं ।"

"क्या मतलब ?" रम्मो बोली तो कल्याणी ने पूरा किस्सा कह सुनाया । रम्मो बोली - "बहन, तुम दोनों तो गजब के चक्कर में पड़ गए हो, तुम्हें इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए था । यह चक्कर आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता ।"

कल्याणी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा - "तुम किस चक्कर की बात कर रही हो ? मैं कुछ समझी नहीं ।"
"अरी बहन, निन्यानवे का चक्कर ।" रम्मो का जवाब था ।


       

*((((🔱⚜️मृत्यु के साथ रिश्ते मिट जाते हैं⚜️🔱))))*

✍️एक बार देवर्षि नारद अपने शिष्य तुम्बरू के साथ मृत्युलोक का भ्रमण कर रहे थे। गर्मियों के दिन थे। गर्मी की वजह से वह पीपल के पेड़ की छाया में जा बैठे। इतने में एक कसाई वहाँ से २५/३० बकरों को लेकर गुजरा।

उसमें से एक बकरा एक दुकान पर चढ़कर मोठ खाने लपक पड़ा। उस दुकान पर नाम लिखा था - 'शगालचंद सेठ।' दुकानदार का बकरे पर ध्यान जाते ही उसने बकरे के कान पकड़कर दो-चार घूँसे मार दिये। बकरा 'मैंऽऽऽ.... मैैंऽऽऽ...' करने लगा और उसके मुँह में से सारे मोठ गिर गये।

फिर कसाई को बकरा पकड़ाते हुए कहाः "जब इस बकरे को तू हलाल करेगा तो इसकी मुंडी मेरे को देना क्योंकि यह मेरे मोठ खा गया है।" देवर्षि नारद ने जरा-सा ध्यान लगाकर देखा और ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे।

तब तुम्बरू पूछाः "गुरुदेव! आप क्यों हँस रहे हैं? उस बकरे को जब घूँसे पड़ रहे थे तब तो आप दुःखी हो गये थे, किंतु ध्यान करने के बाद आप हँस पड़े। इस हँसी का क्या रहस्य है?"

नारद जी ने कहाः
"छोड़ो भी.... यह तो सब अपने अपने कर्मों का फल है, छोड़ो।"
"नहीं गुरुदेव! कृपा करके बताऐं।"

अच्छा सुनो: "इस दुकान पर जो नाम लिखा है 'शगालचंद सेठ' - वह शगालचंद सेठ स्वयं यह बकरे की योनि में जन्म लेकर आया है; और यह दुकानदार शगालचंद सेठ का ही पुत्र है। सेठ मरकर बकरा बना और इस दुकान से अपना पुराना सम्बन्ध समझकर इस पर मोठ खाने गया।

उसके पूर्व जन्म के बेटे ने उसको मारकर भगा दिया। मैंने देखा कि ३० बकरों में से कोई दुकान पर नहीं गया फिर यह क्यों गया कमबख्त? इसलिए ध्यान करके देखा तो पता चला कि इसका पुराना सम्बंध था।

जिस बेटे के लिए शगालचंद सेठ ने इतनी महेनत की थी, इतना कमाया था, वही बेटा मोठ के चार दाने भी नहीं खाने देता और खा भी लिये हैं तो कसाई से मुंडी माँग रहा है _"अपने ही बाप की"_!

नारदजी कहते हैं; इसलिए कर्म की गति और मनुष्य के मोह पर मुझे हँसी आ रही है। अपने-अपने कर्मों के फल तो प्रत्येक प्राणी को भोगने ही पड़ते हैं और इस जन्म के रिश्ते-नाते मृत्यु के साथ ही मिट जाते हैं, कोई काम नहीं आता, काम आता है तो वह है सिर्फ *भगवान का नाम।*

*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।*
*हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥*

अपने पापों ओर पुण्यों का हिसाब इंसान को खुद ही भोगना है...
इसलिए,, मित्रो...
*_शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त सं किर_*
*सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो मगर हज़ारों हाथों से बांटो।*



कबीर प्रसंग
       
घटना कबीर के जीवन की है।
एक बाजार से कबीर गुजरते हैं। एक बच्चा अपनी मां के साथ बाजार आया है।
मां तो शाक-सब्जी खरीदने में लग गई और बच्चा एक बिल्ली के साथ खेलने में लग गया है।
वह बिल्ली के साथ खेलने में इतना तल्लीन हो गया है कि भूल ही गया कि बाजार में हैं;

 भूल ही गया कि मां का साथ छूट गया है; भूल ही गया कि मां कहां गई।

कबीर बैठे उसे देख रहे हैं। वे भी बाजार आए हैं, अपना जो कुछ कपड़ा वगैरह बुनते हैं, बेचने।
वे देख रहे हैं। उन्होंने देख लिया है कि मां भी साथ थी इसके और वे जानते हैं कि थोड़ी देर में उपद्रव होगा....,

 क्योंकि मां तो बाजार में कहीं चली गई है और बच्चा बिल्ली के साथ तल्लीन हो गया है।

 अचानक बिल्ली न छलांग लगाई। वह एक घर में भाग गई। बच्चे को होश आया। उसने चारों तरफ देखा और जोर से आवाज दी मां को।

*चीख निकल गई।*

 दो घंटे तक खेलता रहा, तब मां की बिल्कुल याद न थी..क्या तुम कहोगे?

*कबीर अपने भक्तों से कहतेः* *ऐसी ही प्रार्थना है,*
 *जब तुम्हें याद आती है और एक चीख निकल जाती है।*

 *कितने दिन खेलते रहे संसार में,*
 *इससे क्या फर्क पड़ता है?*

*जब चीख निकल जाती है,*
*तो प्रार्थना का जन्म हो जाता है।*
*तब कबीर ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा,*
*उसकी मां को खोजने निकले।*

*तब कोई सदगुरु मिल ही जाता है जब तुम्हारी चीख निकल जाती है।*
*जिस दिन तुम्हारी चीख निकलेगी, तुम सदगुरु को कहीं करीब ही पाओगे..*

*कोई फरीद,*
*कोई कबीर,*
*कोई नानक,*
*तुम्हारा हाथ पकड़ लेगा और कहेगा कि हम उसे जानते हैं भलीभांति;*
*हम उस घर तक पहुंच गए हैं, हम तुझे पहुंचा देते हैं।*
         *।। जय सिया राम जी ।।*।।। राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी। राधास्वामी। राधास्वामी। राधास्वामी।।।।




         

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