Friday, September 25, 2020

सुख की मांग?

 *जो भी कर रहे हो, उसे सुख से करो, सुख को मांगो मत।*

सुख में जीना, सुख मांगना मत। जो भी हो, उसमें खोज करना कि सुख कहां मिल सकता है, कैसे मिल सकता है। तब एक रूखी सूखी रोटी भी सुख दे सकती है, अगर तुम्हें लेने का पता है। तब साधारण सा जल भी गहरी तृप्ति बन सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। तब एक वृक्ष की साधारण छाया भी महलों को मात कर सकती है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। तब पक्षियों के सुबह के गीत, या सुबह सूरज का उगना, या रात आकाश में तारों का फैल जाना, या हवा का एक झोंका भी गहन सुख की वर्षा कर सकता है, अगर तुम्हें सुख लेने का पता है। सुख मांगना मत और सुख में जीना। मांगा कि तुमने दुख में जीना शुरू कर दिया।

अपने चारों तरफ तलाश करना कि सुख कहां है? सुख है। और कितना मैं पी सकूं कि एक भी क्षण व्यर्थ न चला जाए, और एक भी क्षण रिक्त न चला जाए, निचोड़ लूं। जहां से भी, जैसा भी सुख मिल सके, उसे निचोड़ लूं। तो तुम जब पानी पीयो, जब तुम भोजन करो, जब तुम राह पर चलो, या बैठ कर वृक्ष के नीचे सिर्फ सांस लो, तब भी सुख में जीना। सुख को जीने की कला बनाना, वासना की मांग नहीं।

इतना सुख है कि तुम समेट भी न पाओगे। इतना सुख है कि तुम्हारी सब झोलिया छोटी पड़ जाएंगी। इतना सुख है कि तुम्हारे हृदय के बाहर बाढ़ आ जाएगी। और न केवल तुम सुखी हो जाओगे, बल्कि तुम्हारे पास भी जो बैठेगा, वह भी तुम्हारे सुख की छाया से, वह भी तुम्हारे सुख के नृत्य से आंदोलित हो उठेगा। तुम जहां जाओगे, तुम्हारे चारों तरफ सुख का एक वातावरण चलने लगेगा। तुम जिसे छुओगे, वहां सुख का संस्पर्श हो जाएगा। तुम जिसकी तरफ देखोगे, वहां सुख के फूल खिलने लगेंगे। तुम्हारे भीतर इतना सुख होगा कि तुम उसे बांट भी सकोगे। वह बंटने ही लगेगा।

सुख अपने आप ही बंटने लगता है। वह तुम्हारे चारों तरफ फैलने लगेगा। सुख की तरंगें तुमसे उठने लगेंगी, और सुख के गीत तुमसे झरने लगेंगे। लेकिन सुख मांग नहीं है, सुख जीने का एक ढंग है।"

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यह "मैं" है जिसके लिये सुख की मांग उठती है,जो बडे बल्कि घोर दुख का कारण बन जाता है।

ठीक यही "मैं" परम सुख का द्वार बन सकता है यदि इसे जान लिया जाय।

"If you stay as the 'I',your being alone, without thought , the I-thought will disappear and the delusion will vanish forever."

सिर्फ "मैं" बने रहें जो आपको लगता है आप हैं।कोई शब्द नहीं, कोई विचार नहीं अतः कोई स्मृति नहीं, सिर्फ "मैं"।

आप "मैं" बने रहें तो आप पायेंगे आप स्वतः अपनी गहराई में उतरने लगे हैं।

अगर "मैं" का संबंध किसी शब्द,विचार,मान्यता से हुआ तो "मैं" अकेला नहीं हो पायेगा।अकेला "मैं" ही आत्मा(सेल्फ),अस्तित्व, ईश्वर की गहराई में जा पाता है और मिट पाता है या स्व में स्थित हो पाता है।आधारभूत सुख तब संभव है।यह अपने स्रोत को पा लेना है।या स्रोत को समर्पित हो जाना है।

यह प्रक्रिया या विधि जो कहें बहुत सरल है।आपको सिर्फ "मैं" ही बने रह सकना है जो आप हैं।

मैं विचार है या अनुभव है?इस प्रक्रिया में नहीं जाना है वर्ना फिर से विचार शुरू हो जायेंगे।केवल और केवल मैं,पूरी तरह से अकेला मैं।आगेपीछे दूसरा और कोई शब्द नहीं।तब यह गहरे में,अस्तित्व बोध में उतरना शुरु होता है।

"छिपा है परमात्मा तुम्हारे ही भीतर।उतरो थोडा।थोडे गहरे उतरो।जहां लहरें नहीं, जहां शब्द नहीं-जहां मौन है।जहां परम मौन मुखर है।जहां केवल मौन ही गूंजता है।"

केवल "मैं" इतना महत्वपूर्ण क्यों है इसके कारण का पता लगाया जा सकता है यद्यपि कारणों का पता लगाने की वृत्ति बाधक है।इससे आदमी को जो करना चाहिए उसे छोडकर वह बौद्धिकता में उलझकर रह जाता है।

एकोहं बहुस्याम्-परमात्मा एक से अनेक हुआ है।

हृदय में स्वयं है,मन में "मैं" है अत: " मैं",हृदय में स्वयं से या स्रोत से जुडा हुआ है।वह सदा जुडा है,कभी टूटता नहीं।

यह तो "मैं" के अन्य बातों से,विचारों से संबंधित बने रहने के कारण इसका पता नहीं चलता।"मैं" के अकेला होते ही यह हृदय में स्व से जुडा अनुभव होने लगता है।

यह ज्ञात रहे तो आदमी इस प्रक्रिया से स्वतः स्वस्थ होने लगता है।

वह कहे-'दूसरों' से ध्यान हटता ही नहीं तो उसे चाहिए वह जो भी देखे,बिना शब्दों के देखे, बिना शब्दीकृत किये देखे।वह जो भी अनुभव करे,बिना विचारों के(विचारों के पर्दे के)अनुभव करे सीधा।

विचार माया का छल बडा भ्रामक है।एक में से दूसरा,दूसरे में से तीसरा विचार निकल निकल कर आता रहता है।संबंध बनते चले जाते हैं।उनसे तादात्म्य होने के कारण सब सच मालूम होता है।यह धोखा है।

इस धोखे में रहकर ही फिर सुख की खोज की जाती है।

नहीं मिल सकता।

अतः मैं के लिये सुख खोजने से बेहतर है मैं को ही सुख का निमित्त बना लेना।निमित्त मात्रं भव सव्यसाचीन्।

आप केवल "मैं" बने रहें,बाकी सब अपने आप बन जायेगा।

ममैवांशो-मैं रुप में ईश्वर ही ईश्वर अंश बना हुआ है,सागर ही लहर बना हुआ है मगर सीमाओं से आवृत्त है।

है तब भी कोई बात नहीं।लहर यदि सबको भूल सके तो वह तत्काल सागर से जुडी अनुभव हो सकती है हृदय में।वही उसका सच्चा मुकाम है।उसीके लिये संतों ने गाया है-हंसा सुध कर अपनो देसा।यहां आये तेरी सुध बिसरी आय फंस्यो परदेसा।हंसा सुध कर अपनो देसा।

इसके लिये गीता ने कहा-

'तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।'

कहीं हृदय में आत्मा(सेल्फ)से जुडने की बात है,कहीं परमात्मा से जुडने की।यह योग स्वत:सिद्ध है यदि आप सिर्फ अहंकार बने रह सकें।तब अहंकार परम मित्र है।वह स्रोत से जोडनेवाला है इसलिए।अहंकार अकेला होना चाहिए।

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