Tuesday, September 29, 2020

दयालबाग़ शाम सत्संग

 **राधास्वामी!! 29-09-2020- 

आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:-     

                               

 (1) संत बचन हिरदे में धरना। उनसे मुख मोडन नहिं करना।। अभ्यासी को कहे पुकारी। शब्द सुनों आओ सरन हमारी।।-(वही हकीम वही उस्ताद। हिये में सुनत रहो उन नाद।।) (प्रेमबानी-3-अशआर सतगुरु महिमा-पृ.सं.382-383)                                                     

(2) अचरज भाग जगा मेरा प्यारी, (मोहि) नाम दिया गुरु दाना री। जनम जनम की तृषा बुझानी, पी पी अमी अघाना री।।टेक।। अस गुरु नाम पाय जिय मोरा, निसदिन रहे बिगसानि री। कहन सुनन में कैसे लाऊँ, अचरज मिला खजाना री।।४।। (प्रेमबिलास-शब्द-63, पृ.सं.82)                                                              

   (3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।।        🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


**राधास्वामी!!                                       

29-09 -2020- आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन


कल से आगे-( 122 ) का शेष भाग :-एक समय था कि शासन ने तुम्हें इन भोगों के हटात् वंचित कर रक्खा था और अब तुम्हें उनके भोगने के लिए पूरी स्वतंत्रता प्राप्त हो गई है।  सो, तुम उन्हें भोग रहे हो और प्रसन्न हो। परंतु कंकडी निगलते समय वह राजहंस भी प्रसन्न होता था। थोड़े समय के अनन्तर अवश्य उदर- पीड़ा से ग्रस्त होंगे। मन का स्वभाव है कि संसार के भोग प्राप्त न होने पर उनके लिए तड़पता है और जब वह किसी मात्रा में प्राप्त हो जाते हैं तो आनंदित होता है । 

किंतु कुछ काल के अनन्तर उसकी तृष्णा बढ़ जाती है और वह अधिक मात्रा के लिए तडपने लगता है। वह भी प्राप्त हो जाने पर और अधिक मात्रा के लिए व्याकुल होता है।  किंबहुना, उसकी तृष्णा की कोई सीमा नहीं। यही तृष्णा थी कि जिसने तुम्हारे शासको को इतना अत्याचारी और स्वार्थपरक बनाया। यही तृष्णा है जो तुम्हें मजहब और खुदा अर्थात धर्म और ईश्वर से परांगमुख कर रही है। इतना आगे चलकर तुम्हारा मान-मर्दन करेगी। 

जोकि इस तृष्णा में एक प्रकार का रसास्वाद है इसलिए मनुष्य को यह प्रिय होती है। जब तक मनुष्य को संसार के पदार्थों से श्रेयतर सुख और तृष्णा से प्रशस्यतर सास्वाद प्राप्त न हो वह इन्ही में लिप्त रहकर दुख और निरादर सहता है। यही हाल तुम्हारा है। सच्चा मजहब इनके मुकाबले आध्यात्मिक आनंद और प्रेम प्रदान करता है।

 तुम 5 मिनट के लिए अपनी चित्त-वृति संसार के पदार्थों से हटा कर अंतर्मुख करो और 10 मिनट के लिए तृष्णा से हटकर उसे प्रेम में लगाओ और देखो कि दोनों में कितना अंतर है। अंतरी आध्यात्मिक आनंद का लेशमात्र अनुभव होते ही और प्रेम के अंग की झलक आते ही तुम्हें निश्चय हो जायेगा कि किस दिशा में चलने से तुम्हारी हार्दिक इच्छा पूर्ण हो सकती है।

 जो मार्ग संसार अर्थात मन और इंद्रियों के भोग के स्थान से चलकर उस स्थान पर पहुंचता है जहां तुम्हारी और मनुष्य -मात्र की मनःकामना पूर्ण हो सकती है--              

【 वही मजहब या धर्म है】 

                                           

 उसके अस्तित्व में नास्तिकभाव लाना अपनी एक उचित और स्वाभाविक कामना में नास्तिकभाव लाना है और उस उचित और स्वभाविक कामना में नास्तिकभाव लाना अपने को नर्क का कीड़ा मानना है।।    

                         

  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻

 यथार्थ प्रकाश- भाग पहला-

 परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**


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