Friday, September 25, 2020

समय औऱ संतुलन ही आनंद हैं

 'समता ही आनंद है।'

'संतुलन ही सच्ची सुखशांति है।'

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अहम्मन्यता(superiority complex)का सुख पाने के लिये कीमत चुकानी पडती है अपनी समता की,अपनी सहजता,स्वस्थता,संतुलन,सुखशांति की।

मैं श्रेष्ठ हूँ, बडा-ऊंचा-प्रमुख-विशिष्ट हूँ-यह बडा अच्छा लगता है लेकिन है घातक जैसे विषैले मीठे लड्डू।आदमी को इसका पता नहीं होता अतः इसकी इच्छा तथा प्रयास जारी रहते हैं।

यह खंडित स्वयं को और ज्यादा खंडित करने में लग जाना है।स्वयं सदैव पूर्ण है,विशाल है,महान है।इसे जानना चाहिए।

मैं इतने दिनों से यह सब लिख रहा हूं तो इसका गर्व होना स्वाभाविक है।

स्वाभाविक नहीं, अस्वाभाविक है।स्वाभाविक तो यही है कि यह सारा विश्व मेरा हिस्सा है।सब मुझमें समा जाता है।स्वस्थता व्याप्त हो जाती है,कोई अंतरसंघर्ष, अंतर्द्वंद्व नहीं रहता।

यत पिंडे तत ब्रह्मांडे जो पिंड में है,ब्रह्मांड में है।जो ब्रह्मांड में है वह पिंड में है।हर आदमी पूर्ण है।आप मेरा हिस्सा हैं और मुझमें समा जाते हैं।तो आपकी जगह मैं आपका हिस्सा हूँ, मैं आपमें समा जाता हूँ।किसी को हीनता का भाव रखने की जरूरत नहीं।जो जहां है पूर्ण है,केंद्ररुप बाकी सब उसीकी परीधि है उसी पर निर्भर,उसीसे जुडी।

ऐसा अनुभव करनेवाला स्वस्थ हो जाता है।वह किससे संघर्ष करे?ठीक कहा है-

'आत्मा को पा लेने पर जीवन में अहिंसा,प्रेम,करुणा,दया और सेवा अपने आप आ जाते हैं।'

आत्मा के रुप में किसे प्राप्त करना है।स्वयं को प्राप्त हो जाना है।इसकी जरूरत इसलिए पडती है क्योंकि चित्त,हृदय में रहने के बजाय मनबुद्धि में रहता है।वहां भेद ही भेद है।ऐसा आदमी अलगथलग रहता है।हृदय में रहनेवाला सबके साथ होता है।सब जगह आत्मसत्ता एक ही है,अखंड है।उसके अनुभव में स्थित सब जगह एक को अनुभव करता है।समता,सहजता तथा संतुलन की स्थिति यही है।उसके आनंद को बाधा कौन पहुंचा सकता है?वहां दूसरा है भी नहीं।

हम हृदय में स्व में स्थित नहीं हैं,मनबुद्धि में हैं तो फिर 'दूसरा' है,फिर तो अनंत भेद हैं।कोई सुख नहीं है।कुछ लोग बडी महत्वपूर्ण जानकारियां पा लेते हैं।उनकी बुद्धि शक्ति तीव्र होती है।मगर

इससे उनकी पूर्वसंचित वृत्तियाँ शांत नहीं हो जातीं,वे उपस्थित रहती हैं।और जब सक्रिय होती हैं अपना नकारात्मक प्रभाव दर्शाती ही हैं।समता सुख विस्मृत हो जाता है।

सही समझ हृदय में भली प्रकार से स्वस्थ होने में है।

'To be as the self in the heart is supreme wisdom.'

ऐसा आदमी बडे से बडे नकारात्मक माहौल में भी शांत,सहज,स्वस्थ और समझपूर्ण रहता है।उसे डरपोक मानना भूल है।उसके मौन रहने में बडी क्षमता है,गहराई है-तादात्म्य रहित।

हम सबकी यह तादात्म्य समस्या है जिससे इस सत्य को जानने की जगह हम अपने को ही सम्मानित या अपमानित अनुभव करने लगते हैं।

ऐसा कोई तादात्म्य न हो तो स्वतंत्रता अखंड है,अप्रभावित है।

एक जगह ठीक कहा है-

'कभी भी अशिष्टता का जवाब न दें क्योंकि जब लोग आपके प्रति असभ्य होते हैं तो वे यह प्रकट करते हैं कि "वे कौन हैं",न कि आप कौन हैं।

उसे व्यक्तिगत रुप से न लें।

और ऐसे में मौन रहना सबसे अच्छा है।'

दूसरे को निमित्त बनाकर वे स्वयं को ही कुचलते हैं और उसीके आधार पर अहम्मन्यता का भव्य भवन निर्माण करने में लगे रहते हैं।

दूसरों से स्वयं को श्रेष्ठ मानना, स्वयं से स्वयं को श्रेष्ठ मानना है।वे मनोरोगी हैं।टुकडों में बंटे है।

भ्रम से उन्हें लगता है दूसरे हैं और वे सभी लोग उनकी तुलना में बहुत नीचे हैं,तुच्छ हैं।

यह विचार उनकी हीनता को दर्शाता है।हीनता को वे श्रेष्ठता का आधार बना लेते हैं।अब अगर कोई नकारात्मक विचार का उपयोग सकारात्मक की तरह करे तो क्या होगा?मगर सब जगह यही हो रहा है।सकारात्मक का ही उपयोग सकारात्मक की तरह करे तो ठीक है।अंधेरे की जगह अंधेरा,उजाले की जगह उजाला।दोनों को एक नहीं किया जा सकता।

कुछ लोगों को संशय रहता है कि सम,सहज,शांत रहने से तो लोग हमारे सीधेपन का फायदा उठायेंगे।

यह वैसा ही तर्क है जैसे किसीको लगता है प्रेमपूर्ण हृदय को मूर्ख बनाया जा सकता है,उसका फायदा उठाया जा सकता है।

यह सब भ्रांति है।उन्हें प्रज्ञाशक्ति का कुछ पता नहीं है।सत्संग अर्थात् सत्य जिससे जुडा है वह भोला,सीधासादा कैसे हो सकता है,महान समझ होती है उसमें।

यह बात और है कि भोले, सीधेसादे लोग भी होते हैं।यह भी संभव है वे शीघ्र ही अपने ढंग से सत्य को पा लें,सत्य के अनुग्रह से।

उन्हें समझना होगा।

उनके प्रति अलग समझपूर्ण व्यवहार होगा।उनका आदर,उनसे प्रेम करना होगा।ऐसे लोग मिलते ही कहां हैं!ज्यादातर लोग बुद्धि का इस्तेमाल करनेवाले ही मिलते हैं।ऐसी बुद्धि जो मन से जुडी है बजाय हृदय से जुडने के।हृदय से जुडी बुद्धि बुद्धि कहलाने योग्य है-सद् बुद्धि जिसे कहते है।गायत्री मंत्र में परमात्मा से उसी सद्बुद्धि की प्रेरणा देने के लिये कहा गया है।

मन से जुडी बुद्धि पर मन का अधिकार होता है,हृदय से जुडी बुद्धि पर हृदय का।

सद् बुद्धि हृदय स्वयं है ।इसलिए कहते हैं हृदय की अपनी समझ है- व्यापक,विशाल,निस्वार्थ।

प्रज्ञा जिसे कहा है।

मन की अपनी क्या समझ है?मन तो सोचता ही मैं मेरा की दृष्टि से है और वह बुद्धि को सीमित, संकुचित करता है।

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